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मुगल कालीन राजत्व सिद्धांत

मुगलकालीन राजत्व सिद्धांत

मुगलकालीन राजत्व सिद्धांत

इस्लाम में राज्य-निर्माण के बारे में हमने ऊपर जो अध्ययन प्रस्तुत किया है, उससे यथोचित रूप में मुगलिया राज्य के उन कुछ लक्षणों की उत्पत्ति स्पष्ट हो गई होगी जो पूर्णरूपेण इस्लामी प्रवृत्ति के नहीं थे। मुगल अपने साथ पादशाहत (राजत्व) के जो विचार लेकर भारत आए, वे पूर्णतः इस्लामी नहीं थे; अपितु उनमें मंगोल, तुर्की और ईरानी परंपराओं का मिश्रण था, तथा उनमें और तुर्की तथा दिल्ली के अफगानी सुल्तानों में भी कुछ हद तक अंतर दिखाई देता है। इन विचारों पर कुछ हद तक भारतीय राजनीतिक परंपराओं का प्रभाव पड़ा था। अंत में जो स्वरूप उभरा, वह अबुल फजल के पादशाहत के सिद्धांत में दिखाई पड़ता है। मुगलिया राज्य के स्वरूप का अध्ययन करते समय राजशाही संस्था की समझ रखना अत्यंत आवश्यक है। ऊपर बताया जा चुका है कि इस्लाम में राजशाही का प्रवेश असंगत रूप में  हुआ था, किन्तु आगे चलकर यह एक महत्वपूर्ण संस्था बन गई। मुस्लिम विधिवेत्ताओं ने राजा (पादशाह) की आवश्यकता को यह कह कर न्यायोचित ठहराया है कि मनुष्य की स्वार्थी और दुराग्रही प्रकृति ही समाज में व्यवस्था तथा देश में शांति की रक्षा में मुख्यतः बाधक होती हैं इसका निराकरण करने के लिए खुदा ने यह निश्चय किया कि आदमजात लोगों में से कोई ‘हाकीम-ए-आदिल’ बने जो आदम के बेटों के कारनामों निगाह रखे और दुनिया के कामकाज को सही रास्ते पर चलाते हुए उन्हें भला-चंगा तथा सुरक्षित रखे। इस प्रकार राज्य का सिद्धान्त राजशाही के सिद्धान्त में घुलमिल गया और सारे राजनीतिक विचार तथा राज्य के कार्य-व्यापार राजा नामक व्यक्ति को केन्द्र में रखकर ही बनने तथा चलने लगे।

राजत्व की ईरानी परम्परा एवं अनेक मुस्लिम विधिवेत्ताओं के विचार इस बात की पुष्टि करते हैं कि राज्य का शासन एक शक्तिशाली शासक चलाता था। अल गजाली सुल्तान की सरकार के बारे में शरीयत के अनुसार यह औचित्य प्रस्तुत करते हैं कि धर्म (शरीयत) और राजत्व-दोनों ही ईश्वर की देन हैं। इस प्रकार गजाली शरीयत और ईरानी विचारों का मिश्रण कर राजत्व का एक सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। निजाम-उल-मुल्क तुसी (11वीं शताब्दी) का सियासतनामा और अली बिन सहाब हमलावी का जखीराज-उल-मुल्क शांति स्थापना के लिए एक शक्तिशाली पादशाह की आवश्यकता पर बल देते हैं। इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी तक अधिकांश मुस्लिम जगत में राजत्व का सिद्धान्त पूर्व-इस्लामी अरबी, मुस्लिम, ईरानी और तुर्की-मंगोल तत्वों के सम्मिश्रण से बना था। मध्यवर्ती एशिया के तैमूरी वंश में प्रचलित राजनीतिक सिद्धांत ने विशेष रूप से मुगलों के लिए एक विशिष्ट पूर्व उदाहरण प्रस्तुत किया।

