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मध्यकालीन भारत में कृषि वर्ग का वर्गीकरण

मध्यकालीन भारत में कृषक वर्ग

उत्तर तत्कालीन स्रोत सामान्य रूप से ग्रामीण जनसंख्या को एक अभिन्न जनसमूह के रूप में मान कर विचार करते हैं। वास्तव में गाँव के भीतर निश्चित राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक विभिन्नताएं थीं परन्तु कृषकों के जीवन की दशा का वर्णन करते समय हमारे मूल ग्रंथ प्रायः इन असमानताओं के विचार से उदासीन रहते हैं। यह कहना उचित न होगा कि मुगल शासन में जमींदार के अतिरिक्त प्रत्येक ग्रामवासी समान स्तर का था। कृषक द्वारा नियंत्रित भू-क्षेत्र के विस्तार, उनके द्वारा प्रयोग किये जाने वाले भाड़े के श्रम की अधिकता, संपत्ति-संबंधी तथा धन-संपत्ति के आधार पर मुगलकालीन कृषक समुदाय स्पष्ट रूप से तीन वर्गों में विभाजित था, कुदकाश्त, पाहीकाश्त तथा मुजारियान। इनके अतिरिक्त भूमिहीन कृषकों का एक वर्ग भी प्रत्येक गाँव में पायाज आता था।

खुदकाश्त किसान को मुगल सरकारी दस्तावेजों में मालिक-ए-जमीन अर्थात् “भूमि का स्वामी” भी कहा गया है। वह मुगल साम्राज्य के विभिन्न भागों में विभिन्न नामों से जाना जाता था, उदाहरणार्थ राजस्थान में उसे गारुहाला या गावेति तथा महाराष्ट्र में मिरासी या थलवाहिक कहते थे। खुदकाश्त किसान वे खेतिहर थे जो उसी गाँव की भूमि में खेती-बाड़ी करते थे जिसके वे निवासी थे। किसानों का यह वर्ग वास्तव में अपने द्वारा नियंत्रित भू-क्षेत्र का स्वामी था, उसे अपनी भूमि पर स्थायी अधिकार प्राप्त थे तथा जमींदार का दर्जा हासिल था। खुदकाश्त किसान को अपनी संपत्ति बेचने का अधिकार था तथा पुरुषों में वंशगत उत्तराधिकार की प्रथा की मान्यता थी। भूमि पर स्वामित्व अधिकार के बदलने पर नया पट्टा लिखा जाता था। पट्टा नये स्वामी पर भू-राजस्व अदा करने की जिम्मेदारी डालता था, जिसके आश्वासन में उसे मुचलका जमा करना पड़ता था तथा एक जामिन भी देना पड़ता था। खुदकाश्त किसान अपनी खेती-बाड़ी में श्रमिकों की सेवाओं का प्रयोग करते थे, उनमें महंगे और अधिक पैदावार देने वाले साधन जुटाने की क्षमता थी तथा वे अच्छी नस्ल के पशुओं एवं अधिक उपजाऊ भूमि के स्वामी थे। वे प्रायः बटाई पर खेती करते थे। यदि बीज आदि का प्रबंध भू-स्वामि किसान द्वारा किया जाता था तो कृषिगत श्रमिक उपज का एक-तिहाई भाग पाता था, यदि बीज आदि की व्यवस्था श्रमिक द्वारा की जाती थी तो वह उपज का दो-तिहाई भाग प्राप्त करता था तथाई भू-स्वामी किसान एक-तिहाई भाग।

