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19वीं शताब्दी में शिक्षा विकास

19वीं शताब्दी में शिक्षा का विकास

19वीं शताब्दी में शिक्षा का विकास

उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ तक देशी द्वति का प्रमुख स्थान बना रहा, परंतु उसके बाद परंपरागत देशी पद्धति को हटाकर उसके स्थान पर आधुनिक शिक्षा-पद्धति का विकास किया। नवीन और प्राचीन के बीच संघर्ष में आधुनिक शिक्षा के समर्थकों को सफलता प्राप्त हुई। ब्रिटिश शिक्षा-पद्धति के अनुकरण पर बल दिया गया तथा देशी पद्धति की समाप्ति को उचित समझा गया। शिक्षा नीति के निर्माण में भारत के अंग्रेज शासकों ने इस सिद्धांत का अक्षरशः पालन किया कि “यदि किसी देश को दास रखना है, तो उसके साहित्य और संस्कृति का विनाश कर देना चाहिए।”

नई शिक्षा-पद्धति का उद्देश्य था अंग्रेजी भाषा के माध्यम से पाश्चात्य ज्ञान का प्रसार करना। देशी शिक्षा-संस्थाओं के पुनरूत्थान की योजनाओं की ईस्ट इंडिया कंपनी और ब्रिटिश पार्लियामेंट ने पूर्णतः उपेक्षा की। अनेक भारतीय जो या तो नई पद्धति के अधीन शिक्षित हुए थे अथवा उसके लाभों को महत्वपूर्ण मानते थे, ब्रिटिश प्रणाली के प्रबल समर्थक बने।

ईसाई मिशनरियों की मूल प्रेरणा थी भारतीय जनता में ईसाई धर्म का प्रचार करना। आधुनिक भारत के शिक्षा क्षेत्र में जो निजी उद्यम में मिशनरी अग्रणी थे, परंतु उन्होंने ये विद्यालय धर्म परिवर्तित व्यक्तियों के लिए चलाए। प्रारंभ में जिन लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार किया ये हिंदू समाज के सबसे निम्न वर्गों के थे, अतः वे निरक्षर थे। इन्हें पढ़ने व लिखने की शिक्षा दी गई और बाइबिल को भारतीय भाषाओं में छापा गया। व्यावसायिक विद्यालय भी खोल गए जिससे धर्म-परिवर्तित व्यक्ति अपनी जीविका कमा सकें और सरकार के अधीन नौकरी प्राप्त कर सकें।

मिशनरी शिक्षा के क्षेत्रों में 1813 के चार्टर अधिनियम ने एक अध्याय प्रारंभ किया। उन्हें इसके द्वारा भारत में धर्म-प्रचार और शिक्षण कार्य की स्वतंत्रता मिली। थोड़े ही समय में कंपनी के अधिकृत प्रदेशों में मिशनरियों का जाल बिछ गया। अनेक नई संस्थाओं का जन्म हुआ जिनमें प्रमुख थीं-जनरल बैपटिस्ट मिशनरी सोसायटी, लंदन मिशनरी सोसाइटी, चर्च मिशनरी सोसाइटी, वैसलियन मिशन और स्कॉच मिशनरी सोसाइटी। इनके अतिरिक्त जर्मन वह अमरीकी मिशनरी संस्थाओं की भी स्थापना हुई।

राजा राममोहन राय (1772-1833) प्रगतिशील आधुनिक शिक्षा के अग्रदूत थे। उन्होंने पश्चिमी देशों के वैज्ञानिक और जनतांत्रिक विचारों से प्रभावित होकर अंग्रेजी शिक्षा का स्वागत किया। उन्होंने कहा, “अगर अंग्रेजी शासन का यह उद्देश्य होता कि भारतीयों को अज्ञान के अंधकार में रखा जाए तो संस्कृति शिक्षा प्रणाली को ही जारी रखा गया होता।” आधुनिक भारत के राष्ट्रनिर्माताओं में राजा राममोहन राय का नाम प्रमुख है। शिक्षा के क्षेत्र में उनका योगदान अमूल्य है। वह उन भारतीयों में थे जिन्होंने इस बात को समझा कि प्राच्य-पाश्चात्य दी जाने वाली धार्मिक शिक्षा के समर्थक नहीं थे। राजा राममोहन, राय के वे मित्र थे। उनके सम्मिलित प्रयासों से 1817 में ऐ हिंदू कॉलेज की स्थापना की गई। पाश्चात्य पद्धति पर उच्च शिक्षा देने का यह प्रथम कॉलेज था, जिसका धार्मिक शिक्षा से संबंध नहीं था। इसमें अंग्रेजी, नीतिशास्त्र, व्याकरण, बंगला, इतिहास, भूगोल, गणित और ज्योतिष की शिक्षा दी जाती थी। बाद में वित्तीय कठिनाई के कारण इस विद्यालय का प्रबंध कंपनी को सौंप दिया गया और 1854 में प्रेसिडेंसी महाविद्यालय बना। तत्कालीन शैक्षिक उद्यम में धर्म की प्रधानता थी। कंपनी द्वारा संचालित बनारस संस्कृति कॉलेज तथा कलकत्ता मद्रास में क्रमशः हिंदू धर्म और इस्लाम की शिक्षा की प्रधानता थी। इसके विपरीत हेयर ने एक नई पद्धति निकाली जिसमें संस्कृति और अरवी के बजाय बंगाली और अंग्रेजी पढ़ाई जानी थी। आधुनिक शिक्षा के लिए हेयर का मुख्य योगदान धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत है।

