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पल्लव कालीन वास्तुकला की विभिन्न शैलियां

पल्लव कालीन वास्तुकला की विभिन्न शैलियां

पल्लव कौन थे? 

दक्षिण भारत में पल्लव-राजवंश का उदय सातवाहन-साम्राज्य के पतन के पश्चात ही आरम्भ हुआ। आरम्भ में पल्लव सातवाहनों के अधीनस्थ शासक थे; परन्तु वाकाटकों, आभीरों, कदम्बों इत्यादि वंशों की तरह पल्लवों ने भी अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली तथा छठी शताब्दी तक दक्षिणभारतीय राजनीति में अपना विशेष स्थान बना लिया।

पल्लवों की उत्पत्ति अत्यंत विवादास्पद है। बी० एल० राइस और बी० वेनकश्या जैसे विद्वानों की धारणा है कि पल्लव वस्तुतः पह्नव या पार्थियन नामक विदेशी जाति थी जो सातवाहनों के पतन के पश्चात सिंधुघाटी से आकर तोण्डैमंडलमक्षेत्र में बस गई । पल्लवों को विदेशी प्रमाणित करने के लिए दूसरा तर्क यह दिया जाता है कि काँची के वैकुण्ठ-पेरुमाल मन्दिर में राजमुकुट का चित्र बैक्ट्रियन राजा दमित्र के राजमुकुट से मिलता-जुलता है। डॉ० काशीप्रसाद जायसवाल पल्लवों को वाकाटकों से सम्बद्ध मानते हैं तथा अन्य विद्वान पल्लवों को नागवंश या नाग चोल कुल से सम्बद्ध। ये सारे मत विवादपूर्ण हैं। इस बात के स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं कि पल्लव पह्ववों के वंशज थे। यह भी निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि वे उत्तरी भारत से दक्षिण आए। संभवतः, उनका मूल निवासस्थान तोण्डैमण्डलम् ही था। पल्लव सातवाहनों के सामंत थे, परंतु उनके पतन के पश्चात उन्होंने अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर ली। कालांतर में पल्लव दक्षिण की प्रमुख शक्ति बन बैठे।

कला तथा स्थापत्य

पल्लव नरेशों का शासन-काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये प्रसिद्ध है। वस्तुतः उनकी वास्तु एवं तक्षण कला दक्षिण भारतीय कला के इतिहास में सर्वाधिक गौरवशाली अध्याय है। पल्लव वास्तु कला ही दक्षिण की द्रविड़ कला शैली का आधार बनी। उसी से दक्षिण भारतीय स्थापत्य की तीन प्रमुख अंगों का जन्म हुआ (1) मण्डप, (2) रथ तथा (3) विशाल मन्दिर।

पल्लव कालीन शैलियां

प्रसिद्ध कलाविद् पर्सी ब्राउन ने पल्लव वास्तुकला के विकास की शैलियों को चार भागों में विभक्त किया है। इनका विवरण इस प्रकार है।

महेन्द्र शैली (610-640 ईस्वी)

इस शैली के अन्तर्गत कठोर पाषाण (पत्थरों)को काटकर गुहा-मन्दिरों का निर्माण हुआ जिन्हें ‘मण्डप’ कहा जाता है। ये मण्डप साधारण स्तम्भयुक्त बरामदे है जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये है। मण्डप के बाहर बने मुख्य द्वार पर द्वारपालों की मूर्तियाँ मिलती हैं जो कलात्मक दृष्टि से उच्चकोटि की है। मण्डप के सामने स्तम्भों की एक पंक्ति मिलती है। प्रत्येक स्तम्भ सात फीट ऊँचा हैं स्तम्भ प्राय चौकोर है जिनके ऊपर के शीर्ष सिंहाकार बनाये गये हैं। महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपटु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पञ्चपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्रविष्णु गृहमण्डप, मामण्डूर का विष्णुमण्डप, त्रिचनापल्ली का तलिताकुर पल्लवेश्वर गृहमण्डप आदि विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इस शैली के प्रारम्भिक मण्डप सादे तथा अलकरणरहित है किन्तु बाद के मण्डपों को अलंकृत करने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। पञ्चपाण्डव मण्डप में छः अलंकृत स्तम्भ लगाये गये हैं। महेन्द्रवर्मा प्रथम के बाद भी कुछ समय तक इस शैली का विकास होता रहा।

