सल्तनत कालीन सैन्य संगठन का विकास

सल्तनत कालीन सैन्य संगठन का विकास

तुर्की प्रशासन व्यवस्था में सैनिक संगठन का विशेष महत्व था। इसका प्रधान कारण यह था कि तुर्की विजेता मुख्यतः सैनिक थे और राज्य का स्वरूप उन्हीं की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाया गया था। समकालीन राजनीतिक और सैनिक आवश्यकताओं ने भी इस सैनिक संगठन सल्तनतकालीन सैन्य व्यवस्था का शुभारम्भ इल्तुतमिश के शासनकाल से होता है।

इल्तुतमिश का शासन काल

इस काल की सेना में दासों की इतनी अधिक प्रभावशाली स्थिति का कारण यह था कि सुल्तान सेना में दासों को महत्व देकर तुर्की अमीरों की बढ़ती हुई शक्ति को रोकने के लिए भी इनका उपयोग करना चाहते थे क्योंकि इन दास सैनिकों की भारतीय भूमि में जड़ें भी मजबूत नहीं थीं। अतः सुल्तान के प्रति उनका विश्वासपात्र बने रहना स्वाभाविक था।

इल्तुतमिश के काल में प्रांतों में जो सेना रखी गई थी उसे हश्म-ए-अतरफ़ कहा जाता था। शाही घुड़सवार सेना को सवार-ए-कल्ब कहा जाता था। सेवा को वेतन (वजह) नकद नहीं दिया जाता था वरन् इसके बदले में उन्हें अक्ता प्रदान की जाती थी। इल्तुतमिश की घुड़सवार सेना, की संख्या दो या तीन हजार थी। यह सुल्तान की व्यक्तिात सेना थी जिन्हें शम्सी घुड़सवार कहा जाता था। इन घुड़सवारों को दिल्ली के आसपास के गाँवों और दोआब के प्रदेशों में अक्ता प्रदान कर दी गई थी। इस कारण वे इन्हीं प्रदेशों के बाशिंदे बन गए थे। बरनी का कहना है कि दीवाने-अर्ज (सैनिक विभाग) शस्त्रधारी घुड़सवारों (सवार-ए-बरगुस्तवानी) का निरीक्षण करता था। इस निरीक्षण से बचने के लिए अश्व सैनिक किसी-न-किसी चालाकी से अश्वनिरीक्षकों से बच जाते थे। सैनिकों की इस चालाकी के कारण इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों को काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा। इसके परिणामस्वरूप सेना में अनुशासनहीनता बढ़ती गई और अक्तादार यथोचित तैयारी के बिना ही युद्धों में जाने लगे। युद्ध में न जाने या उससे बचने के तरीकों का भी सैनिकों ने अविष्कार कर लिया। इसके लिए वे दीवाने-अर्ज के अफ़सरों को घूस देकर अपने सैनिक उत्तरदायित्वों से बच जाते थे। इस स्थिति से परेशान होकर गयासुद्दीन बलबन ने अपने सैनिक सुधारों को क्रियान्वित किया। तदर्थ उसने अक्तादारों को तीन भागों में विभाजित किया। पहली श्रेणी में उन अक्तादारों को रखा गया जो शारीरिक दृष्टि से असहाय हो गए थे या वृद्ध थे। बलबन ने उनके अधिकरों को यथावत् बनाए रखा। दूसरी श्रेणी में शारीरिक दृष्टि से समर्थ सैनिकों को रखा गया। उन्हें उनकी अक्ता से वंचित नहीं किया गया। वरन् हासिल रक़म को दीवान में जमा कराने का आदेश दिया गया। तीसरी श्रेणी में पेंशन या भत्ता सैनिकों और मृत सैनिकों के अनाथ बच्चों एवं उनकी बेवाओं को शामिल किया गया। ऐसे परिवारों को पेंशन देने के संबंध में सरकारी फ़रमान जारी किए गए।