कंपनी के अनेक उदार कर्मचारियों ने निजी तौर पर शिक्षण संस्थाओं को चालू किया। जे0 ई० डी० बेथून ने भारतीय बालिकाओं के लिए 1849 में एक विद्यालय स्थापित किया। बेथून के देहांत के बाद लॉर्ड डलहौजी ने इसे अपने हाथ में ले लिया और ‘बेथून महाविद्यालय’ भारतीय महिलाओं की शिक्षा का प्रमुख केंद्र बन गया।

बंबई में माउंट स्टूअर्ट एलफिंस्टन ने देशी शिक्षा समिति को प्रोत्साहन दिया। इस समिति के विद्यालय भी धार्मिक शिक्षा को अनिवार्य नहीं बताते थे, अतः हिंदू, मुसलमान और पारसी सभी उनमें शिक्षा ग्रहण करते थे।

1854 तक शिक्षा की प्रगति की गति धीमी रहने के कारण थे। वास्तव में वह काल ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार और सृदृढ़ीकरण का काल था। राजनीतिक विषयों में सरकार व्यस्था थी, अतः शिक्षा की ओर ध्यान नहीं दिया गया। शिक्षा विभाग की स्थापना भी 1854 में प्रथम बार की गई। उस समय तक शिक्षा-संबंधी समस्याओं को गवर्नर जनरल, गवर्नर या शिक्षा बोर्ड और समितियों के अध्यक्ष ही निपटाते थे जो स्पष्ट ही शिक्षाविद् नहीं होते थे। कंपनी के कर्मचारी और मिशनरी ही इस क्षेत्र में कार्य करते थे। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर और कुछ अन्य भारतीयों ने शिक्षा में अभिरुचि दिखाई। परंतु सामान्यतः नवीन शिक्षा प्रणाली के निर्माण में भारतयों की भूमिका महत्वपूर्ण नहीं थी।

1854 के पूर्व की शिक्षा-नीति की एक प्रमुख विशेषता यह थ कि यह काल प्रयोगों का काल था। उत्तर-पश्चिमी प्रांत में थॉमसन ने देश विद्यालयों की नींव पर सार्वजनिक शिक्षा-पद्धति का निर्माण करने का प्रयत्न किया। इसके विपरीत बंबई में मातृभाषा को शिक्षा का माध्यम बनाया गया। वह काल विवादों से पूर्ण रहा, अतः उपलब्धियों की अपेक्षा प्रयोगों की अधिकता रही। 1813 के चार्टर अधिनियम के निर्देश अस्पष्ट थे। अतः अगले 40 वर्षों में जिन विषयों के संबंध में विवाद उठे वे थे शिक्षा-नीति के लक्ष्य, शिक्षा माध्यम, शिक्षण-संस्थाओं की व्यवस्था और शिक्षा-प्रणाली। कुछ लोग मिशनरी उद्यमों का समर्थन कर रहे थे तो कुछ अन्य लोग देशी विद्यालयों को प्रोत्साहन देने के समर्थक थे, क्योंकि वे मिशनरियों की धर्म प्रचार की नीति के विरोधी थे। कुछ ऐसे लोग भी थे जो देशी विद्यालयों को समाप्त कर उनके स्थान पर कंपनी द्वारा नियंत्रित नये विद्यालयों की स्थापना की सलाह दे रहे थे।

मैकाले का विवरण पत्र (Macaulay’s brochure)

भारतीय शिक्षा के इतिहास में मैकाले का योगदान अत्यधिक महत्वपूर्ण है। मैकाले की कटु आलोचना भी की गई है और प्रशंसा भी। उनके आलोचकों ने भारत में बाद में फैलने वाले असंतोष व राजनीतिक अशांति का कारण उनकी अंग्रेजी शिक्षा-प्रचार की नीति को बताया है। उन पर भारतीय भाषाओं के अपमान व अवहेलना का दोषारोपण किया गया है। परंतु मैकोले भी भारतीय भाषाओं के महत्व को समझते थे। उन्होंने कहा था, “देशी भाषाओं के प्रोत्साहन एवं विकास में हमारी अत्यधिक रुचि है। हम समझते हैं कि देशी भाषाओं में साहित्य का विकास-हमारा अंतिम उद्देश्य है और हमारे सब प्रयास इस दिशा में लग जाने चाहिए।” परंतु उन्होंने भारतीय भाषाओं को शिक्षा का माध्यम बनाना संभव नहीं समझा। अतः अपने पक्ष को बल देने के लिए उन्होंने प्राच्य साहित्य व धर्म की निंदा की। उनके विवरण-पत्र का यही सर्वप्रमुख दोष है। भारत में उत्पन्न होने वाली राजनीतिक अशांति के लिए मैकॉले द्वारा प्रतिपादित शिक्षा-नीति ही उत्तरदायी नहीं थी। इस नीति की अनुपस्थिति में भी यह अशांति उत्पन्न हो सकती थी। मैकॉले की आलोचना में यह भी कहा गया है कि भारत में पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति के उपासक वर्ग का निर्माण कर उन्होंने भारतीयों में फूट का बीजारोपण करने का प्रयत्न किया।

