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जैन धर्म के संप्रदाय ‘श्वेताम्बर’ और ‘दिगम्बर’ 

जैन धर्म के संप्रदाय ‘श्वेताम्बर’ और ‘दिगम्बर’ 

जैन धर्म के संप्रदाय

महावीर स्वामी के निर्वाण के उपरान्त उनके शिष्यों तथा अनुयायियों ने जैन धर्म का भारत के विभिन्न प्रदेशों में प्रचार-प्रसार किया। उनके कतिपय सुधर्मन प्रमुख शिष्य जिन्हें ‘गणधर’ कहा जाता था, यथा-इन्द्रभूति, वायुभूति, अग्रिभूति, व्यक्त, मण्डित, मोरियपुत्र, अकंपित, अचलभ्राता, मेतार्य तथा प्रभास आदि ने जैन-धर्म को सुदूर क्षेत्रों तक प्रचारित किया। आगे चलकर सम्राट अशोक के पौत्र ‘सम्प्रति’ ने जैन धर्म स्वीकार करके इसे दक्षिण भारत में प्रचलित करने का उल्लेखनीय प्रयास किया। इसी प्रकार ई०पू० द्वितीय शताब्दी में पूर्वी भारत में कलिंग नरेश खारवेल ने जैन धर्म के प्रचार में भरपूर सहयोग प्रदान किया। ई०पू० द्वितीय शताब्दी में मथुरा जैन धर्म का एक प्रमुख केन्द्र बन चुका था।

महावीर स्वामी के निर्वाण के उपरान्त जैन धर्म के विस्तार के साथ-साथ उसमें वैचारिक मतभेद भी प्रकट हुए। परिणामस्वरूप यह धर्म कई आम्नाओं अथवा सम्प्रदायों में बंट गया। इनमें से दो सम्प्रदाय विशेष उल्लेखनीय हैं। वे हैं-

  1. श्वेताम्बर– अर्थात वे जैन साधु, जो सफेद वस्त्र धारण करते थे, तथा
  2. दिगम्बर– वे जैन साधु जो निर्वस्त्र तथा नंगे रहते थे। महावीर स्वामी जी गृहत्याग करने के तेरह महीने बाद वस्त्र भी त्याग दिया था क्योंकि वस्त्र को भी वे बन्धन समझते थे। तभी से जैन में दिगम्बर रहने की प्रवृत्ति में विकास हुआ।

जैन धर्म में उक्त साम्प्रदायिक विचारों का जन्म किस काल में हुआ-यह कहना बड़ा कठिन है। उत्तराध्ययन सूत्र, आचारांग सूत्र तथा स्थानांग सूत्र में जैन साधुओं द्वारा वस्त्राधारण किए जाने का स्पष्ट वर्णन प्राप्त होता है। हाँ, उत्तराध्ययन सूत्र में एक स्थल पर पाश्वनाथ के अनुयायी केशी तथा महावीर स्वामी के शिष्य गौतम के बीच एक संवाद केवल वस्त्र धारण करने अथवा न करने को लेकर मिलता है, जिसमें गौतम ने अन्ततः वस्त्र-त्याग को बाह्य उपचार मानते हुए इसे आध्यात्मिक उन्नति में सहायक बताया है। फिर भी, उनका विशेष आग्रह मोक्ष के प्रमुख आचरण-श्रद्धा, ज्ञान, अहिंसा तथा सदाचरण आदि पर ही मिलता है न कि वस्त्र धारण अथवा वस्त्र-त्याग पर । ज्ञातव्य है कि जैन धर्म में दिगम्बर संप्रदाय संभवतः प्रारम्भ से ही श्रेष्ठतर माना जाता था। मथुरा से मिली दूसरी शताब्दी ई0 की जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ दिगम्बर ही हैं। चौसा (बक्सर) से प्राप्त काँसें की तीर्थंकर प्रतिमाएँ भी निर्वस्त्र है। वराहमिहिर ने केवल-दिगम्बर जैन मूर्तियों का ही उल्लेख किया है।

