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सल्तनत कालीन राजत्व सिद्धांत

सल्तनत कालीन राजत्व के सिद्धांत

सल्तनत कालीन राजत्व के सिद्धांत

भारत में तुर्कों द्वारा सल्तनत की स्थापना से पूर्व मुस्लिम राजनीतिक संस्थाओं में परिस्थिति के अनुसार अनेक परिवर्तन हुए। आदर्श मुस्लिम राज्य में शासक शरा, पैगम्बर की शिक्षाओं एवं मुस्लिम समाज के प्रतिनिधियों के परामर्श से प्रेरणा प्राप्त करता हैं पवित्र खलीफाओं के शासनकाल में सभी मुसलमानों को समान अधिकार प्राप्त थे। इस्लाम के अंतर्गत राजसत्ता पर किसी वर्ग विशेष अथवा परिवार का एकाधिकार नहीं हैं पैगम्बर मोहम्मद साहब ने केवल योग्य व्यक्ति को ही शासन करने के लिए चुने जाने की ओर संकेत किया था और यही कारण था कि अपने जीवन काल में उन्होंने किसी को अपना उत्तराधिकारी घोषित नहीं किया था। परन्तु निर्वाचन के लिए समस्त मुस्लिम वर्ग का एकत्रीकरण तथा उनका सामूहिक निर्णय मुस्लिम राज्य के विस्तार के साथ सम्भव नहीं रह गया। उमय्या वंश द्वारा खलीफा का पद प्राप्त करने (661 ई0) के उपरान्त नवोदित मुस्लिम राज्य व्यवस्था में समयानुकूल परिवर्तन आरम्भ हुए। अमीर मुआविया ने खलीफा के पद को राजतंत्र में परिवर्तित कर दिया। उसने अपने पुत्र यजीद को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया। यहीं से खलीफा द्वारा अपने उत्तराधिकारी को नियुक्त करने तथा प्रमुख उमरा द्वारा इसकी पृष्टि कराने की परम्परा का आरम्भ हुआ जिसका अनुसरण कालान्तर में सुल्तानों ने किया। उमैयद वंश के पश्चात अब्बासी वंश सत्ता में आया तथा सीरिया के स्थान पर इराक इस्लाम का राजनीतिक केन्द्र बना ।

अब्बासी वंश के शासनकाल में राजत्व में दैवीय तत्व का विकास हुआ तथा इस्लामी राजनीतिक सिद्धान्तों को परिस्थितियों के अनुसार परिवर्धित किया गया। अब्बासी साम्राज्य के विधटन से तहरीद, सफवी, समनी आदि मुस्लिम राज्यों का उदय हुआ। आरम्भ में इन राज्यों ने खलीफा को मान्यता प्रदान की परन्तु व्यवहार में यहाँ के शासक सर्वशक्तिमान थे। इन राज्यों के पतन से गजनी, सेल्जुक, खवारिज्म आदि साम्राज्यों का उदय हुआ जिन्होंने मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक संस्थाओं को किसी न किसी रूप में प्रभावित किया। सेल्जुक साम्राज्य के पतन से गोर राज्य अस्तित्व में आया जिसके सुल्तान मुइजुद्दीन मोहम्मद गोरी ने 1192 ई0 में दिल्ली विजित कर भारत में मुस्लिम सत्ता की आधारशिला रखी। उसके कोई पुत्र न होने के कारण जब किसी ने उससे उत्तराधिकारी के सम्बन्ध में पूछा तो उसने कहा था कि अन्य शासकों के कुछ ही पुत्र होंगे किन्तु उसके पास दास के रूप में हजारों पुत्र हैं जो उसके पश्चात उसके शासन का संचालन करेंगे। सुल्तान मुइजुद्दीन की मृत्यु के पश्चात 1206 ई० में उसके दास कुतुबुद्दीन ऐबक ने राजसत्ता स्वयं ग्रहण कर ली। इस प्रकार सुल्तान द्वारा अपने उत्तराधिकारी को निर्वाचित करने की परम्परा जो गजनी एवं गोरी दोनों राज्यकालों में उपस्थित थी सदैव के लिए समाप्त हो गई। इसके साथ ही राजसत्ता एवं वंशानुगत अधिकार के सिद्धान्त का भी अंत हो गया। यही कारण है कि दिल्ली सल्तनत का इतिहास राजसत्ता के लिए निरंतर संघर्षों का इतिहास रहा है।