1854 से पूर्व उच्च शिक्षा का विकास

1854 के पूर्व उच्च शिक्षा के विकास की गति धीमी रही। बंगाल में अंग्रेजी शिक्षा के विद्यालय खोले गये। 1835 में ‘लोक शिक्षा समिति’ 20 विद्यालयों को चला रही थी। 1837 में इनकी संख्या बढ़कर 48 हो गई। लॉर्ड ऑकलैंड ने बंगाल को 9 भागों में विभक्त किया और प्रायः प्रत्येक जिले में विद्यालय स्थापित किये। 1840 में इस प्रकार के 40 विद्यालय थे। 1847 में लॉर्ड हार्डिंग ने अध्यापकों के प्रशिक्षण के लए कलकत्ता में एक नार्मल स्कूल भी खुलवाया। डलहौजी ने 1854 में 33 प्राथमिक विद्यालय खुलवाये। 1844 में कलकत्ता हिन्दू कालेज में इंजीनियरिंग की कक्षा आरंभ की गई। 1854 में बंगाल की शिक्षा परिषद के अन्तर्गत 47 अंग्रेजी स्कूल, 5 अंग्रेजी कालेज, 1 मेडिकल कॉलेज तथा 3 प्राच्य कॉलेज थे। 1835 में ‘कलकत्ता मेडिकल कॉलेज’ की नींव पड़ी जिसमें पाश्चात्य ढंग पर चिकित्सा की शिक्षा दी जाती थी। कलकत्ता में इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना 1856 में हुई।

1840 में बंबई में भारतीय शिक्षा समिति’ को भंग करके उसके स्थान पर शिक्षा बोर्ड की स्थापना की गई। सूरत, रत्नागिरि, अहमदाबाद, धारवाड़, कोल्हापुर, सतारा, राजकोट आदि में अंग्रेजी स्कूलों की स्थापना हुई। 1851 में ‘पूना संस्कृत कॉलेज’ तथा ‘पूना अंग्रेजी स्कूल’ को मिलाकर ‘पूना कॉलेज’ बनाया गया। 1854 में बंबई में देशी शिक्षा के लिए 216 विद्यालय थे। 1854 में बंबई में ‘ग्रान्ट मेडिकल कॉलेज’ की नींव पड़ी। इंजीनियरिंग शिक्षा के लिए 1844 में ‘एलफिन्सटन इंस्टीट्यूट’ में कक्षाएँ खोली गई।

मद्रास में मिशनरी शिक्षा प्रयास महत्वपूर्ण थे। 1830 में मनरो की जनशिक्षा योजना पर रोक लग जाने के बाद तहसीली स्कूलों को बंद करके अंग्रेजी स्कूल खोले गये। 1841 में मद्रास नगर में हाई स्कूल स्थापित किया गया और 1852 में कॉलेज खोला गया।

पंजाब में 1845 में अंग्रेजी शिक्षा के लिए अमृतसर व लाहौर में स्कूल खोले गये। आगरा में एक नॉर्मल स्कूल खोला गया और 1852 में सेंट जॉन्स कॉलेज की स्थापना हुई। 1850 में बरेली में हाईस्कूल व 1853 में बनारस में कॉलेज स्थापित हुए। 1847 में थॉमसन ने रूढ़की में इंजीनियरिंग कॉलेज की स्थापना की। 1845 में ‘कलकत्ता हिंदू कॉलेज’ में कानून की शिक्षा की व्यवस्था की गई।

स्त्री-शिक्षा की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया गया। लार्ड बेंटिक ने सती प्रथा का निषेध कर स्त्रियों की दशा सुधारने का प्रयत्न किया। लॉर्ड डलहौजी ने स्त्री-शिक्षा के संबंध में प्रस्ताव रखे। वुड के घोषणा-पत्र में उनका समर्थन हुआ। परंतु 1854 से पूर्व स्त्री-शिक्षा का विस्तार नहीं हुआ और बहुत कम स्त्रियाँ शिक्षित थीं।

वुड का घोषणा-पत्र

1853 तक शिक्षा क्षेत्र के विशद सर्वेक्षण की आवश्यकता स्पष्ट हो गई थी। 1853 में चार्टर के नवीनीकरण के अवसर पर एक संसदीय समिति नियुक्त की गई। समिति के सुझावों के आधार पर 19 जुलाई 1854 को कंपनी के संचालकों ने अपनी शिक्षा-नीति की घोषणा की। बोर्ड ऑफ कंट्रोल के प्रधान चार्ल्स वुड के नाम पर यह आदेश पत्र, वुड का घोषणा-पत्र कहा गया। यह सौ अनुच्छेदों का एक लंबा अभिलेख था जिसमें शिक्षा के उद्देश्य, माध्यम, सुधारों की योजनाओं आदि पर विस्तार से विचार किया गया था।

