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ग्रामीण स्थानीय संस्थाओं पर राज्य का नियन्त्रण

ग्रामीण संस्थाओं पर राज्य का नियन्त्रण

ग्रामीण संस्थाओं पर राज्य का नियन्त्रण

(State Control over Rural Local Bodies)

ग्रामीण क्षेत्र में कार्य करने वाले स्थानीय निकायों पर पर्याप्त पर्यवेक्षण एवं नियन्त्रण रखने की आवश्यकता है ताकि आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करके इन्हें कुशल एवं प्रभावशाली व्यवस्था की जा सके। पंचायत राज संस्थाओं के क्षेत्र में नियन्त्रण एवं पर्यवेक्षण की व्यवस्था का अपेक्षाकृत अधिक महत्व है। कारण यह है कि ग्राम्य स्तर पर स्थानीय जनता को जो शक्ति सौंपी गई है उसका प्रयोग करने वाले लोग प्रशिक्षित एवं पर्याप्त योग्य नहीं हैं और उनके द्वारा सत्ता के दुरुपयोग की सम्भावनाएँ प्रायः अधिक रहती हैं। इसके अतिरिक्त स्थानीय प्रशासकीय संस्थाओं को शक्ति हस्तान्तरित करने के बाद सरकार जनता के विकास एवं कल्याण के उत्तरदायित्वों से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पाती । यह राज्य का एक स्वाभाविक अधिकार एवं सक्रिय उत्तरदायित्व है। राज्य सरकार को यह देखना पड़ता है कि ये स्थानीय संस्थाएँ एक निश्चित स्तर के अनुसार कार्य करती रहें। पंचायती राज इकाइयाँ प्रशासन के एकीकृत भाग के रूप में विकसित होती हैं तथा ये राष्ट्रीय नीतियों एवं राज्य के संवैधानिक उत्तरदायित्वों का निर्वाह करने में सहयोग देती हैं। जब इन संस्थाओं पर नियन्त्रण एवं पर्यवेक्षण की एक विकसित व्यवस्था लागू की जाती है तो वे स्वयं लाभान्वित होती हैं और नागरिकों को अधिकाधिक लाभ प्राप्त होते हैं।

नियन्त्रण की विधियाँ

ग्रामीण स्थानीय निकायों पर राज्य सरकार द्वारा निम्नानुसार नियन्त्रण स्थापित किया जाता है-

