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शेरशाह सूरी काल की भू-राजस्व व्यवस्था

शेरशाह सूरी कालीन भू-राजस्व व्यवस्था 

शेरशाह सूरी कालीन भू-राजस्व व्यवस्था एवं जाब्ती प्रथा

शेरशाह जब युवा फरीद था और अपने पिता की जागीरों का प्रबंधक था, तब उसे भू-राजस्व प्रशासन का पूर्व प्रशिक्षण मिल चुका था। जागीर संबंधी फरीद की नीति के नियामक सिद्धांतों के बारे में अब्बास खाँ बताते हैं:

  1. रैयत अर्थात प्रजा की भलाई की चिंता। इसलिए निर्धारित भू-राजस्व की मात्रा साधारण होती थी, किन्तु निर्धारण के बाद उसकी वसूली पूरी मात्रा में होती थी;
  2. वसूली के शुल्क के रूप में तथा जमींदारों को नियंत्रित रखने के लिए उनका देय हिस्सा भी उन्हें अवश्य मिलता था।

फरीद ने किसान को मापन और साँझेदारी (बँटाई) में से किसी एक विकल्प को चुनने की छूट दे रखी थी। दोनों में से किसे चुनें, किसे छोड़ें इस बारे में किसान एकमत नहीं थे। इसलिए दोनों ही प्रथाएँ चलती रहीं। इससे स्पष्ट है कि दोनों में से किसी एक को चुनने में हानि-लाभ का अंतर नहीं के बराबर था। उसने किसान-वर्ग को यह भी छूट दे रखी थी कि वे चाहें तो भू-राजस्व का भुगतान नकद करें, चाहें तो माल के रूप में करें। फरीद किसानों से लिखित-कबूलियात लेता था और उसने मापन का शुल्क (जरीबाना) तथा कर-वसूली शुल्क (मुहासिलाना) दोनों तय कर रखे थे। उसने बिचौलियों और अपने कर्मचारियों को आगाह कर रखा था कि यदि वसूली के मामले में उन्हेंने कोई अवैध कार्य किया और वे इसके अपराधी पाए गए तो वह उनके खिलाफ कड़ी कार्रवाई करेगा।

जब वह (फरीद) स्वयं शासक (शेरशाह) बना, तो उसने अपने पिता की जागीरों का प्रबंधक रहते हुए जिन सिद्धांतों को रखा था, उनमें से कुछ को लागू किया। किन्तु इस कथन की समीक्षा और मूल्यांकन करना आवश्यक है।

चूंकि राज्य के राजस्व का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत मालगुजारी था, इसलिए राजस्व के स्थिरीकरण के बारे में और कृषि-उत्पादों की वृद्धि के माध्यम से राजस्व में वृद्धि करने के बारे में शेरशाह की चिंता स्वाभाविक ही थी इसे मानने में कोई कठिनाई पेश नहीं आती। चूंकि कृषक-समाज राज्य का आधार था, इसलिए किसानों की स्थिति में सुधार करने के लिए वह चिंतित रहता था। किसानों की भलाई के लिए शेरशाह ने जो विनियम बनाए थे, उनमें से एक बारे में अब्बास खाँ यों कहते हैं : “उसका विजयी सैन्य दल लोगों की खेती-बाड़ी न उजाड़ दें; और जब वह सेना के साथ कूच करता था तो स्वयं खेती-बाड़ी की हालत देखता जाता था और घुड़सवारों को चारों ओर यह देखने के लिए फैला देता था कि सेना के जवान किसानों के खेतों का अतिक्रमण न करने पाएँ।…जो व्यक्ति उसके आदेशों का उल्लंघन करता था और फसलों को नुकसान पहुंचाया था, उसे कड़ा-से कड़ा दंड दिया जाता था। इन बातों का सैनिकों पर चामत्कारिक प्रभाव हुआ।”

बहरहाल, कानूनगो की वह मान्यता कि शेरशाह ने अन्य सभी प्रथाओं को छोड़ कर-निर्धारण के लिए केवल मापन की प्रथा को ही आधार बनाया और उसे अपने पूरे साम्राज्य पर लागू किया, स्वीकार करने योग्य नहीं हैं। मोरलैंड का कहना है कि “उत्तर भारत में प्रचलित भू- राजस्व की प्रथा तब से चली आ रही है, जब हिंदुत्व की पवित्र विधि निर्मित हुई थी, और तब तक चलती रही जब तक उन्नीसवीं शताब्दी में उसमें कुछ परिवर्तन नहीं कर दिए गए। यही परंपरा अखंड रूप में सूरकाल में भी चलती रही, यद्यपि शेरशाह ने उसमें कुछ परिवर्तन किए, किन्तु उसने भी राजस्व-निर्धारण की पद्धति, भुगतान का प्रकार, कृषि-उत्पादन में राज्य का हिस्सा आदि आधारभूत बातों को नहीं बदला । एस०सी० मिश्र ने रेवेन्यू सिस्टम ऑफ शेरशाह’ नामक शोधपत्र में बताया है कि दस्तावेजों में प्रयुक्त शब्द ‘जरीबे’ और अनुवाद के रूप में आधुनिक लेखकों द्वारा प्रयुक्त ‘मेजरमेंट’ या ‘मापन’ शब्द आदि यह ध्वनित करता है कि शेरशाह ने पहले सारी कृषि-भूमि की क्षेत्रमिति (मापन) करवाई थी और तब उसके आधार पर उसने भू-राजस्व निर्धारित किया था, तब तो यह कथन माना जा सकता है। किन्तु यदि ‘जरीबे’ का यह आशय है कि सभी प्राचीन पद्धतियों को विस्थापित कर राजस्व-प्रशासन की सम्पूर्ण व्यवस्था को आमूलचूल बदल दिया गया तो इस कथन को स्वीकार नहीं किया जा सकता।