इल्वारी वंश:

कुतुबुद्दीन ऐबक ने न तो सुल्तान की पदवी धारण की और न ही वह भारत में तुर्की राज्य को संगठित कर सका। उसके इस अपूर्ण कार्य को पूर्णता प्रदान करने का श्रेय इल्तुतमिश तथा अन्य इल्बारी तुर्क सुल्तानों को प्राप्त हुआ। डॉ० आर० पी० त्रिपाठी के अनुसार भारत में मुस्लिम प्रभुसत्ता का इतिहास इल्तुतमिश से आरम्भ होता है। परन्तु यह कथन मानना दिल्ली सल्तनत की स्थापना में कुतुबुद्दीन ऐबक के योगदान को पूर्णतया अस्वीकार करना होगा। इस सन्दर्भ में प्रो० के0 ए0 निजामी का मत उचित प्रतीत होता है कि “ऐबक ने सल्तनत की रूपरेखा की कल्पना मात्र की थी परन्तु इल्तुतमिश ने उसे एक विशिष्टता एवं एक पद, वाहिनी शक्ति एवं निर्देशन, शासन प्रणाली तथा शासक वर्ग प्रदान किया।” बंगाल के शासक हिसामुद्दीन एवज ने जब सुल्तान गयासुद्दीन की पदवी धारण कर स्वतंत्र रूप से शासन करने लगा तो सुल्तान इल्तुतमिश ने उसके विरुद्ध प्रस्थान किया तथा अपनी अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य किया। उसने यल्दौज एवं कुबाचा के प्रति भी इसी नीति का अनुसरण किया। वह राजसत्ता को किसी अन्य के साथ बाँटने को तैयार न था। उसने ईरान की राजतंत्रीय परम्परायें भारतीय परिवेश में समन्वित की। प्रो० निजामी लिखते हैं कि “ऐसा प्रतीत होता है कि ‘आदावृस्सालातीन और ‘मसिरुस्सलातीन’ नामक पुस्तकों में जिन्हें उसने बगदाद से अपने पुत्रों की शिक्षा हेतु मंगवाया था, ईरानी राजतंत्र के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया गया था जिन्हें वह दिल्ली में पूर्णरूपेश कार्यान्वित करना चाहता था। इल्तुतमिश ने जिस राजतंत्र की स्थापना की थी उसकी शक्ति और आधार विशेषतः एक सैनिक एवं प्रशासनिक सेवा पर आधारित थी।” उसने अपनी राजसत्ता को सुदृढ़ता प्रदान करने के लिए 1229 ई० के खलीफा से मानाभिषेक पत्र प्राप्त किया जो दिल्ली सल्तनत की स्वतंत्र स्थिति की पुष्टि थी। सुल्तान इल्तुतमिश ने अपने जीवन काल में उत्तराधिकारी के रूप में अपनी पुत्री रजिया का नाम घोषित किया तथा उसने अपने उमरा को यह कहकर संतुष्ट कर दिया कि उसके पुत्रों की तुलना में उसकी पुत्री अधिक योग्य है। अतः उत्तराधिकार के लिए व्यक्ति की योग्यता का विशेष महत्व था।

परन्तु सुल्तान इल्तुतमिश की मृत्योपरान्त तुक अमीरों ने उसके मनोनयन का उल्लंघन करते हुए रजिया को सिंहासन से वंचित रखा। रजिया का नारी होना एक बड़ा अभिशाप था तथा तुर्क अमीर एक नारी द्वारा शासित नहीं होना चाहते थे। अस्तु उन्होंने राजपद रुक्नुद्दीन फिरोजशाह (1236 ई0) को प्रदान किया। परन्तु प्रो० निजामी का कथन है कि सुल्तान इल्लतुतमिश ने अपने शासन के अन्तिम वर्षों में अपना निर्णय बदल दिया था। सुल्तान रुकनुद्दीन फिरोजशाह की अयोग्यता एवं उसकी माता शाह तुर्कान के कुचक्रो के कारण उसे अपदस्थ कर रजिया को सिंहासनारूढ़ किया गया। मुस्लिम राजसत्ता के इतिहास में यह एक नई बात थी कि उमरावर्ग एवं दिल्ली की जनता ने इल्तुतमिश के ही वंशज को राजमुकुट प्रदान किया। इतना ही नहीं सुल्तान जलालुद्दीन खलजी के शासनकाल में जब सीदी मौला के समर्थकों ने षडयंत्र की योजना बनाई तो अमीरों का समर्थन प्राप्त करने हेतु सीदी का विवाह इल्तुतमिश के वंश में कराने का विचार किया था। रजिया का पतन तथा वहरामशाह का सिंहासनारोहण तुर्क मलिकों एवं अमीरों की विजय थी। बलबन के सुल्तान बनने तक दिल्ली के सभी सुल्तान नाममात्र. के शासक रहे तथा वास्तविक शक्ति तुर्क अमीरों के हाथों में रही।

