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मुगलकालीन भारत में कृषि और कृषकों की स्थिति

मुगलकालीन कृषकों की आर्थिक दशा

संभवतः अनुकूल भौगोलिक परिस्थितियों तथा जलवायु के कारण भारत प्राचीन काल से ही एक कृषि-प्रधान देश रहा है। प्रारंभ से ही यहाँ के बहुसंख्यक निवासियों का मुख्य व्यवसाय कृषि था, जीवन-निर्वाह के अन्य सभी साधन, जो बाद में विकसित हुए, या तो कृषि पर आश्रित थे या इससे संबंधित। अतः यह कहना अनुचित न होगा कि कृषक वर्ग ने, जो वास्तव में मानवता के अकेले सब से बड़े भाग का निर्माण करता है, हमारे भाग्य-निर्धारण में विशेष भूमिका निभाई है।

खान-पान

विभिन्न मूल स्रोतों से पता चलता है कि मुगल साम्राज्य के अधिकतर भागों में चावल, ज्वार एवं बाजरा तथा दालें जन-साधारण का सामान्य आहार थीं। बंगाल, उड़ीसा, सिंध, कश्मीर तथा दक्षिणी भारत में, जहाँ धान का मुख्य फसल थी, स्वाभाविक रूप से चावल सामान्यजन के भोजन का मुख्य अंग थे। पश्चिमी भारत में ज्वार-बाजरा लौकिक भोज का निर्माण करते थे। परंतु यह उल्लेखनीय है कि किसान आमतौर पर अपनी उपज में से केवल निम्न प्रकार का अनाज ही अपने परिवार के उपभोग के लिए बचा पाता था। आगरा-दिल्ली के मुख्य गेहूं उत्पादक क्षेत्र में भी जनसाधारण के लिए गेहूं एक दुर्लभ अनाज था, यह वर्ग चावल, ज्वार-बाजरा तथा दालों पर जीवन व्यतीत करता था। मालवा नमक, जो अब उपयोग की एक मामूली वस्तु समझी जाती है तथा सामान्य लोगों को भी सुगमता से प्राप्त है, मुगल काल में दुर्लभ था। सोलहवीं शताब्दी में नमक का मूल्य गेहूं की कीमत के संदर्भ में आधुनिक समय की तुलना में दुगुना बताया जाता है, अतः निस्संदेह आज की अपेक्षा मुगलकाल में इसका प्रति व्यक्ति उपभोग का स्तर अत्यधिक कम था। बंगाल में नमक अत्यधिक दुर्लभ तथा महंगा था तथा असम में लोग नमक के स्थान पर केले के तने की राख से प्राप्त एक ऐसे कड़वे पदार्थ का प्रयोग करते थे जिसमें कुछ नमक का अंश होता था।

वस्त्र

पहनावे के विषय में हमें तत्कालीन विभिन्न स्रोतों से मालूम होता है कि मुगल काल में जनसाधारण बहुत थोड़े वस्त्रों में अपना गुजारा करते थे। उनका लिबास इतना कम था कि उससे पूरा शरीर तक नहीं ढक पाता था। बाबर अपनी आत्मकथा बाबरनामा में लिखता है कि हिंदुस्तान में “कृषक तथा निम्न वर्ग के लोग अधिकांशतः नंगे ही रहते हैं! वे लोग एक लत्ते का टुकड़ा बाँधते हैं जो ‘लंगोटा’ कहलाता है। नाभि के नीचे एक लत्ते के टुकड़े को दोनों जांघों के बीच से लेते हुए पीछे ले जा कर बाँध देते हैं। स्त्रियाँ भी लुंगी बाँधती हैं। इसका आधा भाग कमर के नीचे होता है और दूसरा सिर पर डाल दिया जाता है।” बाबर के कथन से स्पष्ट है कि मनुष्य के समस्त वस्त्र एक अत्यधिक छोटी धोती तथा स्त्री की पूरी पोशाक साड़ी थी। बंगाल के जनसाधारण के लिबास के विषय में अबुल फजल लिखता है कि वे अधिकतर नंगे रहते थे, केवल कूल्हों पर एक लुंगी बँधी रहती थी। सत्रहवीं शताब्दी के आरंभ में लिखते हुए अंग्रेजी गुमाश्ता लाहौर तथा आगरा के बीच के निवासियों के वस्त्रों का वर्णन करते हुए कहता है कि सर्वसाधारण इतने निर्धन थे कि उनकी एक बड़ी संख्या नंगी रहती थी। परंतु यूरोपीय यात्री राफ फिच (Ralph Fitch), जिसका वर्णन कुछ पहले का है, का कथन अधिक उचित प्रतीत होता है। वह लिखता है कि अधिकतर लोग नंगे रहते थे, केवल शरीर के बीच के भाग में चारों ओर एक वस्त्र लपेटे रहते थे। परंतु जाड़े में मनुष्य रुई का गद्देदार चोंगा तथा टोपियाँ पहनते थे।

