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आधुनिक भारत के सामाजिक परिवर्तन में गाँधी जी की भूमिका

भारत के सामाजिक परिवर्तन में गाँधी जी की भूमिका

आधुनिक भारत के सामाजिक परिवर्तन में गाँधी जी की भूमिका

भारत ने शायद ही कोई अन्य विचारक पैदा किया हो जिसने गाँधी की तरह भारत के यथार्थ को आत्मसात् करके अपने दर्शन की सृष्टि की हो, वे शंकर, काण्ट या बर्ग साँ की तरह तर्क करने वाले व्यक्ति नहीं थे, न ही वे साधारण राजनीति से प्रेरित समाजसुधारकों की तरह लोगों को बहकाने में विश्वास रखते थे, वे एक ऐसे सन्त थे जिनकी सतत चिन्ता का विषय भारत था, वे भारत को यूरोप बनाने का सपना नहीं देखते थे, वे भारत को अपनी अस्मिता का ज्ञान करवाना चाहते थे।

सच्चे अर्थ में सब धर्म एक हैं- “सर्व धर्म समभाव“- इस विचार के आधार पर गाँधी ने साम्प्रदायिकता पर पूरी शक्ति से प्रहार किया। कई वर्षों पूर्व कबीर भी यही काम कर चुके थे लेकिन कबीर ने अपने व्यंग्यात्मक प्रहार पर ही ज्यादा जोर दिया। समस्या का समाधान कबीर ने भी दिया किन्तु इसका सम्पूर्ण समाधान कबीर के रहस्यवाद में खोजना पड़ता है। गाँधी की विचारधारा रहस्यवादी न होकर यथार्थवादी है। वे धर्म के शाश्वत मूल्यों के आधार पर एकता की बात करते हैं। 1969 में जब भारत का बँटवारा हुआ था गाँधी ही सबसे दुखी व्यक्ति थे। शायद पहली बार उनको ऐसा लगा कि उनका एक सत्य का प्रयोग असफल हो गया, वे हिन्दू-मुस्लिम एकता चाहते थे- इसलिए नहीं कि उनको मुसलमानों अथवा हिन्दुओं के वोटों की आवश्यकता थी, वे हिन्दू-मुस्लिम एकता चाहते थे, एक शाश्वत सत्य की स्थापना के लिए। वह शाश्वत सत्य यह था कि मनुष्य तो है, उसे चाहे मुसलमान कहो या हिन्दू। वे कदाचित यह नहीं समझ पाये होंगे कि एक दिन वह भी आयेगा जब हिन्दू मंदिर बनाने के लिए और मुसलमान मसजिद बनाने के लिए आपस में खून की होली खेलेंगे। साम्प्रदायिक एकता का गीत ही उनके आश्रम की प्रार्थना थी। इसी आदर्श की रक्षा के लिए उन्होंने अपने प्राणों की आहुति दे दी।

असमानता का एक दूसरा पक्ष भी था जिसे गांधी जी ने हिन्दू-समाज का कोढ़ कहा था- अस्पृयता जब एक ही धर्म के लोग आपस में ऊँच-नीच का भाव रखते हों तो सामाजिक एकता का प्रश्न ही कहाँ उठता है। गाँधी जी जीवनपर्यन्त अस्पृश्यता के खिलाफ लड़ते रहे, इस लड़ाई के पीछे गाँधी जी की वह तर्कसंगत भावना थी जो इतिहास के सही अध्ययन से उत्पन्न होती है। इस बात को सही संदर्भ में समझने की आवश्यकता है। गाँधी जी भारत के वर्णाश्रम धर्म के हिमायती थे, किन्तु अस्पृश्यता के कट्टर विरोधी। साधारणतया इसमें लोगों को विरोधाभास दीख पड़ता है किन्तु वास्तविकता ऐसी नहीं है। गाँधी जी जानते थे कि वर्ण-व्यवस्था का मूल कारण काम के बँटवारे के लिए था, किसी काम को छोटा या किसी काम को बड़ा समझने के लिए नहीं। वर्ण-व्यवस्था इसलिए तर्क संगत हैं क्योंकि इसके अनुसार मनुष्य को अपनी अभिरुचि और योग्यता के अनुसार काम मिलता है। अगर जुलाहे का बेटा जुलाहे का ही काम करे तो वह अपने बाप द्वारा उपलब्ध योग्यता को आगे बढ़ा सकता है और इससे कपड़ा उद्योग उन्नति करता चला जायेगा। किन्तु अगर जुलाहे के बेटे में डॉक्टर या इंजीनियर बनने की अभिरुचि है तो उसको समाज नहीं रोक सकता, इस बात की उसको पूरी आजादी है, अभिरुचि तथा योग्यता के अनुसार कार्य का बँटवारा-गाँधी का यही सिद्धान्त था। इसी भावना से वर्ण व्यवस्था कायम की गयी थी कालान्तर में कुछ पेशे निम्न श्रेणी के और कुछ पेशे उच्च श्रेणी के समझे जाने लगे। यहीं से वर्ण व्यवस्था में विकृत आना प्रारम्भ हो गया। ज्योंही इस व्यवस्था में विकृति आयी अस्पृश्यता की भयानक बीमारी भी भारतीय समाज में घर कर गयी तथा कुछ लोगों को इतना नीच समझा जाने लगा कि उनको छूना तक वर्जित कर दिया गया।

