भारतीय संस्कृति के सिद्धांत
भारतीय संस्कृति के सिद्धांत
मानवजाति के समस्त क्रियाकलापों पर व्यापक रूप से विचार करने पर हमें मालूम होता है कि समस्त सभ्य संसार की सभ्यता तथा संस्कृति के कुछ मौलिक लक्षण हैं। इन लक्षणों अथवा तत्वों द्वारा ही संस्कृति को विशिष्टताएँ प्राप्त हुई हैं। इस संदर्भ में यह प्रश्न उठता है कि भारतीय संस्कृति के वे कौन से लक्षण तथा तत्व हैं जो भारतीय संस्कृति को विशिष्टताएँ प्रदान करते हैं?
सर जॉन मार्शल का विचार है कि “अनेक प्रमाणों द्वारा भारत में एक अत्यन्त विकसित संस्कृति की उपस्थिति का पता चलता है, जिसके पीछे अवश्य ही भारत की धरती पर एक लम्बा इतिहास होना चाहिये।” बाथम महोदय के अनुसार, “भारत में आने वाले योरोपीय यात्रियों ने यहाँ पर एक ऐसी संस्कृति पायी जिसे अपनी प्राचीनता का पूर्ण ज्ञान था।’ प्रो० चाइल्ड ने लिखा है, “मिस्त्र तथा बेबीलोनिया के समान भारत में ईसा से तीन चार सहस्त्र वर्ष पूर्व एक सर्वथा स्वतन्त्र व्यक्तित्व शालिनी सभ्यता तथा संस्कृति थी।” इन कथनों तथा अनेकानेक प्रमाणों के आधार पर हम निश्चयपूर्वक कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति की एक लम्बी तथा वैविधयपूर्ण परम्परा तथा अनेक विशेषताएँ हैं।
भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ
भारत की अविच्छित्र तथा वैविध्यपूर्ण संस्कृति के अध्ययन द्वारा हमें जिन विशेषताओं का पता चलता है, उनका वर्णन तथा विवेचन निम्नलिखित हैं।
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प्राचीनता–
विभिन्न प्रमाणों तथा साक्ष्यों के आधार पर यह पूरी तरह से निश्चित हो चुका है कि मानव अस्तित्व के समय से ही भारत भूमि सांस्कृतिक चेतना तथा क्रियाशीलता की क्रीड़ाभूमि रही है। सभ्यता के प्रारम्भिक चरणों तथा पूर्ण पाषाण काल के अनेक अवशेष चिन्ह पल्लावरम, चिंगलपेट, वेल्लोर, तिन्नवल्ली आदि दक्षिण भारतीय प्रदेशों, पंज में सोहन नदी की घाटी तथा पिंडिघेव से, उत्तर प्रदेश में मिर्जापुर के रिहन्ड क्षेत्र से तथा मध्य प्रदेश में नर्मदा नदी की घाटी के क्षेत्र से प्राप्त हुए हैं। होशंगाबाद, पंचवटी कैमूर तथा रायगढ़ से अनेक उपकरण, सिंघनपुर तथा कवरा की गुहाओं से प्राप्त अनेक अभिव्यक्ति पूर्ण चित्र आदि भी प्राप्त हुई। हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो में भारतीय संस्कृति की प्राचीनता के साथ-साथ सर्वोत्कृष्टता के भी प्रमाण उपलब्ध हुए हैं। इन समस्त उदाहरणों द्वारा यह प्रमाणित होता है कि जब विश्व के अन्य भागों में संस्कृति के अंकुर फूटने वाले थे उस समय भारत में एक विकसित संस्कृति पल्लवित हो चुकी थी। भारतीय संस्कृति की प्राचीनता इस बात से भी प्रमाणित होती है कि इसने लगभग चार-पाँच हजार वर्षों से विश्व की अनेक संस्कृतियों को प्रभावित किया हुआ है। इस प्रकार भारतीय संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता उसकी प्राचीनता हैं।
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आध्यात्मिकता–
