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मुगलकालीन प्रान्तीय प्रशासन

मुगलकालीन प्रांतीय प्रशासन

मुगलकालीन प्रांतीय प्रशासन

मुगल साम्राज्य सूबों में बँटा हुआ था। अकबर के शासनकाल में 15 सूबे थे। औरंगजेब के काल में ये 20 हो गये। प्रत्येक प्रान्त का प्रधान एक राज्यपाल होता था जो अकबर के शासनकाल में सिपहसालार और उसके उत्तराधिकारियों के कुछ बाहरी नगर-भाग मुगलपुरा, जैसिंहपुरा और जसवन्तसिंह पुरा थे और आगरा के बाहर बलोचपुरा और प्रतापपुरा थे। प्रायः हर नगर के कस्बे की चहारदीवारी होती थी, किन्तु नगर के बाहरी भाग चहारदीवारी के बाहर ही होते थे। नगर बसाने के समय सम्राट की आज्ञा से बड़ी-बड़ी सड़कें बनायी जाती थीं और एक सार्वजनिक गन्दा नाला खोदा जाता था। कभी-कभी नदी अथवा झील से पानी लाने के लिए सरकार पक्की नहर भी बनवा देती थी। किन्तु छोटी-छोटी गलियाँ नागरिक स्वयं बनाते थे और कुएँ खोदकर पानी का प्रबन्ध भी स्वयं ही करते थे। सरकार देश के अन्तरतम भाग में रहने वाले व्यक्तियों की केवल सुरक्षा की हो उत्तरदायी होती थी। वह बड़ी-बड़ी सड़कों की सफाई करवाती थी, बाजारों पर नियन्त्रण रखती थी और तहबाजारी, कस्टम और चुंगी इत्यादि कर (टैक्स) वसूल करती थी। नगरवासियों से जो कर वसूल किये जाते थे उसमें अन्न-कर और नमक कर सबसे मुख्य होते थे। सरकार रोशनी, जल, चौकीदार, दवा-दारू अथवा शिक्षा का कोई प्रबन्ध नहीं करती थी। इसका प्रबन्ध जनता स्वयं करती थी। प्रान्तीय प्रशासन केन्द्रीय प्रशासन का लघु रूप था। प्रान्तीय प्रशासन में निम्नलिखित प्रमुख अधिकारी होते थे :-

सिपहसालार-

प्रत्येक प्रान्त में ‘सिपहसालार’ होता था जो ‘नाजिम’ अथवा ‘सूबेदार’ के नाम से भी जाना जाता था। वह प्रान्त में बादशाह का प्रतिनिधि तथा प्रशासन का सर्वोच्च अधिकारी होता था। उसका प्रमुख कार्य प्रान्त में व्यवस्था स्थापित करना भूमिकर के सफल संग्रह में सहायता करना तथा राजकीय नियमों एवं आदेशों का पालन कराना था। सिपहसालार अथवा सूबेदार के पद पर उच्च श्रेणी के मनसबदारों को नियुक्त किया जाता था। प्रान्त के प्रशासन एवं व्यवस्था के लिये वह उत्तरदायी होता था। प्रान्तीय सेना के सर्वोच्च अधिकारी के रूप में वह सेना का नेतृत्व करता था। बादशाह की ओर से उसे निर्देश प्राप्त था कि वह विद्वानों एवं सन्तों के प्रति उदारतापूर्ण व्यवहार करे, किसी के धर्म में हस्तक्षेप न करे तथा धार्मिक विवाद सद्र के पास भेज दे। यद्यपि सूबेदार फौजदारी मुकदमों का निर्णय भी करता था किन्तु वह किसी को मृत्युदण्ड नहीं दे सकता था। इसके लिये बादशाह की अनुमति लेना आवश्यक था। इसके अतिरिक्त वह काजी तथा मीर अदल के निर्णयों के विरुद्ध अपीलें भी सुनता था। प्रान्त के अन्तर्गत विद्रोही जमींदारों का दमन करना भी उसका प्रमुख कार्य था। वह अपने प्रान्त की गतिविधियों की सम्पूर्ण सूचना केन्द्र को भेजता था।

