मुगलकालीन केन्द्रीय प्रशासन
मुगलकलीन केन्द्रीय सरकार का गठन
यद्यपि शासन की धुरी मुगल सम्राट ही हुआ करते थे और राज्य के सारे मामले राजा के इर्द-गिर्द घूमा करते थे फिर भी अत्यंत केन्द्रीकृत मुगल प्रशासन की विविध गतिविधियों को संचालित करना अकेले सम्राट के लिए संभव नहीं था। सरकार का कार्य सुचारू रूप से चलाने के लिए एक मंत्रि-परिषद का होना अत्यंत आवश्यक था। इस बात का मुस्लिम न्यायविदों ने बहुत पहले ही अनुभव कर लियाथा। उनका कहना था कि स्वयं पैगंबर को भी अल्लाह का आदेश था कि वे अपने शिष्यों से सलाहमशवरा करें। किन्तु ये न्यायविद इस्लाम के जनतांत्रिक सिद्धान्तों के अनुरूप सुपरिभाषित संस्थाओं का गठन करने में असफल रहे। अतः जहाँ एक ओर मंत्रियों की आवश्यकता पर बल दिया गया था, वहीं उन्हें वैध जन-प्रतिनिधि एवं लोगों के प्रति उत्तरदायी नहीं माना गया था। यही कारण था। कि खलीफाओं और बाद में सुल्तानों के काल में मंत्रियों की नियुक्ति राज्य के सेवा के लिए नहीं, अपितु प्रशासन के कार्य में सुल्तानों की सहायता करने के लिए उनके निजी सेवकों के रूप में की जाती रही। अपने सत्ताधिकार के किसी भी क्षेत्र में ये मंत्री स्वतंत्र नहीं रहते थे और सुल्तान उन पर कड़ी निगरांनी रखते थे।
मुगल शासकों के काल में “शाही नीति’ के इन उच्च प्रतिनिधियों (मंत्रियों) की हैसियत शासकों के साथ बदलती रहती थी। बाबर नेमेंहदी ख्वाजा को अपना प्रधानमंत्री और जैनुद्दीन को अपना सद्र बनाया था। किन्तु हुमायूँ के शासनकाल में किसी को भी सचिव से अधिक हैसियत नहीं दी गई। आई० एच० कुरैशी का कहना है कि अकबर द्वारा उठाए गए अधिकांश कदमों का स्रोत, जो वह स्वयं को मानता था, उचित नहीं है, क्योंकि इस बात के अनेक प्रमाण मिलते हैं कि उसे सलाह देने के लिए योग्य और समझदार मंत्रियों की परिषद थी।
वकील
मुगल राजतंत्रों में मंत्रि-परिषद के लिए विजारत शब्द का प्रयोग किया गया है। जब बाबर ने भारत में मुगल साम्राज्य की नींव रखी तो वजीर की स्थिति अत्यंत महत्वपूर्ण हो गई। किन्तु हुमायूँ की अचानक मौत के बाद वजीर की स्थिति में पर्याप्त परिवर्तन हुआ। हुमायूँ का उत्तराधिकारी अकबर नाबालिग था। इस अवधि में बैरमखाँ न केवल उसका शिक्षक-अभिभावक (अतालिक) रहा अपितु उसका वकील भी रहा जिसका कार्य अकबर के नाम पर राज्य प्रमुख के समस्त कार्यों को पूरा करना था। इस प्रकार वकील का पद अचानक अत्यंत महत्वपूर्ण हो गया और शीघ्र ही उसे महामंत्री (वजीर तैफीद) का दर्जा मिल गया यद्यपि उसका नाम कुछ और रखा गया।