बलबन दिल्ली सल्तनत का पहला सुल्तान था जिसने सुल्तान के पद, अधिकार एवं राजत्व के सम्बन्ध में अपने विचार प्रकट किए। बलबन यह जानता था कि सिंहासन पर उसका अप्रतिबद्ध पैत्रिक अधिकार नहीं है, अतः पौराणिक तुर्की योद्धा अफरासियाब का वंशज होने का दावा करके उसने अने गौरव में वृद्धि करने का प्रयास किया। प्रो० निजामी लिखते हैं कि इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि राजमुकुट को एक उच्च एवं सम्मानित स्तर पर स्थापित करने के लिए तथा सामन्तशाही से संघर्ष एवं विरोध की समस्त सम्भावनाओं को समाप्त करने के लिए यह आवश्यक था किन्तु इन निरंतर उपदेशों के पीछे उसकी हीन भावना तथा अपराध भाव की जटिल प्रक्रिया का आभास किया जा सकता है। अपने मलिकों से निरंतर यह कहने से कि राजत्व एक दैवी संस्था है उन्हें यह विश्वास दिलाना चाहता था कि सुल्तान को विष देकर अथवा हत्या करके उसे राजपद नहीं प्राप्त हुआ अपितु वह दैवेच्छा से ही सिंहासनारूढ़ हुआ है। वह अपने राज्यादर्श के लिए फारस के पौराणिक वीरों से प्रेरणा लेता और जहाँ तक सम्भव हो सकता था उनका अनुसरण करने का प्रयास भी करता था। बलबन के राजत्व सिद्धान्त की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि वह राजत्व को पृथ्वी पर ईश्वर का प्रतिनिधित्व ‘नियाबत-ए-खुदाई तथा मान-मर्यादा की दृष्टि से उसे पैगम्बरी के बाद स्वीकार करता था। वह सुल्तान को ईश्वर का प्रतिबिम्ब (जिल्ले अल्लाह) तथा उसके हृदय को दैवी प्रेरणा और क्रांति का भण्डार मानता था। सुल्तान अपने दायित्व के निर्वाह में ईश्वर द्वारा निरंतर निर्देशित होता है। इसका तात्पर्य यह है कि सुल्तान की शक्ति का स्रोत उमरा वर्ग अथवा जनता नहीं अपितु केवल ईश्वर है अतः वह ईश्वर के समक्ष उत्तरदायी है। वह सुल्तान का निरंकुश होना आवश्यक समझता था तथा उसकी निरंकुशता आतंक पर आधारित थी जिसमें उमेरा वर्ग की कोई भागेदारी नहीं थी। इसी कारण उसने तुर्कान-ए-चहलगानी’ को भी अपंगु बना दिया जिसका वह स्वयं सदस्य रह चुका था। “वह अपने अधिपत्य की अल्पतम अवज्ञा को भी सहन नहीं कर सकता था और उसके उन्मूलन के लिए अपने सर्वस्व की बाजी लगा देता था।”