घोषणा-पत्र में तीन बातों को महत्व दिया गयाः

  1. ‘अधोमुखी निस्यंदन सिद्धान्त’ को अस्वीकार करना;
  2. माध्यमिक शिक्षा स्तर पर आधुनिक भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाना;
  3. देशी विद्यालयों को राष्ट्रीय शिक्षा-पद्धति का आधार माना जाना। परंतु जनशिक्षा-प्रसार की योजना के लिए अत्यधिक धन की आवश्यकता थी।

अतः घोषणा-पत्र में सहायता-अनुदान (grant-in-aid) का सुझाव दिया गया। प्रांतीय सरकारें, इंग्लैंड की सहायता अनुदान प्रणाली को अपनायें और शिक्षकों के वेतन, छात्रवृत्तियाँ, पुस्तकालयों, वाचनालयों, प्रयोगशलाओं, विज्ञान तथा कला कक्षाओं, भवन-निर्माण आदि के लिए अलग-अलग अनुदान की व्यवस्था करें। इस नीति से मिशनरियों के शिक्षा कार्य को अत्यधिक प्रोत्साहन मिला।

अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए प्रत्येक प्रांत में प्रशिक्षण विद्यालयों के निर्माण का सुझाव रखा गया। छात्राध्यापकों को छात्रवृत्तियाँ तथा शिक्षकों को अधिक वेतन देकर शिक्षा-विभाग को समान रूप से आकर्षक बनाया जाए। स्त्री-शिक्षा के विद्यालयों को सहायता-अनुदान देने की नीति पर बल दिया गया। यह सिफारिश की गई कि व्यावसायिक शिक्षा के विस्तार के लिए स्कूल व कॉलेज खोले जायें, पाश्चात्य साहित्य की पुस्तकों का अनुवाद भारतीय भाषाओं में कराया जाय और देशी भाषाओं के लेखकों को पुरस्कृत किया जाये। शिक्षित व्यक्तियों को सरकारी सेवाओं में प्राथमिकता दी जाये जिससे शिक्षा का प्रसार होगा।

वुड के घोषणा-पत्र में भारतीय शिक्षा के आधारभूत सिद्धान्तों की व्याख्या की गई और भविष्य के लिए शिक्षा-नीति निर्धारित की गई। फिर भी 1854 के घोषणा-पत्र को ‘भारतीय शिक्षा का मैग्नाकार्टा’ (महाधिकार पत्र) कहना अनुचित है। इसमें व्यापक साक्षरता के आदर्श को स्वीकार नहीं किया गया था। इसने विभिन्न वर्गों की शिक्षा में अंतर करने वाले परंपरागत ‘विक्टोरियाई आदर्श’ पर बल दिया। अतः शिक्षा-प्राप्त करने के समान अवसर नहीं प्रदान किये गये। सर फिलिप हार्दोग के अनुसार वुड का घोषणा-पत्र ‘भारत के कल्याण के लिए बुद्धिमत्ता का विकास करने वाली नीति का निर्धारक था।’

हंटर शिक्षा आयोग

1854 के वुड के शिक्षा घोषणा-पत्र के अधीन जो कदम उठाये गये थे उनका मूल्यांकन करने के लिए डब्ल्यू० हंटर की अध्यक्षता में एक कमीशन की नियुक्ति की गई। इसको नियुक्त करने का एक उद्देश्य यह भी पता लगाना था कि किस सीमा तक पादरियों की यह आलोचन तथा शिकायत उचित थी कि वुड शिक्षा घोषणा-पत्र द्वारा दिये गये सुझावों के अनुसार शिक्षा का प्रबंध नहीं किया जा रहा था। इसके अतिरिक्त उसे लोक-शिक्षण या प्राथमिक स्तर पर शिक्षण की स्थिति की समीक्षा कर उसे विस्तार के लिए सुझाव देना था। इस आयोग में 8 भारतीय भी थे। इस आयोग के सदस्यों ने विभिन्न भारतीय क्षेत्रों का दौरा करके अपने सुझाव विस्तार से प्रस्तुत किये। ‘हंटर शिक्षा आयोग 1882’ का कार्य तथा सुझाव-क्षेत्र केवल प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा तक ही सीमित था।

