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सिंधु घाटी में सामाजिक जीवन

सिंधु घाटी का सामाजिक जीवन

हड़प्पा-संस्कृति से संबद्ध स्थलों की खुदाइयों के आधार पर हम तत्कालीन सामाजिक जीवन की रूपरेखा प्रस्तुत कर सकते भवनां के आकार-प्रकार एवं आर्थिक विषमता के आधार पर कहा जा सकता है कि विश्व की अन्य प्राचीन सभ्यताओं की ही तरह सिंधु-सभ्यता का समाज भी वर्ग-विभेद पर आश्रित था। उत्खनन में जहाँ कुछ धनिकों के मकान मिले हैं, वहीं गरीबों के भी। दुर्ग के साथ ही मजदूरों की झोपड़ियाँ (बैरक) भी मिली हैं। इनसे वर्ग-विभाजन स्पष्ट हो जाता है। इसी प्रकार धनिकों के गहने मूल्यवान धातु-पत्थरों के बने थे, तो गरीबों के गहने मिट्टी, सीप एवं घोंघे के। उत्खनित वस्तुओं एवं मूर्तियों को देखकर इस सभ्यता के निवासियों के रहन-सहन के स्तर के विषय में भी जानकारी मिली है।

सामाजिक संगठन

परिवार-सामाजिक संगठन के विषय में कुछ अनुमान लगाए गए हैं। संभवतः परिवार समाज की इकाई था। परिवार संयुक्तात्मक होते थे अथवा एकात्मक, इस विषय में स्पष्ट जानकारी नहीं है, परंतु बड़े आवासीय मकानों को देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि बड़े परिवारों में अनेक व्यक्ति रहते होंगे। परिवार पितृसत्तात्मक थे या मातृसत्तात्मक तत्व प्रधान होते थे, अतः अनुमान लगाया जा सकता है कि सिंधु-सभ्यता का परिवार भी मातृसत्तात्मक था। खुदाइयों से प्राप्त बड़ी संख्या में स्त्री-मृण्मूर्तियों को देखकर यह संभावना और अधिक बढ़ जाती है। संभवतः, परिवार रक्त-संबंधों पर आधृत थे। पारिवारिक संस्कारों, यथा विवाह इत्यादि की पद्धति के विषय में हमारी जानकारी नगण्य है।

सामाजिक वर्गीकरण

सिंधुघाटी का समाज कितने वर्गों में विभक्त था इसकी स्पष्ट जानकारी नहीं है। संभवतः, समाज मुख्यतः चार वर्गों में विभक्त था- शासक, धनी या कुलीन वर्ग, मध्यक वर्ग तथा निम्न वर्ग। शासकों के रहने के लिए दुर्ग बनाए जाते थे। धनी या कुलीन वर्ग के मकान बड़े एवं आरामदायक थे। मध्यम वर्ग के निवास अपेक्षाकृत कुछ छोटे थे। निम्र वर्ग वैरकसदृश मकानों या झोपड़ियों में रहता था। कुलीन वर्ग में पुजारी, व्यापारी, योद्धा एवं सैनिक अधिकारियों को रख सकते है। मध्यम वर्ग में कृषक, छोटे व्यापारी,कारीगर, लिपिक, चिकित्सक आते हैं। निम्र वर्ग श्रमजीवी मजदूरों और गुलामों का था। उच्च वर्ग का जीवन सुखी एवं संपन्न था, परंतु गुलामों की अवस्था संतोषजनक नहीं रही होगी। आर्थिक विषमता के बावजूद वर्ग-संघर्ष के विषय में जानकारी नहीं मिलती।

रहन-सहन का स्तर

सिंधुवासी खाने-पीने और वस्त्र-आभूषण के शौकीन थे। वे शाकाहारी एवं मांसाहारी थे। गेहूँ और जौ उनके मुख्य भोज्य पदार्थ थे। कुछ क्षेत्रों में चावल भी प्रचलित था। विभिन्न प्रकार के फल, सब्जियाँ, दूध, मांसा और मछली भी खाए जाते थे। भोजन पकाने तथा खाने के लिए मिट्टी, पत्थर एवं धातु के बरतनों का व्यवहार होता था। घरों में लकड़ी के फर्नीचरों का व्यवहार होता था। रोशनी के लिए संभवतः चर्बीयुक्त दीप या लैंप जलाए जाते थे।

ऊनी एवं सूती दोनों प्रकार के वस्त्रों का व्यवहार किया जाता था। पुरुष ऊपरी कपड़े को चादर की तरह ओढ़ते थे। मोहनजोदाड़ो स प्राप्त योगी या पुजारी की मूर्ति चादर ओढ़े हुए है। कमर के नीचे पुरुष धोतीनुमा वस्त्र पहनते थे। स्त्रियाँ कमर में घाघरा (स्कर्ट) की तरह का वस्त्र पहनती थीं। वे सिर पर एक विशेष प्रकार का वस्त्र धारण करती थीं जो पंखे की तरह उठा रहता था। रंगीन एवं सादे दोनों प्रकार के वस्त्र पहने जाते थे। वस्त्रों की सिलाई भी की जाती थी। धनिकों के वस्त्र कलात्मक एवं बेलबूटेदार होते थे।

