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गुप्तोत्तर काल में संस्कृति का विकास

गुप्तोत्तर कालीन सांस्कृतिक विकास

गुप्तोत्तर कालीन सांस्कृतिक विकास

धार्मिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से गुप्तोत्तर काल में क्षेत्रीय सांस्कृतिक इकाइयों का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण विशेषता है। आंध्र, आसाम, बंगाल, गुजरात, राजस्थान, कर्णाटक, केरल महाराष्ट्र, उड़ीसा, तमिलनाडु, आदि सभी स्पष्ट रूप से अपना सांस्कृतिक व्यक्तित्व बना रहे थे। 8वीं शताब्दी के एक जैन ग्रंथ कुवलयमाला में 18 प्रमुख राष्ट्रों तथा 16 प्रकार के लोगों की नृवंशात्मक विशिष्टताओं का वर्णन है।

भाषा और साहित्य की दृष्टि से भी यह काल क्षेत्रीतयता के चिन्ह प्रस्तुत करता है। संस्कृत के प्रयोगों में क्लिष्टता एवं कृत्रिमता आती जा रही थी, अपभ्रंश का विकास आद्य-हिंदी, आद्य-बंगाली, आद्य-राजस्थानी, आद्य-गुजराती, आद्य-मराठी आदि के रूप में हुआ। इस प्रकार क्षेत्रीय भाषाओं के बीच इसी काल में दृष्टिगोचर होते हैं। अत्यधिक क्षेत्रीय राजनीतिक शक्तियों और उनके बीच गिरते हुए संचार-संबंधों के कारण क्षेत्रीय भाषाओं के प्रसार का वातावरण और अधिक उत्पादक हो गया। क्षेत्रीय भाषाओं का समांतर रूप क्षेत्रीय लिपियों में दृष्टिगोचर होता है। मौर्य से गुप्त काल तक ब्राह्मी लिपि में केवल समय के साथ परिवर्तन आए। गुप्त ब्राह्मी जानने वाला अभिलेखविद् भारत के सभी भागों के अभिलेख पढ़ सकता है किन्तु सातवीं शताब्दी के पश्चात विभिन्न क्षेत्रों के अभिलेख विभिन्न लिपियों में हैं।

सामंती विशेषताओं के आविर्भाव का जो उल्लेख ऊपर यत्र-तत्र किया गया है, उससे धार्मिक रीति-रिवाजों में भी परिवर्तन आए। भूमि के प्रत्यर्पण तथा स्वामी भाव के जन्म से पूजा और भक्ति के स्वरूप को नवीन दिशा दी गई। पूजा और भक्ति दोनों ही तांत्रिक धर्म के अभिन्न तत्व बन गए। भौतिक आवश्यकताओं और दिन-प्रतिदिन की आधि-व्याधियों को दूर करने के जादू-टोनों के उल्लेख तो अथर्ववेद में भी मिलते हैं। किन्तु अब शिक्षित ब्राह्मणों एवं उनके धनाढय ग्राहकों ने उनको औपचारिकता प्रदान की, उन्हें पोषित किया और कुछ तोड़-मरोड़ भी दिया। मध्ययुगीन तांत्रिक ने अब पुरोहित, चिकित्सक या ज्योतिषी का रूप ले लिया।

कला और स्थापत्य के क्षेत्र में भी क्षेत्रीय शैलियाँ उभरकर सामने आई। बंगाल, गुजरात, राजस्थान, तमिलनाडु, उड़ीसा आदि सभी क्षेत्रों में विशिष्ट शैलियाँ दृष्टिगोचर होती है। गुप्तोत्तर काल की मूर्तिकला में एक पद सोपान दृष्टिगोचर होता है, जो सामंती मूल्यों का प्रतिबिंब ही है। विष्णु, शिव, दुर्गा आदि सभी देवी-देवता छोटे-छोटे देवों पर स्वामित्व व्यक्त करते हुए प्रदर्शित किए गए है।

धर्म

इस युग में ब्राह्मण और बौद्ध धर्म का नई दिशा में विस्तार हुआ। नवीन सिद्धांतों एवं धार्मिक क्रियाओं का समावेश हुआ। इन धर्मों के नए रूप समाज के सामने आए। जैन धर्म भी इस प्रगति से अप्रभावित न रह सका, यद्यपि इसमें परिवर्तन की गति धीमी रही।

धार्मिक विचारों के विकास का एक प्रबल कारण तांत्रिक पूजा और उपासना का वेग है जिसने बौद्ध धर्म के मूल रूप को ही बदल दिया। इन तांत्रिक विचारों ने ब्राह्मण धर्म के विभिन्न संप्रदायों में भी प्रवेश किया और उनके आधारभूत विचारों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ। विभिन्न धार्मिक संप्रदायों ने एक-दूसरे को प्रभावित किया। वैष्णव और शैव धर्म की तरह बौद्ध और जैन धर्मों में ईश्वरवादी प्रवृत्तियाँ दिखाई देती है। बुद्ध और जिन देवता माने जाने लगे और उनकी मूर्तियों की पूजा मंदिरों में भक्तिमय गीतों से होने लगी। बुद्ध और जिनको विष्णु का अवतार माना जाने लगा। समन्वयवादी प्रवृत्ति का उदाहरण हरिहर तथा बुद्धशिव की मूर्तियाँ हैं।

वैष्णव मत :

