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जैनधर्म के विकास एवं उसके पतन के कारण

जैनधर्म के विकास एवं उसके पतन के कारण

जैन धर्म का विकास

महावीर स्वामी के जीवनकाल में ही उनके और उनके गणधरों के प्रयास से कोशल, मगध, विदेह, अवन्ती, अंग, वज्जि, मल्ल आदि राज्यों में जैनधर्म का प्रचार-प्रसार हुआ। अनेक राजाओं और उनकी रानियों ने भी इस धर्म को स्वीकार किया। महावीर के धर्म के विकास को राजघरानों और वैश्यों से बहुत अधिक मदद मिली। कहा जाता है कि महावीर के जीवनकाल में ही उनके अनुयायियों की संख्या करीब 14,000 तक पहुंच चुकी थी।

महावीर की मृत्यु के पश्चात भी अनेक वर्षों तक जैनधर्म का प्रचार होता रहा। महावीर के बाद सुधर्मन जैनों का प्रधान बना। अजातशत्रु के उत्तराधिकारी उदायिन या उदायिभद्र संभवतः जैनधर्म का समर्थक था। खारवेल के हाथीगुम्फा-अभिलेख (भुवनेश्वर, उड़ीसा के निकट) से पता चलता है कि मगध का नंद राजा भी जैनमतावलंबी था। मौर्यवंश का संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य भी एक जैन था। उसी के समय में जैनधर्म दो संप्रदायों-दिगम्बर और श्वेताम्बर में विभक्त हो गया। अनुश्रुतियों के अनुसार मौर्यकाल में एक भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा। अतः, अनेक जैन भद्रबाहु के नेतृत्व में दक्षिण भारत की तरफ चले गए और वहीं अनेक जैन केन्द्रों की स्थापना की। अकाल समाप्त होने पर (12 वर्षों बाद) जब वे वापस आए, तब मठीय अनुशासन के प्रश्न पर विभेद उठ खड़ा हुआ, भद्रबाहु ने महावीर की आज्ञाओं और बताए गए मार्ग पर चलने पर बल दिया। परंतु, दुर्भिक्ष के कारण मगध के जैनों ने स्थूलभद्र के नेतृत्व में श्वेत वस्त्र धारण करने पर जोर दिया। इस प्रकार, जैनधर्म दो संप्रदायों में बँट गया। भद्रबाहु, जो जैन मौखिक साहित्य का अंतिम ज्ञाता था नेपाल चला गया, जहाँ उसकी मृत्यु हुई।

भद्रबाहु की मृत्यु के पश्चात पाटलिपुत्र में जैनियों की एक सभा स्थूलभद्र के नेतृत्व में हुई। इस सभा में दक्षिण के जैनियों ने भाग नहीं लिया। इस सभा में सर्वश्रेष्ठ बारह अंगों अथवा धाराओं में धर्म-सिद्धांतों की पुनः रचना की गई, जिसने पहले के चौदह वर्षों का स्थान लिया। इसे सिर्फ श्वेताम्बरों ने ही स्वीकार किया। दिगम्बरों और श्वेताम्बरों के बीच सिर्फ इतना अन्तर था कि दिगम्बर नंगे रहने और नियमों के कड़ाई से पालन पर बल देते हैं, जबकि श्वेताम्बर श्वेत वस्त्र धारण करने और कम कठोर नियमों के पालन पर बल देते हैं।

जैनियों की एक दूसरी सभा ईसा की छठी शताब्दी में वल्लभी (गुजरात) में हुई। इसकी अध्यक्षता देवर्द्धिगणी ने की। इस सभा में प्राकृत-भाषा में जैनधर्म के मूल ग्रंथों को लिपिबद्ध किया गया।

मौर्य और गुप्तकाल तक जैनधर्म पूर्व में उड़ीसा से लंका और पश्चिम में मथुरा तक फैल चुका था। इन क्षेत्रों से जैनधर्म के अवशेष प्राप्त होते हैं। बाद में यह धर्म मुख्यतः काठियावाड़, गुजरात, राजस्थान (पिताम्बर) और मैसूर, हैदराबाद (दिगम्बर) तक ही सीमित हो गया। गंगाघाटी से इसका प्रभाव लुप्तप्राय हो गया। 12वीं शताब्दी में पश्चिमी भारत में चालुक्य-शासक कुमारपाल ने इस धर्म को बढ़ाने का प्रयास किया, परन्तु उसकी मृत्यु के बाद पश्चिमी भारत में इसका महत्व घट गया। इसी प्रकार दक्षिण में शैव और वैष्णव-संप्रदायों के विकास ने जैनधर्म का प्रभाव नष्ट कर दिया। फिर भी, यह धर्म बिलकुल विलुप्त नहीं हुआ। अब भी जैनधर्म के समर्थक (कम संख्या में ही सही) भारत में विद्यमान हैं।

जैनधर्म के पतन के कारण

जैनधर्म बौद्धधर्म की तरह लोकप्रियता प्राप्त नहीं कर सका। इसके लिए निम्नलिखित कारण उत्तरदायी माने जा सकते हैं-

