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पश्चिमी भारत के धार्मिक सुधार आन्दोलन में प्रार्थना समाज का योगदान

पश्चिमी भारत के धार्मिक सुधार आन्दोलन 

महाराष्ट्र में धार्मिक सुधार आंदोलन 1840 में प्रारंभ हुआ। इस आंदोलन की शुरूआत परमहंस मंडली की स्थापना से हुई, जिसका उद्देश्य था मूर्ति पूजा और जातिप्रथा का विरोध अथवा विधवा विवाह का समर्थन। पश्चिमी भारत में शायद सबसे पहले धार्मिक सुधारक गोपाल हरि देशमुख हुए जो ‘लोकहितवादी’ के नाम से प्रसिद्ध थे। उन्होंने मराठी में लिखा और हिंदू धर्म की रूढ़िवादिता पर गंभीर रूप से प्रहार किया। उन्होंने धार्मिक एवं सामाजिक समानता का समर्थन किया।

बाढ़ में ब्रह्म समाज के प्रभाव से वहाँ 1867 में प्रार्थना समाज की स्थापना हुई। नए ज्ञान की पृष्ठभूमि में हिंदू धर्म और समाज में सुधार लाने के उद्देश्य से इस संस्था का संगठन किया गया था। इस समाज ने एक ब्रह्म की उपासना का संदेश दिया और धर्म को जातिगत रूढ़िवादिता से मुक्त करने का प्रयास किया। समाज ने जाति-व्यवस्था और पुरोहितों के आधिपत्य की आलोचना की। इसने अंतरजातीय विवाह, विधवा विवाह, स्त्री शिक्षा आदि का समर्थन किया। अछूतों, दलितों तथा पीड़ितों की दशा सुधारने के उद्देश्य से इसने कई कल्याणकारी संस्थाओं का संगठन किया, जैसे ‘दलित जाति मंडल’ (Depressed Class Mission) ‘समाज सेवा संघ’ (Social Service League) तथा ‘दक्कन शिक्षा सभा’ (Deccan Educational Society)|

इस समाज का उद्घाटन डॉ० आत्माराम पांडुरंग (1823-98) के नेतृत्व में हुआ था। दो वर्ष बाद इसमें सुप्रसिद्ध संस्कृत विद्वान आर0 जी0 भंडारकर और महादेव गोविंद रानाडे सम्मिलित हुए जिससे समाज को नई शक्ति मिली। रानाडे ने ही महाराष्ट्र में ‘विडो रीमैरेज एसोसिएशन’ की स्थापना की तथा उन्हीं के प्रयत्नों से ‘दक्कत एजुकेशनल सोसायटी’ का जन्म हुआ। रानाडे के शिष्य गोखले ने ‘सर्वेन्टस ऑफ इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की। तथा प्रार्थना समाज की स्थापना हुई। प्रार्थना समाज की सफलता का सबसे बड़ा श्रेय रानाडे को है। वे कट्टर सुधारक थे और भारतीय पुनर्जागरण के इतिहास में उनका महत्वपूर्ण स्थान है।

प्रार्थना समाज की स्थापना केशवचंद्र सेन की पेरणा से हुई थी और सामान्यतः यह समाज उन्हीं आस्थाओं में विश्वास करता था जिनमें ‘साधारण ब्रह्म समाज’, पर प्रार्थना समाजियों ने अपने आपको किसी नवीन धर्म अथवा हिंदू धर्म के बाहर किसी नवीन समानांतर मत का अनुयायी नहीं माना, अपितु उन्होंने अपने समाज को मुख्य हिंदू धर्म के अंदर ही रखकर सुधारों के लिए आंदोलन किया। उनके अनुसार मूल परंपरागत हिंदू धर्म से अलग हुए बिना भी सुधार संभव था। प्रार्थना समाज की यही विशेषता उसे ब्रह्म समाज से अलग करती है। वस्तुतः प्रार्थना समाज ने कभी भी अपने को हिंदू धर्म से उतना दूर नहीं किया जितना बंगाल के कई समाजों ने।

समाज सुधार के क्षेत्र में गुजरात भी पीछे नहीं था। पश्चिमी भारत के प्रारंभिक सामाजिक सुधारकों में मेहताजी दुर्गाराम मंचाराम (1809-76) का नाम उल्लेखनीय है। 1844 में उन्होंने ‘मानव धर्म सभा’ और ‘यूनिवर्सल रिलिजियस सोसायटी’ का गठन किया जिनका मुख्य उद्देश्य सामाजिक समस्याओं पर परिचर्चा करना था। 19वीं शताब्दी के पाँचवें दशक तक पश्चिमी भारत के सुधारक सामाजिक परिवर्तन के प्रश्नों पर वैसे ही सजग हो चुके थे जैसे बंगाल में ब्रह्म समाजी। स्वाभाविक था कि स्त्रियों की दशा सुधारने, जातिप्रथा एवं शिक्षा जैसे प्रश्नों पर सुधार के लिए प्रयत्न शुरू हुए। अधिकांश गुजराती सुधारक ‘गुजरात वर्नाक्यूलर सोसायटी’ (अहमदाबाद) से संबद्ध थे।

पश्चिमी भारत के ज्यादातर सुधारकों ने अपने विचारों का प्रचार देशी भाषाओं के माध्यम से किया, इसीलिए बंगाल की तुलना में पश्चिमी भारत में सुधार आंदोलन साधारण जनता के ज्यादा करीब पहुंचा और लोकप्रिय हुआ। बंगाल की तुलना में पश्चिमी भारत के सुधारक ज्यादा व्यावहारिक और कुछ हद तक यथार्थवादी थे। वे कोई सुसंगठित जीवनदर्शन प्रस्तुत करने के बजाय अपनी विवेक-शक्ति द्वारा जनमत को प्रभावित कर सुधार योजनाओं को सफल बनाने को ज्यादा महत्व देते थे। तात्कालिक सामाजिक ढांचे में उनकी आस्था बनी रही। पश्चिमी विचारों के माध्यम से वे मात्र सामाजिक कुरीतियों का सुधार करना चाहते थे-सामाजिक जीवन का आमूल परिवर्तन नहीं। इस वजह से उनका कट्टरपंथी हिंदुओं के साथ ज्यादा संघर्ष नहीं हुआ और उनके सुधारों को शीघ्र एवं आसानी से स्वीकृति मिली।

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