उसने राजत्व के लिए बाह्म ऐश्वर्य एवं वैभव को महत्वपूर्ण बताया। वह कहा करता था कि सुल्तान का भयोत्पादक गौरव सल्तनत की शक्ति का प्रतिबिम्ब होना चाहिए। वह दरबार में अपने सम्पूर्ण शाही वैभव एवं उपकरणों के बिना कभी उपस्थित न होता था। इतिहासकार बरनी लिखता है कि उसके निजी सेवकों ने भी कभी उसे शाही वेषभूषा तथा मुकुट के बिना नहीं देखा । उसने उच्च वंशावली की महत्ता पर बल दिया। उसे साधारण व्यक्तियों से मिलना अप्रिय था। उसने निम्न वंश में जन्मित सभी व्यक्तियों को महत्वपूर्ण पदों से निकाल दिया। वह कहता था कि “जब मैं निम्न वंश के किसी व्यक्ति को देखता हूँ तो शरीर की प्रत्येक धमनी क्रोध से उत्तेजित हो उठती है। फख बावनी नामक दिल्ली के एक धनवान ने शाही महल के अधिकारियों को धूम देकर सुल्तान से मिलना चाहा परन्तु उसकी मनोकामना पूर्ण न हो सकी। यह अपने व्यक्तिगत आचरण को भी राजकीय गौरव का मूर्तिमान बनाना चाहता था। उसने ईरानी परम्परानुसार अपने दरबार की व्यवस्था की तथा सस्सानियों के शिष्टाचार का अनुसरण किया। उसने दरबार में उपस्थित होने वालों से ‘सिजदा’ (साप्टांग प्रणाम) एवं पैबोस (पद-चुम्बन) के उपचार सम्पन्न करने का आग्रह किया। उसके सिंहासन के पीछे कुछ विश्वासपात्र ही बैठते थे तथा अन्य लोग पद एवं स्तर के अनुसार उसके सामने खड़े रहते थे। वह अपने पद की प्रतिष्ठा बनाये रखने के लिए बड़ी गम्भीर मुद्रा में बैठता था। वह अपने व्यक्तिगत परिचरों से भी अपनी प्रफुल्लता एवं मानवीय भावनायें व्यक्त नहीं करता था। उसने निजी एवं सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक विषय में ईरान की परम्पराओं का सतर्कतापूर्वक अनुसरण किया। सुल्तान बनने के पश्चात् उसके जिन पौत्रों का जन्म हुआ उसने ईरान के शासकों की भाँति उनका नाम कैकुवाद, कैखुसरो एवं कैकाऊस रखा था। उसने अपने ज्येष्ठ पुत्र मोहम्मद की मृत्यु के पश्चात दूसरे पुत्र बुगरा खाँ को नियुक्त करने का विचार किया जो नियुक्ति से पूर्व ही बंगाल चला गया अतः बलबन ने शहीद मोहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया तथा अमीरों ने इस नियुक्ति की पुष्टि भी कर दी किन्तु सुल्तान की मृत्यु के पश्चात अमीरों ने बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद को राजमुकुट प्रदान किया। यह राजतव के क्षेत्र में एक नई बात थी कि पिता के रहते हुए राजसत्ता पुत्र को दी गई। इस प्रकार तुर्क अमीरों ने इल्बारी वंश के उत्तराधिकारी को स्वीकार करते हुए चुनाव प्रणाली को बनाये रखा। बलबन के पश्चात सल्तनत की राजनीतिक अस्थिरता ने खलजी क्रान्ति का मार्ग प्रशस्त किया जिसके फलस्वरूप खलजी वंश ने सिंहासन पर अधिकार कर लिया।