अतः सैद्धांतिक रूप से वकील मंत्रियों का प्रमुख पात्र होता था, किन्तु जिन परिस्थितियों में बैरमखाँ वकील बना, उनमें वकील का पद संचालित करना और प्रशासनिक आवश्यकताओं को सुचारु रूप से पूरा करके राज्य में नई शक्ति का संचार करना। फलस्वरूप वह अधिकारियों, जिनमें मंत्री भी सम्मिलित थे, को नियुक्त और निरस्त करने लगा, और यदि उसे लगता कि ऐसा करना राज्य के हित में है तो प्रभावशाली अधिकारियों को मृत्युदंड भी देने लगा। वकील का पद जितना ऊंचा था, उतना ही महत्वपूर्ण उसके दायित्व भी होते थे। किन्तु बैरमखाँ ने अकबर का अतालिक – (शिक्षक अभिभावक) होने का लाभ उठाकर सम्राट की अवहेलना करनी आरम्भ कर दी। वह कोई भी कदम पहले उठा लेता और बाद में उसके लिए पादशाह की अनुमति प्राप्त कर लेता। वह अकबर के निजी मामलों में भी हस्तक्षेप करने लगा।
किन्तु अकबर ऐसी स्थिति को बहुत समय तक सहन नहीं कर सकता था। उसने क्रमशः ऐसे कदम उठाने आरंभ कर दिए जिनसे बैरमखाँ को उसकी शक्तिशाली स्थिति से हटाया जा सके। किन्तु इधर किए जा रहे शोधों में इक्तिदार आलम खाँ द्वारा यह सिद्ध करने का प्रयास किया जाता रहा है कि बैरमखाँ का पतन अमीरों के गुटीय झगड़ों के कारण हुआ और अकबर ने इसका लाभ उठाया। बैरमखाँ के विरुद्ध मोर्चा खड़ा करने वाली अकबर की धाय माँ माहम अनगा थीं। 1558 तक बैरमखाँ की शक्ति डगमगाने लगी थी और वह इस बात के लिए तैयार हो गया था कि वह प्रमुख अमीरों की पूर्व अनुमति के बिना अकबर के सामने कोई प्रस्ताव विचारार्थ नहीं रखेगा। तब तक तो ये अमीर संगठित हो चुके थे। इक्तिदार आलम खाँ का कथन है कि दरबार में बैरमखाँ और उसके विरोधियों का संघर्ष मूलतः ‘केन्द्रीय सत्ता’ अपनाने की थी जिसका वह रीजेंट था हालाँकि रीजेंट की जो शक्तियाँ मिली थीं उनका कोई सुस्पष्ट रूप परिभाषित सैद्धान्तिक आधार नहीं था।
1560 तक अकबर ने बैरमखाँ का समस्त सत्ताधिकार छीन लिया और उसकी गलतियाँ बताकर उसे बर्खास्त कर दिया। यह कार्यवाही विशिष्ट मध्ययुगीन ढंग से की गई। बैरमखाँ को तीर्थयात्रा के लिए मक्का जाने का आदेश दिया गया। अपने कार्यकाल में बैरमखाँ ने जिस प्रकार शक्ति और प्रतिष्ठा का उपभोग किया था और उसे बर्खास्त करने में अकबर को जिन कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था, उससे वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि वकील की शक्तियों में कटौती करने की आवश्यकता हैं उसने ऐसे कदम उठाए जिनसे क्रमशः वकील एक सामान्य राज्याधिकारी होकर रह गया। फिर भी मुनीम खाँ के कार्यकाल में उसे वकील की हैसियत से कार्य करने का पूरा अधिकार दिया गया। वह राजनीतिक एवं वित्तीय मामलों का प्रबंध करने एवं सैन्य तथा नागरिक मामलों के निपटाने की दिशा में अपने सत्ताधिकार का प्रयोग करता था। इस प्रकार वह शासन का वास्तविक प्रमुख बना रहा। तथापि वकील के पद को गंभीर आघात अकबर के शासनकाल के आठवें वर्ष में लगा। अब उसने दीवान-ए-वजीरात-ए-कुल का एक नया पद बनाया और उस पर मुजफ्फर खाँ को नियुक्त किया। यह पद साम्राज्य के राजस्व और वित्तीय मामलों के प्रबंध के लिए मनाया गया था। इस प्रकार राजस्व और वित्तीय मामले वकील के हाथ से ले लिए गए थे।