भारतीय संस्कृति में अध्यात्मवाद पर विशेष बल दिया गया हैं। भारतीय संस्कृति की मान्यतानुसार आध्यात्मिक उत्पीड़न द्वारा ही मानव महान हो सकता है। डॉ० सर्वपल्ली राधाकृष्णन के अनुसार, “भारतीय संस्कृति में मानव की तार्किक प्रवृत्ति से अधिक जोर आध्यात्मिक प्रवृत्ति पर दिया गया है। ऋग्वेद के शब्दों में, “जिस आत्मिक खोज, आध्यात्मिक अस्थिरता और बौद्धिक सन्देहवाद की अभिव्यक्ति है- वह भारतीय संस्कृति की आध्यात्मिक विशेषता का आधार है।” इस विशेषता के कारण भारतीय संस्कृति के प्रारम्भिक चरणों में ही पुनर्जन्म का आधार है।” इस विशेषता के कारण भारतीय संस्कृति के प्रारम्भिक चरणों में ही पुनर्जन्म से मुक्ति पाना जीवन का सर्वप्रमुख लक्ष्य माना गया है। इस प्रकार आध्यात्मिक प्रगति एवं चेतना की पराकाष्ठा भारतीय संस्कृति की सर्वतोन्मुखी विशेषता है।
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दार्शनिकता–
भारतीय संस्कृति का विकास दर्शन रूपी उर्वरा भूमि पर हुआ है। सिन्धुघाटी से प्राप्त योगिराज की ध्यानमग्न मूर्ति भारतीय दार्शनिक प्रवृत्ति का सर्वप्रथम उदाहरण है। प्रतीत होता है कि सिन्धु सभ्यता के प्रारम्भिक क्षणों में भारतीय संस्कृति में दार्शनिकता के तत्वों का जन्म हो चुका था। सिन्धु सभ्यता के कालावतीत होने पर भारत भूमि पर जिन अन्य सभ्यताओं का विकास हुआ उनकी आधारशिला सुविकसित तथा गूढ़ दार्शनिक सिद्धान्तों पर रखी गई। भारतीय दर्शन का सर्वोपरि सिद्धान्त यह है कि जो कुछ है वही सब कुछ नहीं है- उससे आगे भी बहुत कुछ है। चेतना और जिज्ञासा के आधार पर भारतीय दर्शन ने संस्कृति को बौद्धिक पराकष्टा प्रदान की है। विभिन्न दार्शनिक मतो, प्रणालियों सिद्धान्तों तथा परम्पराओं का आश्रय लेकर भारतीय संस्कृति ने अभूतपूर्व निरन्तरता तथा विकास की क्षमता प्राप्त की।
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धर्म–
भारतीय जीवन का मूलाधार धर्म और क्योंकि संस्कृति का सम्बन्ध मानवजीवन से है-यथा भारतीय संस्कृति की विशेषता इसका धर्म प्रधान होना है। भारतीय संस्कृति के समस्त अंग तथा उपांग-यथा शरीर और मन की शुद्धि, खान-पान, रहन-सहन, वस्त्राभूषण, दैनिक चर्यों करने तथा न करने योग्य कार्य, व्यक्तित्व का विकास, कृषि, पशुपालन, उद्योग, व्यवसाय, व्यापार, शिल्प, निर्माण, कला, संगीत, साहित्य, विज्ञान, अनुशासन, सामाजिक व्यवस्थाएँ, कर्तव्य, अधिकार,संस्कार, शिक्षा आदि धर्म की परिधि में आते हैं। केवल यही नहीं, भारतीय धर्मों में उन सिद्धान्तों को भी सम्मिलित कर लिया गया है जिनके द्वारा भौतिक प्रगति के साथ आध्यात्मिक प्रगति भी हो सके। इस प्रकार भारतीय संस्कृति का विकास तथा पोषण धर्म की छत्रछाया में हुआ है। धर्म प्रधानता भारतीय संस्कृति की अविचित्र विशेषता है।
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देवपरायणता–
