सल्तनतकालीन भू-राजस्व व्यवस्था में अलाउद्दीन एवं मुहम्मद तुगलक
सल्तनतकालीन भू-राजस्व व्यवस्था में अलाउद्दीन एवं मुहम्मद तुगलक का योगदान
सल्तनत-काल में भूमिकर के रूप में राज्य किसानों से उनके उत्पादन का कुल कितना हिस्सा वसूल करता था इसकी निश्चित जानकारी नहीं है। राज्य का भाग समय-समय पर बदलता रहता था। अक्ता जमीन में सुल्तान अलाउद्दीन ने अपने कर्मचारियों को राजस्व इकट्ठा करने का काम सौंपा। सुल्तान का उद्देश्य था कि अधिशेष-राशि सरकारी कोष में ही जमा की जाए। किन्तु अलाउद्दीन के इस सुधार से दूरस्थ प्रांतों पर कोई प्रभाव न पड़ा, उदाहरणार्थ, गुजरात, मालवा, पंजाब इत्यादि इस नियम से अप्रभावित रहे। अपनी व्यवस्था को लागू करने के लिए अलाउद्दीन ने हजारों की संख्या में आमिल, मुतशर्रिफ, मुहासिल, गुमाश्ता, नवर्सिद एवं सरहंग नाम के पदाधिकारियों की नियुक्ति भी की। रिश्वत और बेईमानी को रोकने के लिए उसने लगान-अधिकारियों के वेतन में वृद्धि की। इतिहासकार बरनी के अनुसार, “कोई अधिकारी किसी व्यक्ति से एक टका भी रिश्वत के रूप में लेने का साहस नहीं कर सकता था। प्रजा भी इतनी भयभीत हो गई थी कि एक साधारण लगान अधिकारी खूत और चौधरियों को पीटकर उनसे लगान वसूल कर सकता था और सभी व्यक्ति लगान-अधिकारियों से इतनी घृणा करते थे कि कोई भी व्यक्ति अपनी पुत्री का विवाह भी उनके साथ करने को तैयार नहीं होता था”
अलाउद्दीन प्रथम मुस्लिम शासक था जिसने भूमि-प्रबंध में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। उसने भूमिकर की दर बढ़ाकर पचास प्रतिशत कर दी, जिसे इस्लाम के नियमों के अनुसार अधिकतम कहा जा सकता था। भूमिकर के अतिरिक्त अलाउद्दीन खलजी ने गृहकर और चरने वाले पशुओं के ऊपर भी कर लगाया। अब तक राजस्व का संग्रह करने का ढंग बहुत प्रभावशाली नहीं था। इससे वसूली का प्रबंध पक्का नहीं हो पाता था। इसका निदान करने के लिए अलाउद्दीन ने एक नया विभाग दीवान-ए-मुस्तखराज स्थापित किया। यह आमिल और अन्य कर वसूल करने वालों के नाम जो बकाया रूपया होता था उसकी पूरी पूरी जाँच करता था और जो कर्मचारी बकाया धन को निर्धारित समय तक पूरे तौर पर अदा न करता उसे दंडित करता था। इस प्रकार किसानों पर कर का भार बहुत अधिक था। इसमें कोई संदेह नहीं है कि राज्य किसान से उनकी पैदावार संभवतः 75 से 80 प्रतिशत तक करों के रूप में वसूल कर लेता था। गयासुद्दीन तुगलक के समय सुल्तान ने आदेश दिया कि राजस्व अधिकारी यह भी देखें कि कृषि उत्पादन प्रति वर्ष बढ़े तथा राजस्व में बढ़ोत्तरी धीरे-धीरे होनी चाहिए। इस प्रकार से बढ़ोत्तरी न हो कि उसके भारी बोझ से कृषक वर्ग को हानि पहुंचे। किसानों के साथ उदारता का व्यवहार किया जाए और भ्रष्ट अधिकारियों को कठोर दंड दिया जाना चाहिए।