दिल्ली सल्तनत की चार शताब्दियों के दौरान राजत्व का विचार अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरा। यद्यपि इस विषय के विशेषज्ञों के बीच मतभेद पाया जाता है, फिर भी राजत्व के बारे में एक निश्चित मत क्रमशः स्थिर हो गया।

जातीय श्रेष्ठता, कबीलाई नेतृत्व या सगोत्रीय भ्रातृतव पर टिकी राजशाही की नींव कमजोर और अविश्वसनीय थी। यह बात धर्म के सहारे सल्तनत को टिकाए रखने तथा मुस्लिम संप्रदाय के विभिन्न वर्गों से शक्ति संचित करने के प्रयत्नों पर भी लागू होती है। इसीलिए इन प्रयत्नों से भी बहुत सफलता नहीं मिली। सुल्तानों ने शरीयत के साथ-साथ कुछ धर्म-निरपेक्ष नियम (जवाबित) भी लागू किए। उत्तराधिकारी के बारे में कोई निश्चित नियम नहीं था; इसलिए जो व्यक्ति गद्दी हथियाना चाहता था, वह सैनिक शक्ति और शासक वर्ग के विशिष्ट व्यक्तियों की मदद लेता था।

बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की स्थापना की। वंश-क्रम में वह पिता की ओर से तैमूर से छठे तथा माता की ओर से चंगेज से पंदहवें स्थान पर आता था। वह अपने साथ भारत में प्रभुसत्ता का तुर्क-मंगोल सिद्धांत लेकर आया, जिसका विकास मध्यवर्ती एशिया में हुआ था। दिल्ली सल्तनत के काल में राजत्व का जो सिद्धांत चल रहा था, वह इससे प्रभावित और परिवर्तित हुआ तथा शाही पद-प्रतिष्ठा को अधिक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ। बाबर से पहले के दिल्ली के मुस्लिम शासक ‘सुल्तान’ (प्रतिनियुक्त) कहलाते थे जो एक तुर्कशाही पदवी थी। बाबर ने पादशाह (सम्राट) की पदवी धारण की और यही पदवी भावी मुगल पादशाह भी धारण करते रहे। बाबर के जीवन-वृत्त में प्रभुसत्ता संबंधी विचार केवल संयोग से ही यत्र-तत्र मिलते है।

बाबर के मृत्यु (1530) के बाद उसका सबसे बड़ा बेटा हुमायूँ गद्दी पर बैठा। उसकी गद्दीनशीनी स्पष्टतः आनुवंशिकता के सिद्धांत की विजय थी। किन्तु इससे ज्येष्ठाधिकार का सिद्धांत सिद्ध नहीं होता। पूरे मुगल इतिहास को देखें तो पता चलेगा कि ज्योष्ठाधिकार के सिद्धांत के अभाव में हर बार हर शाजादा यह ख्वाहिश पाले रहता था कि वही पादशाह बने और इसीलिए उत्तराधिकार के मामले को लेकर समय-पूर्व विद्रोह होते रहे और लड़ाइयाँ लड़ी गई। हुमायूँ के समय तक प्रभुसता या साम्राज्य की अविभाज्यता का सिद्धांत भी स्थापित नहीं हुआ था अपने भाइयों को संतुष्ट करने के लिए हुमायूँ को उन्हें काफी मात्रा में राजदेय (गुजारा-भत्ता) देना पड़ा। प्रशासनिक आवश्यकताओं के लिए साम्राज्य की भूमि के विभाजन का सिद्धांत माना गया। फिर भी वास्तविकता को नजरअंदाज करते हुए हुमायूँ राजत्व के बारे में अभिमानी और धृष्टतापूर्ण विचार ही पाले रहा। उसने पादशाहत के बारे में इस तुर्की मान्यता पर ही बल दिया कि पादशाह खुदा की परछाई होता है (हजरते पादशाह, जिल्ले इलाही)। उसने शाही प्रभुसत्ता को न केवल दैवी अधिकार माना, अपितु उसे पादशाह की ऐसी व्यक्तिगत संपत्ति भी समझा, जिसे वह अपनी मन-मर्जी के अनुसार किसी को भी हस्तांतरित कर सकता था।