धर्म प्रधान संस्कृति में देवपरायणता की विशेषता होना अति स्वाभाविक है। भारतीय जनजीवन के प्रत्येक पहलुओं का प्रतिनिधित्व करने वाले देवता हैं। भारतीय धार्मिक जीवन की मान्यता है कि “शुभ तथा अच्छे कार्य इसलिये करने चाहिये क्योंकि उनसे देवता प्रसन्न होते हैं। अशुभ कार्य पाप हैं तथा उनके करने से देवता अप्रसन्न होते हैं। देवपरायणता का यह पक्ष भारतीय संस्कृति का ही प्रतिनिधित्व करता है। सत्कार्य करो, दुष्कार्य नहीं’ इस भावना के वशीभूत होकर भारतीयजन अपना सर्वस्व देवताओं के लिये अर्पित कर देते थे। देवपरायणता की इस भावना ने भारतीय संस्कृति को उदारता तथा सहिष्णुता की विशेषताओं से युक्त कर दिया।
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बहुदेववाद तथा एकेश्वरवाद–
भारतीय संस्कृति की धर्म प्रधान तथा देवपरायणता सम्बन्धी विशेषताओं के कारण, बहुदेववाद को काफी प्रोत्साहन तथा आदर प्राप्त हुआ। भारतीय जीवन के समस्त अंगों तथा पहलुओं का सम्बन्ध किसी न किसी देवता के साथ सम्बन्धित हैं। ये देवता भौतिक जगत की लीलाओं तथा पारलौकिक कल्पना जगत का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। सारी सृष्टि को देवरूप स्वीकार करते हुए, भारतीय संस्कृति में समस्त जड़ चेतन को उपास्य समझा गया है तथा समस्त सृष्टि के रचयिता रूप में ब्रह्म को एक ब्रह्म स्वीकार करके बहुदेववाद को एक देवता के रूप में केन्द्रित सत्ताधारी माना गया है। बहुदेववाद तथा एकेश्वरवाद का यह अदभुत समन्वय भारतीय संस्कृति की अपनी अनुपमेय विशेषता है।
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कर्म प्रधानता–
भारतीय संस्कृति की विशेषता उसकी कर्म प्रधानता होना भी है। आध्यात्मवाद तथा देवपरायणता के गुणों से अभिभूत भारतीय संस्कृति में कर्म को धर्म माना गया है। गीता में कर्म मार्ग पर बल दते हुए कृष्ण भगवान ने कहा है-
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
म कर्मफल हेतुभूर्मा ते संर्गाऽस्त्वकर्मणि॥“
गीता के इस उपदेश से प्रेरणा लेकर भारत का जनमानस अपने कर्म में अटूट विश्वास रखता चला आया है। कर्म परायणता की भावना से प्रेरित होकर भारतीयजन अपना सब कुछ अर्पण करने को तत्पर रहते चले आये हैं। परिणाम की चिन्ता अथवा अपेक्षा न करते हुए कर्म किये जाना भारतीय संस्कृति की अनमोल तथा अद्वितीय विशेषता है।
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एकीकरण तथा समन्वय–
भारतीय संस्कृति की अन्य प्रमुख विशेषता एकीकरण तथा समन्वयवादी प्रवृत्ति है। भारतीय मनीषि कभी भी हठधर्मी नहीं रहा है। उसने सब कुछ देखकर, सोच कर, परख कर ही श्रेष्ठाा की प्राप्ति करने का प्रयास किया है। भारतीय संस्कृति की वैचारिकता दार्शनिक तत्व, आध्यात्म, धर्म, आचार-विचार तथा संस्कार आदि किसी द्वारा किसी पर थोपे नही गये हैं। यहाँ तो सदैव से हृदय का सौदा रहा है-“यदि तुम्हारा हृदय स्वीकार करता है तो हमारे साथ आओ’ भारतीय संस्कृति ने कभी भी शस्त्र अथवा बल प्रयोग द्वारा अपना विस्तार या प्रभाव स्थापित करने का प्रयास नहीं किया है। श्री हुमायूँ कबीर ने इस विषय में लिखा है- “भारतीय संस्कृति की कहानी, एकता तथा समाधानों के एकीकरण तथा प्राचीन भारतीय परम्पराओं के पूर्णत्व की कहानी है सभी संस्कृतियाँ नष्ट हो गई परन्तु भारतीय संस्कृति की एकता तथा समन्वय सतत तथा अमर है।” अपनी एकीकरण तथा समन्वयी प्रवृत्ति के कारण भारतीय संस्कृति ने इस भूमि पर अपने वाली समस्त संस्कृतियों को स्वयं भू कर लिया तथा स्वयं मन्थर गति से प्रवाहित होती रही है।