दीवान-

प्रान्त का दूसरा प्रमुख अधिकारी ‘दीवान’ होता था। एक प्रकार से वह सूबेदार का प्रतिद्वन्द्वी होता था। सूबेदार तथा दीवान एक दूसरे पर कड़ी दृष्टि रखते थे। आरम्भ में दीवान की नियुक्ति सूबेदार द्वारा ही होती थी किन्तु बाद में इसकी नियुक्ति केन्द्रीय दीवान द्वारा होने लगी जिससे प्रान्तीय दीवान सूबेदार के समकक्ष हो गया। वह केन्द्रीय दीवान के निर्देशों के अनुसार प्रान्त में राजस्व की वसूली करता था। केन्द्रीय दीवान की ओर से यह निर्देश दिया गया था कि वे लोगों को ग्रामों में बसने तथा कृषि के लिये प्रोत्साहित करें, राजकीय कोष के प्रति सजग रहें, आमिलों पर नियन्त्रण रखें, शेष राजस्व किस्तों में वसूलें तथा तकावी (ऋण) वसूल करें। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि वह प्रान्त के आर्थिक मामलों एवं राजस्व का सर्वोच्च अधिकारी होता था।

सद्र-

प्रान्तों में ‘सद्र’ की नियुक्त केन्द्र द्वारा होती थी। उच्च कोटि के विद्वान एवं पवित्र आचरण वाले व्यक्ति ही इस पद पर नियुक्त किये जाते थे। सद्र प्रान्त में धार्मिक संस्थाओं, सन्तों एवं विद्वानों को प्रदान की गई भूमि (सयूरगाल) का प्रभारी होता तथा इसके सम्बन्ध में समस्त सूचनायें केन्द्र को भेजता था। वह काजी के रूप में धार्मिक विवादों का समाधान करता था। उसकी सहायता के लिए मीर अदल तथा स्थानीय काजी भी होते थे। इस प्रकार प्रान्त में वह बहुत सम्मानित माना जाता था।

कोतवाल-

प्रत्येक प्रान्त के मुख्यालय में एक ‘कोतवाल’ होता था जो वस्तुतः नगर पुलिस के प्रधान के रूप में कार्य करता था। ‘मीराते अहमदी’ नामक ग्रन्थ में कोतवाल के सम्बन्ध में अकबर के निर्देश उल्लिखित हैं जिसमें कहा गया है कि “कोतवाल लिपिकों की सहायता से उस स्थान के मकानों एवं भवनों की एक सूची तैयार करे, उसमें प्रत्येक मकान के अन्तर्गत उसके निवासियों का नाम लिखे तथा इस बात का भी उल्लेख करे कि वे किस प्रकार के व्यक्ति हैं, उनमें से कितने लावारिस हैं, कितने कारीगर हैं, कितने सैनिक हैं, कितने दर्वेश है। प्रतिदिन एवं प्रति रात जासूस आयें और कोतवाल के कार्यालय में प्रत्येक मुहल्ले की घटनाओं के कारणों को दर्ज करायें। एक अतिथि के आगमन चाहे वह सम्बन्धी ही अथवा अपरिचित, उसकी सूचना उस मुहल्ले के मुखिया को हो जानी चाहिये। कोतवाल को प्रत्येक व्यक्ति के आय-व्यय के सम्बन्ध में जानकारी होनी चाहिये क्योंकि जब एक व्यक्ति अपनी आय से अधिक व्यय करता है तो यह निश्चित है कि वह भ्रष्टाचार कर रहा है। उसे बाजारों में वस्तुओं का मूल्य निश्चित कर देना चाहिये और अधिक क्रय अथवा थोड़ा विक्रय का एकाधिकार स्थापित करने से धनिकों को वंचित कर देना चाहिए। कोतवाल को अपने क्षेत्र में शराब बेचना और पीना बन्द करवा देना चाहिये।”

बकाए-नवीस-

प्रत्येक प्रान्त में एक वकाए-नवीस होता था। प्रायः प्रान्तीय बख्शी ही वकाए-नवीस रूप में भी कार्य करता था जो प्रान्त की सभी महत्वपूर्ण घटनाओं की सूचनायें बादशाह को भेजता था। इसके अतिरिक्त प्रान्तों में सवानेह-निगार, खुफिया-नवीस एवं हरकारे भी होते थे। सवानेह-निगार का कार्य राजकीय कर्मचारियों एवं कार्यालयों के सम्बन्ध में सूचनायें भेजना था। खुफिया-नवीस महत्वपूर्ण स्थानों पर नियुक्त किए जाते थे जो गुप्त रूप से राजकीय कर्मचारियों तथा घटनाओं की सूचनायें केन्द्र को भेजते थे।