  1. राज्य सरकार के विभिन्न अधिकारी वर्ग पंचायती राज संस्थाओं के निरीक्षण का कार्य करते हैं। यदि कोई संस्था ठीक प्रक से काम नहीं कर रही है तो निरीक्षक का कर्तव्य है कि वह उसे उचित प्रकार से कार्य करना सिखाए। निरीक्षक स्थानीय निकायों की सम्पत्ति, निर्माण कार्य, कार्यालय, स्टोर आदि का निरीक्षण करते हैं। इन्हें अधिकार होता है कि रिकार्ड, लेख-पत्रों आदि की जाँच-पड़ताल करें। निरीक्षक अपनी रिपोर्ट निर्धारित प्रपत्र में अपने विभाग को देते हैं। राज्य स्तर पर पंचायती राज संस्थाओं के निरीक्षण और पर्यवेक्षण के लिए कहीं तो स्थानीय स्वायत्त शासन विभाग है और कहीं पंचायत विभाग या पंचायती राज विभाग है।कहीं-कहीं पर इसे पंचायती राज निदेशालय कहा जाता है। निदेशालय की सहायता के लिए कहीं-कहीं परामर्शदात्री बोर्ड हैं जो पंचायतों की प्रगति की समीक्षा करते हैं। राज्य सरकार को पंचायतों से सम्बन्धित महत्वपूर्ण नियुक्तियों पर परामर्श देते हैं एवं पंचायतों को उनके महत्वपूर्ण कार्यक्रमों की सलाह देते हैं आदि।
  2. राज्य सरकार पंचायती राज संस्थाओं से रिपोर्ट माँगती है। प्रशासकीय विभाग द्वारा अनेक प्रकार के विवरण-पत्र और प्रतिज्ञा-पत्र माँगे जाते हैं और संस्थाओं का कर्तव्य है कि वे निर्धारित प्रपत्रों में लेख प्रस्तुत करें। विभाग आवश्यक अध्ययन के बाद त्रुटियों की ओर स्थानीय निकायों का ध्यान आकर्षित करता है और त्रुटियों को ठीक करने के लिए समुचित निर्देश भेजता है। कुछ रिपोर्ट ऐसी हैं जो नियमानुसार समय-समय पर भेजी जाती रहती हैं, किन्तु विभाग को अधिकार है कि वह आवश्यकतानुसार अन्य रिपोर्ट और सूचना की माँग अवश्य करें।
  3. ऐसे मामलों में जहाँ अधिनियम के अधीन राज्य सरकार को स्वीकृति, सहमति या अनुमोदन आवश्यक हों, राज्य सरकार उचित जाँच का आदेश दे सकती है। राज्य सरकार का अधिकार है कि वह आवश्यक समझने पर अन्य किसी मामले में जाँच का आदेश दे। जाँच अधिकारी को यह अधिकार होता है कि वह आवश्यक समझने पर किसी व्यक्ति को अपने सामने पेश होकर बयान देने का आदेश दे। जाँच अधिकारी की रिपोर्ट पर विचार करके निर्णय देना सरकार का काम है।
  4. राज्य सरकारों को अधिकार है कि वह पंचायत समितियों के निर्णयों, प्रस्तावों या आज्ञाओं को अनुचित समझने पर रद्द कर दे, लेकिन ऐसा करने से पूर्व यह आवश्यक है कि राज्य सरकार पंचायत समिति को उत्तर में अपनी सफाई देने का उचित अवसर दे। राज्य सरकार की ओर से अधिकार का प्रयोग जिलाधीश भी कर सकता है, यदि वह आवश्यक समझे कि जनहित और शान्ति की दृष्टि से अविलम्ब कार्यवाही अनिवार्य है। जिलाधीश को अपने कार्य की रिपोर्ट शीघ्र ही राज्य सरकार को भेजनी होती है और राज्य सरकार का निर्णय ही अन्तिम रूप से मान्य होता है।
  5. राज्य सरकार जिला परिषद् व पंचायत समितियों के निर्णय में परिवर्तन कर सकती है। यह पंचायत समिति या जिला परिषद् के किसी निर्णय या आदेश सम्बन्धी कागजों को मँगाकर देख सकती है और अपना निर्णय दे सकती है। निर्णय देने से पूर्व जिला परिषद् या पंचायत को अपनी स्थिति स्पष्ट करने के समुचित अवसर दिए जाते हैं।
  6. जिलाधीश को यह अधिकार होता है कि वह पंचायत समिति की अचल सम्पत्ति और उसके कार्यों आदि का निरीक्षण करे। पंचायत समिति के नियन्त्रण में चलने वाली किसी संस्था के कागजात आदि के निरीक्षण करने का उसे अधिकार है।
