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मुगल काल के सैन्य विभाग में बाबर एवं हुमायूँ की भूमिका

मुगल साम्राज्य की सेना में बाबर एवं हुमायूँ की भूमिका

सेना के विभाग

मुगल-सेना पाँच भागों में विभक्त थी अर्थात् पैदल, घुड़सवार, तोपखाना हाथी और जल-सेना।

  1. पैदल

    पैदल सेना को बहुत कम वेतन मिलता था और उसका कोई महत्त्व नहीं था। यह दो प्रकार की होती थी अर्थात अहशाम और सेहबन्दी। दोनों प्रकार की सेनाओं के सैनिकों के पास तलवार और छोटा भाला होता था। उनके युद्ध का महत्त्व नाममात्र का था। सेहबन्दी सैनिक बेकार लोगों में से भरती कर लिये जाते थे और प्रायः मालगुजारी वसूल करने में सहायता देते थे। वे फौजी सैनिकों की अपेक्षा नागरिक पुलिस का काम अधिक करते थे।

  2. घुड़सवार

    घुड़सवार दो प्रकार के होते थे। पहले प्रकार के घुड़सवारों को साज का सारा समान सरकार से मिलता था। ये बरगीर कहलाते थे। दूसरे प्रकार के घुड़सवार सिलेदार कहलाते थे और वे अपने घोड़े तथा अस्त्र-शस्त्र स्वयं लाते थे। इनको बरगीरों से अधिक वेतन मिलता था।

  3. तोपखाना

    इस विभाग में बन्दूकजी या बन्दूक चलाने वाले सशस्त्र सैनिक होते थे। ये मीर आतिश अथवा तोपखाने के दारोगा की अधीनता में रहते थे। मुगल तोपखाना जिन्सी तथा दस्ती नामक दो विभागों में बँटा हुआ था। जिन्सी तोपखाने के पास भारी तोपें होती थीं और दस्ती के पास हल्की तोपें और कड़ाबीन बन्दूकें होती थीं। इन दोनों के विभागों के शस्त्रागार तथा सेनापति अलग-अलग होते थे किन्तु दोनों मीरआतिश की अधीनता में रहते थे।

  4. हाथी

    हाथियों की नियुक्ति युद्ध-क्षेत्र के लिए होती थी। सेनापति हाथियों पर बैठकर सारी युद्धभूमि का निरीक्षण किया करते थे। हाथी शत्रु पर आक्रमण करने, पैदल रक्षा-पंक्ति को तोड़ने तथा किले के दरवाजे तोड़ने के काम आते थे। किन्तु धड़ाधड़ तोपों के चलने पर हाथी लाभदायक न होकर हानिकारक सिद्ध होते थे।

  5. जलसेना

    मुगल अपनी निजी जल-सेना नहीं रखते थे। उन्होंने पश्चिमी समुद्रतट की रक्षा का भारत अबीसीनियनों तथा जंजीरा के सिद्दियों को सौंप रखा था, किन्तु पूरबी बंगाल की सरकार अनेक प्रकार की नावों का बेड़ा रखा करती थी। इन नावों पर तोपें चढ़ी रहती थीं और ये दारोगा के अधिकार में रहती थीं। दारोगा के अतिरिक्त नावों का एक और अफसर होता था जो मीरबहार कहलाता था। और जब शाही सेना को नदी पार करनी होती थी जब नावों का पुल बनवाता था। किन्तु सरकार के पास बहुत बड़ी संख्या में निजी नाव नहीं रहती थीं।

