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गुप्तोत्तर काल की आर्थिक दशा

गुप्तोत्तर कालीन आर्थिक दशा

गुप्तोत्तर कालीन आर्थिक दशा

कृषि भारतीय अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था। नीतिवाक्यामठ में अनेक प्रकार के संग्रहों में धान्य संग्रह सर्वश्रेष्ठ माना गया है। इस काल के ग्रंथों से कृषि की विकसित अवस्था का पता चलता है। खेतों का नाप लिया जाता था तथा सीमा निर्धारित की जाती थी। उत्पादकता के हिसाब से भूमि का वर्गीकरण किया जाता था, जैसे वाहीत, तो बोया गया हो; अकृष्ट, जिसमें खेती न की गई हो; ऊसर, जहाँ बीज न उगता हो। ह्यूनत्सांग और 9वीं तथा 10वीं शताब्दी के अरब लेखाकें वे भूमि की उगता हो। ह्यूनत्सांग और 9वीं तथा 10वीं शताब्दी के अरब लेखकों ने भूमि की उर्वरता तथा अनेक प्रकार के अन्नों के बहुतायत से पैदा होने का उल्लेख किया है। कृषिपाराशर, उपवन विनोद और अग्नि पुराण के अध्ययन से पता चलता है कि फसल के लिए गोबर का ऊर्जा के रूप में प्रयोग किया जाता था। कृषिकार्य के लिए हल, फावड़ा, दराँती इत्यादि कृषि-उपकरणों का उल्लेख है। लोहे के फाल वाले हल का प्रचलन था। इससे गहरी खुदाई होती थी जो कि अच्छी पैदावार के लिए आवश्यक समझी जाती थी।

व्यापार

यह मत प्रकट किया गया है कि गुप्तोत्तर काल में व्यापार में ह्वास हुआ। ग्राम आत्मनिर्भर थे, जहाँ उत्पादन स्थानीय आवश्यकताओं के लिए ही होता था। व्यापार विनिमय के लिए अतिरिक्त उत्पादन नहीं होता था, क्योंकि अतिरिक्त उत्पादन का अधिक भाग जमींदार ले लेते थे। इस प्रकार उत्पादन के लिए प्रोत्साहन नहीं था, किन्तु उपलब्ध साहित्यिक तथा अभिलेखों के प्रमाण से स्पष्ट है कि देश के विभिन्न राज्यों में व्यापार होता रहता था। स्पष्ट है कि दैनिक उपभोग की वस्तुएँ, जैसे नमक, मसाले, धान,लोहा, कपड़े, आदि चीजें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाई जाती थीं। राजाओं, सामंतों तथा समृद्ध वर्ग के लिए आवश्यक तथा विलास की वस्तुएँ देश के विभिन्न भागों से उपलब्ध होती थी। बंगाल मलमल, पान, सुपारी तथा सण (सन) के लिए प्रसिद्ध था। कलिंग में धान की कुछ अच्छी किस्में होती थीं। यह उत्तम चावल राजपरिवार के लिए मँगाया जाता था। मालवा गन्ने, नील और अफीम के लिए प्रसिद्ध था। इसी प्रकार द्वारका शंख तथा सीपी के लिए, और गुजरात सूती कपड़े, नील तथा चमड़े की बनी हुई वस्तुओं के लिए प्रसिद्ध था। दक्षिण से मोती, मूल्यवान पत्थर, चंदन, मसाले-जैसे लवंग, काली मिर्च, इलायची, इत्यादि आते थें भारत के समुद्र-तटों पर अनेक बंदरगाह थे, जैसे पूर्वी तट पर ताम्रलिप्ति, सप्त ग्राम, पूरी, कलिंग, शिकाकोस और पश्चिमी तट पर देवल, थाना, खंभात, भड़ोंच तथा सोमनाथ।

इन बंदरगाहों में देश के विभिन्न नगरों से बिक्री की वस्तुएँ आती थीं जिनका बाहरी देशों में निर्यात होता था और बाहर के देशों की वस्तुएँ, जैसे सोना, ताँबा, टिन, मसाले, मूंगा तथा घोड़े भारत के बंदरगाहों पर लाए जाते थे। आयातित चीजें इन समुद्र तटों एवं नगरों से वितरकों द्वारा देश के अन्दर विभिन्न स्थानों में बेची जाती थी।

उद्योग :

इस काल की स्मृतियों में शिल्प और उद्योग शूद्र के लिए आवश्यक व्यवसाय माने गए हैं। बृहस्पति, बुद्ध, हारीत, देवल स्मृतियों में न केवल शिल्प शूद्रों का व्यवसाय माना गया है वरन शिल्प के अंतर्गत अनेक व्यवसायों का स्पष्ट उल्लेख किया गया है। इसके अंतर्गत सूत बुनने तथा वस्त्र-निर्माण से लेकर धातु, हाथीदाँत, लकड़ी, मिट्टी तथा चमड़े के सभी उद्योग सम्मिलित है। ठीक ही कहा गया है कि 10वीं 12वीं शताब्दी में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि शिल्पविज्ञान और शिल्पकारिता में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ हो। उपलब्ध भारतीय तथा विदेशी प्रमाणों से यही धारणा बनती है कि शिल्पों का पैतृक रूप बना रहा और इनमें मंथर गति से किन्तु निरंतर प्रगति होती रही।