अकबर के उत्तराधिकारियों ने उसकी नीति का अनुसरण किया और भविष्य में कोई भी वकील बैरमखाँ की भाँति शक्तियों का उपभोग नहीं कर सका। बैरमखाँ की बर्खास्तगी के बाद वकील पद के कार्यभार को विभिन्न अधिकारियों में बाँट दिया गया। प्रायः तो यह पद खाली ही रखा जाता था उदाहरण के लिए जहाँगीर के शासनकाल के पहले चार एवं इक्कीसवें वर्ष के अतिरिक्त वकील का पद प्रायः खाली ही रहा। शाहजहाँ ने अपने शासनकाल के पहले चौदह वर्षों तक एतमादउद्दौला के पुत्र आसफखाँ को वकील के पद पर रखा और उसके बाद इस पद को ही समाप्त कर दिया गया। सतानवें वर्ष (1560-1657 ई०) की कुल अवधि में केवल दस वकील नियुक्त किए गए जिनका कार्यकाल 39 वर्षों का रहा। इस्लामी न्यायशास्त्र का पालन करते हुए और अन्य मुस्लिम राजतंत्रों के प्रशासन से प्रभावित होकर अकबर ने वकील पद के अधिकार एवं कर्तव्यों को चार मंत्रियों के बीच बाँट दिया ये मंत्री थे:
- दीवान या वजीर जिस पर राजस्व एवं वित्तीय मामलों का दायित्व था,
- मीर बक्शी, जिस पर सेना के प्रशासन एवं संगठन की जिम्मेदारी थी
- सद्र, जो धार्मिक एवं न्याय विभाग का प्रमुख था और,
- मीर सामान, मुख्य कार्यकारी अधिकारी जिसके जिम्मे राज्य के कारखाने और भंडार थे।
दीवान/वजीर
दीवान शब्द फारसी मूल का है और खलीफा उमर के काल में मुसलमानों ने इसे अपनाया। वे इसका प्रयोग विभाग के लिए करते थे। सल्तनत काल में इस शब्द का प्रयोग वजीर विभाग के लिए किया जाता था जिसके अंतर्गत राजस्व और वित्त आते थे। किन्तु मुगलों ने इसे अधिक निश्चित अर्थ प्रदान किया और इसे राजस्व एवं वित्त तक ही सीमित रखा। हुमायूँ के समय से वजीर शब्द का अर्थ किसी भी विभाग में मंत्री के रूप में लिया जाने लगा। अकबर के समय में वजीर शब्द का प्रयोग कम ही किया गया था जबकि जहाँगीर के शासनाल में इस शब्द का प्रयोग आम हो गा था। शाहजहाँ के काल में जाकर ही इस शब्द को अधिक निश्चित अर्थ प्रदान किया गया। उस समय वजीर को “दीवान-ए-कुल” कहा गया और उसके विभागीय मंत्री “दीवान” कहलाए। यहाँ यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि जहाँ “वजीर’ शब्द का प्रयोग केवल पादशाह के वित्त मंत्री के लिए ही किया जाता था, वहीं दीवान शब्द का प्रयोग प्रांतों के राजस्व के प्रभारी अधिकारी के साथ ही जागीरदारों एवं मनसबदारों के वित्तीय प्रबंधकों के लिए भी किया जाता था।