शेरशाह ने राजस्व-प्रशासन की प्राचीन काल से चली आ रही व्यवस्था को कभी समाप्त नहीं किया। यदि वह ऐसा चाहता तो भी नहीं कर सकता था। मापन के बारे में उसके जो विचार थे वे अनेक क्षेत्रों में लागू नहीं हो सकते थे, और लागू किए भी नहीं गए। उदाहरण के लिए, मुल्तान में राजस्व-निर्धारण और संग्रह के लिए बँटाई (हिस्सेदारी) की प्रथा पहले से चल रही थी, शेरशाह ने उसे ही चलते रहने दिया। मालवा, राजपुताना और पश्चिमी पंजाव के प्रदेश उस समय पूरी तरह शांत नहीं थे, इसलिए यदि शेरशाह मापन की व्यवस्था करना भी चाहता तो उसे सफलता शायद ही मिल पाती।

दौलत-ए-शेरशाही के लेखक हसन खाँ ने देश में प्रचलित राजस्व-प्रशासन की तीन व्यवस्थाएं गिनाई : “पहली यह है कि हम गाँव के किसी व्यक्ति को यह जिम्मेदारी सौंप दें कि वह शासन की देनदारी की भरपाई करे। ऐसी स्थिति में उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह खेतों से देनदारी इकट्ठी करे और शासन के पास एक नियत राशि जमा करवा दे। किन्तु ऐसी स्थिति में (कुछ मामलों में) जोर-जबरदस्ती या शक्ति के प्रयोग को छिपाया जाना अवश्यंभावी हो जाता। इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि शासकीय कर्मचारियों को अनुदेश दिए जाएं कि वे लोगों के बचाव और उनकी सुरक्षा का ध्यान रखें, ताकि कोई भी मालगुजार कहीं भी प्रजा को दबाने के लिए अपने पंजे न फैला सके। हिन्दू और मुसलमान दोनों को इन आदेशों का पालन करना होगा।” ए0 सी0 मिश्र बताते हैं कि ऐसी व्यवस्था में, जिसमें किसी व्यक्ति-विशेष को इस बात की जिम्मेदारी सौंपी जाए कि वह अपने आवंटित क्षेत्र में से राजस्व इकट्ठा करे और एक नियतांश राज्य में जमा करे, इस जरीब पद्धति को लागू नहीं किया जा सकता था क्योंकि नकद भुगतान की पद्धति को क्रियान्वित नहीं किया जा सकता। अन्य दो प्रथाएँ, जिन्हें साझेदारी (गल्ला-बख्शी) और मापन (जरीब) कहते हैं, पुरानी प्रथाएँ थीं और चली आ रही थीं। उनमें शेरशाह ने दखलंदाजी नहीं की। हाँ, उसने उनकी क्रिया-विधि को व्यवस्थित अवश्य किया। उसने जमीनों के नक्शे बनवाए, काश्तकारी और मिलिकयत का वर्गीकरण करवाया। दौलत-ए-शेरशाही के फरमान सं0 10 से पता चलता है कि कृषि-भूमि और कृषि-अयोग्य (पड़त) भूमि के मापन का कार्य अहमद खाँ को सौंपा गया था। उसने यह काम ब्राह्मणों की मदद से पूरा किया। इस सर्वेक्षण के आधार पर एक रजिस्टर (खसरा-खतौनी) तैयार किया गया जिसमें मालिक के अधिकारों और सारी खेतिहर जमीनों के माप और उनकी किस्में दर्ज की गई। मापन- कार्य के लिए 32 अंक वाला शिकदरी गज और सन की डंडी काम में लाए गए।