मीर वहर-

प्रान्तों में ‘मीर वहर’ नामक अधिकारी नियुक्त किया गया जिसका प्रमुख कार्य सेना को नदी-पार करने के लिये पुलों और नावों की व्यवस्था करना था। बन्दरगाहों एवं नदियों की चुंगी आदि की व्यवस्था करना भी उसके कार्य के अन्तर्गत था।

सरकार प्रशासन

प्रशासन की सुविधा की दृष्टि से प्रत्येक प्रान्त को अनेक सरकारों अथवा जिलों में विभाजित किया गया था। सरकार के प्रशासन के लिये निम्नलिखित अधिकारी नियुक्त किये गयेः

फौजदार-

प्रत्येक सरकार में एक ‘फौजदार’ नियुक्त किया गया जो सरकार का प्रमुख अधिकारी होता था। इसकी नियुक्ति शाही आदेश द्वारा प्राप्त होती थी तथा यह सरकार में सूबेदार के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करता था। अबुल फज्ल अपनी प्रसिद्ध रचना ‘आईन-ए-अकबरी’ में फौजदार के कर्तव्यों का उल्लेख करते हुये लिखता है कि उसे निरन्तर सैनिकों की साज-सज्जा का निरीक्षण करते रहना चाहिये और घोड़ों की पूर्ति करना चाहिये किन्तु बिना आवश्यकता के विद्रोही जमीदारों तथा किसानों के विरुद्ध शक्ति का प्रयोग नहीं करना चाहिये। सरकार में शान्ति एवं सुव्यवस्था के लिये फौजदार उत्तरदायी था। वह शाही आदेशों को अपने सरकार में कार्यान्वित करता तथा भूमिकर की वसूली में ‘अमल गुजार’ की सहायता भी करता था। वह सरकार की सेना एवं पुलिस पर नियन्त्रण रखता था।

अमलगुजार-

सरकार में राजस्व का प्रमुख अधिकारी अमलगुजार था जो केन्द्र द्वारा नियुक्त किया जाता था। इसका प्रमुख कार्य भूमिकर निर्धारित कर उसकी वसूली करना तथा भ्रष्ट कृषकों को दण्ड देना था। सरकार के अन्तर्गत सयूरगाल भूमि की देख-रेख करना भी उसका कार्य था। राजस्व सम्बन्धी कार्यों के लिये उसके अधीन अनेक सहायक अधिकारी होते थे। अमलगुजार सरकार के भूमि-मापन तथा भूमिकर का विवरण केन्द्र को भेजता था। इसके अतिरिक्त राजस्व के रूप में इकट्ठा की गई धनराशि शाही खजाने में जमा करता था। वह राजस्व विभाग क निम्न अधिकारियों के लेखा-व्यौरा का निरीक्षण भी करता था।

काजी-

प्रत्येक सरकार में एक ‘काजी’ की व्यवस्था की गई जिसकी नियुक्ति सद्र-उस-सुदूर द्वारा की जाती थी। ‘काजी’ इस्लाम के नियमों के अनुसार धार्मिक प्रश्नों का समाधान करता था। नियमों की व्याख्या के लिये ‘मुफ्ती’ होता था जो उसके सहायक के रूप में कार्य करता था।

बितिकची-

‘अमलगुजार’ के पश्चात सरकार में राजस्व विभाग का दूसरा प्रमुख अधिकारी ‘बितिकची’ होता था। उसे सरकार के राजस्व सम्बन्धी बातों की पूर्ण जानकारी होती थी। उसके पास भूमि की पैमाइश, उसकी श्रेणी तथा उपज आदि का पूर्ण व्यौरा होता था जिसके आधार पर अमलगुजार भूमिकर निर्धारित करता था। उसे प्रत्येक ऋतु के भूमिकर तथा वार्षिक भूमिकर का विवरण अमलगुजार के सम्मुख प्रस्तुत करना पड़ता था।

खजानादार-

प्रत्येक सरकार में एक ‘खजानादार’ होता था जो कोषागार का प्रभारी होता था। इसके पास भूमिकर की धनराशि जमा की जाती थी जिसे वह केन्द्रीय राजकोष को भेज देता था। किन्तु बिना प्रान्तीय दीवान की अनुमति के वह कोई धनराशि व्यय नहीं कर सकता था।