वकील पद के पतन के साथ दीवान का पद जिसके पास वित्तीय नियंत्रण था, क्रमशः शक्तिशाली होता गया और वकील के पद पर छा गया। इसका कारण था उसके पास वित्तीय नियंत्रण का होना। किन्तु अकबर दीवान के पद को आवश्यक रूप से शक्तिशाली बनाने के पक्ष में नहीं था और इसी कारण दीवानों को बदलता रहता था। इस प्रकार, उन लोगों की योग्यता की परख भी हो जाती थी जो इस क्षेत्र में प्रवीणता का दावा करते थे। लगभग बीस वर्षे की अवधि में, अर्थात अकबर के शासन के नवें वर्ष से लेकर तीसवें वर्ष तक, दीवान पद मुजफ्फर खाँ, राजा टोडरमल और ख्वाजा शाह मंसूर के हाथों आता जाता रहा। मुजफ्फर खाँ सरकारी सोपान में दीवान के पद को स्थान दिलाने में सफल रहा। राजा टोडरमल ने सैन्य एवं वित्तीय क्षेत्र में अपनी योग्यताओं का सुन्दर समन्वय किया और गुजरात में अमूल्य सेवाएं प्रदान की। टोडरमल को 1573 ई० में उस प्रांत की वित्तीय स्थिति को व्यवस्थित करने के लिए भेजा गया था। 1582 में टोडरमल को शाही दीवान बना दिया गया और उसे वित्तीय प्रशासन में सुधार के लिए एक विशेष योजना तैयार करने का दायित्व सौंपा गया। ख्वाजा शाह मंसूर अनिवार्यतः वित्तवेत्ता था और उसने सुगंध विभाग के योग्य प्रबंधक (मुशरिफ) के रूप में ख्याति प्रापत की थी। मुनीम खाँ की वकालत के समय में वह वित्त विभाग भी देखता था।
इनके पश्चात बनने वाले शाही दीवानों में थे- कुली खाँ, मीर फतहुल्ला, ख्वाजा शम्शुद्दीन, राय पत्रादास, असफ खाँ और मुहम्मद मुकीम। अपने सभी दीवानों को अकबर ने समान अधिकार एवं वित्तीय मामलों में विवेक प्रयुक्त करने का अधिकार दे रखा था। किन्तु छोटी अविधि के लिए ही विजारत पद प्रदान करने की उसकी नीति ने विजारत के उन दोषों को दूर कर दिया जो सल्तनत काल में इस संस्था में आ गए थे। आर० पी० त्रिपाठी के शब्दों में, “अकबर के शासनकाल में विजारत किसी व्यक्ति का एकाधिकार नहीं रह गई थी, न ही वजीर राज्य कर स्थायी अंग था।” अकबर के दीवानों की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए इब्न हसन का कहना है, “कुल मिलाकर अकबर के दीवान कार्यकुशल, निष्ठावान और परिश्रमी थे। कभी-कभी सरकारी ओहदे को लेकर उनमें प्रतिस्पर्धा एवं व्यक्तिगत ईर्ष्या के लक्षण दिखाई देने लगते थे किन्तु उन पर सम्राट की कड़ी निगरानी होने के कारण राज्य के प्रशासन पर इसका कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता था।
जहाँगीर ने अकबर की प्रयोग करते रहने की नीति को अपने शासनकाल के प्रथम छह वर्षों तक जारी रखा। इसके बाद लोग दीवान के पद पर लंबे समय तक बने रहे। किन्तु इसका कारण सम्राट का अनुग्रह न होकर उन पदाधिकारियों की कार्यकुशलता थी। जहाँगीर के समय में गियासबेग एतमादउद्दौल (नूरजहाँ का पिता) बीच-बीच में थोड़ी अवधि को छोड़कर अपनी मृत्यु तक दीवान बना रहा। यह पद उसने जहाँगीर का श्वसुर होने के कारण ही नहीं, अपितु अपने गुणों के कारण भी बनाए रखा था। एस० नुरुल हसन और इरफान हबीब ने इस संबंध में बेनीप्रसाद के दावे को पूर्ण रूप से उचित नहीं माना हैं बेनीप्रसाद का दावा है कि एतमादउद्दौला की तरक्की का संबंध नूरजहाँ की मंडली (1611-12) से था।
