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भारतीय प्रशासन में विविधज्ञों एवं विशेषज्ञों की भूमिका

भारतीय प्रशासन में विविधज्ञों एवं विशेषज्ञों की भूमिका

स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् देश के सामाजिक-आर्थिक उद्देश्यों में आमूलचूल परिवर्तन हो गया है और प्रौद्योगिकीय विकास ने हमारे समक्ष अनेक नयी चुनौतियाँ और जटिल समस्याएँ उत्पन्न कर दी हैं। इसी परिप्रेक्ष्य में हमारे देश का प्रशासनिक ढाँचा विवाद और चर्चा का विषय बना हुआ है। खासतौर से विचारणीय प्रश्न यह रहा है कि हमारी विकासोन्मुख व्यवस्था में ‘विविधज्ञ प्रशासक’ (Generalist Administrator) तथा ‘विशेषज्ञ परामर्शदाता’ (Specialist or Technocrat) की क्या भूमिका और स्थान हो? विविधज्ञ प्रशासकों की सर्वोपरिता बनी रहे अथवा विशेषज्ञों की ज्ञात पटुता का आदर किया जाये? प्रशासन की रूढिवादी ब्रिटिश विरासत को यथावत बनाये रखा जाये अथवा वैज्ञानिक परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में सम्पूर्ण शासनतन्त्र का पुनर्गठन किया जाये? वस्तुतः वास्तविक समस्या तो वही है कि विज्ञान एवं प्रशासन में कैसे तारतम्य स्थापित किया जाये? विशेषज्ञों के ज्ञान, गौरव और प्रशासकों के सामान्य दृष्टिकोण में कैसे सामंजस्य स्थापित किया जाये? तकनीकी और वैज्ञानिक उन्नति के इस युग में यदि भारतीय प्रशासन में विशेषज्ञों के परामर्श और ज्ञान की उपेक्षा की गयी, यदि शासनतन्त्र में विशेषज्ञों को समुचित स्थान और गरिमा प्रदान नहीं की गयी तो क्या हम तकनीकी और वैज्ञानिक उपायों से प्रगति के महत्वपूर्ण कीर्तिमान स्थापित करने में असफल नहीं हो जायेंगे? यदि पूर्वाग्रहों से ग्रसित होकर हम प्रशासकीय निर्णय प्रक्रिया में तकनीकी विशेषज्ञों भागीदार नहीं बनाते तो क्या उनका मनोबल नहीं गिरेगा?

प्रशासन में सामान्यज्ञों तथा विशेषज्ञों की भूमिका से अभिप्राय

संक्षेप में, विविधज्ञ (सामान्यवादी) से तात्पर्य ऐसे लोक सेवक से है जिसका कोई विशेष आधार या पृष्ठभूमि नहीं होती और जो सरलता से शासन के एक विभाग या शाखा से दूसरे में हस्तान्तरित किया जा सकता है। विविधज्ञ प्रशासक की एक दूसरी परिभाषा यह भी की जाती है कि वह ऐसा लोक सेवक है जो प्रबन्धकीय वर्ग का सदस्य है तथा नियमों, उपनियमों एवं पद्धति सम्बन्धी व्यवस्था में पूर्ण पारंगत होता है और सामान्यतः पोस्डकोर्ब (POSTCORB)- नियोजन, संगठन, परिवीक्षण निर्देशन, समन्वय, प्रतिवेदन एवं बजट-सम्बन्धी कार्यों का सम्पादन करता है। इसके विपरीत, विशेषज्ञ से तात्पर्य उस व्यक्ति से है जिसे किसी क्षेत्र अथवा कार्य विशेष यथा कृषि, चिकित्सा, यान्त्रिकी, शिक्षा आदि में विशेष योग्यता प्राप्त हो । विशेषज्ञ को उसकी शिक्षा एवं प्रशिक्षण के आधार पर सरलतापूर्वक पृथक् किया जा सकता है।”

प्रशासन में विशेषज्ञों की भूमिका के समर्थन में तर्क

विशेषज्ञों तथा वैज्ञानिकों ने अनेक ठोस तर्कों द्वारा अपना अभिमत प्रस्तुत किया है-