विभिन्न भागों में मनुष्यों के पहनावे पर जलवायु, देश-प्रकृति तथा सामाजिक रीति-रिवाजों का मुख्य प्रभाव रहता है और यही कारक लिबास में स्थान-स्थान पर भिन्नता के कारण बनते हैं। उदाहरणार्थ मालाबार में सभी वर्गों की औरतें तथा मनुष्य प्रायः कमर के ऊपर की ओर नंगे रहते थे। पूर्वी भारत के देहाती इलाकों में आधुनिक समय तक भी स्त्रियाँ चोली या अंगिया आमतौर पर नहीं पहनती थीं, जबकि दूसरे भागों में देहातों में यह औरतों का एक आम पहनावा था। इसी प्रकार मध्य तथा पश्चिमी भारत के कुछ भागों में स्त्रियाँ साड़ी के स्थान पर लहंगे तथा छाती ढकने के लिए चोली या अंगिया पहनती थीं।

आभूषण

पूर्वाधुनिक काल में आभूषण विशेष रूप से मनुष्य के स्तर के सूचक हुआ करते थे। धनी तथा निर्धन, दोनों ही वर्गों की स्त्रियाँ अपने साधनों के अनुसार आभूषणों का प्रयोग करती थीं। बचत को स्त्री के जेवर के रूप में परिवर्तित करने का आम रिवाज था और यही कारण है कि यूरोपीय यात्रियों के ग्रंथों में जेवर के बहुत अधिक प्रचलन का उल्लेख मिलता वास्तव में प्रायः सोने तथा चांदी के जेवर विशेष रूप से धनी परिवारों की स्त्रियां ही प्रयोग करती थीं, जबकि निर्धन स्त्रियों के आभूषण अधिकतर ताँबे, कांच, सीपों, कवच्छ तथा यहाँ तक कि लौंग से बने हुआ करते थे।

मकान

मुगल काल में देहातों में दरिद्रों के मकानों की दशा आज से कुछ ज्यादा भिन्न नहीं थी। कृषकों की एक बड़ी जनसंख्या मिट्टी से बने तथा छप्पर से ढंके एक कोठरी के घर में रहती थी। बंगाल में झोपड़ी का निर्माण करने के लिए बाँसों को आपस में बाँध कर मिट्टी से बनी दीवारों या खंभों पर रख दिया जाता था। असम में धनी-निर्धन दोनों के घर लकड़ी, बाँस तथा फूस के बने होते थे। उत्तरी तथा मध्य भारत में मिट्टी की झोपड़ियाँ बनाई जाती थीं जो के छप्पर से ढंकी रहती थी। दक्षिण में गरीब वर्ग के लिए घर से अभिप्राय एक फलदार वृक्ष की पत्तियों (Cajan leaves) से ढंकी हुई झोपड़ियाँ थीं जो इतनी नीची होती थीं कि मनुष्य उनमें सीधा खड़ा भी नहीं हो सकता था। गुजरात में मकान प्रायः ईंट और चूने से बनाये जाते थे। गरीब लोग अपनी गाय-बकरियों आदि के साथ एक ही कोठरी में रहते थे, परंतु अपेक्षाकृत धनी लोगों के पास उनके परिवार की आवश्यकता के अनुसार कई कोठरियों के घर होते थे जिनमें प्रायः अनाज रखने के लिए स्थान तथा चारदीवारी से घिरा हुआ सहन भी होता था। कोठरियों में खिड़कियाँ नहीं होती थीं बल्कि प्रवेश द्वार ही हवा तथा रोशनी के लिए पर्याप्त समझा जाता था। मकानों के कमरों की दीवारों तथा फर्श की सतह पर बहुधा मिट्टी में गाय का गोबर मिलाकर उसकी लहसन की जाती थी।