इस समय तक दीवान का पद पर्याप्त विशिष्टीकृत हो चुका था। इसके लिए व्यावहारिक अनुभव की एवं विशिष्ट योग्यता की आवश्यकता थी जो सेनापतियों के अधिकार क्षेत्र से लगभग परे थे। जहाँगीर ने अकबर द्वारा स्थापित संयुक्त दायित्व की व्यवस्था को बदला। अकबर की भाँति विभिन्न लोगों में कार्य बाँटने के स्थान पर जहाँगीर ने कार्य को साम्राज्य के राजनीतिक विभाजनों की दृष्टि से बाँटा।
शाहजहाँ के इक्तीस वर्षों के शासनकाल में छह स्थायी दीवान हुए। इनमें से सत्ताईस वर्ष तीन दीवानों के कार्यकाल के थे-अफजल खाँ, इस्लाम खाँ और सादुल्ला खाँ। सादुल्ला खाँ को सहज ही शाहजहाँ का सर्वाधिक विद्वान और सर्वोत्तम दीवान कहा जा सकता है। उसने अपने कठिन श्रम, चारित्रिक निष्ठा और विभाग पर नियंत्रण द्वारा सहज हो सम्राट का विश्वास प्राप्त कर लिया था।
औरंगजेब तो अपना मंत्री स्वयं ही था और प्रत्येक कार्य को वह अपने आप करना चाहता था तथापि 1676 में उसने असद खान को अपना मुख्य दीवान नियुक्त किया। वह बड़ा योग्य प्रशासक था और उसने 31 वर्षों तक लगातार इस पद पर कार्य किया। इतने लंबे अर्से तक पद पर बना रहने वाला वह अकेला वजीर था।
दीवान के दायित्वों के संबंध में अबुल फजल का कहना है, “वजीर, जिसे दीवान भी कहा जाता है, वित्तीय मामलों में सम्राट का प्रतिनिधि होता है। वह शाही खजानों का प्रबंधक होता है, सभी खतों की जाँच करता है।” जहाँ तक वित्तीय मामलों का प्रश्न है, प्रबंध के आम तरीकों एवं प्रशासनिक तंत्र में सुधार का सर्वोत्तम दृष्टांत उन योजनाओं में मिलता है जो टोडरमल और मीर फातुल्ला ने राजस्व प्रशासन में सुधार की दृष्टि से तैयार की थी। दीवान-वजीर के कार्यस्वरूप के बसार रूप में इब्न हसन के शब्दों में इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है, “राजस्व विभाग के प्रमुख की हैसियत से वह उस प्रत्येक अधिकारी पर नजर रखता था जो जागीर से तनख्वाह पाते थे। राजस्व विभाग के साथ ही उस पर राज्य के मुख्य कार्यकारी अधिकारी का दायित्व भी था। इस कारण प्रांतों के सूबेदारों से लेकर अमीर और पटवारी तक सभी प्रांतीय अधिकारियों पर उसका नियंत्रण रहता था। वित्त मंत्री की हैसियत से खजाने में आने और उससे बाहर जाने वाली पाई-पाई दाम पर उसकी निगरानी रहती थी।” इस प्रकार दीवान-वजीर का तिहरा दायित्व उसे केंद्रीय सरकार के तीनों विभागों और प्रांतीय प्रशासन के प्रत्येक क्षेत्र से जोड़े रखता था। दीवान-वजीर की सीधी निगरानी में कार्य करने वाले विभाग के अतिरिक्त, इस विभाग के अंतर्गत स्पष्ट रूप से विभक्त अन्य विभाग भी थे जिनमें से प्रत्येक का एक अलग प्रमुख होता था। इनमें मुख्य थेः