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जमींदार के प्रशासनिक कार्य

जमींदार के प्रशासनिक कार्य

प्राथमिक जमींदारों के कार्य-कलाप की चर्चा करते हुए नूरुल हसन बताते हैं कि ये जमींदार कृषक संपत्ति को छोड़ कर अपनी शेष जमीनों को काश्तकारों को पुश्तैनी पर दे दिया करते थे। पट्टा दिए जाने के फलस्वरूप उनका काश्तकारी का अधिकार सुरक्षित होता था। बस, शर्त इतनी भर होती थी, कि वे लगान नियमित रूप से देते रहें। साक्ष्यों से पता चलता है कि जहाँ प्राथमिक जमींदार लगान नहीं देते थे, वहाँ उसे सीधे ही काश्तकारों से वसूल कर लिया जाता था, और उसमें से लगभग दसवाँ भाग जमींदारों के “मालिकाना” हक के लिए छोड़ दिया जाता था। लगान के उनके हिस्से के साथ-साथ जमींदारों को अनेक प्रकार के उपकर वसूल करने का अधिकार था। उपकरों से होने वाली आय का एक बड़ा हिस्सा भी छोड़ना पड़ता था।

प्राथमिक जमींदार “मालगुजार” माने जाने थे, जिन पर राज्य की ओर से लगान निर्धारित किया जाता था। उनसे यह आशा की जाती थी कि वे काश्तकारों से लगान वसूल कर राज्य का हिस्सा बड़े प्राधिकारियों के पास जमा करा दें। कानून और व्यवस्था लागू करने में प्रशासन की मदद करना उनका कर्तव्य माना जाता था और कई बार उन्हें अपने से बड़े हाकिमों के हुक्म पर फौज की टुकड़ियाँ भी मुहैया करनी पड़ती थीं।

माध्यमिक जमींदारों को भू-राजस्व प्रशासन की रीढ़ कहा जा सकता है। वे कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए भी जिम्मेदार होते थे। इन सेवाओं के बदले में उन्हें कमीशन (बट्टा), कटौती, लगानमुक्त जमीनें, उपकर आदि की अतिरिक्त सुविधाएँ मिलती थीं। सामान्यतः इस तरह की आय में उनका हिस्सा 2.5 और 10 प्रतिशत के बीच बैठता था। अधिकांश जमींदारों को पुश्तैनी हक मिले होते थे, फिर भी कुछ मामलों में उनकी हैसियत अल्पकालीन समझौते के तहत तय होती थी।

माध्यमिक जमींदारों में से ज्यादातर लोगों को मालगुजारी निर्धारण का ब्यौरा बना कर राज्य के अवलोकन के लिए प्रस्तुत करना पड़ता था, लगान उगाहने में सहायता करनी पड़ती थी, कृषि-विस्तार को प्रोत्साहन देना पड़ता था, कानून और व्यवस्था बनाए रखने में शाही अधिकारियों को सहायता देनी पड़ती थी और एक निश्चित मात्रा में सैन्य टुकड़ियों की पूर्ति करनी पड़ती थी। जो भी हो वस्तुतः वे अपने अधिकारों में वृद्धि के लिए तथा राजस्व में अधिक-से-अधिक हिस्सा प्राप्त करने के लिए निरंतर संघर्ष करते रहे। उपलब्ध अभिलेख ‘जमींदारा-ए-जोरतलब‘ अर्थात उन जमींदारों के जो केवल बलपूर्वक माँगने पर ही राजस्व की भरपाई करते थे, विवरणों से भरे पड़े हैं। इसी तरह इजारादारों या ताल्लुकदारों के रूप में जिन माध्यमिक जमींदारों से राजस्व उगाहने के लिए करार होता था, वे भी राजस्व-निर्धारण के विस्तृत आँकड़े प्रस्तुत करने में आनाकानी करते थे और केवल नियत रकम ही जमा करा देते थे। जागीरों के बार-बार हस्तांतरण की मुगल परंपरा ने इजारा प्रथा को भी बढ़ावा दिया। इस प्रथा के अनुसार मालगुजारी उगाहने का काम किसी और को ठेके पर दे दिया जाता था।

अकबर और उसके उत्तराधिकारी हमेशा यह चाहते थे कि राजा लोग पादशाह के अधिक राजत्व को मान्यता दें, उन्हें नजराने भेंट करते रहें और जब आवश्यकता हो, तब उन्हें सैनिक सहायता भी उपलब्ध्या कराएँ। मुगल राज और राजाओं के बीच समरस संबंध कभी नहीं रहे। वे हमेशा राजाओं की स्वायत्तता को कम करने में ही रहे। ऐसे मामलों में बड़े राजपूत राजाओं के उदाहरण देखे जा सकते हैं जो मनसबदार बने, पर जिन्हें वंश-परंपरा से प्राप्त पैतृत अधिकार प्राप्त थे और जिनकी जागीरें अहस्तांतरणीय ही रहीं। अन्य लोग, जिन्हें किसी प्रकार की सेवा नहीं देनी पड़ती थी, अपनी अधीनता के प्रतीकस्वरूप नियत वार्षिक “पेशकश” अदा करते थे। जमींदारी, “खालिसा” में आ जाने पर कुछ सरदार जमींदारों को या सरकारी अफसरों को वार्षिक “जमा” और “पेशकश’ दोनों ही अदा करते थे। अदायगी में हुई चूक गद्दारी मानी जाती थी, जिसके लिए उन पर सैनिक चढ़ाई कर उन्हें अपने पद से हटाया जा सकता था या उनके स्थान पर किसी और की नियुक्ति भी की जा सकती थी। कुल मिलाकर सरदारों या राजाओं को आंतरिक स्वायत्तता प्राप्त थी और वे अपने इलाकों का शासन मुगल राज के नियंत्रण के बिना ही चलाते थे। कभी-कभी कुछ राजपूत राजाओं ने अपनी मनमानी से मुगल राज की कुछ विशेषताओं को थोड़े-बहुत परिवर्तनों के साथ स्वयं ही अपना लिया, जैसे जोधपुर और मेवाड़ ने जागीरदारी प्रथा को, आमेर और जोधपुर ने “जब्ती’ को बड़े राजाओं की तुलना में छोटे सरदारों या राजाओं पर केन्द्रीय नियंत्रण अधिक कड़ा था।

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