रहन-सहन

दो-एक खाटें तथा बाँस की चटाइयाँ प्रायः किसान के घर का समस्त फर्नीचर थी। इसके अतिरिक्त पानी पीने तथा भोजन बनाने के लिए मिट्टी के कुछ बर्तन होते थे। पश्चिमी समुद्र तट के निवासियों के निजी जीवन का वर्णन करते हुए यूरोपीय यात्री लिंकोटन लिखता है कि उनके गृहस्थ जीवन की प्रमुख सामग्री फूस की बनी चटाई थी जो बैठने तथा लेटने के काम आती थी। कांस्य तथा ताँबे के बर्तन महँगे थे तथा आमतौर पर दरिद्रों के प्रयोग की क्षमता से बाहर थे। केवल रोटी सेंकने के काम आने वाली छोटी-सी अंगीठी या चुल्ली ही किसान के घर में एक ऐसी वस्तु थी जिसमें कुछ लोहे का प्रयोग होता था। दक्षिण में पानी पीने के लिए केवल टोंटी लगा हुआ ताँबे का बर्तन ही समस्त पदार्थ था जो गरीबों के घरों में पाया जाता था।

त्योहार

आधुनिक काल की तरह मुगल काल में भी त्यौहार, रीति-रिवाज तथा तीर्थ-यात्रा आदि का किसान के जीवन में एक महत्वपूर्ण स्थान था। ये अवसर किसान के जीवन में कुछ क्षणों के लिए उल्लास तथा आनंद प्रदान करते थे। यह कहना तो कठिन है कि उत्सवों तथा सामाजिक एवं धार्मिक रूढ़ियों पर कितना रुपया खर्च हो जाता था परंतु निस्संदेह विवाह, अंत्येष्टि संस्कार तथा अन्य कई अवसरों पर किसान अपने सीमित साधनों का एक बड़ा भाग खर्च कर देता था तथा बहुधा उसके कर्ज में वृद्धि हो जाती थी।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि सामान्य उपज के वर्षों में भी किसान का जीवन बहुधा गरीबी तथा तंगी में व्यतीत होता था। फसल सदैव ही अच्छी नहीं रहती थी। वर्षा न होने अथवा अधिक होने तथा अन्य कई कारणों से कभी-कभी उपज खराब हो जाती थी और अकाल पड़ जाता था। काल के प्रकोप का प्रभाव सामान्य रूप से समस्त जनसाधारण पर पड़ता था परंतु किसान का जीवन इससे सीधे प्रभावित होता था। सिंचाई के अपर्याप्त साधनों के कारण पूर्वाधुनिक काल में आंशिक रूप से फसल खराब हो जाना तो आम बात ही थी। यद्यपि ऐसी अवस्था में कृषक वर्ग की कठिनाइयाँ तो कुछ बढ़ जाती होंगी।

किसान की गरीबी तथा कठिनाइयों का एक मुख्य कारण भू-राजस्व की ऊंची दर थी। किसान से उसकी उपज का एक-तिहाई से लेकर आधा भाग तक राजस्व के रूप में वसूल कर लिया जाता था। यद्यपि मोरलैंड का विचार है कि अकबर के शासनकाल में कम-से-कम जब्ती क्षेत्र में तो भू-राजस्व की दर उपज के एक-तिहाई भाग से अधिक नहीं थी परन्तु ऐसा सिद्धांत मात्र ही था। नये अनुसंधानों से यह सिद्ध हो जाता है कि व्यवहार में भूमिकर उपज के एक-तिहाई भाग से कहीं अधिक वसूल किया जाता था। वास्तविकता यह है कि लगान की दर उपज के आधे भाग के बराबर तक पहुँच जाती थी। यहाँ पर यह ध्यान देने योग्य है कि चूंकि लगान सकल उपज (gross produce) पर आंका जाता था जबकि यह किसान से उसकी वास्तविक उपज (net produce) पर वसूल किया जाता था, अतः वास्तव में एक-तिहाई कर की दर भी अधिक थी।

परंतु यह विचार करना कि संपूर्ण मुगल शासन में किसानों की दशा सदैव शोचनीय रही है, उचित नहीं होगा। निस्संदेह विभिन्न वर्षों में साम्राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में ग्रामीण निवासियों का जीवन कष्टों तथा असंतोष के वातावरण में व्यतीत हुआ है। आगरा-मथुरा क्षेत्र को सत्रहवीं शताब्दी में इस प्रकार का एक इलाका कहा जा सकता है। परंतु कुछ क्षेत्रों तथा कुछ वर्षों में किसानों की दुर्दशा के वर्णन को समस्त साम्राज्य तथा संपूर्ण मुगल काल के लिए स्वीकार नहीं किया जा सकता। विभिन्न स्थानीय भाषाओं में लिखे गये तत्कालीन ग्रंथों से पता चलता है कि मुगल कालीन ग्रामों में किसान सामान्य रूप से सुख-दुःख का भोग करते हुए जीवन बिताते थे।

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