ऐसा प्रतीत होता है कि ईसा की चौथी शताब्दी में श्वेताम्बर मूर्तियों का भी निर्माण प्रारम्भ हो चुका था। बलभी से प्राप्त गुप्त युगीन एक काँसे की मूर्ति सवस्त्र है तथा तीर्थंकर को धोती पहने हुए अंकित किया गया है। दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के साधुओं के अनुसार जैन धर्म में दो सम्प्रदायों के जन्म के मूल में एक कथा है। उनके अनुसार सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य के राज्य काल में मगध में एक बहुत बड़ा अकाल पड़ा। इसके कारण मगध में रहने वाले जैन संघ के प्रमुख भद्रवाहु श्रुतकेवली अपने अनुयायियों को लेकर दक्षिणी कर्नाटक प्रदेश में जाकर बस गया। अकाल समाप्त होने पर भद्रबाहु अपने अनुयायियों के साथ पुनः मगध लौट आया। इसी बीच जैन संघ के नियम आचरण आदि को लेकर मगधवासी जैनाचार्य स्थूलभद्र तथा भद्रबाहु में मतभेद हो गया। अकाल के समय अपने अनुयायियों के साथ मगध में निवास करने वाले स्थूलबाहु ने अपने अनुयायियों की पृथक पहचान बनाए रखने के लिए उन्हें वस्त्र धारण करने की अनुमति प्रदान की। इसके विपरीत भद्रबाहु के अनुयायी दिगम्बर बने रहे।

श्वेताम्बर एवं दिगम्बर में अन्तर

श्वेताम्बर एवं दिगम्बर जैन अनुयायियों में मोटे तौर पर निम्नलिखित अन्तर हैं:

  1. श्वेताम्बर सफेद वस्त्र धारण करते हैं तथा नग्न नहीं रहते, जबकि दिगम्बर वस्त्र को भी मोक्ष-प्राप्ति में बाधक मानते हैं तथा नग्न रहते हैं।
  2. श्वेताम्बर जैन स्त्रियों को भी इसी जीवन में निर्वाण का अधिकारी मानते हैं किन्तु दिगम्बर ऐसा नहीं मानते हैं।
  3. श्वेताम्बर अनुयायी मानते हैं कि कैवल्य-ज्ञान की प्राप्ति के उपरान्त भी काया को भोजन की आवश्यकता रहती है किन्तु दिगम्बर इसके विपरीत उपवास पर रहकर शरीर-यात्रा चलाने में विश्वास करते हैं।
  4. श्वेताम्बर मतावलम्बी महावीर स्वामी को गृहस्थ मानते हुए यह प्रतिपादित करते हैं कि ग्रहत्याग के पूर्व उन्होंने यशोदा नामक कन्या से विवाह किया था तथा उससे उनको एक सन्तान भी पैदा हुई थी। इसके विपरीत दिगम्बर जैन साधु महावीर स्वामी को आजन्म ब्रह्मचारी मानते हैं।
  5. श्वेताम्बर सम्प्रदाय के लोग उन्नीसवें तीर्थंकर मल्लिनाथ को स्त्री मानते हैं, इसके विपरीत दिगम्बर सम्प्रदाय के लोग उन्हें स्त्री न मानकर पुरुष मानते हैं।
  6. श्वेताम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी प्राचीन जैन आख्यानों को स्वीकार करते हुए 12 अंगों, 12 उपसोगों, 10 प्रकीर्णक, 4 मूलसूत्र तथा 6 देवसूत्र आदि में विश्वास करते हैं। इसके विपरीत दिगम्बर जैन साधु इनमें विश्वास नहीं करते हैं। इस प्रकार दोनों सम्प्रदायों में कुछ मान्यताओं में अन्तर भले ही रहा हो लेकिन जैन दार्शनिक सिद्धान्तों में दोनों का विश्वास समान रूप से अडिग रहा है। कालान्तर में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के भी तीन उपसम्प्रदाय बन गए-
  7. मूर्तिपूजा अथवा मन्दिरगामी (पुजेरा अथवा डेरावासी)
  8. ढुंढिया या विस्तोल अथवा स्थानकवासी या साधुमार्गी तथा तेरापंथी।

पुजेरा हिन्दू पुजारियों की भाँति फल-फूल, माला, नैवेद्य आदि से तीर्थंकरों की पूजा करने में विश्वास करते हैं । स्थानकवासी मूर्ति-पूजक नहीं हैं। तेरापंथी के प्रवर्तक भिक्खत महराज (1760) भी मूलतः स्थानकवासी थे, जिनके मतानुयायी जैन आचार-सिद्धान्तों में पूर्ण विश्वास करते है।

दिगम्बर सम्प्रदाय भी कालान्तर में तीन उप-सम्प्रदायों में बँट गया-

  1. बीस पंथी अर्थात् सभी जैन देवी-देवताओं के मूर्तिपूजक,
  2. तेरापंथी अर्थात् वे जो केवल तीर्थंकरों की मूर्तियों के पूजक थे तथा
  3. तारणपंथी अथवा समैयापंथी अर्थात वे दिगम्बर साधु जो मूर्तिपूजक नहीं थे।

इनके अतिरिक्त दिगम्बर सम्प्रदाय में तोतापंथ तथा गुमानपंथ नामक दो उपसम्प्रदायों को भी मान्यता प्राप्त थी।

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