हंटर शिक्षा आयोग के प्रमुख सुझाव निम्नलिखित थे-
  1. हाईस्कूल में दो प्रकार की शिक्षा का आयोजन होना चाहिए। एक प्रकार की शिक्षा में साहित्यिक शिक्षा दी जाये जो विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा में सहायक हो तथा दूसरी प्रकार की शिक्षा व्यावसायिक और व्यापारिक होनी चाहिए।
  2. प्राथमिक शिक्षा के संबंध में सुधार तथा उसके विकास की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।
  3. प्राथमिक शिक्षा उपयोगी विषयों में तथा स्थानीय भाषा में दी जानी चाहिए।
  4. इस शिक्षा के क्षेत्र में निजी प्रयत्न का स्वागत किया जाना चाएि परन्तु यदि वह उपलब्ध न हो तो भी प्राथमिक शिक्षा दी जानी चाहिए।
  5. प्राथमिक शिक्षा का नियंत्रण स्थानीय प्रशासन संस्थाओं, जिला तथा नगर बोर्डो को सौंप दिया जाये। ये स्थानीय संस्थायें शिक्षा के लिए उपकर भी लगा सकती थीं।
  6. निजी प्रयत्नों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ने का पूर्ण अवसर दिया जाना चाहिए। सहायता अनुदान में उदारता और इन सहायता प्राप्त स्कूलों को सरकार स्कूलों के बराबर समझना चाहिए। उनके उनके बराबर ही मान्यता देनी चाहिए।
  7. उच्च शिक्षा के संबंध में सरकार को उच्च शिक्षण संस्थाओं के संचालन तथा प्रबंध से हट जाने का अनुरोध किया गया था।
  8. कॉलेज के लिए सामान्य वित्तीय सहायता तथा अनुदान निर्धारित करने की सरकार को छूट दी गई थी।
  9. आयोग का मत था कि विभिन्न कॉलेजों में एक ही प्रकार के पाठ्यक्रम निर्धारित करने चाहिए।
  10. कॉलेज छात्रों से ली जाने वाली फीस और विद्यार्थियों की उपस्थिति से संबंधित नियम हर जगह प्रायः समान बनाये जाने चाहिए।
  11. छात्रवृत्ति से संबंधित नियमों को नये सिरे से बनाना चाहिए।
  12. धर्म के आवश्यक एवं मौलिक सिद्धान्तों का उल्लेख करते हुए एक पुस्तक तैयार करवाने का सुझाव भी इस आयोग ने दिया था। इसका उद्देश्य छात्रों को नैतिक शिक्षा देना था। यह पुस्तक सभी सरकारी तथा गैर-सरकारी स्कूलों में अनिवार्य करने का सुझाव सरकार को दिया गया था।
  13. जहाँ तक महिलाओं की शिक्षा का संबंध है, हंटर आयोग ने महिला शिक्षा के पर्याप्त प्रबंध के अभाव पर खेद प्रकट किया। उसके मत में केवल प्रेसिडेंसी नगरों में ही इसका प्रबंध था। उसकी सलाह महिला शिक्षा को प्रोत्साहन देने की थी।

1882-1902 के मध्य शिक्षा विस्तार

इस काल में निजी भारतीय प्रबंधकों की शिक्षण संस्थायें मिशनरी शिक्षण संस्थाओं की तुलना में अधिक थी। प्राइमरी शिक्षा पर सरकारी खर्च में थोड़ी वृद्धि हुई थी। 1881-82 में 16.77 लाख रुपये खर्च किए गये थे जो कि 1901-02 में थोड़ा बढ़कर 16.92 लाख रुपये हो गये। शिक्षा के विकास से सबसे अधिक लाभ मध्य वर्ग को हुआ और उससे कुछ कम संपन्न वर्ग ने अंग्रेजी शिक्षा को अपनाया क्योंकि इसे सरकारी नौकरी प्राप्त करने का एक साधन समझा गया था। इस काल में व्यावसायिक शिक्षा तथा पिछड़े हुए वर्गों, जैसे मुसलमानों, हरिजनों महिलाओं और आदिवासियों की शिक्षा में भी वृद्धि हुई थी।

लार्ड कर्जन की शिक्षा-नीति

चारों ओर से विरोध की उपेक्षा करते हुए कर्जन ने प्रचलित शिक्षा-नीति को बदलने के उद्देश्य से 1904 में शिमला में एक सम्मेलन बुलाया और विभिन्न प्रस्तावों द्वारा उसके विचारों को एक व्यवस्थित रूप दे दिया गया। भारतीय समाचार-पत्रों द्वारा कॉलेजों को विश्वविद्यालय द्वारा मान्यता प्रदान करके उनके ऊपर सरकारी नियंत्रण में वृद्धि करने के प्रश्न को लेकर तीव्र आलोचना हुई। 1902 में कर्जन ने थॉमस ऐले की अध्यक्षता में एक विश्वविद्यालय आयोग या यूनिवर्सिटी कमीशन की नियुक्ति की। सैयद हुसैन विलग्रामी और जस्टिस गुरुदास बनर्जी दो भारतीय इस आयोग के सदस्य थे। इस कमीशन का काम विश्वविद्यालय की स्थिति का अनुमान लगाना और उसके संविधान तथा कार्यक्षमता के विषय में सुझाव देना था। यह केवल उच्च शिक्षा एवं विश्वविद्यालय तक ही सीमित था। प्राथमिक तथा माध्यमिक शिक्षा इस आयोग के कार्यक्षेत्र से बाहर थे।

1904 में भारतीय विश्वविद्यालय अधिनियम पारित किया गया, जिसमें विद्यालय प्रशासन के पुनर्गठन, महाविद्यालयों द्वारा अधिक कड़ा तथा व्यवस्थित पर्यवेक्षण तथा संवर्धन की शर्ते निर्धारित करने और परीक्षा प्रणाली तथा पाठ्यचर्याओं में आवश्यक परिवर्तन से संबंधित बातों पर जोर दिया गया था।

