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जमींदारों के अधिकार एवं शक्तियां

जमींदारों के अधिकार एवं शक्तियां

जमींदारी के प्रभाव क्षेत्र में आने वाली जमीन के काश्तकार जो अतिरिक्त उत्पाद पाते थे, उसमें जमींदार का हिस्सा, उसी जमीन पर शाही अधिकारियों द्वारा निर्धारित मालगुजारी की रकम की तुलना में निश्चय ही कम होता था। इसके अलावा, जमींदार अपनी इच्छा से अपने हिस्से को बढ़ा भी नहीं सकता था। जहाँ कहीं उसका हिस्सा मालगुजारी में से छूट माना जाता था, वह छूट एक तरह से नियत और स्थायी होती थी अर्थात या तो 10 प्रतिशत होती थी या चौथाई। इरफान हबीब ने सही कहा है कि जमीन के उत्पाद में एक हिस्से के रूप में जमींदार को यद्यपि ‘मालिक’ माना जाता था, फिर भी वह उपनिवेशी काल (colonial period) की तरह जमीन का वैसा मालिक नहीं था जो भूकर तो देता था, पर अपने किराएदारों (tenants-at-will) से अपनी इच्छा के अनुसार किराया वसूल करता था।

इरफान हबीब स्पष्ट करते है कि जमींदार का आशय भूमि पर स्वत्वाधिकार होना नहीं है। भूमि के उत्पादन से संबंधित अन्य अधिकारों और हकों के साथ इसका सहअस्तित्व था। साथ ही यह भी जान लेना महत्वपूर्ण है कि जमींदारी में खुद-ब-खुद (न कि जमींदारी के अधीन आने वाली भूमि) निजी संपत्ति के अंतर्नियमों के भी अभिलक्षण मौजूद थे। वह उत्तराधिकार में मिल सकती थी और उसे बिना किसी रुकावट के खरीदा और बेचा जा सकता था। मुगल साम्राज्य में जमींदारी का पैतृक उत्तराधिकार एक सामान्य नियम था। जमींदारी को एक अविभाज्य इकाई भी नहीं माना जाता था, क्योंकि उत्तराधिकारों के दावों की पूर्ति के लिए उसका विभाजन भी सदा संभव था। जमींदारी को पट्टे पर भी हस्तांतरित किया जा सकता था।

सैनिक शक्ति

ऐतिहासिक दृष्टि से जमींदारी-अधिकारी का जाति या कुल के प्रभुत्व से बड़ा गहरा संबंध रहा है। इस इलाके के जमींदार प्रायः एक ही जाति के होते थे। इसके अतिरिक्त जमींदार को न केवल अपने कुटुंबियों के सहयोग की आवश्यकता होती थी, बल्कि उसे आश्रित व्यक्ति (उलुस) भी रखने पड़ते थे और किले भी बनवाने पड़ते थे ताकि वह अपने अधिकारों की रक्षा कर सकें और उन्हें लागू कर सके। आइने-अकबरी में “बारह सूबों का जो विवरण” मिलता है, उसमें न केवल जमींदारों की जातियों का उल्लेख है, बल्कि हर परगने में जमींदारों के घोड़ों और पैदल सैनिकों की संख्या भी दी गई है। जमीदारों की मिश्रित सेना की संख्या तो पर्याप्त होती थी। आइन के अनुसार अकबर के शासनकाल में उनके पास 3,84,558 सवार, 4,2,77,057 पैदल सैनिक, 1863 हाथी और 4260 तोपें थीं। इन आंकड़ों में संभवतः अधीनस्थ राजाओं का सैन्यशक्ति भी सम्मिलित है। जमींदार फैले हुए थे और एक समय में एक जगह इतनी बड़ी फौज रखना संभव नहीं था। जमींदार की फौजें एकीकृत नहीं थी, वे तो अलग-अलग जगहों पर बंटी होती थीं और प्रायः आपसी झगड़ों और लड़ाइयों में उलझी रहती थीं। इन तथ्यों के परिणामस्वरूप लगता है जमींदार लोगों के पास शही फौजों से टक्कर लेने की प्रभावी शक्ति कभी नहीं बन पाई। फिर भी, जमींदार वर्ग की एक अर्ध-सैनिक शक्ति थी, जिसकी राजनीतिक अवहेलना करना किसी शासन के लिए संभव नहीं था।