  7. कुछ कार्य ऐसे होते हैं जिन्हें पंचायत या पंचायत समिति राज्य सरकार की स्वीकृति से ही कर सकती है। राज्य सरकार की सहमति के अभाव में किए गए ऐसे कार्यों को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है। राज्य सरकार को अधिकार होता है कि वह प्रशासकीय आदेशों द्वारा ऐसे कार्यों के क्रियान्वयन पर रोक लगा दे।
  8. महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों में अधिनियम के अन्तर्गत राज्य सरकारों को अधिकार है कि यदि पंचायती राज संस्थाएँ अपना कार्य न करें तो राज्य सरकारें अपने अधिकारियों से वह कार्य करवा लें। राज्य सरकार कार्य-व्यय इन संस्थाओं से वसूल कर सकती हैं। प्रायः इस प्रकार का कदम तभी उठाया जाता है जबकि पंचायती राज संस्थाएँ निरन्तर गलती करती रहें और राज्य सरकार के निर्देशों के बावजूद कार्य पूरा न करें अथवा निर्धारित समय के भीतर अपनी गलती न सुधारें।
  9. यदि राज्य सरकार समझे कि कोई समिति या परिषद् अपने कार्य ठीक ढंग से नहीं कर रही हैं तो वह उसे भंग करके प्रशासक की नियुक्ति कर सकती है। चेन्नई, राजस्थान और तमिलनाडु राज्यों के अधिनियमों में इस प्रकार की व्यवस्था है। राज्य सरकार को यह अधिकार है कि वह समिति या परिषद् को भंग करने के बजाय उसे तुरन्त नए चुनाव की आज्ञा दे।
  10. यदि पंचायत राज संस्थाएँ अधिनियमों, नियमों और उपनियगों का समुचित रूप से पालन न करें तो राज्य सरकार को अपीलें सुनने का अधिकार है। ऐसी अपीलों पर राज्य सरकार का निर्णय अन्तिम होता है। ये निर्णय न्यायालयों की अधिकार सीमा से परे होते हैं।
  11. पंचायती राज संस्थाओं पर राज्य सरकार का पर्याप्त वित्तीय नियन्त्रण रहता है। इन संस्थाओं की आय का अधिकांश भाग राज्य सरकारें अनुदान के रूप में उपलब्ध कराती है, अतः संस्थाओं का कर्तव्य है कि वे राज्य सरकार द्वारा बनाए गए नियमों और निर्धारित प्रक्रियाओं के अनुसार आचरण करें। राजस्थान राज्य को लें तो राज्य सरकार के निरीक्षक प्रतिवर्ष उनके हिसाब-किताब की जाँच करते हैं। पंचायत को अपने वार्षिक बजट पर मुख्य पंचायत अधिकारी की मंजूरी लेनी पड़ती है। इस अधिकारी को बजट में संशोधन करने का अधिकार है। बजट के अलावा कोई धन राशि इस अधिकारी की पूर्व अनुमति के बिना व्यय नहीं की जा सकती। राज्य सरकार के नियमों का अनुपालन न करने या राज्य सरकार को संतोष न होने की स्थिति में सरकारी अनुदान रोका जा सकता है। सरकारी अनुदान के बिना पंचायत राज संस्थाओं का काम चल नहीं सकता अतः वित्तीय नियन्त्रण व्यवहार में काफी प्रभावी होता है। राज्य सरकार द्वारा इन संस्थाओं के बजट निर्माण, करारोपण, ऋण सम्बन्धी शक्तियों आदि पर नियन्त्रण रखा जाता है। करों की दर और उनकी वसूली के नियम राज्य सरकार द्वारा बनाए जाते हैं।
  12. मुख्य पंचायत अधिकारी पंचायत के किसी आदेश या प्रस्ताव को रोक सकता है। इस अधिकारी की आज्ञा में आवश्यक संशोधन या परिवर्तन राज्य सरकार कर सकती है।
  13. राजस्थान, महाराष्ट्र और तमिलनाडु के अधिनियमों में राज्य सरकार को अधिकार दिया गया है कि वह ऐसे निर्वाचित सदस्यों और पदाधिकारियों को हटा दे जो पंचायत राज व्यवस्था के कानून और नियमों का उल्लंघन करते हों। स्पष्टता के लिए हम राजस्थान राज्य की व्यवस्था को ले लें। राज्य सरकार को पंच, सरपंच, पंचायत समिति के सदस्य, न्याय पंचायतों के सदस्यों और अध्यक्ष तथा पंचायत समिति के प्रधान के कतिपय परिस्थितियों में हटाने का अधिकार है। राज्य सरकार ऐसा कदम प्रायः तभी उठाती है जब शक्तियों के दुरुपयोग, अधिकार-सीमा का उल्लंघन, कदाचार आदि के स्पष्ट आरोप हों।