दीवान-ए-खालिसा (खालिसा भूमि के लिए), दीवान-ए-तन (नकद तनख्वाहों के लिए), दीवान-ए-जागीर (राजस्व के कार्य के लिए दिए जाने वाले वेतनों के लिए), दीवाने तबजिह (सैन्य लेखे-जोखे के लिए), दीवान-ए-नयुता (मीर सामान के विभाग, कारखानों इत्यादि के लिए), और मुशरिफ (मुख्य लेखपाल)। इनमें से प्रत्येक विभाग को उसके कार्य के अनुसार फिर से अनेक अनुभागों में विभक्त किया गया था।
मीर बक्शी
वकील के मातहत जिन अधिकारियों का उल्लेख अबुल फजल करता है, उनमें मीर बक्शी सबसे अधिक शक्तिशाली था। वह नाममात्र के लिए वकील के अधीन था। उसका संबंध दिल्ली के सुल्तानों की आरिज-ए-मुमालिक से था। इब्न हसन के अनुसार “मुगल साम्राज्य के मीर बक्शी के पास सैन्य विभाग के प्रमुख की हैसियत से दीवान-ए-आरिज के समस्त अधिकार होते थे, किन्तु उसका प्रभाव उसके अपने विभाग से बाहर भी फैला हुआ था।” मुगलों की मनसबदारी व्यवस्था के अखंड संगठन के कारण मीर बक्शी की भूमिका और भी अधिक जटिल हो गई थी। उच्चाधिकारियों सहित सभी श्रेणियों के मनसबदारों की नियुक्ति के आदेश उसी के द्वारा दिए जाते थे। घोड़ों को दागने और सिपाहियों का मुआयना करने का काम भी उसी के जिम्मे था। वह सरखत नामक प्रमाणपत्र पर हस्ताक्षर करके मासिक वेतन भी निर्धारित करता था। इसी के आधार पर दीवान को राज्य में मंजूरी मिलती थी। इस प्रकार प्राप्त की गई मंजूरी को पुनः मीर बक्शी के पास भेजा जाता था और उसके हस्ताक्षर और मुहर लगने के बाद ही वह दस्तावेज पूरा माना गया था।
सद्र
मुसलमान न्यायविदों ने राजा की आवश्यकता को इस आधार पर सिद्ध केया है कि वह शरीयत और प्रजा की रक्षा करता है। किसी मुसलमान राजा के लिए केवल इतना ही पर्याप्त नहीं था कि वह स्वयं एक सच्चा मुसलमान हो, अपितु यह भी कि वह इस्लामी कानून की मर्यादा को भी बनाए रखे। इस्लाम के आरंभिक इतिहास में जो मुसलमान राजा हुए थे, वे मुख्यतः योद्धा होते थे। अतः उचित यही समझा गया कि राज्य के धार्मिक मामलों की देखभाल करने के लिए अलग से एक विभाग बनाया जाए। परिणामस्वरूप एक धार्मिक विभाग बनाया गया जिसका प्रमुख हुआ सद्र। चूंकि इस विभाग का मुख्य कार्य शरीयत की रक्षा करना था, अतः शरीयत के ज्ञान की बढ़ोत्तरी करनी और शरीयत के अनुसार न्याय करना इसका दायित्व हो गया। मुगलों के जमाने में भी इस विभाग के कार्य को सुचारू रूप से संपादित करने के लिए विभिन्न प्रांतों एवं सरकारों में इसकी शाखाएं खोली गई। हर कहीं इसका प्रभारी सद्र ही कहलाता था। सद्रों की संख्या इतनी अधिक होने के कारण प्रमुख सद्र को, जो कि साम्राज्य का सद होता था और केंद्र में रहता था, सद्र-उस-सदूर या सद्र-ए-कुल कहा जाता था। सद्र-उस-सूदर का मुख्य दायित्व उलमा के ऊपर कड़ी रजर रखना, शिक्षा और दान (नकद और भूमि दोनों रूपों में