मुहम्मद तुगलक ने दोआब के क्षेत्र में भूमिकर में वृद्धि कर दी। भूमिकर में कितनी वृद्धि हुई थी इसकी निश्चित जानकारी नहीं है। इतिहासकार बरनी के अनुसार यह बढ़ोत्तरी 10 से 20 गुना थी, किन्तु बरनी का यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण लगता है, क्योंकि लगान का 10 गुना बढ़ना असंभव हैं गयासुद्दीन तुगलक ने भूमिकर में कमी कर दी थी। संभवतः मुहम्मद बिन तुगलक ने इसे बढ़ाकर पचास प्रतिशत कर दिया था। किन्तु जिस समय यह लगान बढ़ाया गया उस समय दोआब में अकाल पड़ रहा था। लगान अधिकारियों ने निर्दयता के साथ कर वसूल किया जिसके परिणामस्वरूप विभिन्न स्थानों पर विद्रोह भड़क उठे। सुल्तान ने इन विद्रोहों को दबाया और बरनी के शब्दों में हजारों व्यक्ति मारे गए और जब उन्होंने बचने का प्रयत्न किया, सुल्तान ने विभिन्न स्थानों पर आक्रमध किए तथा जंगली जानवरों की भाँति उन्हें अपना शिकार बनाया।” इस विषय में डॉ० मेहदी हुसैन ने अपनी पुस्तक तुगलक वंश में एक नवीन विचार को प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार सुल्तान की सेना से निकाले गए सैनिकों ने कृषि करना आरम्भ कर दिया था और जब कर बढ़ाया गया तो उन्होंने कर देने के स्थान पर कृषि करना बंद कर दिया तथा लगान अधिकारियों को मार डाला। इस कारण सुल्तान ने उनके विद्रोह को कठोरतापूर्वक दबाया। बाद में सुल्तान ने किसानों को बीज, बैल आदि दिए तथा सिंचाई के लिए कुएँ खुदवाए परन्तु इससे कोई लाभ नहीं हुआ क्योंकि ये सहायता-कार्य काफी देर से किए गए थे। इस तथ्य के बारे में कोई संदेह नहीं है कि सुल्तान के आदेश द्वारा ही सबसे अधिक उपजाऊ प्रदेश अर्थात् दोआब क्षेत्र विद्रोह का केन्द्र बन गया था। सोचने-समझने के बाद फिरोज तुगलक ने भूमि-राजस्व की राशि को कम कर दिया। जिससे किसान स्वेच्छा से और बिना किसी कठिनाई के कर की अदायगी कर सके। सुल्तान को इस बात का अनुभव था कि कृषक के स्थायित्व से ही अच्छी कृषि हो सकती थी।
कर-निर्धारण का ज्ञान हमें सर्वप्रथम अलाउद्दीन के समय से होता है। अलाउद्दीन पहला तुर्की सुल्तान था जिसने राजस्व को भूमि की नाप (मसाहत) के आधार पर निर्धारित किया। इसके लिए एक ‘बिसवा’ को एक इकाई माना गया। परन्तु यह पैमाइश पूरे देश में नहीं, बल्कि केवल दिल्ली और सीमावर्ती क्षेत्र में ही लागू की गई थी।
किन्तु डॉ० आर०पी० त्रिपाठी के अनुसार निचले दोआब, अवध, गोरखपुर, बिहार, बंगाल, मालवा, पंजाब, गुजरात, सिंघ आदि भी इस व्यवस्था में सम्मिलित थे। गयासुद्दीन तुगलक के काल में खेतों के माप के द्वारा कर-निर्धारण करने की व्यवस्था छोड़ दी गई और कटाई हुक्म-ए-हासिल को अपनाया गया। इसके द्वारा उसने कृषकों को असामयिक भुगतान से छुटकारा दिया, इससे कृषकों को राहत मिली परन्तु मुहम्मद तुगलक के समय में जमीन की पैमाइस के द्वारा कर लागू करने की प्रथा फिर लागू की गई। फिरोज तुगलक के राज्यकाल में एक उल्लेखनीय बात यह थी कि फिरोज ने गाँवों, परगनों तथा सूबों का फिर से मूल्यांकन करवाया। बरनी के कथनानुसार सुल्तान ने इस कार्य के लिए ख्वाजा हुसामुद्दीन जुनैदी को नियुक्त किया। छह वर्ष में ख्वाजा ने राज्य के कस्बों में घूमकर अपने निरीक्षण के आधार पर यह कार्य पूरा किया। फिरोज के संपूर्ण काल में लगान से राज्य को यही आय प्राप्त होती रही। मोरलैंड के अनुसार “मुस्लिम युग में यह प्रथम घटना थी, जिसके द्वारा सल्तनत की आय जानने का प्रयास किया गया।”
