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मुगलकालीन “जमींदारी प्रथा” का उदभव एवं संरचना

मुगलकाल में जमींदारी प्रथा का उदभव एवं संरचना

जमींदार” शब्द का शाब्दिक अर्थ जमीन का मालिक या भूमि का स्वामी होता है। अंग्रेजी में इसके पर्याय के रूप में “landlord” शब्द चलता है। यह शब्द दिल्ली सल्तनत और मुगलकाल दोनों में चलता था। सामान्य रूप में यह शब्द उन लोगों के लिए प्रयुक्त होता था जो निम्नलिखित शर्तों में से कोई शर्त पूरी करते थेः

  1. जिनके पास वंश परंपरा स प्राप्त जमीन होती थी और जिस पर वे एक निर्धारित “पेशकश” देते थे;
  2. पेशकश तो नहीं देते थे, पर जिनके पास बाप-दादों से मिली जमींदारी “जागीर” के रूप में रहती थी;
  3. जो (राजा या पादशाह द्वारा) जमींदार नियुक्त होते थे पर जिनका जमीन पर पुश्तैनी हक नहीं होता था;
  4. जमींदार जो विस्तृत मूल्यांकन के बाद “मालवाजिब” (भूराजस्व) अदा करते थे;
  5. ताल्लुकदार;
  6. आसामी मुखिया (vassal chiefs) अर्थात सरदार या राजा।

भारतीय इतिहासकार “जमींदारी” (जमींदारी के अधिकार) शब्द की कोई निश्चित परिभाषा नहीं देते। अलग-अलग क्षेत्रों में “जमींदारी’ के लिये जो पर्याय चलते थे, उनमें से कुछ हैं : खोती, मुकद्दमी, बिसवी, भोमी आदि। इसे अरबी शब्द ‘मिल्कियत’ (मालिकाना) के समानार्थी के रूप में प्रयुक्त किया जाता था। इरफान हबीब के अनुसार “जमींदारी’ से तात्पर्य उस अधिकार से था जो ग्रामीण वर्ग में तो निहित था पर यह वर्ग कृषक वर्ग से अलग और ऊपर होता था। हबीब इस वर्ग में सामान्य जमींदारों और स्वायत्त करदाता सरदारों (autonomous tributary chieftains) दोनों को सम्मिलित मानते हैं ।

नूरुल हसन ने मुगल साम्राज्य के जमींदारों को मोटे तौर पर तीन वर्गों में बाँटा है :

  1. प्राथमिक (primary) जमींदार
  2. माध्यमिक (intermediary) जमींदार
  3. स्वायत्तशाही सरदार या राजा (autonomous chiefs)

उनका मानना है कि ये तीनों कोटियाँ अपवर्जक या एकांतिक नहीं थी। स्वायत्तशाही सरदारों या राजाओं द्वारा नियंत्रित भू-भाग में न केवल करदाता (खराजी) सरदार ही मिलते थे, उनमें माध्यमिक जमींदार और प्राथमिक जमींदार भी होते थे। एक दृष्टि से माध्यमिक जमींदार वे कहलाते थे, जिनके क्षेत्राधिकार में अनेक प्राथमिक जमींदार होते थे, किन्तु दूसरी दृष्टि से अधिकांश माध्यमिक जमींदार अपने पूर्ण और वैयक्तिक अधिकार की सीमा में प्राथमिक जमींदार भी होते थे। एक सरदार या राजा अपने प्राथमिक अधिकारों का उपयोग दूसरे भू-खंड विशेष पर कर सकता था, जो अपने माध्यमिक अधिकारों का उपयोग दूसरे भू-खंडों पर करता था। साथ-ही-साथ, वह अपनी रियासत का प्रभुसत्तासपन्न शासक तो होता ही था। मुगलिया शासन के दौरान जमींदारी प्रथा की संरचना, उसके कार्य और उसकी प्रकृति पर विचार करने के लिए हम नूरुल हसन के वर्गीकरण को स्वीकार कर सकते हैं। इसी के आधार पर हम तीनों वर्गों के सामान्य और विशिष्ट लक्षणों का विश्लेषण करेंगे।

जमींदारी प्रथा का उदभव

दिल्ली के सुल्तानों और पादशाहों-दोनों ने जमींदारी प्रथा को मान्यता दी थी पर उन्होंने इसे शुरू नहीं किया था। यह प्रथा तो किसी-न-किसी रूप में पहले से ही चली आ रही थी। जमींदारी प्रथा या जमींदारों का ऐतिहासिक उदगम कहाँ था, इसके बारे में पर्याप्त आधार सामग्री नहीं मिलती, इसलिए हमें स्थानीय परंपराओं का सहारा लेना पड़ेगा। एक प्राक्कल्पना अनुसार जमींदार वर्ग की उत्पत्ति में किसी एक जाति विशेष या गोत्र विशेष के उन सदस्यों का हाथ था जो निरंतर एक स्थान पर जा बसते थे। इस प्रक्रिया में कभी ऐसा हुआ होगा कि उन्होंने पहले बसे कृषकों की बस्तियों और खेती की भूमि पर अपना अधिकार जमा लिया होगा और उस अधिकृत भूमि पर अपने अधिकारों को और कड़ा कर दिया होगा। इस तरह अनेक जातियों ने अलग-अलग क्षेत्रों में अपनी-अपनी जमींदारियों पर एकाधिकार स्थापित कर लिया। आइने-अकबरी (Ain-i-Akbari) में आए “बारह प्रांतों” के वर्णन को, जिसमें जमींदारों की जातियों के आधार पर प्रादेशिक प्रभागों पर उनका स्वामित्व दिखाया गया है, इस प्राक्कल्पना की पुष्टि के लिए साक्ष्य-रूप में स्वीकार किया जा सकता है।