वस्त्र उद्योग :

वस्त्र-उद्योग भारत में बहुत पुराना है। इस काल में यह उद्योग उत्कृष्ट अवस्था में था। ह्यूनत्सांग ने अनेक प्रकार के रेशमी तथा सूती वस्त्रों का उल्लेख किया है, जैसे कौशेय तथा क्षाम/क्षोम शण के रेशों से बना हुआ कपड़ा होता था। पौधों रेशों से बना हुआ कपड़ा दुकूल कहलाता था। बाण ने हर्षचरित में रेशम के बने हुए अनेक प्रकार के वस्त्रों का उल्लेख किया है- जैसे लालांतुज, अंशुक, चीनांशुक। रेशम के वस्त्र हतने महीन होते थे कि आँख से नहीं दिखाई देते थे, केवल स्पर्श से ही मालूम किए जा सकते थे। अल इद्रिसी ने मुलतान को वस्त्रद्योग का केन्द्र बताया है। काशी, वत्स, मगध, बंगाल, कामरूप, कलिंग, गुजरात, अपरांत, मदुरा पहले से ही वस्त्र उद्योग के केन्द्र थे। मानसोल्लास के अनुसार 12वीं शती में मूलस्थान (मुलतान), अन्हिलवाड़ (गुजरात), कलिंग और मुल्तान वस्त्रोद्योग के केन्द्र थे किन्तु अन्य स्रोतों से पता चलता है कि अपरांत (कोंकण प्रदेश), मालवा तथा मदुरा भी वस्त्रोद्योग के केन्द्र थे। भड़ोंच के बने हुए वस्त्र इतने प्रसिद्ध थे कि वे ‘वरोज’ नाम से विख्यात थे। खंभात में बने हुए वस्त्र ‘खंबायात’ के नाम से जाने जाते थे। यहाँ के वस्त्र ‘वुकराम’ विदेशों को निर्यात होते थे। मध्य देश, चुनारी के लिए प्रसिद्ध था। कश्मीर में वस्त्रोद्योग विशेषकर सफेद लिनन का उल्लेख ह्यूनत्सांग ने किया है। मजमलउत्तवारीख के अनुसार इस देश में उत्तम किस्म का कपड़ा तैयार होता था जिसका निर्यात किया जाता था। इस प्रकार इन विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि देश के विभिन्न भागों में वस्त्रोद्योग उन्नत दशा में था।

धातु उद्योग :

ताँबे, काँसे और पीतल के बर्तन बनाए जाते थे। इस काल के अभिलेखों में लौहकार के अतिरिक्त कांसार (कांस्यकार) तथा पीतलकार का उल्लेख आया है। ताँबा प्रायः सिक्के बनाने और पूजा के बर्तन बनाने के लिए उपयोग में लाया जाता था। काँसा, बर्तन बनाने के अतिरिक्त मूर्तियाँ बनाने के काम में भी आता था। बंगाल और चोल राज्य से इस काल की अनेक काँसे की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। मुसलमान लेखकों के अनुसार ताँबा थाना तथा देवल में फारम से आता था। परन्तु खेतड़ी छोटा नागपुर तथा डाका में ताँबे की खाने थीं और यहाँ से ताँबा प्राप्त किया जाता रहा होगा। सोना और चाँदी मंदिरों की मूर्तियों, पूजा के बर्तन तथा आभूषणों के लिए उपयोग में लाया जाता था। यूनत्सांग ने लिखा है कि हर्ष ने कन्नौज सभा में पूजा के लिए युद्ध की विशाल सोने की मूर्ति बनवाई थी। सोमनाथ के मंदिर से महमूद गजनवी अनेक सोने-चांदी की मूर्तियाँ और मंदिर का विशाल खजाना ले गया था।

हर्षचरित में हाथीदाँत की बनी हुई शालभंजिकाओं का उल्लेख है। केशवसेन के भटेरा अभिलेख में हाथीदाँत का काम करने वालों का उल्लेख है। केशव सेन के ही दूसरे अभिलख से ज्ञात होता है कि पालकी के डंडे हाथीदाँत के बने हुए होते थें अल इश्तकरी ने मुलतान में सूर्य मंदिर के पास हाथीदाँत के काम करने वालों की बस्ती का उल्लेख किया है। अलमसूदी के अनुसार हाथीदाँत का आयात जंजीबार से होता था। यह देवल तथा पश्चिमी भारत के लिए उचित जान पड़ता है किन्तु बंगाल में हाथीदाँत वहीं की उपज थी। कुछ चीनी वृत्तांतों में बंगाल से चीन जाने वाली निर्यात वस्तुओं में हाथीदाँत का भी उल्लेख है।