मामल्ल-शैली (640-674 ईस्वी)

इस शैली का विकास नरसिंहवर्मा प्रथम महामल्ल के काल में हुआ। इसके अन्तर्गत दो प्रकार के स्मारक बने- मण्डप तथा एकाश्मक मन्दिर जिन्हें ‘रथ’ कहा गया है। इस शैली में निर्मित सभी स्मारक मामल्लपुरम् (महाबलीपुरम्) में विद्यमान हैं। यहाँ मुख्य पर्वत पर दस मण्डप बनाये गये है। इनमें आदिवाराह मण्डप, महिषमर्दिनी मण्डप, पञ्चपाण्डव मण्डप, रामानुज मण्डप आदि विशेष प्रसिद्ध है। इन्हें विविध प्रकार से अलंकृत किया गया है। मण्डपों का आकार-प्रकार बड़ा नही है। मण्डपों के स्तम्भ पहले की अपेक्षा पतले तथा लम्बे है। इनके ऊपर पद्य, कुम्भ, फलक आदि अलंकरण बने हुए है। स्तम्भों को मण्डपों में अत्यन्त अलंकृत ढंग से नियोजित किया गया है। मण्डप अपनी मूर्तिकारी के लिये प्रसिद्ध है। इनमें उत्कीर्ण महिषमर्दिनी, अनन्तशायी विष्णु, त्रिविक्रम, ब्रह्म, गजलक्ष्मी, हरिहर आदि की मूर्तियाँ कलात्मक दृष्टि से अत्युत्कृष्ट है। पञ्चपाण्डव मण्डप में कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण किये जाने का दृश्य अत्यन्त सुन्दर है। आदिवाराह मण्डप में राजपरिवार के दो दृश्यों का अंकन मिलता है।

मामल्लशैली की दूसरी रचना रथ अथवा एकाश्मक मन्दिर है। इनहें कठोर चट्टानों को काटकर बनाया गया है। रथ मन्दिरों का आकार-प्रकार अन्य कृतियों की अपेक्षा छोटा है। ये अधिक से अधिक 42 फुट लम्बे 35 फुट चौड़े तथा 40 फुट ऊंचे है तथा पूर्ववर्ती गुहा-विहारों अथवा चैत्यों की अनुकृति पर निर्मित प्रतीत होते है। प्रमुख रथ है-द्रौपदी रथ, नकुल-सहदेव रथ, अर्जुन रथ, भीम रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिडारि रथ तथा वलयंकुट्टैथ रथ। प्रथम पाँच दक्षिण में तथा अन्तिम तीन उत्तर और उत्तर पश्चिम में स्थित है। ये सभी शैव मन्दिर प्रतीत होते है। द्रौपदी रथ सबसे छोटा हैं इसमें किसी प्रकार का अलंकरण नहीं मिलता तथा यह एक सामान्य कक्ष की भाँति खोदा गया है। यह सिंह तथा हाथी जैसे पशुओं के आधार पर टिका हुआ है। धर्मराज रथ सबसे अधिक प्रसिद्ध है। इसके ऊपर पिरामिड के आकार का शिखर बनाया गया है। मध्य में वर्गाकार कक्ष तथा नीचे स्तम्भयुक्त बरामदा है। कुर्सी में गढ़े हुए सुदृढ़ टुकड़ों तथा सिंह-स्तम्भयुक्त अपनी ड्योढ़ियों से यह और भी सुन्दर प्रतीत होता है।