सामान्य रूप से भुगतान का तरीका यह था कि राजस्व नकद वसूल किया जाए। परन्तु अलाउद्दीन ने अपनी बाजार-व्यवस्था के कारण दिल्ली के निकटवर्ती क्षेत्रों और दोआब में लगान को खाद्यान्न के रूप में वसूल किया, ताकि नगरों को पर्याप्त मात्रा में खाद्यान्न पहुँचाया जा सके। जब भी अनाज की कमी होती थी शाही गोदाम खोल दिए जाते थे और अनाज लोगों की जरूरत के अनुसार बेचा जा सकता था। गयासुद्दीन के काल में भुगतान के तरीके पर कोई विशेष प्रसंग नहीं दिया गया है। केवल लेखा-परीक्षा के ढंग के बारे में प्रसंग मिलते हैं। बाद वाले सुल्तानों के समय में भी इसकी कोई चर्चा नहीं की गई। केवल इंशा-ए-महरू में इस बात का प्रमाण मिलता है कि फिरोज शाह ने कई क्षेत्रों में कृषकों से आधा राजस्व अनाज के रूप में और आधा धन के रूप में माँगा। इससे ज्यादा कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है।
चौदहवी शताब्दी के कृषि-विकास का प्रश्न सुल्तानों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण था। कृषि-संबंधी सुविधाओं द्वारा इस तथ्य को भली प्रकार जाना जा सकता है कि सुल्तानों का मुख्य ध्येय कृषि की उन्नति करना था। गयासुद्दीन तुगलक ने कृषि को प्रोत्साहन देने के विचार से सिंचाई के लिए नहरें बनवाई तथा कई बाग भी लगवाए।। सरकार ने काफी धन सिंचाई कार्यों पर व्यय किया। नकद भुगतान से फसलों में बढ़ोत्तरी हुई। सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने एक पृथक् कृषि-विभाग दीवान-ए-कोही खोला। इस विभाग का कार्य मालागुजारी व्यवस्था को ठीक प्रकार से चलाना और जिस भूमि पर खेती न होती रही हो उसे कृषि-योग्य बनाना था। इसके लिए 60 वर्गमील का एक क्षेत्र चुना गया और उसमें विभिन्न फसलें पैदा करने का प्रयत्न किया गया। इस योजना पर लगभग 70 लाख रुपया खर्च हुआ परन्तु यह प्रयोग असफल रहा, क्योंकि कृषि के लिए जो भूमि चुनी गई थी वह उपजाऊ न थी। इस दौरान राज्य का बहुत खर्च हुआ। किसानों को जौ की जगह गेहूँ और गेहूँ की जगह गन्ना आदि की खेती करने को कहा गया। सिंचाई के संबंध में फिरोजशाह तुगलक को नहरें बनवाने का श्रेय प्राप्त है। इन नहरों में से कई के नाम सिरात-ए-फिरोजशाही पुस्तक में दिए गए हैं। इनमें से सबसे महत्वपूर्ण राजवाही और उलूगखानी थी। इनमें से एक जमुना नदी से निकलती थी और 150 मील लंबी थी। वह उस भाग की सिंचाई करती थी जहाँ फिरोजा (हिसार) शहर की स्थापना हुई। दूसरी नहर सतलुज नदी से निकलती थी और उस क्षेत्र में सिंचाई करती थी। तीसरी नहर भी वहीं से निकलती थी। चौथी नहर 150 वर्गमील क्षेत्र में सिंचाई करती थी और फिर हिसार के शहर की ओर चली जाती थी। पाँचवीं नहर सरस्वती और भरकंडा नदियों को मिलाती थी। इन नहरों की उपयोगिता के बारे में कोई संदेह नहीं हैं। इनके द्वारा वार्षिक आमदनी सरकार को प्राप्त होती थी। इन नहरों के पानी द्वारा कृषि में उत्तम-से-उत्तम फसलें पैदा हुई, मुख्यतः गेहूँ और गत्रा। इतिहासकार बरनी ने लिखा