खिलजी वंशः

जलालुद्दीन फिरोज खिलजी ने शक्ति के द्वारा सिंहासन प्राप्त किया था किन्तु इससे यह स्पष्ट हो गया कि दिल्ली के मुस्लिम जनमत का भी एक महत्व है क्योंकि खलजी क्रान्ति के पश्चात वह कई मास तक राजधानी प्रवेश करने का साहस न कर सका तथा दिल्ली से बाहर किलोखड़ी में ही राजदरबार आयोजित करता रहा। डॉ० के० एस० लाल लिखते हैं कि खिलजियों ने कम से कम मुस्लिम जगत को यह बता दिया कि बिना किसी धार्मिक समर्थन के राज्य न केवल जीवित रखा जा सकता है अपितु तेजी से कार्य भी कर सकता है। सुल्तान जलालुद्दीन अपने अमीरों से एक शासक की भाँति नहीं वरन् एक मित्र की भाँति व्यवहार करता था। उसने स्वयं को निरंकुशता के अयोग्य बताया। उसकी विनम्रता एवं दयालुता का लाभ उठाकर उसके भतीजे एवं जमाता अलाउद्दीन खलजी ने उसका वध कर स्वयं राजमुकुट धारण किया। सुल्तान अलाउद्दीन खजली ने इल्तुतमिश एवं बलबन के राजत्व सिद्धान्त को पुनर्जीवित करने की चेष्टा की। उसने ‘यमीन-उल-खिलाफत’ (खलीफा का दाहिना हाथ) एवं मासिर ‘अमीरुल मोमिनीन’ (मुसलमानों का संरक्षक) की पदवी धारण की। वह पृथ्वी पर ईश्वर का सहायक होने का दावा करता था और अपने कार्यों के लिए वह केवल ईश्वर के समक्ष उत्तरदायी था। उसकी प्रजा का कर्तव्य उसकी आज्ञा का पालन करना था। वह असीमित रूप से एक स्वेच्छाचारी सुल्तान था जो किसी भी नियम से बंधित नहीं था, किसी भौतिक प्रतिबन्ध के अधीन नहीं था तथा अपने अतिरिक्त किसी के द्वारा निर्देशित नहीं होना चाहता था। डॉ० के० एस० लाल लिखते हैं कि “विशेषकर अलाउद्दीन के समय लौकिक शक्ति ने धार्मिक शक्ति को पूर्णतः अच्छादित कर लिया।” काजी मुगीसुद्दीन से सुल्तान की वार्ता उसकी निरंकुशता को स्पष्ट करती हैं सुल्तान अलउद्दीन खलजी ने कहा था कि “मैं नहीं समझता कि यह आज्ञायें शरा के अनुसार है या शरा के विरूद्ध। मैं जो कुछ सज्य के लिए उचित समझता हूँ तथा जिन बातों में राज्य का भला देखता हूँ उन्हीं की आज्ञा देता हूँ। मुझे नहीं ज्ञात कि भगवान कल कयामत में मुझे क्या दण्ड देगा।” समकालीन लेखक खुसरो ने अपनी रचना ‘खजाइन-उल-फुतूह’ में सुल्तान अलाउद्दीन को विश्व का सुल्तान, पृथ्वी के शासकों का सुल्तान, युग का विजेता, जनता का मार्गदर्शक आदि पदवियाँ प्रदान की हैं। डॉ० के एस० लाल के अनुसार “ये मुहावरे यद्यपि एक फारसी स्तुतिकार के रूढ़िगत मुहावरों में दिये गये हैं, तथापि ये इस प्रचलित अवधारणा को प्रकट करते हैं कि शासक ही राज्य तथा और वह युग शाही निरंकुशता का युग था। “ उसका राजत्व सैनिकवाद पर आधारित था। “वह फ्रांस राजा लुई चतुर्दश की भाँति स्वयं को राज्य का सर्वेसर्वा मानता था “मैं ही राज्य हूँ।” सुल्तान की मृत्यु होते ही उसके विश्वासपात्र दास मलिक काफूर ने राजसत्ता हस्तगत कर ली परन्तु पैतिस दिनों में ही काफूर की हत्या कर अमीरों ने अलाउद्दीन के पुत्र मुबारकशाह को सिंहासनासीन किया। सुल्तान मुबारकशाह ने खलीफा से पूर्णरूपेश सम्बन्ध विच्छेद कर लिया और स्वयं खलीफा की पदवी धारण की। दिल्ली सल्तनत के इतिहास में यह पहला अवसर था जबकि किसी सुल्तान ने स्वयं को खलीफा घोषित किया था। खलजी कालीन राजत्व की दो प्रमुख विशेषतायें थीं। प्रथम यह कि राजत्व पर किसी विशेष वंश का एकाधिकार नहीं है तथा दूसरे यह कि उलेमा वर्ग अथवा धार्मिक सहायता के बिना भी राजत्व को जीवित रखा जा सकता है। सुल्तान मुबारकशाह की हत्या के पश्चात राजनीतिक अस्थिरता आ गई जिसका अंत कर गाजी मलिक ने राजसत्ता ग्रहण की क्योंकि अलाउद्दीन का कोई भी उत्तराधिकारी जीवित नहीं बचा था।

तुगलक वंश:

सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक का राजत्व धर्म से प्रभावित था। डॉ० बी० पी० सक्सेना लिखते हैं कि “उसने अलाउद्दीन खजली के ढंगों तथा आदर्शों को नया अर्थ दिया और उनमें करता की तेज धार निकालकर उन्हें अधिक उपयोगी और ग्राह्य बनाया। उसने अपने जीवन काल में ही उलुग खाँ को अपना युवराज घोषित कर दिया था। अतः सुल्तान मोहम्मद तुगलक के नाम से उलुग खाँ के सिंहासनारोहण में कोई कठिनाई नहीं हुई। वह सुल्तान बलबन की भाँति राजत्व के दैवी अधिकार के सिद्धान्त में विश्वास करता थ। वह सुल्तान को ईश्वर का प्रतिबिम्ब स्वीकार करता था। उसके अनुसार सुल्तान की आज्ञा का पालन करना ईश्वरीय आज्ञा का पालन करना है, क्योंकि सुल्तान का चुनाव ईश्वर करता है। उसने बुद्धिवाद को अपने विचारों का आधार बनाया। इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी के अनुसार उसकी बुद्धिवादी नीति धर्म की अवहेलना के समान थी। उलेमा वर्ग उसने खिन्न होने लगा। उसकी कठोरता ने जनसाधारण को भी असंतुष्ट कर दिया जिससे वह अलोकप्रिय होने लगा। अतः उसने जनता में अपनी स्थिति को सुधारने के लिए खिलाफत के प्रति सम्मान व्यक्त किया। 1340-41 ई0 में उसने मिस्र के खलीफा ने मानाभिषेक पत्र भी प्राप्त कर लिया परन्तु इसका कोई सफल परिणाम नहीं निकला। सुल्तान मोहम्मद तुगलक की अचानक मृत्यु के कारण उत्तराधिकार की समस्या पुनः उठ खड़ी हुई परन्तु ख्वाजाजहाँ तक अन्य अमीरों ने फिरोजशाह तुगलक को सुल्तान के रूप में स्वीकार किया। उसके सिंहासनारोहण से निर्वाचन के नियम को पुनः शक्ति मिली तथा साथ ही वंशानुगत उत्तराधिकार के नियम को भी स्वीकार किया गया।

सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने अपने राजत्व सिद्धान्त के अंतर्गत खलीफा की प्रधानता को स्वीकार किया। वह अपनी रचना ‘फुतूहात-ए-फिरोजशाही’ में लिखता है कि “मुझे ईश्वर ने इस योग्य बनाया कि मेरा दृढ़ विश्वास हो गया और खलीफा के दरबार में मुझे पूर्ण अधिकार प्राप्त होने और खलीफा का नायब होने से सम्बन्धित आदेशपत्र प्राप्त हो गये। अमीरुल मोमिनीन ने उत्कृष्ट दरबार से मेरी बेअंत (अधीनता प्रतिग्रहण) के स्वीकृतिपत्र में मुझे सैय्यदुस्सलातीन की उपाधि से सम्मानित किया गया। खलीफा के दरबार से मुझे निरंतर खिलअंत,. चादर, पताका, अंगूठी, तलवार, तथा (मोहम्मद साहब के) पाँव की छाप उपहार में प्राप्त होती रही जिससे मुझे अन्य संसार वालों की अपेक्षा अधिक गौरव एवं प्रतिष्ठा प्राप्त हो सकी।” एक समकालीन लेखक अपनी पुस्तक ‘सीरत-ए-फिरोजशाही’ में लिखता है कि सुल्तान फिरोजशाह को क्रमशः अमीरुल मोमिनीन ‘सीरत-ए-फिरोजशाही’ में लिखता है कि सुल्तान फिरोजशाह को क्रमश: अमीरुल मोमिनीन मोहम्मद अबूबक्र मुतवाक्किल-ए-अल्लाह (1362-63 ई0) से ‘मानभिषेक-पत्र’ तथा अन्य उपहार प्राप्त हुए थे। उसने शुक्रवार के खुत्वे में कुतुबुउद्दीन ऐबक को छोड़कर अपने नाम से पहले सभी पूर्ववर्ती सुल्तानों के नाम पढ़वाये। उसने पहले अपने ज्येष्ठ पुत्र फतेह खाँ को युवराज नियुक्त किया था। परन्तु उसकी मृत्यु से वह बहुत दुखी हुआ तथा अपना दूसरा उत्तराधिकारी मनोनीत नहीं किया। अपनी वृद्धावस्था के कारण 1387 ई० में उसने शाहजादा मोहम्मद को नासिरुद्दीन मोहम्मद शाह को पदवी देकर समस्त शाही प्रतीक उसे हस्तांतरित कर दिए परन्तु खुत्बा में दोनों सुल्तानों के नाम संयुक्त रूप से पढ़े जाते थे तथा सिक्कों पर भी दोनों के नाम अंकित किए जाते थे। एक प्रकार से यह राजत्व का विभाजन था। सुल्तान फिरोजशाह तुगलक नाममात्र का शासक रह गया तथा सुल्तान नासिरुद्दीन मोहम्मदशाह वास्तविक शासक बन गया परन्तु कुछ ही मास पश्चात दासों के विद्रोह के कारण वह राजधानी से सिरमूर की पहाड़ियों में भाग गया। इस वंश के बाद के सुल्तानों की अयोग्यता के कारण राजसत्ता सैय्यदों को प्राप्त हो गई।