अकबर के शासनकाल में पादशाहत की संकल्पना न केवल विस्तार पाकर पूर्णता और निश्चितता पर पहुँची; अपितु उसे एक नया और विशिष्ट महत्व भी प्राप्त हुआ। उसे अपने पूर्वजों से राजत्व के बारे में कुछ परम्पराएं और विचार विरासत में मिले थे, जो उसकी ‘पादशाही’ के संघटक तत्व बने। दैवी उत्पत्ति के सिद्धांत और खुदा की परछाई (जिल्ले इलाही) के दावों के साथ-साथ अकबर की भी यह मान्यता थी कि राजत्व या पादशाहत मुस्लिम समुदाय या अमीर वर्ग की ओर से भेंट नहीं हैं उसके अनुसार “खिलाफत (आध्यात्मिक या रुहानी प्रभुसत्ता) और पादशाहत (पार्थिव प्रभुसत्ता या राजनीतिक प्रभुसत्ता) अर्थात सल्तनते-हकीकी व मजूजी’ दोनों ही उसे जन्मसिद्ध अधिकार तथा वंश परम्परा के साथ-साथ योग्यता के आधार पर मिली थीं। इस पर बदायूँनी यह टिप्पणी दी थी कि अकबर “अपने व्यक्तित्व में आध्यात्मिक और धर्म-निरपेक्ष- दोनों प्रकार का मुखियापन समाहित करने का अभिलाषी था।”

अबुल फजल ने राजत्व या पादशाहत के बारे में जो विचार व्यक्त किए थे, उनसे भी अकबर की अपनी संकल्पना पुष्ट हुई। अबुल फजल के अनुसार पादशाहत खुदा से निकलने वाली रोशनी (फर्र-ए-इज्दी) है और जिसे खुद उसने ही पृथ्वी पर भेजा है; इसलिए उसमें ऐसी अनेक सहज विशेषताएं हैं, जो उस रोशनी को धारण करने वाले व्यक्ति में खुद-ब-खुद ही प्रवेश कर जाती हैं । उसके अनुसार एक आदर्श पादशाहा खुदा की परछाई होता है जो चरम और अविभाज्य शक्ति का उपयोग करते हुए अपने अधीनस्थ राज्य या इलाकों में “एक नियम, एक नियामक, एक मार्गदर्शक, एक लक्ष्य और एक विचार” (अकबरनामा) के अनुसार अपनी प्रभुसत्ता स्थापित करता हैं पादशाह को चाहिए कि वह अपने को अपनी प्रजा का पिता समझे और उसकी सुख-सुविधा का ध्यान रखते हुए प्रजा-पालक बना रहे। अबुल फजल ने बिना किसी लाग-लपेट के यह भी चेतावनी दी है कि किसी पादशाह में जाहे ऊपर गिनाए गए सभी उत्कृष्ट गुण मिलते हों, किन्तु यदि उसके शासन में “सार्वभौमिक शान्ति उदघाटित न होती हो” और यदि वह सभी धर्म और संप्रदायों के मानने वालों के पक्ष में समान दृष्टिकोण न अपनाए, और यदि वह किसी के साथ सगे बेटे की तरह और किसी के साथ सौतेले बेटे की तरह व्यवहार करे, तो वह पादशाहत की “उच्च गरिमा” को धारण करने का अधिकारी नहीं माना जाएगा (अकबरनामा)। उसका दावा है कि अकबर में वे सभी आवश्यक गुण मौजूद थे जो लोगों को आध्यात्मिक आनन्द दिला सकें तथा संघर्षरत विभिन्न धर्ममतावलंबियों के बीच सामंजस्य स्थापित कर सकें। अबुल फजल द्वारा प्रतिपादित पादशाहत के सिद्धांत ने अकबर को एक ऐसी समुचित वैचारिक आधार-भूमि प्रदान की, जिस पर उसने व्यापक संप्रदाय-निरपेक्ष साम्राज्य, पितृ व्यवहार प्रधान निरंकुश शासन तथा सामाजिक संस्कृति स्थापित की। इस विचारधारा के परिणामस्वरूप ही अकबर संकीर्ण धार्मिक-मनोवृत्तियों से ऊपर उठ सका और उसकी राज्य संबंधी नीतियाँ कथनी और करनी-दोनों रूपों में इस्लाम के प्रतिबंधों से मुक्त रहीं उसकी शासनकला का सूत्र इस्लामी कानूनों और हिदायतों के अनुसार नहीं चलता था, वरन ‘सुलह- ए-कुल’ (सभी के साथ शान्ति) से बंधा हुआ था!