दिए जाने वाले दान), साथ ही न्याय विभाग पर भी निगरानी रखना था। चूंकि शिक्षा ज्ञान के प्रसार का एक महत्वपूर्ण साधन भी थी, अतः सद्र से आशा की जाती थी कि वह शिक्षा पर इस प्रकार नियंत्रण रखे कि विरोधी मतों (जिन्हें उलमा की महासभा स्वीकार न करती हो) को शिक्षा संस्थाओं में स्थान न मिले। न्याय विभाग के प्रमुख की हैसियत से सद्र अपनी निगरानी में ही काजियों एवं मुफ्तियों की नियुक्ति करवाता था ताकि इन पदों पर अनभिज्ञ लोगों की नियुक्ति न हो सके। किन्तु यह ध्यान में रखना चाहिए कि जब वह न्याय विभाग के प्रमुख की हैसियत से कार्य करता था तो सद्र न कहला कर मुख्य काजी (काजी-उल-कुज्जात) कहलाता था।
सद्र दान दी जाने वाली भूमि का भी निरीक्षण करता था। ऐसी भूमि लगान-मुक्त होती थी और उसे सयूरगल या मदद-ए-माश कहा जाता था। वह सम्राट द्वारा प्रदान की जाने वाली छात्रवृत्ति का भी निरीक्षण करता था। सद्र का दायित्व था कि इन अनुदानों का दुरुपयोग न होने पाए। अतः अनुदानों के लिए दिए जाने वाले समस्त प्रार्थनापत्रों को सम्राट के सामने प्रस्तुत करने से पहले वह स्वयं उनकी जाँच-पड़ताल करता था। इस कारण सद्र की स्थिति ऐसी थी कि यदि वह चाहता तो रिश्वत, सट्टेबाजी और गबन द्वारा अपना घर भर सकता था। कदाचित इसी कारण प्रशासनिक रूप से ऐसी व्यवस्था की गई थी कि सद्र की शक्तियों पर अंकुश लगाया जा सकता था। एक तो सद्र द्वारा अनुदान की जाने वाली भूमि की समस्त कार्यवाही अन्य मंत्रियों के हाथों से भी गुजरती थी; दूसरे ऐसे अनुदान देने की शक्ति पर सीमाएँ थी, और तीसरे प्रांतीय सद्र भी होते थे। यद्यपि जहाँगीर और शाहजहाँ अपने सद्रों के प्रति पर्याप्त कृपालु थे, फिर भी अकबर द्वारा बनाई गई नीति में किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं किया गया। सद्र न्याय विभाग का प्रमुख तो था किन्तु इब्न हसन के अनुसार, इस क्षेत्र में भी उसके अधिकार पर पर्याप्त अंकुश होता था क्योंकि सम्राट न्यायिक मामलों में बड़ी रुचि लेता था और हर सप्ताह दरबार लगाकर स्वयं मामलों की सुनवाई करता था।
अतः जहाँगीर के गद्दी पर बैठने तक सद्र का पद अपनी गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में अपना अधिकांश प्रभाव खो चुका था और इस पद को वह सम्मान, प्रतिष्ठा और अधिकार कभी नहीं मिले जिनकी सिफारिश मुस्लिम न्यायविदों ने इसके लिए की थी।
मीर सामान
वह उन भंडारों का भंडारी होता था जिनमें साम्राज्य की आवश्यकताओं के साथ ही शाही परिवार की आवश्यकताओं की भी पूर्ति होती थी। उसका पद दीवान-ए-वजीर और मीरबक्शी के समकक्ष या/और उन्हीं की भंति था। सम्राट से उसका सीधा संपर्क रहता था। मीर सामान के विभाग का संबंध सब प्रकार की वस्तुओं से था जिनके अंतर्गत न केवल हीरे जवाहरात या अस्त्र-शस्त्र और गोला बारूद आते थे अपितु लद्दू और अन्य प्रकार के जानवर भी सम्मिलित थे जिनकी आवश्यकता राज परिवार में होती थी।