गुप्त काल में वैष्णव धर्म पूर्ण रूप से विकसित हो चुका था और विष्णु के अवतारों का सिद्धांत स्थापित हो चुका था। विष्णु के अनेक अवतारों की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की जाती थीं, जैसे वराह और अनंतशायी की। अवतारवाद के विकास एवं प्रसार में पुराणों का प्रमुख योगदान हैं। अवतारवाद जनसाधारण के पुनरुत्थान की आशा एवं आकांक्षा का प्रतीक है। बारहवीं शताब्दी में भक्ति-आन्दोलन ने जो जोर पकड़ा, उसकी पृष्ठभूमि में जनसाधारण की यही आशा और आकांक्षा थी। अवतारों में वराह, कृष्ण और राम अधिक लोकप्रिय थे। आदि वराह की मूर्तियाँ बादामी की गुहाओं, महाबलिपुरम, मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान, बंगाल, उड़ीसा तथा उत्तर प्रदेश से मिली हैं। प्रतीहार नरेश भोज ने आदि वराह की उपाधि धारण की थी और इसी शैली के सिक्के भी जारी किए थे।

अभिलेखों तथा स्मारकों से विदित होता है कि गुप्तोत्तर काल में वैष्णव धर्म भारतवर्ष मे प्रचलित था और अनेक राजवंश इसके अनुयायी थे, जैसे कश्मीर के दुर्लभवर्धन, ललितादित्य, बंगाल के सेन नरेश, प्रतीहार नरेश देवशक्ति और अनेक गुहिल, चंदेल व चौहान नरेश। किन्तु वैष्णव धर्म का गढ़ दक्षिण में तमिल प्रदेश में था। यहाँ वैष्णव मत के आदि प्रवर्तक अलवर संत थे। 9वीं और 10वीं शताब्दी का अंतिम चरण अलवरों के धार्मिक पुनरुत्थान का उत्कर्ष काल है। इस भक्ति आन्दोलन में तिरूमगाई पेरिय अलवार, स्त्री संत अंदाल तथा नाम्मालवार के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। अलवार भक्ति आंदोलन की प्रमुख विशेषता है कि यह आन्दोलन मूलतः भावनात्मक है, दार्शनिक नहीं। उनकी दृष्टि में भक्ति, प्रेम तथा शरणागति से मोक्ष की प्राप्ति संभव है। वे एकेश्वरवादी थे और विष्णु की ही पूजा करते थे। विष्णु परमदेव विश्वात्मा, सर्वज्ञानमय, अनंत, अमेय है, असीम ब्रह्म होते हुए भी प्राणियों के अनुग्रह के लिए वह पृथ्वी पर अवतार लेता है और मूर्ति के रूप में सीमित रहता है। अवतारों में कृष्ण का अवतार लोकप्रिय है। विष्णु के अर्चनावतारों की पूजा से वैकुंठ में ईश्वर की सेवा का अवसर मिलता है। प्रपत्ति द्वारा ईश्वर से ऐक्य ऊँच और नीच सभी को प्राप्त हो सकता है। इसमें ज्ञान, सामाजिक स्तर तथा व्रत के बंधन नहीं अलवार संतों में कुछ शूद्र थे, जैसे तिरुमंगाई वेल्लाल जाति का था।

अलवार संतों के बाद आचार्यों ने धर्म-प्रचार का कार्य आगे बढ़ाया। अलवारों ने वैष्णव धर्म के भावनात्मक पक्ष का प्रसार किया तो आचार्यों ने बौद्धिक और दार्शनिक पक्ष को भी अपनाया। उनकी शिक्षाओं में कर्म, ज्ञान और भक्ति का सम्मिश्रण है। ये शिक्षाएँ संस्कृत और तमिल ग्रंथों पर आधारित हैं। आचार्यों ने वेद, उपनिषद, गीता तथा तमिल प्रबंधम के बीच सामंजस्य स्थापित किया। उन्होंने अलवार संतों तथा तमिल प्रबंधों की पूजा परंपरा स्थापित की। धार्मिक शिक्षा में उन्होंने वेदों के साथ प्रबंधम् को भी सम्मिलित किया। वे आधुनिक श्री वैष्णव संप्रदाय के निर्माता थे। इन आचार्यों में सर्वप्रथम नाथमुनि थे। उन्हें राजेन्द्र चोल का समकालीन माना जाता है। उसने प्रबंधम को वेद का स्थान दिया और श्रीरंगम के मन्दिर में प्रबंधम के पाठ का भी गणेश किया। इसका अनुकरण सभी वैष्णव मंदिरों में किया गया।

शैव धर्म :

हिन्दू धर्म के अन्तर्गत जितने संप्रदाय थे उनमें शैव सम्प्रदाय सबसे अधिक प्रबल था। जनसाधारण के अतिरिक्त अनेक राजवंशों ने शैव धर्म अपनाया और मन्दिर बनवाए। ह्यूनत्सांग ने शिव का उल्लेख किया है। हर्षचरित में बाण लिखा है कि स्थानेश्वर में घर में खण्डपरेशु (शिव) की पूजा होती है यद्यपि ह्यूनत्सांग के वृत्तांत में हर्ष को बौद्ध का अनुयायी तथा संरक्षक माना गया है। वांसखेरा तथा मधुवन ताम्रलेखों से ज्ञात होता है कि 619 ई0 तक वह शैव थे। हर्षचरित के अध्ययन से भी हम इसी निर्णय पर पहुँचते हैं। कामरूप के राजा भास्कर वर्मन भी शैव थे।

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