स्पष्ट है कि राज्य सरकारों को पंचायती राज संस्थाओं के नियन्त्रण की पर्याप्त शक्तियाँ प्राप्त हैं। राजस्थान पंचायत समिति एवं जिला परिषद् अधिनियम, 1959 तथा राजस्थान पंचायत अधिनियम, 1963 में इन संस्थाओं के सम्बन्ध में सुरक्षात्मक उपायों, नियन्त्रण और देख-रेख के प्रावधान हैं। आन्तरिक देख-रेख की प्रणाली में पंचायतों का विकास अधिकारी द्वारा निरीक्षण और योजनाओं के क्रियान्वयन का जिला स्तर के अधिकारियों द्वारा पर्यवेक्षण सम्मिलित है। राजस्थान पंचायती राज अधिनियम, 1994 में विभिन्न ऐसे प्रावधान रखे गये हैं जो राज्य सरकार को पंचायती राज संस्थाओं के कार्य-कलापों पर हस्तक्षेप तथा नियन्त्रण स्थापित करने की स्वतन्त्रता प्रदान करते हैं।

नियन्त्रण व्यवस्था का मूल्यांकन

ग्रामीण स्थानीय शासन निकायों पर नियन्त्रण के विभिन्न साधनों की सूची पर्याप्त लम्बी और प्रभावोत्पादक है तथापि व्यवस्था में नियन्त्रण के साधन इन संस्थाओं को वांछित रूप में कार्यकुशल और प्रभावकारी नहीं बना पाए हैं। सादिक अली समिति ने स्थानीय शासन निकायों और अन्य क्षेत्रों की नियन्त्रण व्यवस्था में जिन दोषों की ओर संकेत किया है वे मुख्यतः निम्नानुसार हैं-

  1. पर्यवेक्षण एवं नियन्त्रण की शक्तियाँ राज्य स्तर पर केन्द्रीकृत कर दी गई हैं, अतः तुरन्त कार्यवाही करना प्रायः असम्भव हो गया है। जब तक कार्यवाही की जाती है उस समय तक स्थिति पूरी तरह बदल जाती है और किए गए कार्य का परिणाम सन्तोषजनक नहीं रहता।
  2. निर्वाचित प्रतिनिधियों के विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही करने की शक्ति राज्य सरकार में निहित है। राज्य सरकार के पास कार्य अधिक होता है। इसके अतिरिक्त वह स्थानीय निकायों से दूर रहती है, अतः आवश्यक कदम तुरन्त नहीं उठा पाती।
  3. अंकेक्षण का यन्त्र निरन्तर निर्देशन एवं रोकथाम करने के लिए पर्याप्त सिद्ध नहीं हुआ है। अंकेक्षण के ऐतराजों को पूरा करने तथा अनियमितताओं के सम्बन्ध में कार्यवाही करने की गति धीमी रहती है।
  4. दोषी अधिकारियों के विरुद्ध कार्यवाही का अधिकार निर्वाचित अधिकारियों को दिया गया है। कभी-कभी इस अधिकार का दुरुपयोग होता है जिससे अव्यवस्था फैलती है।
  5. कई बार राज्य सरकार अपने वैधानिक अधिकारों का प्रयोग राजनीतिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए करती है।
  6. नियन्त्रण के साधन रचनात्मक और सुधारात्मक नहीं माने जा सकते । कितनी ही बार नियन्त्रण की कठोरता पंचायती राज संस्थाओं के उत्साह को ठण्डा कर देती है।
  7. राज्य स्तर पर ऐसी संस्था का अभाव है जो ग्रामीण स्थानीय स्वायत्त शासन निकायों की समस्याओं पर विचार कर उन्हें उचित परामर्श दे।