है, फिरोज को इनसे भविष्य में बहुत आशा थी। उन क्षेत्रों के कृषकों ने कभी गेहूँ, गन्ने, फल और फूल की फसलों के बारे में केवल सुना था और जहाँ पर दिल्ली और पड़ोसी क्षेत्रों से यही फसलें लाकर अन्य वस्तुओं के समान ऊंचे दामों पर बेची जाती थीं, अब इन्हीं क्षेत्रों से कृषक इस उपज को बाजर में विभिन्न मूल्यों पर बेचते थे। धीरे-धीरे अधिक लोगों को सुख सुविधाएँ प्राप्त हो गई और कृषको ने सुल्तान से प्राप्त किए बीजों को बोकर उनसे प्राप्त फसल का आनंद उठाया।” यहाँ अफीफ का यह कथन अतिशयोक्तिपूर्ण प्रतीत नहीं होता है क्योंकि वह नहरों के संबंध में आसपास वाली जमीन का यह संदर्भ देता है कि कोई भी गाँव बंजर न रहा या हाथ भर जमीन भी बिना कृषि के शेष न रही। बहुत-से फलों के वृक्ष लगाए गए। सुल्तान फिरोज की बागों के प्रति भी बहुत रुचि थी। उसने केवल दिल्ली ही में 1,200 बाग लगवाए। इनसे राजस्व में लगभग 1,80,00 टंका वार्षिक वृद्धि हुई। फिरोज शाह प्रथम सुल्तान था जिसने सिंचाई कर हाब-ए-शर्ब लिया।
इन कार्यों के द्वारा उत्पादन में भारी प्रगति हुई। परिणाम यह हुआ कि फसलों के मूल्य में गिरावट आई। कुछ वस्तुओं के भाव इस प्रकार थेः
- गेहूँ- 8 जीतल प्रति मन
- चना– 4 जीतल प्रति मन
- दाल- 1 जीतल प्रति मन
- जौ- 4 जीतल प्रति मन
- चीनी- 1 जीतल प्रति मन
इतिहासकार अफीफ ने लिखा है, “जीवन के लिए आवश्यक वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थीं और फिरोज के संपूर्ण शासनकाल में बिना किसी प्रयत्न के अनाज के मूल्य अलाउद्दीन खलजी के काल की भाँति सस्ते रहे।” सबसे अधिक लाभ कृषकों को हुआ। उनके घर अन्न और पशुओं से भर गए। प्रतिदिन की आवश्यकता की वस्तुएँ बहुत सस्ते मूल्यों पर और अधिक-से-अधिक मात्रा में मिलने लगीं।
दिल्ली सुल्तानों को भूमिकर के अतिरिक्त अन्य करों से भी आय होती थी। अलाउद्दीन खलजी ने भूमिकर के अतिरिक्त चरागाह और गृह-कर भी लगाया।
राजस्व-प्रशासन के लिए भी विभिन्न अधिकारी थे। वजीर सर्वोच्च अधिकारी होता था। उसकी सहायता के लिए नायब वजीर होता था वकूफ व्यय के मानले देखता था, मुस्तीफी-ए-मुमालिक (महालेखा परीक्षक) तथा गुमाक्ता, सरहंग, नवीसंद सभी राजस्व के कार्य से संबंधित थे। पटवारी गाँव के भूमि-संबंधी रिकार्ड रखता था तथा कारकून (क्लर्क) पटवारी को अपने कर्तव्य निभाने में सहायता देता था।
इस प्रकार कहा जा सकता है कि राजस्व की इस प्रक्रिया द्वारा राजस्व लेने का ढंग नियमित हो गया और मध्ययुगीन अर्थव्यवस्था में विकास हुआ। जमीन के राजस्व के नकद भुगतान के कारण किसानों को अपना अनाज व्यापारियों को बेचने के लिए मजबूर होना पड़ता था। इस संबंध में अनाज व्यापारियों का भी प्रसंग मिलता है, जैसे कारवानी, बनजारा आदि और साथ-साथ अनाज मंडी (जहाँ अनाज संग्रह करके बेचा जाता था) तथा साडूकार, महाजन, मुल्तानी, मारवाड़ी इत्यादि। इस राजस्व ढाँचे द्वारा-प्रचलन को काफी प्रोत्साहन मिला। इसे ही बाद के शासकों ने उत्तराधिकारी के रूप में प्राप्त किया।
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