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जैन धर्म

जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त

जैन धर्म की स्थापना

यद्यपि जैन धर्म को संगठित और विकसित करने का श्रेय वर्द्धमान महावीर को दिया जाता है, तथापि वे इस धर्म के संस्थापक नहीं थे। जैनधर्म की स्थापना का श्रेय जैनियों के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को दिया जाता है। ऋषभदेव से पार्श्वनाथ (23वें तीर्थंकर) के समय तक इस धर्म ने कोई विशेष प्रगति नहीं की। पार्श्वनाथ के पूर्व के तीर्थंकरों के विषय में समुचित जानकारी भी उपलब्ध नहीं है। 23वें तीर्थंकर के विषय में कुछ जानकारी मिलती है। वे काशी के राजा अश्वसेन के पुत्र थे। वे वर्द्धमान महावीर से करीब 250 वर्ष पहले हुए थे। गृहत्याग कर वे संन्यासी बने और उन्होंने घूम-घूमकर अपने उपदेशों का प्रचार किया। उनके अनुयायी निर्ग्रथ’ कहे जाते थे। इन्होंने सत्य, अहिंसा, अस्तेय (चोरी नहीं करना) और अपरिग्रह (संपत्ति का संग्रह न करना) का उपदेश दिया। इसके साथ-साथ पार्श्वनाथ ने वैदिक कर्मकाण्डों और जातिप्रथा की भी आलोचना की। उनके अनुयायियों की संख्या अच्छी थी। महावीर के पिता भी उनके अनुयायी थे। पार्श्वनाथ के विचारों को संगठित और प्रचारित करने का कार्य महावीर स्वामी ने किया।

महावीर के सिद्धांत

महावीर ने अपना पहला उपदेश राजगृह के निकट विपुलचल पहाड़ी पर दिया। उन्होंने किसी नए धर्म की स्थापना नहीं की, बलिक पार्श्वनाथ के विचारों को ही संशोधित रूप में प्रचारित किया। उनका सबसे महत्वपूर्ण योगदान इस तथ्य में निहित है कि उन्होंने जैनधर्म को स्थायित्व प्रदान किया। उन्होंने पार्श्वनाथ के चार मूलभूत सिद्धांतों (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह और अस्तेय) को बनाए रखा, लेकिन ब्रह्मचर्य-पालन पर भी जोर दिया। जैन दर्शन बहुत कुछ सांख्यदर्शन से मिलता-जुलता हैं जैनियों के अनुसार संसार दुःखमूलक है। मनुष्य को अनेक प्रकार के भय (वृद्धावस्था, मृत्यु) और तृष्णाएँ (काम, धन, लोभ) घेरे रहती हैं। इन सभी से दुःख की वृद्धि होती है। सच्चा सुख सांसारिक मायाजाल के त्याग एवं संन्यास से ही प्राप्त किया जा सकता है। जैनदर्शन की यह भी धारणा है कि संसार के सभी प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही फल पाते हैं। कर्मफल ही जन्म एवं मृत्यु का कारण है। इससे मुक्त होकर ही व्यक्ति निर्वाण प्राप्त कर सकता है। जैनदर्शन द्वैतवादी तत्वज्ञान में भी विश्वास रखता है। इस सिद्धांत के अनुसार प्रकृति और आत्मा दो तत्व हैं, जिनसे मिलकर मनुष्य के व्यक्तित्व का निर्माण होता है। इन दो तत्वों में प्रकृति जहाँ नाशवान है, वहीं आत्मा अनंत और विकासशील हैं आत्मा के विकास से ही मनुष्य निर्वाण की प्राप्ति कर सकता है। जैनदर्शन सात तत्वों को मानता है-जीव या आत्मा, अजीव, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष। प्रकृति या पुद्गल, जीव और अजीव इन दोनों के मिलने से कुछ कर्मों का निर्माण होता है (आस्रव)। इन दोनों के मिलने से होनेवाले कर्मसंचय को रोका जा सकता है (संवर) संचित कर्मों के बंधन को नष्ट किया जा सकता है (निर्जरा) और कर्मबंध को नष्ट करके निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। जैनदर्शन आत्मा पर अत्यधिक बल देता है। आत्मा को भौतिक तत्व घेरे रहते हैं। इनसे अलग होकर ही निर्वाण की प्राप्ति हो सकती है। जैनदर्शन सप्तभंगी ज्ञान अथवा स्यादवाद या अनेकांतवाद को मानता है। इसके अनुसार प्रत्येक प्रकार का ज्ञान (मति, श्रूति, अवधि, मनःपर्याय) 7 स्वरूपों में व्यक्त किया जा सकता है- “है; नहीं है; है और नहीं है; कहा नहीं जा सकता है; किन्तु कहा नहीं जा सकता; नहीं है और कहा नहीं जा सकता; है, नहीं है और कहा नहीं जा सकता।” जैनदर्शन के अनुसार, ज्ञान प्राप्ति के तीन मार्ग हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान और तीर्थंकरों द्वारा।