गाँधी का विचार था कि जब तक अस्पृश्यता को आमूल नष्ट नहीं कर दिया जायेगा हिन्दू-समाज उन्नति नहीं कर सकेगा। गाँधी को महात्मा फुले जैसे लोगों से भी इस विषय में प्रेरणा मिली। ज्योति राव फुले ने 1873 में सत्य शोधक समाज की स्थापना की जिसका उद्देश्य समाज के कमजोर वर्ग को सामाजिक न्याय दिला सके। अछूताद्धार के लिए गाँधी जी ने कई क्रांतिकारी कदम उठाये। 1932 में उन्होंने ‘हरिजन संघ’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य अछूतों की स्थिति को सुधारना था। वे जो कुछ थे उसको खुद करके दिखाते थे। इसलिए अपने आश्रम में उन्होंने अछूतोद्धार का काम सबसे पहले किया। सदियों से चली आयी परम्परा के अनुसार मैला उठाना भारत में सबसे निकृष्ट कार्य समझा जाता रहा है, गाँधी जी ने हरिजन बस्तियों में जाकर स्वयं यह कार्य किया और अपने आश्रमवासियों को भी यही हिदायत दी कि वे भी ऐसा ही कार्य करें ताकि निम्न वर्ग के लोगों के अन्दर निहित छोटेपन की भावना का ह्रास हो और वे भी अपने को उच्चवर्ग के लोगों में खपा सकने में समर्थ हों। सवर्णों को उन्होंन बार-बार याद दिलाया कि जो अपने ही जैसे मनुष्यों में किसी को छोटा समझें वह जघन्य अपराध तथा पाप का भागी है। एक मेहतर की भी वही अहमियत है जो एक डॉक्टर या इंजीनियर की।

गाँधी ने अछूतोद्धार के लिए सरकार से कानून बनाने की प्रार्थना की। इस कार्य में डॉक्टर अम्बेडकर जैसे लोगों का भी उनको सहयोग मिला। उन्हीं के प्रयत्न से हरिजनों के मंदिर प्रवेश पर लगायी रोक धीरे-धीरे हटाई गयी। कुछ स्वार्थी तत्वों ने पाखण्ड-वश इसका विरोध भी किया। वर्तमान स्थिति में भी यह संघर्ष बराबर चालू है, किन्तु गाँधी के सतत प्रयास से इस आंदोलन को शक्ति मिली। उन्होंने कहा कि अछूत सबसे कमजोर हैं इसलिए परम पिता परमात्मा की दृष्टि में वह सबसे अधिक प्रिय हैं। इसलिए उन्होंने अछूतों को “हरिजन’ की संज्ञा दी। वे एक ऐसे सामाजिक वातावरण में पले थे जहाँ नारी को पुरुष से नीचे का स्थान दिया जाता है। वे भली-भाँति जानते थे कि इस भेदभाव का कोई भी प्रमाण भारतीय धार्मिक अथवा दार्शनिक ग्रंथों में कहीं नहीं मिलता। परदा-प्रथा जैसी कुरीतियाँ तथा सती-प्रथा जैसे जघन्य कार्य मध्ययुग की देन हैं और इन कुरीतियों से भारतीय समाज अवनति के गर्त में फंसता चला जा रहा है। अगर किसी देश की आधी जनता को निष्क्रिय और निष्प्राण कर दिया जाय तो देश का कितना नुकसान हो सकता है, यह बात गाँधी भली-भाँति जानते थे। उनके पहले कई अन्य सुधारक इस दिशा में कार्य कर युके थे। गाँधी जी ने इन लोगों का समर्थन किया और अपने आश्रम में पुरुषों तथा स्त्रियों को बराबर का स्थान दिया। यह काम उन्होंने अपनी धर्मपत्नी कस्तूरबा को सौंप दिया था।

गाँधी विवाह को एक पवित्र बंधन मानते थे, काम-पिपासा शांत करने का साधन नहीं। वे विधवा-विवाह के भी पक्षपाती थे। उन्होंने कहा है कि अपनी इच्छा से विधवा बना रहना गलत नहीं है किन्तु किसी स्त्री को विधवा बने रहने के लिए बाध्य करना महान् पाप है। वे बाल-विवाह को भी अनुचित मानते थे।