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साहिष्णुता–
भारतीय भूमि अनेक धार्मिक विचारों तथा धार्मिक क्रान्तियों की क्रीड़ा भूमि रही है। यहाँ पर अनेक विदेशी जातियाँ भी आई। इन धर्मों तथा जातियों की मान्यताएँ परस्पर विरोधी थीं परन्तु भारतीय भूमि में कुछ ऐसी चमत्कारिकता है कि यहाँ पर समस्त विरोधी प्रवृत्तियाँ सहिष्णु हो गई। भारतीय इतिहास में ऐसे अनेकानेक उदाहरण भरे पड़े हैं जिनके द्वारा भारतीय संस्कृति की सहिष्णुता को सहज ही समझा जा सकता है।
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सत्य, अहिंसा, करूणा, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह–
भारतीय संस्कृति की धारा को निश्चित रूप देने वाले अनेकानेक महापुरूषों ने सत्य, अहिंसा, करूणा, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह के मूल गुणों को भारतीय जनजीवन में अनुप्राणित किया। हमारे देश की संस्कृति के विकास में इन गुणों ने अभूतपूर्व योग दिया। इन्हीं गुणों से अभिभूत हो कर अशोक ने भेरिघोष का परित्याग करके धम्म घोष की दुन्दुभी बजाई। तत्पश्चात् महात्मा गाँधी ने इन्हीं गुणों द्वारा स्वतन्त्र भारत का निर्माण किया।
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वर्ण–व्यवस्था—
भारतीय संस्कृति के निर्माण तथा निर्धारण में वर्ण-व्यवस्था का विशिष्ट योगदान रहा है। वर्ण-व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीय समाज को चार विभागों में विभाजित करके समाज की चार प्रमुख आवश्यकताओं-यथा, रक्षा, धर्म, अर्थ और सेवा की पूर्ति के लिये कार्य विभाजन कर दिया गया। कार्य कुशलता के लिये इस विभाजन ने अभूतपूर्व योग दिया। परन्तु पाश्चातकाल में सामाजिक असन्तुलन भी उत्पन्न होने के कारण वर्ण-व्यवस्था के विरूद्ध आवाज उठाई गई तथा आज के युग में वर्ण-व्यवस्था के अनेक दोषों का निवारण किया जा चुका है।
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आश्रम व्यवस्था–
व्यक्ति तथा सामाजिक प्रगति के विभिन्न स्तरों को दृष्टिगत करते हुए आश्रम व्यवस्था की स्थापना द्वारा भारतीय संस्कृति को एक महान विशिष्टता प्राप्त हुई। आश्रम व्यवस्था का लक्ष्य व्यक्ति के जीवन का सर्वांगीण विकास करके सामाजिक आदर्शों की प्राप्ति करना था। व्यवस्था ने भारतीय संस्कृति को अभूतपूर्व समर्थता प्रदान की।
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संस्कार–
भारतीय संस्कृति में अति प्रचीनकाल से ही संस्कारों का विशेष महत्व रहा है। संस्कारों द्वारा सामाजिक प्रेरणा तथा व्यक्तिगत प्रयास का समन्वय करके व्यक्ति एवं समाज के मध्य श्रेष्ठ तथा मधुर सम्बन्धों की स्थापना की गई।