  1. सर्वप्रथम, उनका कहना है कि भारत जैसे विकासशील राष्ट्र की समस्याओं का समाधान वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही किया जा सकता है न कि प्रशासनिक उपायों से। विविधज्ञ प्रशासक तो शासन में प्रक्रिया और खानापूर्ति को ही महत्व देते हैं और वैज्ञानिक शैली से कार्य करने में अपनी असमर्थता प्रकट करते हैं, जबकि नियोजित आर्थिक विकास, औद्योगीकरण, सहकारिता और उत्पादन वृद्धि के लिए प्रशासकों में कार्यमूलक श्रेष्ठता और वैज्ञानिक अभिरुचि होना अपरिहार्य है।
  2. विशेषज्ञ और तकनीकी लोग विविधज्ञ अफसरों की तुलना में अधिक अर्हताएँ रखते हैं, अधिक प्रशिक्षित होते हैं और अपने कार्यक्षेत्र में अधिक अनुभव रखते हैं। उदाहरणार्थ, डॉक्टरों, इन्जीनियरों, वैज्ञानिकों और प्राध्यापकों में से अधिकांश प्रथम श्रेणी के स्नातकोत्तर उपाधिकारी होते हैं, शोध और प्रशिक्षण से परिमार्जित होते हैं। इसके विपरीत, अखिल भारतीय सेवा के अफसरों की मूलभूत योग्यता मात्र स्नातक उपाधि है और प्रायः द्वितीय श्रेणी के उपाधिकारी ही इस सेवा की ओर आकर्षित हो रहे हैं। फिर जिस कार्य का उन्हें अनुभव नहीं होता, जिस कार्य का उन्हें प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, उसी विभाग में वे प्रधान कार्यकारी अधिकारी बना दिये जाते हैं। वस्तुतः आज हमारे देश में नीति निर्माण और निर्णय प्रक्रिया में अविशेषज्ञों को महत्वपूर्ण दर्जा प्रदान किया गया है और यही देश की असफलताओं का राज है।

उत्तर प्रदेश इन्जीनियर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष कप्तानसिंह का कहना है कि परिवहन निगम का पहला प्रबन्ध निदेशक एक इन्जीनियर था। शुरुआती दौर में इस निगम को घाटा नहीं हुआ, पर आज यह निगम घाटे में है क्योंकि आई० ए० एस० प्रबन्ध निदेशक इसे चलाने में सक्षम नहीं है। एसोसिएशन की माँग है कि सभी तकनीकी निगमों और फैक्टरियों आदि के प्रबन्धक या बड़े पदों पर इन्जीनियरों को नियुक्त किया जाये।