अबुल फजल और अन्य समसामयिक लेखकों की रचनाओं से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि भारत में भूमि पर व्यक्तिगत स्वामित्व की प्रथा आदि काल से चली आ रही थी। भूमि पर स्वामित्व का अधिकार मुख्यतः वंशानुगत था। लेकिन हर काल में भूमि के स्वामित्व का अधिकार बदलता भी रहता था। एक समय यह प्रथा थी कि जो व्यक्ति सबसे पहले भूमि पर जुताई या कृषि करता था, वह उसका स्वामी माना जाता था। मध्यकाल में कृषि योग्य “बंजर” भूमि पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी। किसी भी उद्यमी वर्ग के लिए इसमें कोई कठिनाई नहीं थी कि वह एक नया गाँव बसा ले या कि किसी गाँव विशेष की परती पड़ी ‘बंजर’ भूमि को कृषि योग्य बना कर उस पर अपना स्वामित्व स्थापित कर ले। जमींदारों के अनेक वर्ग जिन जमीनों पर खेती करते थे, उस पर उनका मालिकाना हक होता था, पर इसके साथ-साथ उन्हें उनके गाँवों से मालगुजारी उगाहने का वारिसी हक भी मिला हुआ था। इस तरह के मामलों में जमींदार अपनी जमींदारी में आने वाली सभी जमीनों का मालिक तो नहीं होता था, पर वहाँ से मालगुजारी उगाहने के बतौर मेहनताने के रूप में उसे उसका कुछ हिस्सा अवश्य मिलता था। जो जमींदार जितने बड़े या छोटे इलाके पर अपना प्रभुत्व जमाने में सफल हो गया और उसने किसी न किसी प्रकार से उस पर एकाधिकार बनाए रखा, वही वहाँ का सरदार या राजा बन बैठा। ऐसे राजाओं को फारसी लेखकों ने जमींदार भी कहा है ताकि अधीनस्थ स्थिति स्पष्ट हो जाए।लेकिन वस्तुतः इनकी स्थिति उन जमींदारों से ऊँची थी जो केवल मालगुजारी उगाहते थे।

जमींदारी प्रथा की संरचना

कृषि-योग्य तथा आवासीय भूमि पर हर तरह से प्राथमिक जमींदारों का ही स्वत्वाधिकार होता था। इस वर्ग में केवल वे ही सम्मिलित नहीं हैं जो भूमिधारी होने के साथ-साथ या तो स्वयं खेती-बाड़ी करते थे या भाड़ा मजदूरों (hired labour) से करवाते थे, किन्तु वे भी सम्मिलित हैं जो एक या अधिक गाँवों के स्वामी होते थे। साम्राज्य की सारी कृषियोग्य भूमि इस या उस प्रकार के प्रारंभिक जमींदारों की हाती थी। प्राथमिक जमींदारों के सारे अधिकार वंशानुगत और हस्तांतरणीय (alienable) होते थे। सोलहवीं शताब्दी तक के ऐसे अनेक जमींदारों के बैनामे (विक्रय-लेख) आज भी उपलब्ध हैं। मुगल राज्य इन जमींदारों की रक्षा करना अपना कर्त्तव्य समझता था। इसलिए उसने काजी की कचहरियों में ऐसे भूमि हस्तांतरणों के पंजीकरण को प्रोत्साहित किया ताकि दावेदारी का सही हिसाब-किताब रखा जा सके। जो लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी इन अधिकारों का उपयोग कर रहे थे, या जिन्होंने बैनामे के तहत इन्हे प्राप्त किया था, उन्हें छोड़कर अन्य कई लोगों को भी मुगलों ने जमींदारी-अधिकार प्रदान किए थे। बाद में “मदद-ए-माश’ नामक अनुदान भी जमींदारों में माना जाने लगा। इस कथन की पुष्टि के लिए अठारहवीं शताब्दी के मदद-ए-माश जमीनों के बैनामे देखे जा सकते हैं।

माध्यमिक जमींदारों की कोटि में वे जमींदार आते थे जो प्राथमिक जमींदारों और किसानों से राजस्व संग्रह कर या तो शाही खजाने में जमा करवाते थे या जागीरदारों या राजाओं को सौंप देते थे या कुछ मामलों में अपने ही पास ही रख लेते थे। ऐसे माध्यमिक जमींदारों में चौधरियों, देशमुखों, देसाइयों, देशपांडों और कुछ अन्य प्रकार के मुकदमों, कानूनगों, इजारेदारों तथा ताल्लुकदारों की गिनती होती थी। ताल्लुकदार सत्रहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध के वे जमींदार थे जिन्होंने किसी-किसी इलाके विशेष से मालगुजारी उगाहने का राज्य से सौदा कर रखा था।

सरदार या राजा लोग अपने-अपने इलाके के आनुवंशिक स्वायत्त शासक होते थे और उन्हें वस्तुतः सभी प्रभुतासंपन्न अधिकार प्राप्त थे। वे राणा, राय, राव आदि नामों से जाने जाते थे। सामान्य जमींदारों की तुलना में इनके अधिकार क्षेत्र बड़े होते थे, ये बड़ी-बड़ी फौज रख सकते थे, इन्हें अधीक स्वायतता प्राप्त होती थी और ये मुगल शासकों के प्रति केवल आदर भाव रखते थे, इसलिए उन्हें नजराने भेंट किया करते थे।

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