बाबर एवं हुमायूँ का योगदान

तुलुगमा व्यवस्था-

ग्यारह वर्ष की अल्प आयु से ही बाबर को युद्धों में व्यस्त रहना पड़ा। उसे अपने विरोधियों से अनेक बार मोर्चा लेना पड़ा। ये विरोधी उसी की तरह तुर्क, मंगोल, उजबेग, ईरानी और अफगान थे। इनसे युद्ध करने में उसने उनके अनूठे युद्ध-कौशल और सैनिक चालों की चतुराई के साथ अपनाया। उजबेगों से उसने ‘तुगुलमा’ का प्रयोग सीखा। तुलुगमा सेना का वह भाग था, जो सेना के दाहिने और बायें भाग के किनारे पर खड़ा रहता था और चक्का काटकर शत्रु पर पीछे से ध्वंसात्मक हमला करता था। मंगोल पर अफ़गानों से उसने एक ओर तो सेना को छिपाकर रखने की चाल और दूसरी ओर प्रलोभन द्वारा शत्रु को पूर्व-योजनानुसार सेना-सामग्री से सम्पन्न भीषण व्यूह की ओर अग्रसर कर उस पर विभिन्न दिशाओं से आकस्मिक आक्रमण करने की नीतियाँ सीखीं! ईरानियों से उसने बन्दूकों का प्रयोग सीखा। अपने सजातीय तुर्कों से उसने गतिशील अश्वारोहिणी का सफल संचालन सीखा। इस प्रकार अनेक जातियों से सम्पर्क एवं सहयोग होने के परिणामस्वरूप बाबर ने अपनी युद्ध-कला को अति विकसित रूप प्रदान किया, जो वास्तव में अनेक युद्ध-प्रणालियों का वैज्ञानिक समन्वय था और साथ ही मध्य एशिया के निवासियों के लिए एक नयी चीज थी। यह युद्ध प्रणाली सुनियन्त्रित, दक्ष और गतिशील अश्वारोहिणी सेना, वैज्ञानिक तोपचियों की सेना, चमत्कारपूर्ण चालों का प्रयोग जैसे तुलुगमा तथा सेना के अग्रभाग की रक्षा के लिए जंजीर से बंधी हुई गाड़ियों की कतार से सम्पन्न एक सफल समन्वय का स्वरूप प्रस्तुत करती थी।

इसके अतिरिक्त बाबर के दुर्दिनों ने उसे आरम्भ से ही सहिष्णुता, धीरता, संयम, साहस और मृत्यु से निडरता के महान गुणों का अभ्यास करा दिया था। इन विशेषताओं ने उसे मनुष्य जाति का ऐसा अनुभवी नेता बना दिया जो किसी भी विषम परिस्थिति में आशा और विश्वास का त्याग नहीं करता है। 1514 और 1519 ई0 के बीच उसे उस्तादअली नामक एक तुर्क तोपची की सेवाएं उपलब्ध हुईं जिसको उसने अपने तोपखाने का अध्यक्ष बनाया। इस व्यक्ति ने बाबर को तोपखाने के निर्माण और बन्दूकचियों की सेना खड़ी करने में सहयोग दिया। विष्फोटक शस्त्रास्त्रों का प्रयोग ईरानियों ने कौंस्टेटिनोपल के तुर्का से सीखा था और बाबर ने इस कला को ईरानियों से ग्रहण किया। कुछ वर्षों बाद उसे मुस्तफा नामक एक अन्य तुर्क तोप-विशेषक की सेवाएँ प्राप्त हो गयीं। इन दोनों तोपचियों की देखरेख में बाबर ने अपनी सेना के प्रयोग लिए अनेक तोपें ढलवायीं और बन्दूकें तैयार करा लीं, और इस प्रकार वह एक शक्तिशाली तोपखाने का स्वामी बन गया। भारत में सफलता प्राप्त करने का यही एक मुख्य कारण हुआ।

हुमायुं को व्यक्तिगत कठिनाइयों एवं बाह्य समस्याओं के कारण सैन्य व्यवस्था में सुधार करने का मौका ही नहीं मिला। उसने अपने पिता बाबर की सैन्य नीतियों को अपनाया। हुमायूँ के शासन काल में रही फौज बाबर के समय में अपनी श्रेष्ठता सिद्ध कर चुकी थी, अब एक शक्तिहीन के रूप में रह गयी। भारत से निष्कासन और निर्वासन से पहले उसने लगभग दस वर्षों तक शासन किया लेकिन इतने समय में भी वह सैन्य व्यवस्था को सुदृढ़ नहीं कर सका।

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