  1. विविधज्ञ प्रशासकों को शान्ति और व्यवस्था बनाये रखने की रूढ़िवादी कार्यशैली का प्रशिक्षण दिया जाता जबकि आज हमारा राज्य मात्र पुलिस राज्य नहीं रह गया है। भारत एक लोककल्याणकारी-समाजवादी सकारात्मक राज्य है। विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं द्वारा जनविकास के उत्थानकारी कार्य करना ही हमारी सरकार का प्रधान लक्ष्य है। विकास-मूलक कार्यों को प्रशिक्षित तकनीकी विशेषज्ञ ही समुचित ढंग से कर सकते हैं। देश की प्रगति कृषि कार्यक्रम, कृषि के सुधार एवं विकास, पशुपालन, सिंचाई की व्यवस्था, दुग्ध व्यवसाय, लघु उद्योग, उर्वरक प्रदाय इत्यादि कार्यों के पूरा करने पर निर्भर है, जिसे विशेषज्ञ ही ठीक तरह से कर सकते हैं। आज सिंचाई, बिजली, पैट्रोलियम, वाणिज्य एवं उद्योग, सार्वजनिक जैसे महत्वपूर्ण विभागों का संचालन विविधज्ञों द्वारा ही किया जा रहा है, जिससे इन विभागों में दुर्गति से नये कीर्तिमान स्थापित नहीं किये जा सके।
  2. विविधज्ञ प्रशासक अपनी श्रेष्ठता का दावा करते हैं और विशेषज्ञों के प्रति तुच्छ भावना रखते हैं। ये अधिकारी आदेश देना जानते हैं किन्तु तकनीकी उलझनों और अड़चनों को समझने का प्रयास नहीं करते।
  3. विविधज्ञों की नौकरशाही औपचारिकता एवं लालफीताशाही को अनावश्यक महत्व देती है। नौकरशाही नियमों और विनियमों का पालन कठोरता के साथ करते हैं जिससे कार्य की सम्पन्नता में अनावश्यक विलम्ब होता है और महत्वपूर्ण निर्णय शीघ्र नहीं लिये जा सकते हैं। इस प्रकार विविधज्ञ अफसरों के कार्य करने के तरीके अनमननीय, यान्त्रिक, हृदयहीन एवं औपचारिक हो जाते हैं।
  4. अखिल भारतीय सेल के विविधज्ञ प्रशासकों में एक झूठा अहं आज भी समाया हुआ है कि वे जनता के स्वामी हैं न कि सेवक । स्वाधीनता के 45 वर्षों बाद भी नौकरशाही देश की जनता से अपना तादात्म्य स्थापित नहीं कर सकी।
  5. आर्थिक नियोजन, सांख्यिकी, रोजगार, औद्योगिक निगम, प्रेस, सहकारिता, कृषि, स्थानीय स्वशासन, सुरक्षा, चिकित्सा, शिक्षा, विधि, यान्त्रिकी जैसे तकनीकी विभागों की बागडोर विविधज्ञों के हाथों में कदापि नहीं होनी चाहिए। इन विभागों में शोध एवं अनुसन्धान की काफी गुंजाइश रहती है जिसे विशेषज्ञ ही पूरा कर सकते हैं। यह कैसी विडम्बना है कि मामूली से क्लर्क के लिए टाइपिंग, स्टेनो एवं लेखांकन की जानकारी आवश्यक मानी जाती है, जबकि विभागीय सचिव जैसे प्रधान पद के लिए विभाग से सम्बन्धित ज्ञान की कोई अपेक्षा नहीं की जाती।

राष्ट्र निर्माण में विशेषज्ञ के महत्व को स्वीकार करते हुए सन् 1956 में डॉ० राजेन्द्रप्रसाद ने कहा था कि, विशेषज्ञों के विविधज्ञ प्रशासकों के समतुल्य वेतन-भत्ते एवं दर्जा मिलना ही चाहिए।’ सन् 1960 में पं० जवाहरलाल नेहरू ने स्पष्ट स्वीकार किया है, “यह धारणा गलत है कि प्रशासकीय सेवा सब सेवाओं से उच्च है। एक यान्त्रिकी प्रशासक के रूप में कार्य कर सकता है परन्तु एक प्रशासक यान्त्रिकी के बिना कार्य नहीं कर सकता।’ सन् 1967 में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने भी कहा कि, “यह कितना विचित्र है कि हमारे डॉक्टरों और इन्जीनियरों को सचिव के समतुल्य वेतन और दर्जा नहीं मिला है, जबकि अपने पेशे में वे पारंगत होते हैं। हमारे मेधावी नौजवान यान्त्रिकी और डॉक्टरी के व्यवसाय में जाते हैं और आर्थिक विकास व मानवीय कल्याण में उनका उत्कृष्ट योगदान होता है फिर भी उन्हें विविधज्ञों के सहायक के रूप में ही कार्य करना होता है।” श्री यशवन्तराव चह्वाण ने भी कहा कि, “जनता की निगाह में विविधज्ञ प्रशासक सर्वशक्तिमान बन गये हैं और बाकी सभी की स्थिति गौण हो गयी है। प्रशासक की यह भूमिका तो ब्रिटिश विरासत है जिसे तुरन्त बदलना होगा और विशेषज्ञों एवं रचनात्मक कार्य करने वाले राष्ट्र निर्माताओं को यथोचित सामाजिक दर्जा उपलब्ध कराना होगा।” प्रशासनिक सुधार आयोग (Administrative Reforms Commission) के अध्यक्ष के० हनुमन्तैय्या ने भी इस बात को अस्वीकार कर दिया कि प्रबन्ध के उच्च पदों को आई० ए० एस० वर्ग के अधिकारियों हेतु ही सुरक्षित रखा जाये। उनके अनुसार, ‘सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन के इस युग में नीति निर्माण एवं प्रशासन के उच्च स्तरों पर विशिष्टता से विभूषित विशेषज्ञों के परामर्श को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए। साथ ही प्रशासन में व्याप्त समान कार्य के लिए असमान वेतन की असंगति को दूर करना अपरिहार्य है ताकि नागरिक सेवा में पायी जाने वाली ईर्ष्या और तुच्छ मनोवृत्ति को दूर किया जा सके।