क्या अबुल फजल द्वारा प्रतिपादित राजत्व का सिद्धांत इस्लाम विरोधी था? इस प्रश्न पर वाद-विवाद हो सकता है। पूर्वकालीन मुस्लिम समुदाय कभी यह बात मनने की सोच भी नहीं सकता था कि मनुष्य में भी दैवी तत्व हो सकता है। सिद्धान्त रूप से ही सही, यह बात भी सच है कि खलीफा तक का अस्तित्व मुस्लिम समुदाय की इच्छा पर टिका माना जाता था। किन्तु अबुल फजल के अनुसार पादशाह अपने पद का उपयोग दैवी इच्छा के अनुसार करता था। अबुल फजल के कुछ कथनों को आधार मानकर इब्न और आर०पी० त्रिपाठी-दोनों ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पादशाह धार्मिक नियमों से ऊपर था। हो सकता है कि यह बात पूरी तरह से सच न हो। यहाँ तक कि “महजर” की घोषणा भी उसे यह प्राधिकार नहीं देती कि वह इस्लामी कानून और हिदायतों से ऊपर माना जाए। अबुल फजल का वास्तविक लक्ष्य तो यह था कि पादशाह अपने-आप को उन उलमा के नियंत्रण में न माने जो अपना अधिकार जताने का दम भरते थे। अबुल फजल द्वारा विकसित प्रभुसत्ता का सिद्धांत तो मुख्यतः इस बात पर बल देता था कि अकबर की स्थिति उसके विरोधियों, विशेष कर उलमा की तुलना में ऊँची थी। उसने इस बात पर बल दिया कि चूंकि पादशाह हर स्तर पर पाए जाने वाले मतभेदों या छोटे-बड़े संघर्षों को दूर करता है, इसलिए वह अपने कर्तव्य का निर्वाह सुगमता से करता रहे इसके लिए उसके हाथ में निरंकुश शक्ति होनी चाहिए। यह भी कहा जा सकता है कि अबुल फजल द्वारा अपना सिद्धांत प्रस्तुत करने से बहुत पहले ही इस्लाम में दैवी तत्व प्रविष्ट हो चुका थ। उत्तरवर्ती अब्बासिदों के काल में, जब खलीफा की दुनियावी ताकत कमजोर हो चुकी थी, उन्होंने दुनियावी ताकत के नुकसान की भरपाई करने के प्रयत्न में भारी-भरकम धार्मिक उपाधियाँ ग्रहण करना आरम्भ कर दिया। तिनोन्मुख काल में खलीफा को ईश्वर का प्रतिनिधि और खुदा की परछाई, आदि-आदि कहा जाता था। तबसे यह प्रथा पड़ गई कि शक्तिशाली मुस्लिम पादशाहों और सम्राटों की प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए उनके नामों या पदों के साथ ये विशेषनाम या उपाधियाँ जोड़ी जाएं। भारत में हिन्दू विधिवेत्ताओं ने, जिनमें प्रमुख रूप से मनु का नाम लिया जा सकता है, राजाओं में देवत्व का आरोपण किया था। इसलिए जब मुरिलम शासकों ने भी अपने पदों के साथ दैवी सत्ता को जोड़ना शुरू किया तो उसे तत्काल स्वीकृति मिल गई। इस तरह यह कहा जा सकता है कि अबुल फजल के सिद्धांत में ऐसी कोई बात नजर नहीं आती, जो सामान्यतः मुसलमानों की दृष्टि में आपत्तिजनक हो। हाँ, कुछ कट्टर सुनी उलमा इसे अवश्य आपत्तिजनक मानते थे। वस्तुतः देखा जाए तो अबुल फजल की प्रभुसत्ता संबंधी संकल्पना में तत्कालीन तीनों धाराओं-गुगल धारा, मुस्लिम धारा तथा हिन्दू धारा का मिश्रण हैं इन तीनों धाराओं ने मिलकर एक नई मुख्य धारा का रूप ले लिया।