श्रेणी संगठन :

ये शिल्प और उद्योग अनेक श्रेणियों में संगठित होते थे। श्रेणियाँ एक ही व्यवसाय करने वाले लोगों के संगठन होते थे। स्मृतियों के अनुसार वे अनेकों स्थानों के भी लोग हो सकते थे। बशर्ते कि वे एक ही व्यवसाय करने वाले हों। किन्तु अधिकतर यह देखा गया है कि वे एक स्थान पर रहने वाले तथा एक ही व्यवसाय करने वाले लोग होते थे। 10वीं शताब्दी के कमन शिला अभिलेख में काम्यढ़ में रहने वाले कुंभकार, मालाकार तथा शिल्पियों की पृथक्-पृथक् श्रेणियों का उल्लेख हैं। गाहड़वाल नरेश गोविंद चन्द्र के वेल्का आभलख म पान उगाने वालों के गाँव का उल्लेख है। कलचूरी सोड़देव के काहला अभिलेख से पता चलता है कि विभिन्न व्यवसाय करने वाले लोगों की बस्तियाँ नगर के विभिन्न भागों में थीं।

इन श्रेणियों का एक मुखिया होता था जिसे अभिलेखों में ‘महत्तक’ या ‘माहर’ कहा गया है। प्रतीहारों के समय के ग्वालियर अभिलेख में तेलियों का तथा मालियों के मुखिया का उल्लेख है। जातकों में श्रेणीमुख को जेद्रुक या प्रमुख कहते थे। इस युग में माहर या जेट्ठक के स्थान पर ‘महत्तक’ शब्द का प्रयोग हुआ है। वणिकों की श्रेणी के मुख्य को श्रेष्ठि कहते थे। इन श्रेणियों की एक कार्यसमिति भी होगी। इन्हें स्मृतियों में ‘कार्यचिंतक’ कहा गया है। ग्वालियर के वैटलभट्ट स्वामिन अभिलेख में तीन तेलिक श्रेणियों का उल्लेख है। उनमें मुख्यों की संख्या चार, दो और पाँच हैं। ये मुख्य ही इन श्रेणियों का उल्लेख है। उनमें मुख्यों की संख्या चार, दो और पाँच हैं। ये मुख्य ही इन श्रेणियों के कार्यचितक थे जो अपनी श्रेणी के सदस्यों का समय-समय पर मार्ग निर्देशन करते थे।

ये श्रेणियाँ तब भी बैंक का काम करती थी। कुछ अभिलेखों में कुम्हारों, तेलियों तथा रथपतियों की श्रेणी का उल्लेख है।

मुद्रा :

आम तौर पर विद्वानों का यह मत है कि पूर्व काल की अपेक्षा पूर्व मध्यकाल में सिक्कों का उपयोग कम हो गया था क्योंकि इस काल में जो सिक्के उपलब्ध हुए हैं वे बहुत ही कम हैं। उनमें मौलिकता और कलात्मक सुंदरता का अभाव है। तोल में भी वे कम हैं जब कि कुषाण और गुप्तकाल में सिक्के 7.78 से लेकर 9.33 ग्राम तक के हैं। इस काल के सिक्के 4.2 ग्राम से अधिक नहीं हैं। कहा गया है कि सिक्कों की कमी का कारण विदेशी व्यापार में कमी थी जिससे कि बाहर भेजे जाने वाली वस्तुओं के विनियम में सोना-चाँदी कम आने लगा। रोमन साम्राज्य के साथ रेशम का व्यापार बंद हो गया। अरबों के विस्तार के कारण पश्चिमी तथा मध्य एशिया में राजनीतिक विप्लव हुआ, जिससे व्यापार कम हो गया। सामंती व्यवस्था में राज्य के कर्मचारियों को वेतन मुद्रा के स्थान पर भूमि के रूप में दिया जाता था। इससे सिक्के जारी करने की आवश्यकता नहीं पड़ी। अरब यात्रियों के वृत्तांतों से स्पष्ट है कि व्यापार वस्तु-विनिमय के माध्यम से होता था। भारतीय साहित्य से पता चलता है कि अंतर्राज्यीय व्यापार में भी व्यापार का माध्यम वस्तु-विनिमय ही था।

सिक्कों के मान :

साधारण लेन-देन और व्यापार कौड़ियों के माध्यम से होता था, जिन्हें प्रतीहार अभिलेखों में कपर्दक कहा गया है। लखनऊ के पास भौन्द्री गाँव में जमीन में गढ़ी हुई एक निधि मिली है, जिसमें प्रतीहारों के सिक्कों के अतिरिक्त 9834 कौड़ियाँ है। विदेशी यात्रियों ने दैनिक लेन-देन में कौड़ियों के उपयोग का उल्लेख किया है। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि साधारण व्यापार में कौड़ियों का प्रचलन था।

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