मुगल साम्राज्य में बड़ी संख्या में कारखाने (बयूतात) थे जो न केवल राजधानी अपितु साम्राज्य भर में फैले हुए थे। इन कारखानों के प्रबंध, संगठन एवं उन्हें सुचारू रूप से चलाने का दायित्व मीर सामान पर होता था। संभरण विभाग का कार्यकारी अधिकारी होने के कारण इसके सुचारु रूप से चलाए जाने के लिए वही उत्तरदायी था।
मीर सामान के मातहत कार्य करने वाले अधिकारी और कर्मचारी पर्याप्त संख्या में थे। इनमें महत्वपूर्ण अधिकारी थेः दीवान-ए-बयूतात (जिस पर विभाग के वित्तीय कार्यों का उत्तरदायित्व था), मुखारिफ (मुख्य लेखपाल), दारोगा (कारखानों की देखभाल करने वाला), तहवीलदार (कारखानों के लिए आवश्यक नकदी एवं माल का प्रभारी)।
इस प्रकार अपने दायित्व एवं कार्य के स्वरूप के कारण मीर सामान की स्थिति दिल्ली सल्तनत के वकील-ए-दर और बारबक के समकक्ष होने चाहिए थी। किन्तु इब्न हसन के अनुसार उसके प्रभाव का क्षेत्र पर्याप्त सीमित हो गया था। इसके अनेक कारण थे। एक तो दरबार का दायित्व मीर बक्शी के जिम्मे था, दूसरे, गुसलखाने के दारोगा के पद के कारण अंतःपुर के सभी महत्वपूर्ण एवं गोपनीय कार्य दारोगा के ही हाथों सम्पन्न होते थे। तीसरे, उनके विभाग में दीवान को असाधारण रूप से ऊंचा स्थान प्राप्त था।
इस प्रकार, जहाँ तक केंद्रीय सरकार का प्रश्न था, प्रभावशाली एवं शक्तिशाली वजीर की शक्तियाँ चार मंत्रियों के बीच बँटी हुई थी (दीवान-वजीर, मीर बक्शी, मीर सामान और सद्र) जिनके पद और मर्यादा समान थे। प्रशासन की ऐसी व्यवस्था स्थापित की गई थी जिसमें चारों मंत्री अपने-अपने विभाग में स्वतंत्र रहते हुए जरूरत के समय एक-दूसरे के संपर्क में आते थे। ऐसी स्थिति में न तो इस बात की आशंका थी कि शक्ति किसी एक के हाथ में केंद्रित हो जायेगी न ही उनमें से कोई एक शेष तीन पर प्रभुत्व जमा सकता था।
महत्वपूर्ण लिंक
- सल्तनत कालीन राजत्व सिद्धांत (इल्वारी, खिलजी, तुगलक एवं सैय्यद वंश)
- मुगल कालीन राजत्व सिद्धांत
- सल्तनत कालीन केन्द्रीय प्रशासन (प्रशासन रूपी भवन)
- 19वीं शताब्दी का सामाजिक सुधार आंदोलन (नारी मुक्ति, जातिप्रथा विरोध इत्यादि)
- 19वीं शताब्दी में शिक्षा का विकास (मैकाले, हंटर, सैडलर, सार्जेंट योजना, इत्यादि)
- भारत के सामाजिक परिवर्तन में गाँधी जी की भूमिका
- सामाजिक परिवर्तन में अम्बेडकर जी की भूमिका
- भारतीय संस्कृति के सिद्धांत एवं विशेषताएँ
- दक्षिण भारत में सुधार आन्दोलन | थियोसोफिकल सोसाइटी
- पश्चिमी भारत के धार्मिक सुधार आन्दोलन में प्रार्थना समाज का योगदान
- मुस्लिम समाज में सुधार आंदोलन
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