पुरुष एवं स्त्री दोनों ही आभूषण पहनने के शौकीन थे। गरीब मिट्टी, घोंघे, हड्डी या काँसे के आभूषण पहनते थे, परंतु धनी वर्ग के व्यक्ति सोने, चाँदी, हाथीदाँत, बहुमूल्य एवं अर्द्धबहुमूल्य पत्थर के आभूषण पहनते थे। गहनों में प्रमुख हार, कंगन, नथुनी, पाजेब, बाली एवं अंगूठियाँ हैं। स्त्रियाँ बालों में पिन (hair-pin) भी लगाती थीं। वे चूड़ियाँ भी पहनती थीं। उत्खननों में विभिन्न प्रकार के आभूषण मिले हैं। ताबीज भी आभूषण के रूप में पहने जाते थे।

स्त्री-पुरुष अपने बाल विभिन्न ढंग से संवारा करते थे। कुछ पुरुष दाढ़ी-मूंछ रखने के शौकीन थे, तो कुछ अपना चेहरा साफ रखते थे। पुरुष भी लंबे बाल रखते थे। स्त्रियाँ लंबे बाल रखने, जूड़ा-चोटी बाँधने की शौकीन थीं। पुरुष कभी-कभी अपने सिर के बाल भी उस्तरे की मदद से पूरा साफ कर लिया करते थे। बालों को संवारने के लिए दर्पण एवं कंघी का व्यवहार किया जाता था। खुदाई के दौरान ताँबे के दर्पण एवं हाथीदाँत की कंघियाँ मिली हैं। इसके अतिरिक्त उस्तरे, अंजन-शलाकाएँ एवं शृंगारदान भी मिले हैं। इनसे पता लगता है कि स्त्रियाँ काजल लगाने, ओठ और नाखून रंगने की शौकीन थीं। वे अपने बालों में सुगंधित तेल भी लगाया करती थीं। विभिन्न प्रकार की टोपियों एवं पगड़ियों के पहनने का भी प्रचलन था। स्त्रियाँ शिरस्त्राण भी धारण करती थीं।

सिंधु-सभ्यता के निवासी अपने जीवन में आमोद-प्रमोद को भी समुचित महत्व देते थे। उनके मनोरंजन के विभिन्न साधन थे। जानवरों का शिकार करना, मछली पकड़ना, पक्षियों को फंसाना उनके मनोरंजन के साधन थे। मनारंजन के लिए पक्षियों को पिजड़ों में पाला भी जाता था। पशुओं से लड़ना या उन्हें आपस में लड़वाना भी मनोरंजन का एक साधन था। उदाहरणस्वरूप, एक मुहर पर दो जंगली मुर्गों के लड़ने का चित्र अंकित है। कुछ मुहरों पर वाद्य-यंत्रों के भी चित्र अंकित हैं, जिनसे संगीत में रूचि का प्रमाण मिलता है। इसी प्रकार नर्तक एवं नर्तकी की मूर्तियों को देखने से नृत्य के प्रति लोगों की आसक्ति परिलक्षित होती है। मनोरंजन के अन्य साधनों में पासे या चोपड़ का खेल बहुत ज्यादा प्रचलित था; हड़प्पा एवं मोहनजोदाड़ो से ऐसे पासे मिले हैं। शतरंजनुमा खेल भी गोटियों की मदद से खेला जाता था। बच्चों के मनोरंजन के लिए खिलौने बनाए जाते थे। मिट्टी के बने असंख्य खिलौने खुदाइयों से मिले हैं। ये पशु-पक्षियों की आकृतिवाले तथा कुछ मानव-आकृतिवाले भी हैं। इनके अतिरिक्त मिट्टी की खिलानानुमा गाड़ियाँ, गोलियाँ, सीटियाँ, झुनझुने इत्यादि भी मिले हैं जिनमे पता चलता है कि बच्चों के मनोरंजन पर भी ध्यान दिया जाता था।

अंत्येष्टिक्रिया की प्रथा

सिंधु-सभ्यता की निवासियों की शवविसर्जन-प्रणाली पर भी उत्खननों से कुछ प्रकाश पड़ता है। प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि वे तीन प्रकार से मृतकों का संस्कार करते थे। वे तीन विधियाँ निम्नलिखित हैं-

पूर्ण समाधिकरण की प्रथा- इस प्रथा के अनुसार शव को जमीन में दफना दिया जाता था। मृतकों के साथ उनके प्रयोग की आवश्यक वस्तुएँ भी रख दी जाती थीं।

आंशिक समाधिकरण- इस विधि में शव को कुछ समय तक किसी खुले स्थान पर रख दिया जाता था। पशु-पक्षियों के खाने के पश्चात बचा हुआ अवशेष दफना दिया जाता था।

दाह-कर्म की प्रथा-इस व्यवस्था के अनुसार शव को अग्नि के सुपुर्द कर दिया जाता था। भस्मावशेषों को मिट्टी के पात्रों में रखकर कभी-कभी दफना भी दिया जाता था।

अंत्येष्टि की ये तीनों प्रणालियाँ सिंधु-सभ्यता में प्रचलित थीं, परंतु यह निश्चित करना कठिन है कि किस वर्ग में किस प्रकार की प्रथा प्रचलित थी। कुछ लोग मृतकों का प्रवाह भी करते होंगे। यद्यपि मिस्रवालों की तरह सिंधुवासी भी अपने मृतकों के साथ आवश्यकता की वस्तुएँ दफनाते थे, तथापि मिस्रवालों को पुनर्जन्म एवं भावी जीवन में जितना अधिक विश्वास था, उतना सिंधु-सभ्यतावालों को नहीं।

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