अबुल फजल का राजत्व का सिद्धांत मुगल सम्राट के एकतंत्रीय स्वेच्छाचारी व्यवहार के रूप में अभिव्यक्त हुआ। वह सरकार की सभी शाखाओं का मुखिया था और उसके प्राधिकार पर किसी का नियंत्रण नहीं था। वह न केवल राज्याध्यक्ष था, अपितु धर्माध्यक्ष भी था। मुगल सम्राट अपने प्रभुत्व वाले राज्यों में अपने को खलीफा मानते थे। सिद्धांत रूप में, कुरान का कानून राज्य में मूलभूत कानून माना जाता था, जिसका शब्दशः पालन अनिवार्य था। केवल इस सीमा-बंधन से हो सकता है कि मुगल शासन को सीमित राजतंत्र माना गया हो, किन्तु यह कानून किसी भी तरह से पादशाह पर बाध्यकारी शक्ति के रूप में लागू नहीं हुआ। चूंकि पादशाह को मुगल राज्य-व्यवस्था में उच्चतम स्थान प्राप्त था, इसलिए वह कुछ एकांतिक अधिकारों और विशेषधिकारों का हकदार था। जगदीश नारायण सरकार ने पादशाह के परमाधिकारों का अध्ययन कर उन्हें तीन विस्तृत श्रेणियों में विभाजित किया है :

  1. संविधानिक और प्रशासनिक महत्व वाले परमाधिकार,
  2. रस्मो-रिवाज या समारोहमूलक तथा दरबार के शिष्टाचार और कार्य-विधि संबंधी परमाधिकार
  3. खेल-कूद, आखेट, मनोरंजन आदि तथा युद्ध-क्रीड़ा से संबंधित परमाधिकार।

इन परमाधिकाों में पादशाह के नाम पर पढ़ी जाने वाली जुम्मे की नमाज (खुतबा), दरबार में मिलने वाली सलामियाँ, जिन्हें तसलीम और ‘कोर्निश’ कहते थे, एवं ‘शिकारे-जरगाह’ (एक विशेष प्रकार का शिकार या आखेट) के अधिकार सम्मिलित थे।