प्रशासन में विविधज्ञों की भूमिका के समर्थन में तर्क

विविधज्ञ प्रशासकों के समर्थकों ने भी वर्तमान प्रशासनिक ढाँचे को यथावत् बनाये रखने के लिए अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. अन्य कलाओं की भाँति प्रशासन भी एक कला है और विविधज्ञों को प्रशासनिक कला में ही प्रशिक्षित किया जाता है। वे किसी भी विभाग में किसी भी पद को धारण करते हुए प्रशासनिक कुशलता का परिचय देते हैं।
  2. किसी भी शासकीय विभाग में अनेक तरह के विशेषज्ञ कार्य करते हैं और उनके कार्यों में सामंजस्य उत्पन्न करके विवेकसम्मत निर्णय लेने का कार्य अत्यन्त जिम्मेदारी का होता है। इसे विशेषज्ञों के बजाय प्रशासक ही उत्तम ढंग से कर सकता है क्योंकि वह शासन में सर्वत्र निर्णय लेने के कार्य करता है, अतः इस प्रकार के उत्तरदायित्व के निर्वाह का अभ्यस्त हो जाता है।
  3. प्रशासक सामान्य अनुभव, उदार दृष्टिकोण और बिना किसी लगाव के निर्णय लेने का आदी होता है, जबकि विशेषज्ञ का झुकाव अपने व्यवसाय की ही तरफ अधिक होता है। फलतः उनके निर्णय स्वतन्त्र दृष्टि से होने के बजाय लगावपूर्ण अधिक होंगे।
  4. विविधज्ञ प्रशासक सूझ-बूझ और दूर दृष्टि से कार्य करने के आदी होते हैं। वे विषय-वस्तु से सम्बन्धित सूचनाएँ और आँकड़े इकट्ठे करते हैं और नीति निर्माण में उनका बुद्धिसंगत उपयोग करते हैं, जबकि विशेषज्ञ प्रशासक तो केवल उसी मार्ग पर चलना पसन्द करते हैं जिसका उन्हें ज्ञान होता है। इसका परिणाम होगा कि एकांकी दृष्टिकोण वाली गलत नीतियाँ राष्ट्रहित के प्रतिकूल होंगी। रॉबर्ट डुबिन ने तो यहाँ तक कहा है कि, “नीति सम्बन्धी निर्णय लेने में विशेषज्ञ तो एकदम अनुपयुक्त होते हैं।” थोर्सटिन बेवलीन के अनुसार, “विशेषज्ञों से अभिप्राय प्रशिक्षित अयोग्यता ही होता है।” हैरल्ड लास्की के अनुसार, “प्रशासनिक निर्णय लेने में विशेषज्ञों की सीमाएँ हैं। अपने कार्यमूलक ज्ञान को ग्रहण करते-करते विशेषज्ञ ‘सामान्य ज्ञान’ की बलि चढ़ा देते हैं।” जेम्न मेकेमी के अनुसार, “विशेषज्ञ प्रशासक दूसरों के दृष्टिकोणों की उपेक्षा कर देते हैं, जबकि प्रशासन में सही निर्णय तो सभी के दृष्टिकोणों में सामंजस्य स्थापित करके ही लिया जा सकता है।’

वर्षों से भारतीय प्रशासनिक सेल का विविधज्ञ (Generalist) स्वरूप रहा है। स्वाधीनता के प्रारम्भिक वर्षों में अनेक प्रशासनिक चुनौतियों और समस्याओं का कुशलतापूर्वक समाधान इस सेवा के अधिकारियों ने किया है। सरदार बल्लभ भाई पटेल ने संविधान सभा में विविधज्ञ प्रशासकों के योगदान की चर्चा करते हुए आधुनिक भारत के निर्माण में उनके अस्तित्व और सेवाओं की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। विगत वर्षों में प्रशासकों ने जहाँ देश को स्थिरता प्रदान की वहाँ आर्थिक नियोजन की प्रक्रिया को गाँव-गाँव तक पहुँचाने का अनूठा कार्य किया। ऐसी स्थिति में प्रशासनिक ढाँचे में आमूलचूल परिवर्तन करना कितना उपयुक्त होगा?