अतः, मनुष्यों को बुरे कर्मों से बचना चाहिए। इसके लिए पाँच महाव्रतों (सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय और ब्रह्मचर्य) का पालन आवश्यक है। इसके द्वारा अठ्ठारह पापों (हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, दोषारोपण, चुगलखोरी, असंयम, निंदा, छल-कपट और मिथ्यादर्शन) से बचा जा सकता है। पापों से बचकर निर्वाण-प्राप्ति के लिए मनुष्य को तीन रत्नों (त्रिरत्न) का पालन करना चाहिए। ये तीन रत्न हैं-सम्यक दर्शन, सम्यक ज्ञान तथा सम्यक चरित्र (आचरण)

जैन धर्म में अहिंसा और तपस्या पर अत्यधिक बल दिया गया। आक्रमण एवं हिंसा, चाहे ऐच्छिक हो या आकस्मिक, उनका त्याग आवश्यक था। जैन प्रत्येक पदार्थ में जीव की कल्पना करते हैं। अतः, मांसभक्षण, आखेट, युद्ध, यहाँ तक कि कृषि पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया। जैनी जल छानकर पीते थे, मार्ग से कीटाणुओं को हटाते चलते थे तथा मुख को कपड़े से ढक लेते थे, ताकि जीवाणुओं की हत्या नहीं हो। जैनधर्म के अनुसार गृहस्थावस्था में रहते हुए पापों से बचना एवं निर्वाण की प्राप्ति करना संभव नहीं था। इसके लिए संन्यासी का कठोर जीवन और आचरण आवश्यक बना दिया गया। जैनियों के लिए आचरण के नियम अत्यंत कड़े बनाए गए। उदाहरणस्वरूप, इंद्रिय-दमन के लिए नंगा रहना, दीक्षित होने के समय बालों को जड़ से उखाड़ देना, ग्रीष्मऋतु के मध्याह्नकालीन सूर्यताप में तपस्या करना अथवा दीर्घकाल तक किसी असुविधाजनक मुद्रा में रहना, किसी निश्चित स्थान पर वास न करना इत्यादि। इन कड़े नियमों द्वारा जैनियों को अपना आचरण नियंत्रित करना था।

बुद्ध की ही तरह महावीर ने भी वैदिक धर्म के कर्मकांडी और आडंबरयुक्त स्वरूप तथा पुरोहितों एवं यज्ञों की आवश्यकता को मानने से इन्कार किया। ईश्वर में भी इनकी अस्था नहीं थी। उनके अनुसार जिन सबसे बड़ा देवता था। जैनधर्म ने जातिप्रथा की आलोचना करने के बावजूद इसे स्वीकार किया। जैनियों के अनुसार निम्र श्रेणी के व्यक्ति भी कर्मों के फल से निर्वाण प्राप्त कर सकते हैं। इसी प्रकार, कर्मफल के अनुसार ही मनुष्य का जन्म उच्च या निम्र वर्ण में होता है। आरम्भ में जैनधर्म में मूर्तिपूजा का स्थान नहीं था, परन्तु कालांतर में तीर्थंकरों की मूर्तियाँ बनने लगी और उनकी पूजा भी होने लगी। इस धर्म के कोई विशेष सामाजिक धर्मादेश नहीं थे। जैनों के पारिवारिक संस्कार (जन्म, विवाह, मृत्यु इत्यादि) वही थे, जो आम जनता के वस्तुतः जैनधर्म ब्राह्मण-धर्म से अपने-आपको बहुत अलग नहीं कर सका।

महावीर ने जैनसंघ को भी स्थायित्व प्रदान किया। उनके सारे अनुयायी 11 गणों में विभक्त थे। गण का प्रधान गणधर होता था,

महावीर के साथ धर्मप्रचार में भाग लेता था। महावीर के गणधर निम्रलिखित थे- इन्द्रभूति गौतम, अग्निभूति, भवभूति, आर्याव्यक्त, सुर्द्धम, मंडिक, मौर्यपु, अकम्पी, अलचभृत, मेदार्य और प्रबास। ये सभी गणधर बिहार के विभिन्न भागों के रहने वाले ब्राह्मण जाति के थे। जैनसंघ के सदस्य 4 वर्गों में विभक्त थे- भिक्षु-भिक्षुणी, जो संन्यासी का जीवन व्यतीत करते थे और श्रावक तथा श्राविका, जो गार्हस्थ्य जीवन बिताते थे। इस संघ में सभी जाति के व्यक्तियों और स्त्रियों को भी प्रवेश दिया गया।

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