मुगल बादशाह की महान शक्ति को देखकर कार्ल वितफोगल उसे प्राच्य निरंकुश शासन का एक अपूर्व उदाहरण मानता है। जिस तरह फ्रांस का लुई आत्मश्लाघा में अपने-आप को ‘राज्य’, और वह भी प्रथम स्तर का, मानने की डींग हाँकता था, उसी प्रकार जगदीश नारायण सरकार के शब्दों में मुगल पादशाहों को भी निस्संकोच अपने-आप में राज्य माना जा सकता है; क्योंकि उनकी निजी आवश्यकताएं राज्य की ही आवश्यकताएँ मानी जाती थीं। बाबर और हुमायूँ की तुलना में अकबर के पास शक्ति का अक्षय भंडार था। बाबर और हुमायूँ-काल में अमीरवर्ग पर्याप्त शक्तिशाली था। किन्तु अकबर ने अमीर वर्ग के घुटने टिका दिए और अंत में उसे शाही निरंकुशता या एकतंत्र का निष्ठावान किन्तु शक्तिशाली साधन बना दिया। सन् 1579 के महजर की बदौलत अकबर के धर्म और राज्य-दोनों के मुखिया बन जाने के बाद उलमा की शक्ति काफी कम हो गई। इसी महजर की बदौलत अकबर द्वारा ‘इमाम’ और ‘अमीरुल-मुमीनीन’ की उपाधियाँ धारण कर लेने के बाद भारतीय साम्राज्य पर खलीफा की सर्वोच्चता दावा भी आखिरकार खारिज हो गया। सिक्कों की इबारत और ‘खुतबा’ में उसे खलीफा बताया गया है। मुख्य ‘मुजलाहिद’ बन कर उसने फारस के शाहों के इस मिथ्याभिमान को भी चुनौती दी कि चूंकि बाबर और हुमायूँ दोनों ने उनसे मदद मांगी थी और उन्होंने मदद की भी थी, इसलिए मुगल साम्राज्य पर उनकी प्रभुसत्ता का हक बनता है। अकबर के शासनकाल में ही भारत में राजसत्ता किसी प्रकार के विदेशी या बाहरी दवाव से निकलकर पूरी तरह स्वतंत्र हुई।

फिर भी मुगल निरंकुशता को एक अर्थ में पूर्णतः सीमित मानना होगा। पादशाह को तत्कालीन रीति-रिवाजों का अनुपालन करना पड़ता था। अबुल फजल ने स्वयं शाही शक्ति का सीमाओं की ओर परोक्ष रूप से यह कहकर इशारा किया है कि पादशाह अपने समय की भावनाओं और विचारधाराओं से अपने को सदा अवगत रखता था। अकबर के मामले में यह देखा गया है कि वह अपने दृष्टिकोण तक को पूरी तरह सुधारवादी या परिवर्तनवादी नहीं बना सका, क्योंकि उसे डर था कि ऐसा करने से कहीं परम्परावादी उत्तेजित होकर विरोध और विद्रोह न कर बैठें। इसके अतिरिक्त कुछ और कारण भी थे, जैसे मुगल साम्राज्य का विस्तृत आकार, तत्कालीन अल्पविकसित संचार-व्यवस्था, परिवहन संबंधी त्वरित साधनों की कमी और अप्रभावी गुप्तचरी। शाही आदेशों को साम्राज्य के दूरवर्ती क्षेत्रों में सरलता या तेजी से लागू नहीं किया जा सकता था। कुछ अगम्य पर्वतीय स्थलों में तथा दकन के इसी प्रकार अधिकार या प्रभाव को कभी मान्यता नहीं मिली। स्त्रेसाँ एवं वितफोगल ने प्राच्य निरंकुशता का जो श्रेणीकरण किया है, उसकी मुगल राजसत्ता के अध्ययन में सीमित वैधता हैं उनका तर्क है कि केंद्रीकरण संबंधी अकबर की नीति ने सामान्यतः पूरे शासकवर्ग को संकट में डाल दिया। प्रतिरोधस्वरूप सन् 1580-81 में जो विद्रोह हुआ, उसने अकबर को इस नीति के बारे में कुछ सीमाएँ स्वीकार करने के लिए बाध्य कर दिया। इस प्रकार वितफोगल का दृष्टिकोण मुगल राजनीति की वास्तविकताओं के अनुकूल नहीं जान पड़ता। मुगल पादशाहों का निरंकुशतावाद व्यवहार में परिसीमित था।

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