विविधज्ञों तथा विशेषज्ञों की भूमिका : मध्यम मार्ग ही सर्वोत्तम

विविधज्ञों और विशेषज्ञों के संघर्ष और परस्पर असहयोग के बढ़ते हुए मनोभावों का विश्लेषण मानवीय धरातल पर किया जाना अधिक समीचीन प्रतीत होता है। सत्ता के नशे में झूमती हमारी अफरशाही ने सदैव ही विशेषज्ञों के प्रति हीन और विकृत भावनाएँ रखीं। उसी का परिणाम है कि देश के विशेषज्ञों को संगठित होकर अपना आक्रोश प्रकट करना पड़ा और सामाजिक प्रतिष्ठा की माँग करनी पड़ी। देश के राजनैतिक नेतृत्व के सामने एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि वह किस भाँति दोनों में परस्पर सहयोग एवं सामंजस्य की उत्थानकारी भावनाएँ उत्पन्न कर सके ताकि राष्ट्र निर्माण के पुनीत यज्ञ में विविधज्ञ और विशेषज्ञ कन्धे से कन्धा मिलाकर चल सकें। हमारे प्रशासकों और विशेषज्ञों में अधिक उपयोगी तालमेल स्थापित करने के लिए निम्नलिखित सुझाव दिये जा सकते हैं-

