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मुगल कालीन सैन्य संगठन

मुगलकालीन सैन्य संगठन

मुगलकालीन सेना-संगठन मनसबदारी प्रथा कहलाती थी। यह प्रथा देश के लिए नयी प्रथा नहीं थी क्योंकि दिल्ली के सल्तनत काल में भी हमें इस प्रथा के चिन्ह दिखायी देते हैं। शेरशाह और इस्लामाबाद की सेना में भी व छ इस प्रकार का श्रेणी-विभाजन था। उसकी सेना में भी एक हजार, दो हजार या इससे भी अधिक टुकड़ियों से सेनापति होते थे। किन्तु अकबर ने इस प्रथा का वैज्ञानिक ढंग से यथाशक्ति संगठन कर दिया।

साधारणतः मनसब का अर्थ पद अथवा प्रतिष्ठा है। अतः मनसबदार शाही सेवा में पदवी धारण करने वाले व्यक्ति होते थे। अकबर के शासनकरल में सबसे नीचा मनसब 10 का और सबसे ऊँचा 10,000 का होता था। किन्तु शासन के अन्तिम दिनों में यह 12,000 तक कर दिया गया था। 5,000 के ऊपर के मनसब शाहजादों के लिए ही सुरक्षित रहते थे किन्तु कुछ समय बाद कुछ सरदारों को 7,000 की मनसबदारी भी दे दी गयी थी। जहाँगीर और शाहजहाँ के शासनकाल में सरदारों को 8,000 तक की मनसबदारी मिल सकती थी किन्तु शाही परिवार के व्यक्ति को 40,000 तक की मनसबदारी भी मिल सकती थी। उत्तरकालीन मुगलों के समय में तो इसकी सीमा 50,000 तक पहुँच गयी थी।

मनसबदारी तीन वर्गों में बंटे हुए थे अर्थात् 10 से 40 तक मनसबदार केवल मनसबदार’ कहलाते थे, 500 से 2,500 के मनसबदार उमरा कहलाते थे और 3,000 अथवा उससे ऊपर के मनसबदार उमरा-ए-आजम अथवा बड़े सरदार कहलाते थे।

अकबर के शासन के प्रारम्भ में मनसब का एक वर्ग अथवा एक श्रेणी ही होती थी। किन्तु उसने अपने शासन के अन्तिम दिनों में हर मनसब की तीन श्रेणियाँ कर दी थीं। 500 से ऊपर के मनसबदार ‘सवार’ कहलाते थे। मनसबदार के एिल यह आवश्यक नहीं था कि वे अपने मनसब के अनुसार निर्धारित सैनिकों की संख्या रखें ही। ब्लोचमैन, इरविन तथा स्मिथ इत्यादि इतिहासकारों ने लिखा है कि 1,000 का मरसबदार 1,000 का सेनापति होता था, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है। मनसबदारों को सेना की कुछ टुकड़ियाँ अवश्य रखनी पड़ती थीं किन्तु यह उनकी पदवी में निर्धारित संख्या का केवल एक अंश ही होती थीं। शाही अफसरों की पदवी तथा वेतन निश्चित करने के लिए मनसब प्रथा सुविधाजनक प्रणाली थी। मनसबदार की नियुक्ति, उन्नति और पृथ्थकरण का कोई नियम नहीं था। साधारणतः जब कोई मनसबदार सैन्य-प्रदर्शन के समय अपने नियत सैनिकों को ले आता था, तब उसके मनसब की उन्नति कर दी जाती थी।

जात और सवार के अभिप्राय क विषय में विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। लेखक का मत है कि जब अकबर के इस प्रथा को जारी किया, तब मनसबदारों को अपनी पदवी के अनुसार ही फौजी टुकड़ी मय घोड़ों और हाथी इत्यादि की वास्तविक संख्या के ही रखनी पड़ती थी। परन्तु बाद में विभिज्ञन्न पदों के मनसबदार घोड़ों, हाथियों और ऊँटों इत्यादि की तो पूरी संख्या रखते रहे किन्तु घुड़सवारों की पूरी संख्या रखना और उन्हें सैन्य-प्रदर्शन में लाना धीरे-धीरे बन्द-सा हो गया था, अतः अकबर ने यह अनुभव किया कि घुड़सवारों और लइ जानवरों इत्यादि को मनसबदारों के पदों में एक साथ शामिल कर देने से बड़ी गड़बड़ी होती हैं और इस गड़बड़ी को दूर करने के लिए और प्रत्येक कोटि के मनसब के लिए नियत घुड़सवारों को अपनी सेना में रखने हेतु ‘सवार’ और ‘जात’ मनसबों में भेद कर दिया। अब ‘जात’ मनसबदार को घोड़े, हाथी आदि ल जानवर तो निश्चित संख्या में रखने पड़ते थे किन्तु घुड़सवार नहीं। आधुनिक लेखकों का यह कहना ठीक नहीं कि जात पद व्यक्तिगत नहीं होता था। ‘सवार’ पद के मनसबदार को घुड़सवार नियत संख्या में रखने पड़ते थे। उसके उत्तराधिकारियों के समय में इस नियम में कुछ शिथिलता आ गयी और घुड़सवारों की संख्या मनसबदार अपने पद से कम रखने लगे। अतः शाहजहाँ को यह नियम बनाना पड़ा कि प्रत्येक मनसबदार को अपने पद की निर्धारित संख्या की कम से कम एक-चौथाई फौजी टुकड़ियाँ अवश्य रखनी होगी किन्तु यदि उनकी नियुक्ति भारत के बाहर होती हैं तो एक-चौथाई के स्थान पर 1/5 ही रख सकेगा। फिर भी सर जदुनाथ सरकार के अनुसार, “औरंगजेब के शासन के अन्तिम दस वर्षों में सब अफसरों की सेना मिलकर निर्धारित सेना की केवल दशांश ही रह गयी थी।” औरंगजेब के उत्तराधिकारियों के समय में ये पद नाममात्र के रह गये थे और 7,000 के मनसबदार के लिए 7 घुड़सवारों का रखना भी आवश्यक नहीं था। उदाहरण के लिए, मुहम्मदशाह के समय (1719-1748 ई०) में 7,000 का मनसबदार लुफ्त उल्लाखाँ सादिक अपनी सेना में सात गधे भी नहीं रखता था, सात घुड़सवारों की तो बात ही क्या।