1913 की शिक्षा-संबंधी घोषणा

इंग्लैंड में शिक्षा-संबंधी विवादों एवं सुधारों का भारत में अंग्रेजों द्वारा अपनाई गई नीति पर भी प्रभाव पड़ता था। इंग्लैंड में संघीय स्वरूप वाले विश्वविद्यालयों को असंतोषजनक पाया गया था। इसलिए उसे त्याग देने के पक्ष में मत बन रहा था। इसका प्रभाव भारत सरकार की शिक्षा नीति पर पड़ना स्वाभाविक था। 1913 के आसपास इस संघीय स्वरूप को त्यागकर विश्वविद्यालयों को एकात्मक और आवासीय अध्यापन संस्थाओं के रूप में पुर्नगठित किया गया। 21 फरवरी 1913 को शिक्षा नीति पर सरकारी प्रस्ताव में घोषणा की गई कि प्रत्येक प्रांत में विश्वविद्यालय की स्थापना की जायेगी। कस्बों में जो महाविद्यालय थे उन्हें समय आने पर अध्यापन-विश्वविद्यालय बना देने का सुझाव था। सरकार इस पर कार्यवाही विशेषज्ञों की जाँच के पश्चात ही करना चाहती थी। गोखले उधर अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा की माँग कर रहे थे। उनका तथा अन्य राष्ट्रवादियों का मत था कि यदि बड़ौदा जेसी रियासत 1906 में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा लागू कर सकती है तो भारत सरकार को भी समस्त ब्रिटिश भारत में ऐसा करना चाहिए। 1915 के सरकारी प्रस्ताव ने इस सिद्धान्त को स्वीकृति नहीं दी। केवल प्रांतीय सरकारों को प्रोत्साहन दिया गया कि वे समाज के पिछड़े तथा गरीब वर्ग को निःशुल्क शिक्षा देने का प्रबंध करें। माध्यमिक स्कूलों को उत्तम बनाने का सुझाव भी दिया गया। माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में विकास के लिए निजी प्रयत्नों को प्रोत्साहन देने पर भी जोर दिया गया।

सैडलर आयोग (Sadler Commission)

1917 में सर माइकेल की अध्यक्षता में कलकत्ता विश्वविद्यालय आयोग की नियुक्ति की गई। इस आयोग ने कलकत्ता विश्वविद्यालय के साथ-साथ माध्यमिक एवं स्नातकोत्तर शिक्षा पर विचार किया तथा अपने सुझाव दिए। इस आयोग में डॉ० आसुतोष मुखर्जी तथा डॉ० जियाउद्दीन अहमद दो भारतीय सदस्य भी थे। आयोग ने 1904 के विश्वविद्यालय अधिनियम की आलोचना की। उसके मत महाविद्यालय तथा विश्वविद्यालय का सही समन्वय नहीं हुआ था और एक सक्षम विश्वविद्यालयी शिक्षा-व्यवस्था का अभाव था। इस प्रकार 1920 में भी कॉलेज तथा विश्वविद्यालय की शिक्षा की लगभग वही स्थिति थी जो कर्जन के समय में प्रचलित थी।

1913 के शिक्षा-संबंधी प्रस्ताव तथा 1917 के सैंडलर कमीशन के सुझावों के परिणामस्वरूप कुछ और विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। 1887 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय की स्थापना के बाद 1916 तक किसी नये विश्वविद्यालय की स्थापना नहीं की गई। 1916-22 के बीच में 6 विश्वविद्यालयों की स्थापना की गई। 1916 में मैसूर में संबंधन विश्वविद्यालय, 1917 में पटना विश्वविद्यालय और उसी वर्ष बनारस में एक अध्यापन आवासीय विश्वविद्यालय, 1920 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और ढाका में एकात्मक अध्ययन एवं आवासीय विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। बनारस और अलीगढ़ विश्वविद्यालय सीधे भारत सरकार के अधीन थे। उस्मानिया विश्वविद्यालय ने जिसकी स्थापना 1918 में निजाम ने की थी। शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी को न रखकर उर्दू को रखा।

प्रांतीय द्वैध-शासन के अधीन शिक्षा

1919 के भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत प्रांतों में द्वैध शासन की स्थापना की गई और शिक्षा विभाग को (यूरोपीयों तथा एंग्लो-इंडियनों की शिक्षा को छोड़कर, जो कि रक्षित विभाग था तथा मंत्रियों के अधीन नहीं था) भारतीय मंत्रियों के नियंत्रण में रखा गया था। इसके साथ ही शिक्षा के इतिहास का अगला महत्वपूर्ण चरण आरंभ हुआ।