सुझाव

उपर्युक्त दोषों को दूर करने के उचित प्रयास किए जाने चाहिए। पंचायती राज संस्थाओं के सम्बन्ध में नियन्त्रण एवं पर्यवेक्षण की व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जो कि एक ओर तो निरन्तरता ला सके और दूसरी ओर शीघ्रतापूर्ण कार्यवाही की व्यवस्था कर सके। अनुशासनात्मक शक्तियाँ एवं नियन्त्रण की शक्तियाँ स्वतन्त्र निकायों द्वारा प्रस्तुत की जानी चाहिए और तुरन्त कार्यवाही के लिए उचित स्तर पर सत्ता हस्तान्तरित की जानी चाहिए। सादिक अली समिति ने एक जिला एवं राज्य पंचायत के संगठन का सुझाव रखा था जो कि पंचायती राज संस्थाओं के नियन्त्रण एवं पर्यवेक्षण की संस्थाओं पर विचार कर सके। इस प्रकार का अधिकरण (Tribunal) इन संस्थाओं के कार्य की लगातार देखभाल रखेगा तथा उनके औचित्य एवं वैधानिकताओं की रक्षा करेगा, वह जनता और निर्वाचित प्रतिनिधियों में समान रूप से विश्वास की प्रेरणा देगा। राज्य स्तर पर पंचायती राज के लिए राज्य पंचायत बनायी जानी चाहिए। इसमें उच्च न्यायालय के न्यायाधीश स्तर का एक न्यायिक सदस्य होगा विकास आयुक्त होगा तथा राज्य की पंचायती राज परामर्शदाता परिषद् द्वारा नियुक्त एक सदस्य होगा, जो राज्य अधिकारी नहीं होगा। राज्य सरकार द्वारा वरिष्ठ स्तर के आर० ए० एस० अधिकारी राज्य पंचायत के सचिव का कार्य करने के लिए नियुक्त किया जा सकता है। पंचायत समिति एवं जिला परिषद् के प्रस्तावों की परीक्षा करने के लिए और अभिलेख रखने के लिए क्रमशः जिला एवं राज्य पंचायत के सचिव के नियन्त्रण में एक नियमित स्टाफ होना चाहिए।

पंचायती राज के सम्बन्ध में जो अंकेक्षण संगठन कार्य कर रहे हैं वे अधिक सशक्त नहीं हैं। सादिक अली समिति ने सशक्त बनाने की सिफारिश की थी। समिति ने बताया कि इन संगठनों को न केवल अंकेक्षण करना चाहिए वरन् लेखा संधारण में सहायता एवं निर्देशन तथा अनियमितताओं को रोकने में सहयोग करना चाहिए । स्थानीय फण्ड अंकेक्षण के परीक्षकों द्वारा जो कार्य किया जाता है वह सन्तोषजनक नहीं है क्योंकि उनका अधिकार क्षेत्र पर्याप्त विस्तृत है। इसे जितना विकेन्द्रित किया जाए उतना ही उपयोगी रहेगा। एक या कुछ जिलों के लिए एक स्थानीय फण्ड अंकेक्षण का सहायक परीक्षक होना चाहिए। इसको जिलाधीश के साथ निकट सम्पर्क बनाए रखना चाहिए। अंकेक्षण प्रतिवेदन को पूरा करने की शक्तियाँ एवं कार्य विकेन्द्रित कर देने चाहिए। पंचायत एवं पंचायत समितियों को अंकेक्षण करने की शक्ति जिलाधीश को होनी चाहिए।

सारांशतः ग्रामीण स्थानीय स्वशासन संस्थाओं पर राज्य सरकार का नियन्त्रण तो आवश्यक है, लेकिन यह नियन्त्रण उद्देश्यपरक और सार्थकता लिये हुए होना चाहिए।

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