जाब्ती प्रथा

शेरशाह का रुझान की जाब्ती की प्रथा की ओर था और अलाउद्दीन खिलजी की तरह वह भी इसका जितना हो सके, उतना विस्तार करना चाहता था जमीनों का आम सर्वेक्षण करवाया जाना नई ‘जमा’ को तय करने के लिए लाभकारी हो सकता था, किन्तु उसका शासनकाल इतना छोटा रहा कि सर्वेक्षण बहुत ही संतोषप्रद साबित नहीं हो सका। फिर भी उसका सबसे महत्वपूर्ण योगदान ‘राई’ या निर्धारण के लिए फसल-दरों की सूची का लागू किया जाना था। फसल-दर तैयार करने का तरीका बड़ा सरल था। पैदावार की किस्म के आधार पर दोनों मौसमों की सभी प्रकार की मुख्य-मुख्य फसलों की एक-एक बीघा अच्छी, मझोली और खराब भूमि की पैदावार के आँकड़ों को प्रति बीघा औसत पैदावार की गणना के लिए एकत्र किया जाता और जो औसत निकलता उसका तीसरा हिस्सा (1/3) कर दिया जाता। यही 1/3 हिस्सा निर्धारण कर अर्थात शासन की माँग माना जाता था। पैदावार का कितना हिस्सा राजस्व के रूप में राज्य को जाता था इस बारे में इतिहासकारों में मतभेद हैं। कानूनगो और कुरैशी मानते हैं कि शेरशाह पैदावार का 1/4 भाग लेता था। कानूनगो का मत मखजान-ए-अफगीन में दी गई सूचना पर आधारित है,जहाँ शेरशाह ने हैबत खान को लिखा था कि मुल्तान से पैदावार का 1/4 हिस्सा लेना है। वह अबुल फजल के इस कथन पर भी विश्वास करता है कि शेरशाह की दरें सबसे कम थीं और अकबर ने उसे बढ़ाकर 1/3 कर दिया। मोरलैंड ने कानूनगो के उन तर्को का खंडन किया है, जिन्हें उसने मखजान-ए-अफगीन और अबुल फजल से उठाया है। मारलैंड मानता है कि मुल्तान के प्रति शेरशाह ने सदा ही पक्षपात का रुख अपनाया था। इससे यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि सारे साम्राज्य के प्रति शेरशाह का वैसा ही रखा था। परमात्मा सरन मोरलैंड से सहमति व्यक्त करते हुए कहते हैं कि शेरशाह की “राई” को अकबर ने भी अपना लिया था। इसलिए यह माना जा सकता है कि अकबर के काल में चाहे जो भी दरें प्रचलित रही हों और जिन्हें सम्राट ने अनुमोदित किया हो, वे शेरशाह से ही अकबर को परंपरा के रूप में मिली थीं सरन “राई’ शब्द के अर्थ की व्याख्या करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि राज्य की माँग 1/3 थी।

भुगतान के तरीके के बारे में पूरी व्यवस्था फसल की कटाई के बाद की पैदावार पर आधारित थी, और राजस्व-निर्धारण का आधार अनाज या अन्य उत्पाद होता था। भू-राजस्व अनाज के रूप में ही लिया जाता था, किन्तु उसे बाजार की दरों पर बेचकर नकदी में भी बदला जा सकता था। कृषक भी अनाज के स्थान पर नकद रूप में लगान का भुगतान कर सकता था। राज्य भी इसे प्रोत्साहित करता था। कृषक को ‘जरीबाना’ या सर्वेक्षण शुल्क तथा ‘मुहासिलाना’ या कर-संग्रह शुल्क भी चुकाने पड़ते थे, जिनकी दरें क्रमशः भू- राजस्व की 21/2% और 5% थीं। हसन खाँ का कहना है कि शेरशाह ने इस तरह की व्यवस्था कर रखी थी कि प्रत्येक भू-धारी और राजस्व-दाता अपने कर का 21/2% सार्वजनिक कोषागार में जमा करवाए, ताकि वह धन दुर्घटनाओं या भारी सजाओं पर खर्च किया जा सके। यह कर निश्चय ही अनाज के रूप में वसूला जाता था जिसका स्थानीय कोठार में भंडारण किया जाता था और अकाल के दिनों में संकट का निवारण करने के लिए उपयोग में लाया जाता था।

शेरशाह किसानों को पट्टे बाँटता था, जिनमें भूमि की किस्म और अलग-अलग फसलों के लिए लगान की दरें दी हुई होती थीं। किसान ‘कबूलियत’ लिखता था जिसमें राज्य मालगुजारी की मांग के अनुसार राशि अदा करने का वादा किया जाता था।

उसने भूमि-सुधार को प्रोत्साहन दिया, सूखा या अकाल पड़ने की हालत में लगान में छूट या माफी दी, संकट के समय और कुएँ खुदवाने के लिए किसानों को धन उधार दिया तथा कृषि उत्पादन में वृद्धि के लिए नहरी सिंचाई की व्यवस्था लागू की।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शेरशाहकालीन राजस्व प्रशासन की व्यवस्था उसके पूर्ववर्ती तुर्को से मिलती-जुलती थी और यही प्रथा लोदियों के काल में भी अपनाई गई थी। उसको जो काम करने का श्रेय दिया जाता है, वह काम तो अपने पिता की जागीर का प्रभार ग्रहण करने के समय उस जागीर में हो ही रहा था। उसका एकमात्र लक्ष्य था कि वह शासन में प्राणों का संचार कर उसे शक्ति प्रदान करे और उसमें दक्षता लाए; और अपने इस लक्ष्य की पूर्ति में उसे एक बड़ी सीमा तक सफलता भी मिली। किन्तु कर्मचारी वर्ग में जो भ्रष्टचार फैला हुआ था, उसका समूल नाश करने में वह सफल नहीं हो सका।

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