कृषकों का दूसरा वर्ग ‘पाही’ या उपरी (अर्थात बाहरी) कहलाता था। “पाहीकाश्त” किसानों से तात्पर्य उन कृषकों से था जो दूसरे गाँवों में जाकर कृषि-कार्य करते थे तथा वहाँ उनकी अस्थायी झोपड़ियाँ होती थीं। उन्हें खुदकाश्त किसानों का स्तर तथा विशेषाधिकार प्राप्त नहीं थे। वे खुदकाश्त किसानों की भांति मालिक-ए-जमीन नहीं थे परंतु उनको कुछ स्थायी तथा लंबी अवधि के अधिकरण के अधिकार अवश्य प्राप्त थे। पाहीकाश्त किसानों के अधिकार में उतनी ही जोत होती थी जितनी वह केवल अपने ही परिवार के श्रम का उपयोग करके उस पर खेती कर सकते थे। उनमें भाड़े का श्रम प्राप्त करके कृषि करने की सामर्थ्य नहीं थी।

कृषकों में तीसरा वर्ग ‘मुजारियान’ अर्थात् मौसमी अंश हिस्सेदार श्रमिकों का था। “मुजारियान” वे किसान होते थे जिनके अधिकार में इतनी कम भूमि होती थी कि वह भूमि उनके परिवार के संपूर्ण श्रम को काम में लाने के लिए अपर्याप्त थी। अतः वे अपनी भूमि पर खेती करने के अतिरिक्त खुदकाश्त किसानों से किराये पर जमीन लेकर उस पर भी खेती करते थे। “मुजारा” कृषक अपनी जोत बेच नहीं सकते थे, परंतु इस प्रकार के प्रमाण मिलते हैं कि एक बार खेत छोड़ देने के पश्चात्, पुनः अपना भाग वापस लेने के लिए मुजारा कृषक फिर से लौट आए थे।

कृषकों के उपर्युक्त विभिन्न वर्गों के अतिरिक्त भूमिहीन श्रमिकों की एक बड़ी संख्या भी प्रत्येक गाँव की जनसंख्या में सम्मिलित रहती थी। यह वर्ग स्पष्टतया स्वयं किसान तो नहीं था परंतु कृषक गण के साथ मिलकर कृषि-श्रमिक जनसंख्या की रचना करता था। इनके पास या तो कृषि-भूमि बिल्कुल नहीं थी या बहुत कम होती थी, अतः जीवन-यापन के लिए वह किसानों के खेत में कृषि-कार्य करते थे जिसकी मजदूरी के तौर पर उन्हें फसल कटने के समय उपज का एक निश्चित भाग मिलता था। कभी-कभी उन्हें कृषि-भूमि की छोटी-छोटी पट्टियाँ दे दी जाती थी, जिन पर रियायती दर पर भू-राजस्व वसूल किया जाता था। बुआई तथा कटाई के समय आकस्मिक श्रमिकों के रूप में भी इन सेवाओं का कृषक द्वारा खेत में प्रयोग किया जाता था।

कई राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक कारणों के फलस्वरूप एक स्वतंत्र कृषक एक आसामी कृषक के रूप में तथा एक आसामी कृषक एक स्वतंत्र कृषक के रूप में उभर सकता है। कृषि आश्रित अर्थव्यवस्था में राजनीतिक उथल-पुथल तथा सामाजिक परिवर्तन का तो कृषक के जीवन पर सीधा प्रभाव पड़ता ही है परंतु आर्थिक कारक उसका भाग्य निर्धारित करने में सबसे अधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वास्तव में बाजार के लिए वस्तु उत्पादन के फलस्वरूप ही कृषक गण के भीतर आर्थिक वर्गीकरण को प्रोत्साहन मिला तथा ग्रामीण जनसंख्या धनी, मध्यम, निर्धन आदि वर्गों में विभाजित होने लगी। जैसे-जैसे अमीर वर्ग तथा अन्य वर्गों में दूरी बढ़ी, जाति या बंधुता द्वारा उत्पन्न किये गये बंधन ढीले तथा कमजोर होते गये तथा एक अवस्था ऐसी आई कि अपेक्षाकृत धनी कृषक, समुदाय के अंदर दूसरे कृषकों से प्रबल हो गये। इस प्रकार मुकद्दम तथा अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों का उत्थान हुआ जो कालांतर में ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर छाए रहे।

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