ग्रामीण प्रशासन

ग्रामीण शासन-प्रबन्ध हमारी जाति की सबसे बड़ी वैधानिक देन है। आदिकाल से ही भारत की ग्रामीण जनता सुसंगठित रहकर अपने सारे मामले पंचायत के द्वारा तय करती आयी है। प्रत्येक गाँव में प्रजातन्त्रात्मक पंचायत होती थी जिसमें परिवारों के प्रधान रहते थे। यह पंचायत गाँव की चौकीदारी, सफाई, प्रारम्भिक शिक्षा, सिंचाई, दवा-दारू, सड़क, चरित्र-गठन और धार्मिक कृत्य इत्यादि के प्रबन्ध की उत्तरदायी होती थी। यह मनोरंजन, संगीत और उत्सवों का प्रबन्ध भी करती थी। मुकदमों को तय करने के लिए पंचायत होती थी। गांव की पंचायत की बहुत-सी छोटे-छोटी उपसमतियाँ होती थीं जिनके अलग-अलग काम होते थे। इन उपसमितियों के सदस्य एक प्रकार के चुनाव द्वारा ही चुने जाते थे। इसके अतिरिक्त विवादग्रस्त झगड़ों के तय करने के लिए जातीय पंचायतें होती थीं। ग्राम पंचायत में ये लोग होते थे- एक या दो चौकीदार, एक पुरोहित, एक अध्यापक एक ज्योतिषी, एक बढ़ई, एक लुहार, एक कुम्हार, एक धोबी, एक नाई, एक वैद्य और एक पटवारी। ग्रामीण जनता ही हमारे समाज और संस्कृति की सदा से संरक्षिका रही है।

परगना प्रशासन

प्रत्येक सरकार अनेक परगनों में विभाजित था दूसरे शब्दों में कई गाँवों को सम्मिलित कर उसे ‘परगना’ का नाम दिया गया। शेरशाह के परगना प्रशासन में अकबर ने कुछ सुधार किया। परगना का प्रशासन निम्नलिखित अधिकारियों द्वारा सम्पन्न किया जाता था।

शिकदार-

परगने का प्रधान अधिकारी ‘शिकदार’ कहलाता था जो वहाँ की शान्ति एवं सुव्यवस्था के लिये उत्तरदायी था। वह फौजदार के अधीन रहता था। कृषकों से राजस्व की वसूली में वह आमिल की सहायता भी करता था। इसके अतिरिक्त शिकदार परगने में न्यायाधीश के रूप में फौजदारी मुकदमों का निर्णय भी करता था।

आमिल-

प्रत्येक परगने में एक ‘आमिल’ होता था। परगने में आमिल का वही कार्य था जो सरकार में अमलगुजार का होता था। इसका प्रमुख कार्य भूमिकर का निर्धारण तथा उसकी वसूली करना था। परगना में शिकदार तथा आमिल एक दूसरे पर अवलम्बित रहते थे। जहाँ आमिल शिकदार का कानून एवं व्यवस्था बनाने न्यायधीश के रूप में सहायक होता था वहीं शिकदार आमिल को भूमिकर की वसूली में सहायता देता था। आमिल के अन्तर्गत कारकुन होते थे जो लिपिक की भाँति उसकी सहायता करते थे।

कानूनगो-

प्रत्येक परगने में ‘कानूनगो’ नियुक्त किये गये। “कानूनगो जैसा कि नाम से प्रतीत होता है साधारण रूप से व्यवह्त होने वाले नियमों और प्रथाओं का एक चलता-फिरता कोष तथा कार्यवाहियों से सम्बन्धित सूचनाओं, पूर्व-दृष्टान्तों, अतीत के भू-इतिहासों आदि का भण्डार था।” कानूनगो परगने की उपज और भूमिकर की जमा तथा बकाया राशि का विवरण रखता था। इसकी सहायता के लिए अनेक पटवारी होते थे।

फोतदार-

सरकार के खजानादार की भाँति परगने में ‘फोतदार’ की व्यवस्था थी जो कोषागार का प्रभारी होता था। यह राजस्व के रूप में प्राप्त होने वाली धनराशि को एकत्रित कर उसे नियमित रूप से सरकार के मुख्यालय को भेजता था।

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