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सब जन सुखाय–सब जन हिताय-
भारतीय संस्कृति में मानव मात्र के कल्याण की कामना की उत्कृष्ट भावना है। सभी के सुख तथा वृद्धि की जितनी कामना भारतीय संस्कृति में है उतना अन्य किसी संस्कृति में नहीं है। भारतीय मन्दिरों तथा उपासनाग्रहों में प्रायः यह गूंज तथा उदघोष सुनाई देता है-धर्म की विजय हो-विश्व का कल्याण हो। भारत का विश्वास सर्वे सुखिन सन्तु में रहा है। सत्य, शिवं, सुन्दरम समस्त विश्व के लिये है।
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असाम्प्रदायिकता–
सहिष्णुता, उदारता तथा ग्रहणशीलता के गुणों से युक्त भारतीय संस्कृति असाम्प्रदायिक है। सभी धर्मों का समान आदर करना, सभी जातियों को आत्मसात, करके उन्हें भारतीय परिवेश में ढाल लेना तथा अपने द्वारा सभी के लिये-खोले रखना भारतीय की असाम्प्रदायिक विशेषता के परिचायक है।
निष्कर्ष
भारतीय संस्कृति की उपरोक्त विशेषताओं के आधार पर यह स्वतः ही सिद्ध हो जाता है कि भारतीय संस्कृति श्रेष्ठ एवं गतिमय है। अपनी सांस्कृतिक विशेषताओं के कारण ही भारत पूर्व से पश्चिम तथा उत्तर से दक्षिण तक एक सूत्र में बंधा हुआ है। सभ्यता के प्रारम्भिक युग से लेकर आज तक भारत के निवासियों ने एक संस्कृति का विकास किया है और उसे निरन्तर कायम रखा है। भारतीय संस्कृति कोई जड़ विचाराधारा नहीं है बल्कि यह एक जीवित प्रक्रिया है। भारतीय संस्कृति परिवर्तनशील परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालते हुए अधिक से अधिक समृद्ध होती गई है। भारतीय संस्कृति ने सभी विरोधियों को स्वीकार किया है, परन्तु उसकी आत्मा फिर भी अपरिवर्तित रही है। गाँधीजी ने यंग इण्डिया में लिखा है- “मैं नहीं चाहता कि मेरे घर के चारों ओर एक दीवार उठा दी जाये और खिडकियों को बन्द कर दिया जाये। मैं चाहता हूँ कि यथासंभव स्वतन्त्रतापूर्वक सभी संस्कृतियाँ मेरे घर के चारों ओर मंडराती रहें। लेकिन यह निश्चित है कि कोई भी संस्कृति मेरे पाँव नहीं उखाड़ सकती।’ राष्ट्रपिता की यह मान्यता सर्वथा सत्य है। दूसरी संस्कृतियों ने भारत को प्रभावित किया है-पराजित नहीं।
महत्वपूर्ण लिंक
- 19वीं शताब्दी का सामाजिक सुधार आंदोलन (नारी मुक्ति, जातिप्रथा विरोध इत्यादि)
- 19वीं शताब्दी में शिक्षा का विकास (मैकाले, हंटर, सैडलर, सार्जेंट योजना, इत्यादि)
- भारत के सामाजिक परिवर्तन में गाँधी जी की भूमिका
- मुगल काल में हिन्दी, संस्कृत, उर्दू साहित्य का विकास
- भारतीय पुनर्जागरण में राजा राममोहन राय का योगदान | ब्रह्म समाज: स्थापना एवं उद्देश्य
- भारतीय सांस्कृतिक पुर्नजागरण के कारण एवं परिणाम
- ब्रह्म समाज एवं राजा राममोहन राय ( 19वीं शताब्दी का धार्मिक सुधार आन्दोलन )
- यंग बंगाल आन्दोलन
- दक्षिण भारत में सुधार आन्दोलन | थियोसोफिकल सोसाइटी
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- राजपूत कालीन स्थापत्य-कला (वास्तुकला) का विकास
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