पर्सीब्राउन के शब्दों में इस प्रकार की योजना न केवल अपने में एक प्रभावपूर्ण निर्माण है अपितु शक्तियों से परिपूर्ण होने के साथ-साथ सुखद रूपों तथा अभिप्रायों का भण्डार है।’ इसे द्रविड़ मन्दिर शैली का अग्रदूत कहा जा सकता है। भीम, सहदेव तथा गणेश रथों का निर्माण चैत्यगृहों जैसा हैं ये दीर्घाकार हैं तथा इनमें दो या अधिक मजिले हैं, और तिकोने किनारों वाली पीपे जैसी छतें हैं। सहदेव रथ अर्धवृत्त के आकार का है। नीलकंठ शास्त्री के अनुसार ‘इन रथों की दीर्घाकार आयोजना, छोटी होती जाने वाली मंजिलों और कलशों तथा नुकीले किनारों के साथ पीपे के आकार वाली छतों के आधार पर ही बाद के गोपुरों अथवा मन्दिरों की प्रवेश बुर्जियों की डिजाइन तैयार की गयी होगी।

मामल्लशैली के रथ अपनी मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध है । नकुल-सहदेव रथ के अतिरिक्त अन्य सभी रथों पर विभिन्न देवी-देवताओं जैसे-दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि की मूर्तियों उत्कीर्ण मिलती है। द्रौपदी रथ की दीवारों में तक्षित दुर्गा तथा अर्जुन रथ की दीवारों में बनी शिव की मूर्तियाँ विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं धर्मराज रथ पर नरसिंहवर्मा की मूर्ति अंकित हैं। इन रथों को ‘सप्त पगोडा’ कहा जाता है। दुर्भाग्यवश इनकी रचना अपूर्ण रह गयी है।

राजसिंह-शैली (674-800 ईस्वी)

इस शैली का प्रारम्भ पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन द्वितीय ‘राजसिंह’ ने किया। इसके अन्तर्गत गुहा-मन्दिरों के स्थान पर पाषाण (पत्थरों), ईंट आदि की सहायता से इमारती मन्दिरों का निर्माण करवाया गया। इस शैली के मन्दिरों में से तीन महाबलीपुरम् से प्राप्त होते हैं- शोर-मन्दिर (तटीय शिव मन्दिर), ईश्वर मन्दिर तथा मुकुन्द मन्दिर शोर मन्दिर (Shore-temple) इस शैली का प्रथम उदाहरण है। इनके अतिरिक्त परमलाई (उत्तरी अर्काट) मन्दिर तथा काञ्ची के कैलाशनाथ एवं वैकुण्ठपेरूमाल मन्दिर भी उल्लेखनीय हैं।

महाबलीपुरम् के समुद्र तट पर स्थित शोर-मन्दिर पल्लव कलाकारों की अदभुत कारीगरी का नमूना है। मन्दिर का निर्माण एक विशाल प्रांगण में हुआ है जिसका प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है। इसका गर्भागृह समुद्र की ओर है तथा इसके चारों और प्रदक्षिणापथ है। मुख्य मन्दिर के पश्चिमी किनारे पर बाद में दो और मन्दिर जोड़ दिये गये। इनमें से एक छोटा विमान है। बढ़े हुए भागों के कारण मुख्य मन्दिर की शोभा में कोई कमी नहीं आने पाई है। इसका शिखर सीढ़ीदार है तथा उसके शीर्ष पर स्तूपिका बनी हुई है। यह अत्यन्त मनोहर है। दीवारों पर गणेश, स्कन्द, गज, शार्दूल आदि की मूर्तियों उत्कीर्ण मिलती है। इसमें सिंह की आकृति को विशेष रूप से खोद कर बनाया गया है। घेरे की भव्य दीवार के मुडेरे पर उँकडू बैठे हुए बैलों की मूर्तियाँ बनी हैं तथा बाहरी भाग वे चारों ओर थोड़ी-थाड़ी अन्तराल पर सिंह-भित्ति-स्तम्भ बने हैं। इस प्रकार यह द्रविड़ वास्तु की एक सुन्दर रचना है। शताब्दियों की प्राकृतिक आपदाओं की उपेक्षा करते हुए यह आज भी अपनी सुन्दरता को बनाये हुए है।