जमींदारों की सैनिक शक्ति की इरफान हबीब द्वारा की गई व्याख्या आइने-अकबरी में प्रस्तुत विवरणों पर आधारित है और विश्वसनीय है। जमींदारों द्वारा नियोजित आश्रितों (उलुस) का केन्द्र अपनी जाति के लोगों द्वारा निर्मित होता था और उसकी अनुपूर्ति कृषकों से की जाती थी। हबीब “कृषक शांतिवाद’ में अपने विशस को यह कह कर व्यक्त करते हैं कि कृषक वर्ग जमींदारों की संवा करने के उद्देश्य से नहीं वरन उनसे “प्रभावित होकर उनका सहयोग करते थे। लेकिन कृषक संस्कृति का गहन अध्ययन करने वाले डी० एच० ए० कोव तत्कालीन गांवों और कस्बों में “युद्धप्रिय परंपरा के मूल” के अस्तित्व पर बल देते हैं। उनका निष्कर्ष है कि “उत्तर भारत का कृषक समाज “व्यावसायिक दृष्टि से सभी प्रकार के हथियारों के प्रयोग में कुशल था”, इसलिए मुगलों की प्रादेशिक सेना में अनेक जमींदार और कृषक सम्मिलित थे।

जमींदार और कृषक वर्ग

ऐसा नहीं था कि पूरे देश में जमींदारों का ही शासन या प्रभाव हो। वस्तुतः प्रत्येक इलाके में ऐसे अनेक गाँव थे, जिनमें जमींदारी-अधिकारों का अस्तित्व नहीं था और जिन्हें जमींदारी प्रभाव वाले गाँवों से अलग दिखाने के लिए “रैयती” कहा जाता था। इरफान हबीब का मत है कि यदि सारे गाँव या तो “जमींदारी’ थे या “रैयती”, तो फिर यह माना जा सकता है कि जमींदारी और किसानों के “मिल्कियत” अधिकार परस्पर एकांतिक थे, अर्थात जहाँ एक प्रकार के अधिकार होते थे वहाँ दूसरे प्रकार के अधिकार नहीं हो सकते थे। उन्होंने अपने मत की पुष्टि के लिए अवध से प्राप्त किए दस्तावेज की मदद ली है। उनके अनुसार इस बात के पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं जिनके आधार पर कहा जा सके कि सभी जगह जमींदारों को किसानों को जमीन देने और किसानों से जमीन लेने का अधिकार प्राप्त था।चूंकि उस समय ऐसी बंजर जमीन पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थी, जिसे खेती-योग्य बनाया जा सकता था, इसलिए किसी भी जमींदार का सामान्य स्थिति में यही मुख्य उद्देश्य होता था कि वह कृषकों को अपने पास बनाए रखे, न कि उन्हें खो दे । निश्चित रूप से यह भी नहीं कहा जा सकता कि क्या जमींदार वर्ग केवल ताकत के जोर पर कानूनन किसानों से अपनी भूमि पर काम ले सकते थे।

नुरुल हसन बर्नियर के इस कथन का खंडन करते हैं कि कृषक समुदाय मुगल साम्राज्य की अपेक्षा स्वायत्तशासी राजाओं के अधीन अधिक संपन्न था। उनका मानना है कि सामंती अधिकारों के प्रति बर्नियर की पक्षपाती प्रवृत्ति ने उसके निर्णय को प्रभावित किया है। उपलब्ध अभिलेखों से प्रमाणित होता है कि राजाओं ने रियासतों में कृषक वर्ग की भूमि पर जो लगान की दरें निर्धारित की थीं और किसान जो अन्य प्रकार के कर अदा करते थे, वे किसी भी रूप में राजाओं के अधिकार क्षेत्र से बाहर के समीपवर्ती इलाकों की तुलना में कम थे। यह मानते हुए भी कि जमींदार वर्ग एक “शोषक वर्ग” था क्योंकि वह कृषकों के अतिरिक्त उत्पाद को अपने लिए विनियोजित कर लेता था, इरफान हबीब मुगल प्रशासनिक तंत्र को, जो कि राजस्व का 90 प्रतिशत विनियोजित कर लेता था, जमींदारों की तुलना में अधिक शोषक मानते हैं। “रैयती” गाँवों में मुगल प्रशासन किसानों से सीधे ही लेन-देन करता था। जमींदार अपने अधिकार क्षेत्र में आने वाली भूमि के लिए राजस्व देता था। इस तरह जमींदारों को पुश्तैनी आधार पर अधिकारियों के लिए की गई ऐसी सेवा माना जाता था जिसके एवज में उन्हें भुगतान किया जाता था।