पाँच हजारी तथा उसके नीचे का प्रत्येक मनसबदार तीन श्रेणियों में विभक्त था अर्थात् प्रथम श्रेणी, द्वितीय श्रेणी और तृतीय श्रेणी। यदि किसी मनसबदार का ‘सवार’ पद ‘जात’ पद के समान होता था तो उसका पद प्रथम श्रेणी का होता था। यदि उसका सवार पद जाति पद से कम होता था किन्तु उसके आधे से कम नहीं होता था तो उसे पद में द्वितीय श्रेणी मिलती थी। किन्तु यदि पद उसके आधे से कम होता था अथवा उसका सवार पद ही नहीं था तो वह तृतीय श्रेणी का मनसबदार होता था। उदाहरण के लिए, यदि किसी मनसबदार का ‘सवार’ पद और ‘जात’ पद दोनों 5,000 थे तो वह पाँचहजारी प्रथम श्रेणी का मनसबदार होता था। यदि उसका जात मनसब 5,000 का और उसका सवार मनसब 2,500 का होता तो यह द्वितीय श्रेणी का मनसबदार होता था। यदि उसका जात मनसब, 5,000 का और सवार मनसब 2,500 से कम होता था तो वह तृतीय श्रेणी का मनसबदार होता था। यह नियम सभी मनसबों पर लागू होता था तो वह तृतीय श्रेणी का मनसबदार होता था। यह नियम सभी मनसबों पर लागू होता था। दु-असपा मनसबदार वह था जिसे निर्धारित घुड़सवार के साथ उतने ही कोतल घोड़े और रखने पड़ते थे और सेह-असपा वह थे जिन्हें दुगने कोतल घोड़े रखने पड़ते थे। कोतल घोड़ों की संख्या के अनुसार ही मनसबदारी का वेतन नियत किया जाता था।

मनसबदार को अपनी जाति अथवा कबीले के लोगों को सेना में भरती करने का अधिकार था। अकबर के समय से लेकर मुहम्मदशाह के शासनकाल तक विदेशी तुर्क, ईरानी, अफगानी और देशी राजपूत ही अधिकतर मनसबदार थे। इसके अतिरिक्त कुछ अरब और दूसरे विदेशी भी मनसबदार थे। हिन्दुस्तान मुसलमान अफसर तो बहुत ही कम थे। मनसबदारों को घोड़े तथा उनका साज-समान स्वयं खरीदना पड़ता था, किन्तु कभी-कभी यह सरकार द्वारा भी दे दिया जाता था। मनसबदार के अधिकार में जितने भी फौजी होते थे उनका वेतन उसे अनुमान पर आधारित कर एक बार में ही दे दिया जाता था। अतः सिपाही सम्राट की सेवा में रहते हुए भी केवल उन्हीं के सरदारों को जानते थे जिनसे केवल वेतन मिलता था।

मीरबख्शी के सामने सेना का प्रदर्शन होता था और उसमें मनसबदार जितने सशस्त्र सैनिक ला सकता था, उन्हीं के अनुसार उसका वेतन निश्चित होता था। जिस समय सूची तैयार होती थी और सेना का प्रथम प्रदर्शन होता था उस समय सैनिकों और घोड़ों का व्यौरा लिखा जाता था और घोड़ों की दायीं जाँघ पर सरकारी तथा बाँयी जांघ पर मनसबदारी दाग दिया जाता। मनसबदार को बहुत बड़ा वेतन मिलता था जो साज-समान की कीमत निकाल देने पर बहुत काफी होता था।

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