  1. बाह्मणधर्म से संबंध बनाए रखनाजैनधर्म की असफलता का एक मुख्य कारण यह था कि यह अपने-आपको पूर्णतः ब्राह्मणधर्म से अलग नहीं कर सका। महावीर ने वैदिक दर्शन का पूर्ण परित्याग नहीं किया, बल्कि उसे एक दार्शनिक दर्जा प्रदान कर दिया। इस धर्म के कोई विशेष सामाजिक धर्मोपदेश नहीं थे, बल्कि वे वैदिक धर्म से ही मिलते-जुलते थे। जैनियों के पारिवारिक संस्कार वैदिक संस्कारों के समान ही थे। ब्राह्मणधर्म की ही तरह भक्तिवाद, देवताओं का अस्तित्व इत्यादि इस धर्म में भी था। वस्तुतः, जैनधर्म ने ब्राह्मणधर्म से अपने को अलग करने का प्रयास नहीं किया। फलस्वरूप, जनता को इस धर्म में कोई ऐसी नई बात नहीं दिखी, जिससे प्रभावित होकर वे इसकी तरफ आकृष्ट होते।
  2. नियमों की कठोरता जैनधर्म ने कठिन तपस्या और आत्मपीड़न पर अत्यधिक बल प्रदान किया। संघ और धर्म के नियम इतने कठोर थे कि प्रत्येक व्यक्ति के लिए उनका पालन संभव नहीं था। वस्त्र न पहनना, भूखा रहना, धूप में शरीर को तपाना, बाल उखड़वाना इत्यादि ऐसे नियम थे, जिनका पालन सबके लिए संभव नहीं था। इसलिए, यह धर्म कभी लोकप्रिय नहीं हो सका।
  3. अहिंसा पर अत्यधिक बल प्रदान करना जैनधर्म ने अहिंसा की नीति को इतना अधिक महत्वपूर्ण बना दिया कि वह अव्यावहारिक बन गया। आरम्भ में क्षत्रिय और कृषक भी इस धर्म की तरफ आकृष्ट हुए, परन्तु बाद में वे इससे विमुख होने लगे। क्षत्रिय के लिए युद्ध करना और कृषक के लिए खेती करना, इस धर्म का पालन करते हुए संभव नहीं था। इसी प्रकार जनसाधारण के लिए यह संभव नहीं था कि वह सदैव रास्ता साफ करते हुए चले, जल छानकर पीए या मुख पर वस्त्र डालकर श्वास ले, जिससे किसी जीवाणु की हत्या न हो जाए। जैन अहिंसा का दर्शन अव्यावहारिक सिद्ध हुआ और अपनी महत्ता खो बैठा। गृहस्थों के लिए इसका पालन अत्यंत कठिन था।
  4. जातिप्रथा के दर्शन को बनाए रखनाजैनधर्म जाति-व्यवस्था से भी अपने आपको पूर्णतः अलग नहीं कर सका। महावीर भी मानते थे कि कर्मफल के अनुसार ही मनुष्य का जन्म उच्च या निम्नवर्ण में होता है। संघ में व्यावहारिक रूप से उच्चवर्ग के व्यक्ति ही ज्यादा सम्मिलित हुए। जाति-प्रथा की कमजोरी ने इस धर्म को सर्वमान्य नहीं बनने दिया।
  5. उचित राज्याश्रय का अभाव जैनधर्म की विफलता का एक अन्य कारण यह था कि इस धर्म को उचित राज्यश्रय नहीं मिल सका। यद्यपि लिच्छवियों, मगध के शासक बिम्बिसार और अजातशत्रु ने इस धर्म को स्वीकार किया, तथापि इसे वे अपना पूरा समर्थन नहीं दे पाए। इन लोगों ने बाद में बौद्धधर्म को ज्यादा महत्व प्रदान किया। इसी प्रकार, चंद्रगुप्त मौर्य और खारवेल को छोड़कर अन्य किसी महत्वपूर्ण शासक ने इस धर्म को प्रश्रय नहीं दिया। बौद्धधर्म की तरह जैनधर्म को किसी अशोक या कनिष्क जैसे धार्मिक उत्साह से परिपूर्ण शासक का समर्थन नहीं मिल सका। फलतः जैनधर्म कभी राजधर्म जैसा नहीं बन सका। इसलिए भी जनसमुदाय का समर्थन जैनधर्म को नहीं मिल सका।
  6. अन्य कारणअन्य कारणों के फलस्वरूप भी जैनधर्म का बहुत अधिक प्रचार नहीं हो सका। जैनधर्म के विकास में सबसे बड़ी बाधा बौद्धधर्म के उदय ने कर दी। बौद्धधर्म जैनधर्म से ज्यादा सरल और ग्राह्य था। इसलिए, धीरे-धीरे बौद्धधर्म का प्रभाव बढ़ता गया और जैन धर्मावलंबियों की संख्या धटने लगी। इसी प्रकार, ब्राह्मण-धर्म के पुनरुत्थान ने भी इस धर्म के विकास को आघात पहुँचाया। जैनधर्म का विभाजन भी इसकी प्रगति में बाधक बना। जैनियों का संगठन और प्रचार-माध्यम भी कमजोर था, संघात्मक संगठन की कमजोरी के कारण धर्मप्रचारकों का भी अभाव था। अतः, जैनधर्म बौद्धधर्म जैसी सफलता नहीं प्राप्त कर सका।
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