काँची स्थित कैलाशनाथ मन्दिर राजसिंह शैली के चरम उत्कर्ष को व्यक्त करता है। इसका निर्माण नरसिंहवर्मन द्वितीय (राजसिंह) के समय से प्रारम्भ हुआ तथा उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन द्वितीय के समय में इसकी रचना पूर्ण हुई। द्रविड़ शैली की सभी विशेषतायें जैसे- परिवेष्ठित प्रांगण, गोपुरम, स्तम्भयुक्त मण्डप, विमान आदि इस मन्दिर में एक साथ प्राप्त हो जाती है। इसके निर्माण में ग्रेनाइट तथा बलुआ पत्थरों का उपयोग किया गया है। इसका गर्भागृह आयताकार है जिसकी प्रत्येक भुजा 9 फीट है। इसमें पिरामिडनुमा विमान तथा स्तम्भयुक्त मण्डप है। सम्पूर्ण मन्दिर ऊंचे परकोटों से घिरा हुआ है। मन्दिर में शैव सम्प्रदाय एवं शिव-लीलाओं से सम्बन्धित अनेक सुन्दर-सुन्दर मूर्तियाँ अंकित हैं जो उसकी शोभा को द्विगुणित करती है।

कैलाशनाथ मन्दिर के कुछ बाद का बना बैकुण्ठपेरुमाल का मन्दिर है। उसका निर्माण परमेश्वरवर्मन् द्वितीय के समय में हुआ था। यह भगवान विष्णु का मन्दिर है जिसमें प्रदक्षिणापथयुक्त गर्भगृह एवं सोपानयुक्त मण्डप हैं। मन्दिर का विमान वर्गाकार एवं चारतल्ला है। प्रथम तल्ले में विष्णु की अनेक मुद्राओं में मूर्तियाँ बनी हुई हैं। साथ ही साथ मन्दिर की भीतरी दीवारों पर युद्ध, राज्यभिषेक, अश्वमेघ, उत्तराधिकार-चयन, नगर-जीवन आदि के दृश्यों को भी अत्यन्त सजीवता एवं कलात्मकता के साथ उत्कीर्ण किया गया है। ये विविध चित्र रिलीफ स्थापत्य के सुन्दर उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इन चित्रों के माध्यम से तत्कालीन जीवन एवं संस्कृति की जानकारी हो जाती है। मन्दिर में भव्य एवं आकर्षक स्तम्भ लगे हैं। पल्लव वास्तु-कला का विकसित स्वरूप इस मन्दिर में दिखाई देता है।

नन्दिवर्मन्-शैली (800-900 ईसवी)

इस शैली के अन्तर्गत अपेक्षाकृत छोटे मन्दिरों का निर्माण हुआ। इसके उदाहरण काञ्ची के मुक्तेश्वर एवं मातंगेश्वर मन्दिर, ओरगडम् का बड़मल्लिश्वर मन्दिर, तिरुत्तैन का वीरट्टानेश्वर मन्दिर, गुडिडमल्लम् का परशुरामेश्वर मन्दिर आदि है। काञ्ची के मन्दिर इस शैली के प्राचीनतम नमूने हैं। इनमें प्रवेश-द्वार पर स्तम्भयुक्त मण्डप बने हैं। इसके बाद के मन्दिर चोल-शैली से प्रभावित एवं उसके निकट है।

इस प्रकार पल्लव राजाओं का शासन काल कला एवं स्थापत्य की उन्नति के लिये अत्यन्त प्रसिद्ध रहा। इस काल की कुछ कलात्मक कृतियाँ आज भी अपने निर्माताओं की महानता का संदेश दे रही है।

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