बलबन ने सवार-ए-कल्ब में काफ़ी वृद्धि की। अनुभवी सेनानायकों की नियुक्ति की। अपने इस सैनिक पुनर्व्यवस्था-संबंधी उपायों के द्वारा बलबन ने सैनिक पुनर्गठन करने का काफ़ी प्रयास किया पर इसके वांछित परिणाम नहीं निकले।

विद्रोही तत्वों से निपटने के लिए बलबन ने दोआब में कंपिल, पटियणली, भोजपुर एवं दिल्ली के आसपास के स्थानों पर सैनिक चौकियों या थानों की स्थापना की। इन थानों पर अफ़गान सैनिकों को नियुक्त किया गया।

उपर्युक्त संक्षिप्त सर्वेक्षण से यह भलीभाँति स्पष्ट है कि बल्बन के काल तक सल्तनत का सैनिक वर्गीकरण सुचारु रूप से नहीं हो पाया था। वस्तुतः सल्तनत की सैन्य व्यवस्था एवं सैनिक वर्गीकरण संबंधी व्यवस्था खलजी वंश के उत्थान (1290 ई०) के साथ प्रारंभ होती है और सल्तनत की सैन्य शासन-व्यवस्था का विधिवत् प्रारंभ भी इसी युग में माना जाना चाहिए।

मंगोलों की भूमिका

तेरहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध विश्व में मंगोलों की बढ़ती हुई शक्ति का काल था जिसका समय-समय पर सल्तनत की सैन्य व्यवस्था पर भी प्रभाव पड़ा। 1291 ई० में जलालुद्दीन खलजी के शासनकाल में जो मंगोल अपने नेता अलगू के नेतृत्व में दिल्ली आए थे उनमें से अधिकांश उसी शहर में बस गए। दिल्ली में बसे इन मंगोलों में से अनेक अमीरान-ए-सदा और अमीरान-ए-हजारा भी थे। जिन मंगोलों ने इस्लाम धर्म अंगीकार कर लिया उन्हें सुल्तान की तरफ़ से एक या दो वर्ष तक मवाजिब (भत्ता) दिया जाता रहा। दिल्ली का मुगलपुरा बाद में इन्हीं के नाम से प्रसिद्ध हुआ। दिल्ली में इन मंगोलों के बस जाने का सबसे महत्त्वपूर्ण परिणाम यह हुआ कि मंगोल सल्तनत की सेना में शामिल हो गए और उसका एक अभिन्न अंग बन गए। अब सल्तनत की सेना में हमें मंगोलों में प्रचलित सैनिक वर्गीकरण पद विषयक शब्द, जैसे अमीरान-ए-सदा, अमीरान-ए-हजारा एवं अमीरान-ए-तुमन के उदाहरण मिलने लगते हैं।

अलाउद्दीन की सैन्य व्यवस्था

सैनिक सुधारों की दृष्टि से अलाउद्दीन खलजी (1296-1316 ई0) के शासनकाल को सबसे महत्त्वपूर्ण युग कहा जा सकता है। इस काल में सल्तनत की सैनिक व्यवस्था में बहुत व्यापक परिवर्तन हुए जिनका सुल्तान ने शुभारंभ अपने शासनकाल के साथ ही किया। अलाउद्दीन खलजी ने अपनी सेना को वेतन देने के साथ-साथ छह महीने का वेतन इनाम के रूप में नक़द दिया। सैनिकों का वेतन निश्चित कर दिया गया और उन्हें अक्ता प्रदान करने की प्रथा को समाप्त कर दिया गया। एक घोड़ा रखने वाले अश्वारोही सैनिक का वार्षिक 234 टंका निश्चित हुआ और दूसरे घोड़ा रखने के लिए दो-अस्पा सैनिक को 78 टंका वार्षिक अतिरिक्त प्रदान किया जाता था। यह वेतन शाही फ़ौजों पर लागू होता था।