गाँधी के अनुसार स्त्री के सारे अधिकार वही होने चाहिए जो पुरुषों का मिले हैं। जिस प्रकार वे सामाजिक समानता की अधिकारिणी उसी प्रकार राजनैतिक समानता की भी अधिकारिणी हैं। उनको राजनीति में आने का पूरा अधिकार है, किन्तु यह भी उनका कर्तव्य है कि वे अपने घर की समुचित देखभाल करें, उनके मातृ-पक्ष के वे बहुत बड़े हामी थे। उनका मानना था कि बिना उनकी सक्रिय भूमिका के भारतीय परिवारों में सुख-शांति नहीं आ सकती।

गाँधी के समानता के जिन आदर्शो का हमने वर्णन किया है वे एक आदर्श समाज में ही सम्भव हैं। अगर किसी देश की सामाजिक-परिस्थितियाँ अनुकूल न हों तो न तो समानता सम्भव है, न ही अछूतोद्धार अथवा स्त्री-पुरुष समानता ही सम्भव है। ये सब बातें तभी सम्भव हैं जब स्वतंत्रता का वातावरण हो। बिना स्वतंत्रता के समानता का कोई अर्थ ही नही है, इसलिए वे कहते थे कि स्वतंत्रता सबका अधिकार है।

शिक्षा क्या है ? गाँधी के अनुसार शिक्षा आत्मसाक्षात्कार या अपने को पहचानने की कला है। अगर शिक्षा दोषपूर्ण होगी या सिर्फ आर्थिक स्वार्थों को समझने वाली होगी तो देश में आदर्श व्यवस्था की स्थापना नहीं हो सकती।

गाँधी ने शिक्षा-विषयक समस्याओं की समालोचना उस वक्त की जब भारत में एक विदेशी शिक्षा-व्यवस्था का बोलबाला था, जो जबरन भारत पर थोप दी गयी थी।

गाँधी ने शिक्षा-विषयक समस्याओं की समालोचना उस वक्त की जब भारत में एक विदेशी शिक्षा-व्यवस्था का बोलबाला था, जो जबरन भारत पर थोप दी गयी थी, अंग्रेजों को केवल ऐसे शिक्षितों की आवश्यकता थी जो उनको भारत पर शासन करने में सहायता प्रदान करें, वे नहीं चाहते थे कि भारत के लोग सही अर्थ में शिक्षित हो जाये और उन्हीं के खिलाफ आवाज उठाने लगें, इसलिए उन्होंने अपनी शिक्षा-पद्धति को ज्ञानपरक नहीं विदेशी भाषापरक बना दिया। वे जानते थे कि भारत के विद्यार्थी का अधिक समय विदेशी भाषा रटने में ही खर्च हो जायेगा और फिर भी वह इतना ही सीख पायेगा जितने से उनके द्वारा संचालित दफ्तरों का रोजमर्रा का कार्य हो जाय और शिक्षा का वास्तविक महत्व ताक पर रखा रह जाय इस प्रकार अंग्रेजों ने काले अंग्रेजों की उत्पत्ति की जो आज भी देश के लिए समस्या बने हुए हैं, अब धीरे-धीरे परिवर्तन आ रहा है किन्तु अभी भी जाने-अनजाने नौकरी पाने की योग्यता अंग्रेजी बोल पाने की योग्यता से मापी जाती है, गाँधी इस व्यवस्था से अत्यन्त विक्षुब्ध थे, इसीलिए उन्होंने एक कान्फ्रेन्स का आवाहन किया और एक नयी शिक्षा पद्धति की सिफारिश की, इस पद्धति को “वर्धा स्कीम आफ एजुकेशन’ का नाम दिया गया, इस स्कीम का मुख्य आधार था “बुनियादी शिक्षा”।

गाँधीजी ने इस संबंध में अपने विचारों का हरिजन समाचार पत्र के माध्यम से जनता तक पहुँचाया और वर्धा में शिक्षा से संबंधित एक सम्मेलन भी बुलाया। डॉ० जाकिर हुसैन समिति ने इस योजना का ब्यौरा तैयार किया तथा कई शिल्पों के लिए पाठयक्रम भी तैयार किए गए। इस योजना का मूलभूत सिद्धान्त बालकों को उपर्युक्त ढंग के उत्पादक कार्यो के माध्यम से शिक्षित करने का था। इस योजना के अन्तर्गत छात्रों के सम्पूर्ण व्यक्तित्व की साक्षरता का ध्येय था। इसमें शिक्षकों के वेतन का भी प्रबंध था। इस योजना के अन्तर्गत विद्यार्थियों को 7 वर्ष तक विद्याध्ययन करना था। शारीरिक काम के प्रति आदर की भावना भी इस प्रणाली में निहित थी।

महात्मा गाँधी का विश्वास था कि बुनियादी शिक्षा-प्रणाली प्रचलित शिक्षा प्रणाली के दोषों को ही दूर करने में सफल नहीं होगी बल्कि शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति लाने के साथ-साथ सामाजिक क्रांति का भी मार्ग प्रशस्त करेगी।

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