  1. समूचे भारतीय प्रशासन का पुनर्गठन किया जाना चाहिए। नवीन प्रशासनिक पुनर्गठन के आधार पर अधिकांश पदों को दो भागों में विभक्त कर लेना चाहिए और यह तय हो जाना चाहिए कि कौन से विभाग विविधज्ञ-प्रधान रहेंगे और कौन से विभाग विशेषज्ञ-प्रधान रहेंगे।
  2. जिस प्रकार सन् 1963 में तीन अखिल भारतीय सेवाओं की सृष्टि का प्रस्ताव था-भारतीय वन सेवा, भारतीय अभियान्त्रिकी सेवा एवं भारतीय चिकित्सा एवं स्वास्थ्य सेवा, उसी प्रकार भारतीय कृषि सेवा, भारतीय शिक्षा सेवा, भारतीय नियोजन सेवा आदि विशेषीकृत सेवाओं की शीघ्र स्थापना की जानी चाहिए इन विशेषीकृत सेवाओं के व्यक्तियों को भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्यों के समकक्ष ही दर्जा एवं सुविधाएँ प्रदान की जानी चाहिए ताकि विशेषज्ञों के मन में हीनता की भावना समाप्त हो जाये और राष्ट्र सेवा के पुनीत कार्य में वे उत्साह के साथ सम्मिलित हो सकें।
  3. प्रशासन में हमें विदेशी प्रणाली अवश्य त्याग देनी चाहिए। हमारे लिए तो अपनी ही राष्ट्रीय प्रतिभा से उद्भूत, स्वदेशी प्रशासनिक संस्कृति अभीष्ट है। हमारा उद्देश्य तो अपनी आवश्यकताओं के अनुरूप एक ऐसे मिश्रित प्रशासक वर्ग का सृजन होना चाहिए जिसमें ‘प्रशासनिक प्रौद्योगिकी’ अथवा ‘इन्जीनियर प्रशासक’ आदि सम्मिलित हों। इसके लिए इन सेवाओं की वर्तमान प्रशिक्षण प्रक्रिया, वृत्तिक आयोजन एवं वृत्तिक विकास में आमूल परिवर्तन करना पड़ेगा ताकि शीर्ष प्रबन्धकीय दायित्व निर्वाह के लिए यथापेक्षित प्रतिभासम्पन्न व्यक्तियों का चयन किया जा सके और प्रतिभाशाली व्यक्तियों का विकास किया जा सके।
  4. एक नूतन ‘प्रशिक्षण संस्थान’ की अविलम्ब स्थापना की जाये जहाँ विविधज्ञों एवं विशेषज्ञों को एक साथ रखने, अध्ययन करने, विचारों एवं दृष्टिकोणों का खुला आदान-प्रदान करने और अपने मन की छिपी ग्रन्थियों को खोलने का अवसर मिलेगा। वे एक-दूसरे को समझेंगे और भविष्य में अपने दृष्टिकोणों को बदलेंगे।
  5. विविधज्ञ अफसरों को भी अपनी मनोवृत्ति बदलनी होगी। उनमें यह भावना विकसित करनी होगी कि विशेषज्ञों को अपना मित्र, दार्शनिक तथा मार्गदर्शक समझें, उनके परामर्श का समुचित आदर करें और उनके ज्ञान व अनुभव से लाभान्वित हों। वस्तुतः प्रशासन में दोनों एक-दूसरे के विरोधी नहीं अपितु पूरक और सहयोगी हैं।
  6. प्रशासन विविधोन्मुखी अनुशासन वृत्ति पर आधारित होना चाहिए। समन्वयकर्ता का पूरे अधिकारी समूह में से सहज उद्भव होना चाहिए न कि पदाधिकारियों की किसी पूर्व निर्धारित श्रेणी से।
  7. सभी सेवाओं के लिए ऐसा वेतन ढाँचा तैयार किया जाये कि प्रत्येक विशेषज्ञ को अपने ही क्षेत्र में उच्चतम स्तर तक पहुँचने का सुअवसर अनिवार्यरूपेण प्रशासनिक दायित्व ग्रहण किये बिना भी अवश्य प्राप्त हो।
  8. प्रशासकीय पदों पर कुछ दिनों से विशेषज्ञों की नियुक्ति सम्बन्धी नवीन एवं स्तुत्य प्रयास दृष्टिगोचर होने लगा है। उदाहरण के लिए, शिक्षा विभाग का सचिव कुछ समय पूर्व एक शिक्षाशास्त्री था और विज्ञान सम्बन्धी मामलों के विभाग का सचिव भी एक प्रमुख वैज्ञानिक था। इसी प्रकार वित्त मन्त्रालय के अधीन आर्थिक मामलों सम्बन्धी विभाग के सचिव भी एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री थे। इस प्रवृत्ति के उदाहरण सहायक, उप एवं संयुक्त परामर्शदाता हैं जो शिक्षा विभाग में सामान्यवादी उप/अपर/संयुक्त सचिवों के साथ कार्यरत हैं। योजना आयोग में तो केवल विशेषज्ञ एवं व्यावसायिक कर्मचारी ही कार्यरत हैं।
  9. यदि हम विशेषज्ञों की सेवाओं से पूरा-पूरा लाभ प्राप्त करना चाहते हैं तो हमें उन्हें समुचित अभिप्रेरणा देनी होगी। यह अभिप्रेरणा केवल आर्थिक प्रोत्साहन से ही नहीं मिलती अपितु यह अन्य सेवाओं के साथ समानता की भावना, अपने व्यवसाय में उचित सम्मान और गौरवानुभूति तथा साथ ही अपने देश के भावी निर्माण, जिसमें हम सभी जुटे हैं, में योगदान की भावना से प्राप्त होती है। इस मत की सरकार द्वारा मान्यता सरकारी उद्यमों में पहले स्पष्ट रूप से दृष्टव्य है,किन्तु केन्द्रीय सचिवालय ने, जो देश की निस्सन्देह धारक कम्पनी है, अभी इस तथ्य को हृदयंगम नहीं किया है।

निष्कर्ष

निष्कर्षतः हमारी लोक सेवा में अविलम्ब सुधार करने की आवश्यकता है। समूचे प्रशासनिक ढाँचे का ही पुनर्निर्माण करना होगा। जितने शासकीय क्रियाकलाप हैं उतने ही केन्द्रीय और राज्य सेवाओं में तकनीकी सेवाओं की व्यवस्था करनी होगी। यह धारणा बदलनी होगी कि ‘विविधज्ञ प्रशासक सब मर्ज की एकमात्र दवा है।” यह राष्ट्रहित में है कि विशेषज्ञों को यथाशीघ्र समुचित दर्जा प्रदान किया जाये एवं राष्ट्र के विकास में उनका योगदान स्वीकार किया जाये।

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