सेना में जब सैनिक की भरती होती थी तो दीवाने-अर्ज में उसे अपने घोड़े और साज-समान के साथ निरीक्षण के लिए उपस्थित होना पड़ता था। इस निरीक्षण में सक्षम पाए जाने पर उसे अपना वेतन और घोड़े का व्यय राज्य से मिल जाता था। अलाउद्दीन द्वारा बाजार नियंत्रण-संबंधी नियमों को क्रियान्वित करने के बाद सुल्तान की सेना में हश्म-एम-मुरतब अर्थात् स्थायी सेना और दो अस्पा सैनिकों में काफ़ी बढ़ोतरी हुई। अलाउद्दीन खलजी के सैनिक सुधार का दूसरा महत्त्वपूर्ण पक्ष सेना में कठोर निरीक्षण में प्रांतीय सैनिकों सहित सारे सैनिकों (हश्म-ए-बिलाद व मुमालिक) को शामिल किया गया। कुशल धनुर्धारियों एवं सैनिक योग्यता रखने वाले व्यक्तियों को रंगरूट के रूप में भरती किया जाता था। दीवाने-अर्ज में सेना का एक विस्तृत विवरण (तवकिरा) रहता था जिसमें प्रत्येक सैनिक का हुलिया लिखा जाता था। जो घोड़े सेना के लिए खरीदे जाते थे उनको दाग़ा (दाग़-ए-अस्प) कहा जाता था ताकि न तो घोड़े को बदला जा सके और न सैनिक घोड़ों के बारे में कोई जालसाजी कर सके। युद्ध में भेजे जाने से पहले शाही सैनिकों और मुक्ता के अधीन सेना का बड़ा कठोर निरीक्षण किया जाता था। इस कार्य को पूरा करने में क़रीब दो सप्ताह लग जाते थे। जो सैनिक इस जाँच से बचना चाहते थे उनको कैद भी कर लिया जाता था और जुर्माना भी किया जाता था। इस प्रकार सैनिकों को कठोर अनुशासन में लाने का प्रयास किया गया।

अलाउद्दीन खलजी के समय से मंगोल सैन्य वर्गीकरण को सल्तनत की सेना में पूर्णतः क्रियान्वित किया गया। अलाउद्दीन की सैन्य व्यवस्था उसके उत्तराधिकारी मुबारक शाह खलजी के शासनकाल तक चलती रही, पर खुसरो खाँ के काल में यह सारी व्यवस्था बिखरकर टूट गई। अब अनुशासित सैनिकों के स्थान पर किराए के सिपाहियों को भरती किया जाने लगा। इस प्रकार अलाउद्दीन के सैनिक सुधार उसके राजवंश के समाप्त होने से पूर्व ही छित्र-भिन्न हो गए।

तुगलक वंश

तुगलक शासनकाल में सैन्य सुधारों को पुनः लागू किया गया। गयासुद्दीन तुगलक ने गद्दी पर बैठते ही सैन्य सुधारों पर ध्यान देना शुरू किया। उसने नए सिरे से सैनिकों को भरती करके अधिकारियों और अश्वारोहियों की संख्या हजारों तक बढ़ा दी। सैनिक जाँच, हुलिया प्रथा, धनुर्धारी सैनिकों के परीक्षण, दास प्रथा, घोड़ों के मूल्य का निर्धारण आदि जैसे अलाउद्दीन खिलजी के सैनिक सुधारों को फिर से लागू किया गया। खुसरो खाँ के शासनकाल में सैनिकों को खुले हाथ से जो धन बाँटा गया था उसको वापस लेने की व्यवस्था की गई और इसके लिए वर्ष भर के वेतन को अतिरिक्त धनराशि के रूप में समायोजित किया गया। इसके बावजूद जो बक़ाया रकम शेष रह गई उसका तत्काल भुगतान नहीं किया गया। इस बकाया रकम को दफ्तर-ए-फ़जिलात-ए-हश्म नामक रजिस्टर में दर्ज कर दिया जाता था ताकि सैनिक आर्थिक मुसीबत में न पड़े। सैनिकों को नक़द वेतन देने की प्रथा को फिर से चालू किया गया। सैनिकों को पूरे वेतन के भुगतान को सुनिश्चित करने के लिए ग़यासुद्दीन तुगलुक ने एक नई व्यवस्था चलाई। अलाउद्दीन खलजी के शासनकाल के बाद मुक्ता लोग अपने सैनिकों के वेतन में से कुछ कमीशन काट लिया करते थे। ग़यासुद्दीन तुगलक ने केवल इस कुप्रथा को समाप्त ही नहीं किया वरन् सैनिकों के वेतन रजिस्टर (वसीलात-ए-हश्म) की स्वयं जाँच करने लगा।