इस द्वैध शासन की स्थापना के साथ ही शिक्षा के लिए दिये जाने वाले केंद्रीय अनुदान बंद कर दिये गये। यद्यपि प्रांतीय सरकारें वित्तीय कठिनाइयों के अनुरूप शिक्षा-योजनाओं को आरंभ नहीं कर सकी, तथापि लोकोपकारी व्यक्तियों के प्रयत्नों एवं सहायता के परिणामस्वरूप प्रांतों में शिक्षा के क्षेत्र में विकास हुआ। इस काल में शिक्षा के विकास के विषय में विश्लेषण करने के पहले ‘हार्टोग की अध्यक्षता में की गई थी। शिक्षा के क्षेत्र में विकास हुआ। इस काल में शिक्षा के विकास के विषय में विश्लेषण करने के पहले हार्टोग आयोग की रिपोर्ट पर विचार करना होगा जिसकी नियुक्ति 1929 सर फिलिप हार्टोग की अध्यक्षता में की गई थी। शिक्षा के क्षेत्र में वृद्धि अवश्य हुई परन्तु इसके साथ ही शिक्षा के स्तर में कमी आई। इस आयोग का मत था कि विश्वविद्यालयी शिक्षा का स्तर विवेकहीन प्रवेशों के कारण ही गिर रहा था जिसे ऊँचा उठाने की आवश्यकता थी।

माध्यमिक शिक्षा के विषय में हार्टोग आयोग का मत था कि मैट्रिक की परीक्षा पर अधिक जोर दिया जाता था तथा बढ़ी संख्या में विद्यार्थी इसे विश्वविद्यालय में प्रवेश पाने का माध्यम समझते थे। आयोग का सुझाव था कि ग्रामीण प्रवृत्ति के विद्यार्थियों को महाविद्यालयी शिक्षा प्राप्त करने से रोकना चाहिए। इसके स्थान पर उन्हें व्यावहारिक (व्यावसायिक) शिक्षा या औद्योगिक शिक्षा दी जानी चाहिए। इसका अभिप्राय है कि ऐसे छात्रों को मिडिल तक की ही शिक्षा देनी चाहिए थी, उससे अधिक नहीं।

द्वैध शासन के अंतर्गत ब्रिटिश भारत के अधिकांश प्रांतों में प्राथमिक शिक्षा से संबंधित अनिवार्य शिक्षा अधिनियम बनाये गये जिनके अंतर्गत लड़के तथा लड़कियों की शिक्षा का आयोजन किया गया।

1922-1927 के काल में प्राथमिक शिक्षा का विस्तार तेज गति से हुआ। 1921-22 में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 1,55,017 थी जो 1926-27 में बढ़कर 1,84,829 तक पहुंच गई। इन विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्रों की संख्या 1922-27 में 6,109,752 थी और 1926-27 में 8,017,923 हो गई।’

1935 में भारत सरकार अधिनियम के अंतर्गत प्रांतों में द्वैध शासन का अंत हो गया और संपूर्ण प्रांतीय प्रशासन को एक मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। इस प्रकार से प्रांतीय स्वशासन आरंभ हुआ। प्रांतीय स्वशासन की स्थापना के कारण शिक्षा विभाग मंत्रियों के हाथों में पूर्ण रूप से आ गया। आर्थिक मंदी समाप्त हो गई थी और उसके साथ ही वित्तीय संकट का भी अंत हो गया था। 1937 में जनता द्वारा चुनी हुई सरकारों व मंत्रिमंडलों की स्थापना की गई। इस समय की (1937-47) शिक्षा नीति एवं शिक्षा के इतिहास के अध्ययन को तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। सर्वप्रथम, शैक्षिक प्रशासन में भारत सरकार अधिनियम (1935) के द्वारा किये गये परिवर्तन; दूसरे, कांग्रेस मंत्रिमंडलों की विशिष्ट देन; तीसरे, इस काल में तैयार की गई शैक्षिक विकास की योजनाएँ।

भारत सरकार के शैक्षिक क्रियाकलाप का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन दस वर्षों (1937-1947) में विश्वविद्यालयी शिक्षा में भारी वृद्धि हुई। छात्रों की संख्या दस वर्षों में अत्यधिक बढ़ गई। यह प्रसार जनता में सामान्य रूप से जागृति के फैलने, माध्यमिक शिक्षा के प्रसार, पिछड़े हुए वर्गों व स्त्रियों द्वारा उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा, समाज द्वारा शिक्षा के लिए उदार दान, युद्ध के कारण प्रशिक्षित कर्मचारियों की अधिक आवश्यकता और सरकार द्वारा शिक्षा के लिए अधिक अनुदान देने के कारण हुआ।

सार्जेंट योजना

इस काल में अनेक नये महाविद्यालय स्थापित किए गये संकाय खोले गये तथा चार नये विश्वविद्यालयों की भी स्थापना की गई। 1944 में केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार मंडल ने एक राष्ट्रीय शिक्षा योजना तैयार की जिसे सार्जेंट योजना (भारत सरकार के शिक्षा सलाहकार सार्जेंट के नाम पर) के नाम से जाना जाता है। इसके अनुसार विश्वविद्यालयी शिक्षा के क्षेत्र में अभी और विस्तार किये जाने की आवश्यकता थी। आर्थिक कठिनाइयों के कारण बहुत से प्रतिभाशाली लड़के विश्वविद्यालय में शिक्षा नहीं प्राप्त कर पाते थे। छात्रवृत्तियाँ भी अपर्याप्त थी। इसके अतिरिक्त जो छात्र फीस दे सकते थे वे अयोग्य होने पर भी कला-महाविद्यालय में प्रवेश प्राप्त कर लेते थे। यद्यपि विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले छात्रों की संख्या में वृद्धि हुई, तथापि वैज्ञानिक, तकनीकी, कृषि अथवा व्यावसायिक शिक्षा के क्षेत्र में पर्याप्त वृद्धि नहीं हुई। विश्वविद्यालयी शिक्षा का यह एक गंभीर दोष था।

माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में यद्यपि छात्रों की संख्या मे तेजी से वृद्धि हुई थी, फिर भी इसके पहले के काल की तुलना में इस क्षेत्र में विशेष वृद्धि नहीं हुई। विश्वविद्यालयों के छात्रों की संख्या इन दस वर्षों में दुगुनी हो गई थी परंतु ऐसा माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में नहीं हुआ। ऐसा संभवतः प्राथमिक शिक्षा के प्रसार की धीमी गति तथा प्रथम विश्वयुद्ध की आर्थिक कठिनाइयों के कारण हुआ। इस काल में माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में (विश्वविद्यालयों में नहीं) मातृभाषा शिक्षा का माध्यम बन चुकी थी। बहुत से विषय जिन्हें पहले मातृभाषा में नहीं पढ़ाया जा सका था, अब मातृभाषा में पढ़ाये जा रहे थे। ये विषय थे- रसायनशास्त्र वनस्पति विज्ञान, बीजगणित, ज्यामिति, भौतिकी आदि।

1937 से 1947 के मध्य माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था की ओर भी कदम उठाये गये। जो गैर-सरकारी स्कूल असाहित्यिक पाठ्यक्रमों की व्यवस्था करते थे उन्हें प्रांतीय सरकार द्वारा भारी अनुदान देकर प्रोत्साहित किया गया। व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की प्रगति के लिए प्रांतीय सरकारों ने तकनीकी, वाणिज्यक तथा कृषि के उच्च विद्यालय खोले। युद्ध के कारण तकनीकी प्रशिक्षितों की माँग में वृद्धि हुई थी और इसके परिणामस्वरूप तकनीकी शिक्षा में वृद्धि हुई। युद्ध के दौरान भारतीय उद्योगों का भी विकास हुआ। इस कारण भी लोगों का ध्यान अब तकनीकी शिक्षा की ओर जाने लगा। द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात अप्रैल 1947 में केन्द्र तथा प्रांतों की पंचवर्षीय योजनाओं में माध्यमिक शिक्षा के क्षेत्र में गैर-साहित्यिक पाठ्यक्रमों को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया। इस प्रकार से इन दस वर्षों में शिक्षा के इतिहास में पहली बार व्यावसायिक शिक्षा की प्रगति के लिए प्रभावकारी कदम उठाये गये।

1945 में सेवाग्राम में अखिल भारतीय राष्ट्रीय शिक्षा सम्मेलन हुआ। इस सम्मेलन में बुनियादी-शिक्षा के नये पहलू पर विचार-विमर्श हुआ। इस योजना को चार भागों में क्रियान्वित करने का निश्चय किया गया- प्रौढ़ शिक्षा, पूर्व-बुनियादी शिक्षा (सात से चौदह वर्ष की आयु वाले बालकों के लिए) तथा उत्तर बुनियादी शिक्षा (बुनियादी शिक्षा प्राप्त लोगों के लिए)।

1945 में विश्व युद्ध के समाप्त होने तथा 1946 में कांग्रेस मंत्रिमंडलों के पुनः सत्तारूढ़ होने पर बुनियादी शिक्षा को फिर से प्रोत्साहन मिला। उन सभी प्रांतों में जहाँ कांग्रेस मंत्रिमडल थे, बुनियादी शिक्षा योजना को सरकारी संरक्षण प्राप्त हुआ। श्री बी0 जी0 खेर ने बुनियादी शिक्षा के भविष्य पर विचार करने के लिए एक सम्मेलन बुलाया। सम्मेलन में यह विचार किया गया कि बुनियादी शिक्षा प्रयोगात्मक चरण पूरा कर चुकी है। अतः प्रांतीय सरकारों से निवेदन किया गया कि वे इस प्रणाली को प्रांतीय स्तर पर कार्यान्वित करें। बुनियादी शिक्षा की योजना को अब शैक्षिणिक पुनर्निमार्ण का एक अभिन्न अंग मानकर विभिन्न प्रांतीय (कांग्रेस) सरकारों ने कार्यान्वित करना आरंभ कर दिया।

कांग्रेस मंत्रिमंडलों ने भारतीय भाषाओं को महत्व दिया। उन्होंने भारतीय भाषाओं में अच्छी, पाठ्य-पुस्तकों के प्रकाशन, परिभाषिक शब्दों की वृद्धि और इन भाषाओं के माध्यम से अध्यापकों के प्रशिक्षण का कार्य भी आरंभ किया। 1948 तक लगभग संपूर्ण भारत में भारतीय भाषाओं को शिक्षा के माध्यम के रूप में अपना लिया गया।

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