जमींदार शासक के रूप में

कृषकों के अतिरिक्त उत्पाद अथवा अधिवेश में हिस्सेदारी मांगने वाले जमींदारों का एक शोषक वर्ग बन गया जो स्थानीय शक्ति का प्रतिनिधित्व करता था। किसी विशिष्ट भू-भाग पर उनके अधिकार आनुवंशिक होते थे और अपने बाप-दादाओं के पास पीढ़ियों तक रही उस भूमि में जमींदार की जड़ें सामान्यतः गहरी होती थीं। उसके लिए सबसे लाभप्रद बात शायद यह होती थी कि उसे उस भूमि की उत्पादकता तथा उस क्षेत्र के निवासियों के रीति-रिवाजों और परंपरा की गहरी जानकारी होती थी। जमींदारी का वर्ग मोटे तौर पर अनेक जातियों से निर्मित होता था जो लंबे समय से एक-दूसरे को उखाड़ने और अपने अधीन करने में लगा रहता था। इस वर्ग की सामाजिक विषम जातीयता, जमींदारियों की खरीद-फरोख्त से अवश्य ही और अधिक बढ़ी होगी। भौगोलिक दृष्टि से जमींदारियाँ परस्पर संलग्न नहीं होती थी, क्योंकि बीच-बीच में रैयती गाँवों के भू-खंड मिलते थे। जमींदारों के बीच आंतरिक विभाजन भी इस वर्ग के एक “एकीकृत शासक वर्ग” के रूप में उभरने में बाधक बना। लेकिन उनके जातिगत आधार और स्थानीय संपर्क ने ही उनकी शक्ति को बनाए रखा और उनकी उत्तरजीविका में सहायता की।

जमींदार वर्ग ने मध्यकालीन भारत के राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मुगलकाल में इसका महत्व बढ़ा और समाज में इसकी स्थिति अधिक जटिल हो गई। कृषक समाज से मिलने वाला इनका अतिरिक्त उत्पादन पादशाह उसके जागीरदारों और जमींदारों में बँट जाता था। देश के आर्थिक जीवन पर जैसे कृषि उत्पादन, हस्तकलाओं और व्यापार पर जमींदारों का पूरा प्रभुत्व था। उत्पाद में अधिकाधिक हिस्सा पाने के लिए शाही सरकार और जमींदारों में चलने वाले निरंतर संघर्ष के बावजूद दोनों वर्ग आर्थिक शोषण की प्रविधा के दावेदार बन गये।

राजनीतिक दृष्टि से भी मुगल शासन और जमीदारों के बीच अपने-अपने हितों में टकराहट थी। मुगल पादशाह को जो जो कठिनाइयाँ झेलनी पड़ती थी, उनमें से अधिकांश, जमींदारों की कार्यवाहियों के परिणामस्वरूप उत्पन्न होती थी। बावजूद इनके, मुगल प्रशासन को जमींदारों के सहयोग पर बहुत अधिक निर्भर रहना पड़ता था। संस्कृति के क्षेत्र में भी जमींदारों और शाही दरबार के बीच जो घनिष्ठ संबन्ध थे, उन्होंने विभिन्न समुदायों तथा विभिन्न क्षेत्रों की विशिष्ट परंपराओं तथा शहरी और ग्रामीण केन्द्रों के बीच सांस्कृतिक संश्लेषण की प्रक्रिया में कम योगदान नहीं दिया। इसके साथ-साथ अवगातवादी, स्थानीय और संकीर्ण या अनुदारवादी प्रवृत्तियों को भी जमींदार वर्ग से प्रबल संरक्षण प्राप्त हुआ। मुगल साम्राज्य के शक्तिशाली होने के पीछे कारण यही था कि वह इस वर्ग का समर्थन प्राप्त कर सका। किन्तु केन्द्रीयकृत साम्राज्य और जमींदारों के बीच जो अतर्निहित विसंगतियाँ थी उनकी जड़ें इतनी गहरी जा चुकी थी कि उनका समूल नाश संभव नहीं था। विसंगतियों के अग्रिम परिणाम के रूप में ही मुगल साम्राज्य का पतन हुआ।

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