मसालिक-उल-अवसार के लेखक अलउमरी ने मुहम्मद तुगलुक की सैन्य व्यवस्था का विस्तृत विवरण दिया है। उसने समकालीन सैन्य व्यवस्था को जो वर्गीकरण दिया है उसके अनुसार सेना के अधिकारियों का क्रम क्रमशः खान, मलिक, अमीर, सिपहसालार तथा व्यक्तिगत सैनिकों के रूप में था। खान 10,000, मलिक 1,000, अमीर 100 और सिपहसालार अनुमानतः दस सवारों का सेनानायक होता था। सबसे रोचक बात यह है कि खान और सिपहसालार आदि जैसी तुर्ककालीन सम्मानसूचक पदवियों को अब सैनिक वर्गीकरण में पदों को इंगित करने के लिए प्रयुक्त किया जाने लगा। इस प्रकार सैन्य संगठन पूर्ण रूप में दशमलव-प्रणाली पर आधारित हो गया।

मुहम्मद तुगलक के शासनकाल में सैनिक अधिकारियों और उनके अधीनस्थ सैनिकों के वेतन का विवरण हमें पहली बार मिलता है। शाही सैनिकों का वेतन 600 टंका वार्षिक था। अलउमरी के अनुसार प्रत्येक खान का व्यक्तिगत वेतन दो लाख टंका वार्षिक था। इस वेतन में उसकी अधीनस्थ सेना का वेतन या व्यय शामिल नहीं था। प्रत्येक मलिक का वार्षिक वेतन 50,000-60,000 टंका, अमीर का 30,000-40,000 टंका, सिपहसालार का 20,000 टंका और प्रत्येक सैनिक का वार्षिक वेतन 1000-10,000 टंका तक निर्धारित किया गया। वेतन के अतिरिक्त इन सभी लोगों को भोजन, वस्त्र तथा घोड़े का चारा-दाना मुफ़्त मिलता था। सैनिक अधिकारियों को उनका वेतन अक्ता के रूप में और सैनिकों को नक़द धनराशि के रूप में दिया जाता था। जो सैनिक सेनाध्यक्षों के अधीन होते थे उन्हें सीधे शाही खजाने से वेतन का भुगतान किया जाता था। मुक्ता का इस भुगतान से कोई संबंध नहीं था। मुक्ता के अधीन सैनिकों का वेतन उसकी अक्ता से प्राप्त आय के एक भाग से दिया जाता था। अधीन सैनिकों का वेतन उसकी अक्ता से प्राप्त आय के एक भाग से दिया जाता था। समकालीन सैनिक संगठन की एक अन्य व्यवस्था यह थी कि मुक्ता और सेनाध्यक्षों की राजस्व वसूल करने के जो अधिकार पहले दिए गए थे उनको छीन लिया गया। मुहम्मद तुगलुक ने राजस्व वसूल करने के लिए प्रांतों में शिक़दार और फ़ौजदार नामक दो अधिकारियों की नियुक्ति की। शिक़दार लगान वसूल करता था और फ़ौजदार सेना-संबंधी मामलों की देखभाल करते थे। इब्नेबतूता के अनुसार अक्ता प्रदेश में वली-उल-खराज लगान वसूल करते थे और अमीर सेना-संबंधी मामलों की देखभाल करते थे।