सैय्यद वंशः

खिज्र खाँ ने 1414 ई० में राजसत्ता पर सैय्यद वंश का अधिकार स्थापित किया परन्तु उसने सुल्तान की पदवी नहीं ग्रहण की। डॉ० आर० पी० त्रिपाठी का कथन है कि “वास्तव में उन्हें कभी भी सम्प्रभु शासक स्वीकार नहीं किया गया।” राजत्व के क्षेत्र में सैय्यद वंश के शासकों का कोई सकारात्मक योगदान नहीं रहा। इस वंश का अन्तिम शासक अलाउद्दीन आलमशाह अयोग्य एवं दुर्बल था जिसके कारण राजसत्ता बहलोल लोदी ने हस्तगत कर ली।

अफगानों का लोदी अफगान थे तथा अफगानों का राजत्व सिद्धान्त तुर्कों से सर्वथा भिन्न था। वे राजत्व के दैवी अधिकार के सिद्धान्त में विश्वास नहीं करते थे और न राजत्व को एक ईश्वरीय देन ही स्वीकार करते थे। वे सुल्तान को अपने अफगान सरदारों में से एक बड़ा सरदार मानते थे। अफगानों का राजत्व सिद्धान्त अफगान सरदारों की सपानता अथवा भ्रातृत्व की भावना पर आधारित था। उनकी शासन व्यवस्था एकतंत्रीय न होकर कुलीनतंत्रीय थी। सुल्तान बहलोल लोदी अपने अमीरों को ‘मसनद-ए-आली’ कहकर सम्बोधित करता तथा उनके साथ कालीन पर बैठता था। वह ‘दरबार-ए-आम‘ में भी कभी सिंहासन पर नहीं बैठा। ‘तारीख-ए-दाउदी’ का लेखक अब्दुल्ला लिखता है कि “यदि संयोगवंश कोई अमीर उससे रुष्ट हो जाता था तो सुल्तान स्वयं उसके घर जाता और अपनी कमर से तलवार निकालकर उसके सामने रखता तथा क्षमा याचना करते हुए कहता, यदि आप इस कार्य के योग्य नहीं समझते तो किसी अन्य को इस कार्य के लिए चुन लें और मुझे कोई अन्य कार्य प्रदान करें। बहलोल के पश्चात उसका पुत्र सिकंदर लोदी सुल्तान बना जिसने भारत में अफगान राजतंत्र के एक नवीन युग का निर्माण किया तथा राजत्व की महिमा एवं प्रतिष्ठा को उच्चतर बनाया। प्रो० निजामी लिखते हैं कि “अफगान कुलीन वर्ग की अपनी लोकतंत्रीय परम्पराओं में आसक्त होते हुये भी उन्हें राजा की श्रेष्ठ स्थिति स्वीकार करने पर बाध्य होना पड़ा। उसने सिंहासन पर बैठना आरम्भ किया तथा अब राजत्व में भागीदारी का कोई प्रश्न नहीं था। उसने अमीरों को यह अनुभव कराया कि वे सुल्तान के कर्मचारी हैं तथा उनका पद पूर्णतः उसकी स्वेच्छा पर निर्भर करता है। डॉ0 इक्तिदार हुसैन सिद्दीकी के अनुसार “सिकन्दर लोदी प्रथम अफगान सुल्तान था जिसने एक पूर्ण सम्प्रभु सम्राट की भाँति व्यवहार किया। “उसके पश्चात सुल्तान इब्राहीम लोदी ने भी एक निरंकुश राजतंत्र स्थापित करने का प्रयास किया। अतः उसने तुर्की राजत्व सिद्धान्त का अनुसरण किया। उसकी निरंकुशवादी नीति से उसके विरोधी अमीरों की संख्या में वृद्धि होती गई जिसका परिणाम लोदी राजसत्ता का अंत तथा मुगल राजसत्ता की स्थापना था।

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