फ़िरोजशाह तुगलुक के शासनकाल में विविध कारणों से दिल्ली सल्तनत का आकार छोटा होता गया और इसी के साथ-साथ सेना की संख्या और संगठन में भी गिरावट आई। फिरोज ने हुलिया, दाग प्रथा, सैनिक जांच जैसे कुछ पुराने सैनिक सुधारों को बनाए रखने का हर संभव प्रयास किया पर उसकी अस्थिर नीति के कारण सैनिक अनुशासन बहुत अधिक कमजोर हो गया। फ़िरोज ने सेना को नक़द वेतन देने के स्थान पर अक्ता के रूप में वेतन (वजह) प्रदान करने की प्रथा फिर से चलाई और जब सैनिक नगद वेतन के स्थान पर भूमि या गाँवों के लगान के रूप में वेतन पाने लगे और वे वजहदार कलहाए जाने लगे। इन सैनिकों का वार्षिक वेतन दो हजार टंका तक होता था।

फ़िरोज के इन कार्यों के कारण सैन्य व्यवस्था में भयंकर भ्रष्टाचार भी फैला। अतः इतिहासकार अफ़ीफ़ ने लिखा है कि सुल्तान के 80 हजार अश्वारोही सैनिक वर्ष के अंत में सैनिक जाँच के लिए हाजिर होते थे और प्रायः उनके सैनिक दृष्टि से अनुपयुक्त घोड़ों को भी जाँच में पास कर दिया जाता था। साल बीत जाने पर भी बहुत सारे सैनिक अपने घोड़ों को जाँच के लिए हाजिर नहीं कर पाते थे। जब दीवाने-अर्ज के अधिकारी मुल्तान से इस बात की शिकायत करते थे तो सुल्तान सैनिकों को अपने घोड़े हाजिर करने के लिए अनंत समय तक मोहलत देता रहता था। परिणामस्वरूप अब सैनिकों को सैन्य व्यवस्था संबंधी नियमों को तोड़ने की कोई चिंता अथवा भय नहीं था।

इस सबके परिणामस्वरूप फ़िरोज तुगलुक के शासनकाल में सैन्य व्यवस्था भयंकर रूप से निष्क्रिय और भ्रष्ट हो गई। अतः सैनिक शक्ति में ह्रास होना बहुत स्वाभाविक था। फ़िरोज तुगलक ने सेना में दासों को भरती करना प्रारम्भ किया। इस व्यवस्था के बड़े घातक परिणाम हुए, जिसके परिणामस्वरूप परवर्ती तुगलुक मुल्तानों के शासनकाल में ये दास सैनिक खुलेआम राज्य के मामलों में हस्तक्षेप करने लगे और हत्या तथा षड्यन्त्र जैसे कुचक्रों में भाग लेने लगे।

उपर्युक्त विवरण से यह भलीभाँति स्पष्ट है कि सल्तनतकालीन सैन्य संगठन में अश्वारोहियों का स्थान सर्वोपरि था। भारत में घोड़ों का आयात तुर्की तथा अन्य सुदूरस्थ देशों, जैसे रूस से किया जाता था। सेना की सफलता काफ़ी हद तक घुड़सवार की शक्ति और गतिशीलता पर निर्भर करती थी।

हाथी भी काफी बड़ी संख्या में उपस्थित रहते थे। हाथियों को अधिक मूल्यवान् समझा जाता था। हाथी मुख्य रूप से बंगाल से प्राप्त किये जाते थे तथा इस विभाग की देख-रेख शहना-ए-फ़ील नामक अफ़सर करता था। सामान्यतः सेना के बाएँ और दाएँ भाग के लिए अलग-अलग शहना होते थे।

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