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सल्तनत कालीन भू-राजस्व व्यवस्था

सल्तनतकालीन भू-राजस्व व्यवस्था

सल्तनतकालीन भू-राजस्व व्यवस्था

दिल्ली सल्तनत की आय का सबसे महत्वपूर्ण साधन भू-राजस्व था और युद्ध में प्राप्त लूट के धन के बाद उसी का स्थान था। राजस्व-शासन की दृष्टि से भूमि के चार मुख्य वर्ग थे-

  1. खालसा भूमि,
  2. क्लोम-विभक्त भूमि, जो मुक्तियों को कुछ निश्चित वर्षों अथवा जीवन भर के लिए दी जाती थी,
  3. हिन्दू सामन्तों के राज्य जिन्होंने सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली थी, और
  4. मुसलमान विद्वान तथा सन्तों को इनाम अथवा मिल्क अथवा वक्फ के रूप में दी गयी भूमि।

खालसा भूमि का प्रबन्ध सीधा केन्द्रीय सरकार द्वारा होता था किन्तु सरकार प्रत्येक किसान से सीधा नहीं, बल्कि चौधरी, मुकद्दम आदि स्थानीय राजस्वव पदाधिकारियों द्वारा भूमि-कर वसूल करती थी। उपर्युक्त पदाधिकारी किसानों से लगान वसूल करते थे और प्रत्येक उपक्षेत्र में (सम्भवतः शिक में) आमिल नाम का एक पदाधिकारी रहता था, जो इनसे राजस्व इकट्ठा करके राजकोष में जमा करता था।राजस्व की दर वास्तविक उपज के आधार पर सावधानी से हिसाब लगाकर नहीं, बल्कि अनुमान से ही निश्चित कर दी जाती थी। इक्ता में राजस्व निर्धारित तथा वसूल करने का काम मुक्ती के हाथ में होता था। वह अपना भाग काटकर बचत को केन्द्रीय सरकार के कोष में जमा कर देता था। उसका हित नाममात्र की बचत दिखाने तथा किसी न किसी बहाने उसे अदा न करने में ही था। इसलिए वजीर की सलाह से सुल्तान प्रत्येक इक्ते के लिए ख्वाजा नामक एक पदाधिकारी को नियुक्त करता था जिसका काम राजस्व की वसूली की देखरेख करना तथा मुक्ती पर कुछ नियन्त्रण रखना था। गुप्तचरों की उपस्थिति के कारण ख्वाजा तथा मुक्ति में झगड़ा होने की सम्भावना कम रहती थी, क्योंकि वे स्थानी पदाधिकारियों के कामों की सीधी रिपोर्ट केन्द्रीय सरकार को दिया करते थे। वे हिन्दू राजा जिन्होंने सुल्तान की अधीनता स्वीकार कर ली थी, अपने-अपने राज्यों में पूर्ण स्वायत्तता का उपभोग करते थे। उन्हें केवल सुल्तान को कर देना पड़ता था। इसी प्रकार जमींदार लोग सरकार को निश्चित कर दिया करते थे और उनके अधिकार क्षेत्रों में रहने वाले किसानों को अपने जमींदारों को छोड़कर अन्य किसी अधिकारी से सम्बन्ध नहीं था। वक्फ अथवा इनाम के रूप में दी गयी भूमि राजस्व से मुक्त और माफीदारों की वंशानुगत सम्पत्ति हो जाती थी।

दिल्ली सल्तनत के सम्पूर्ण युग में उपर्युक्त व्यवस्था ही प्रचलित रही। अलाउद्दीन खलजी पहला सुल्तान था जिसने राजस्व-नीति तथा व्यस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। उसकी नीति दो मुख्य सिद्धान्तों पर आधारित थी-

  1. राज्य की आय में अधिक से अधिक वृद्धि करना, और
  2. लोगों को आर्थिक अभाव की दशा में रखना जिससे वे विद्रोह तथा आज्ञोल्लंघन का विचार भी न कर सकें। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए उसने निम्नलिखित उपाय कियेः

सबसे पहले उसने मुसलमान अमीरों की तथा मिल्क (स्वामत्व अधिकार), इनाम (निःशुल्क भेंट), इद्रात (पेंशन) और वक्फ (धर्मस्व) के रूप में धर्म के नाम पर दी गयी भूमि को जब्त कर लिया। उपर्युक्त प्रकार की अधिकतर भूमि पर राज्य ने अधिकार कर लिया, किन्तु कुछ माफीदार पूर्ववत अपने अधिकारों का उपभोग करते रहे। दूसरे, हिन्दू, मुकद्दम, खुत, चौधरी आदि राजस्व पदाधिकारियों को जो विशेषाधिकार मिले हुए थे, उनसे छीन लिये गये और अब उन्हें भी अन्य लोगों की भाँति अपनी भूमि पर राजस्व तथा मकान और चरागाह कर देने पड़ते थें तीसरे उसने राजस्व की दर उपज का 1/2 भाग निर्धारित की। चौथे, उसने भू-राजस्व तथा अन्य प्रचलित करों के अतिरिक्त किसानों पर मकान-कर तथा चरागाह कर भी लगाये और जजिया, बहिःशुल्क और जकात पूर्व सुल्तानों के युग की भाँति लगे रहे। पाँचवे उसने भूमि की वास्तविक उपज जानने के लिए भूमि की नाप करने की परिपाटी प्रचलित की और पटवारियों के अभिलेखों की जाँच करवायी जिससे कि राजस्व-विभाग लगान निर्धारित करने के लिए सही जानकारी प्राप्त कर सके। छठे, सब प्रकार का राजस्व कठोरता से वसूल करने के लिए सही जानकारी प्राप्त कर सके। छठे, सब प्रकार का राजस्व कठोरता से वसूल करने के लिए उसने एक सुयोग्य विभाग का निर्माण किया और फसल की प्राकृतिक अथवा अन्य किसी प्रकार की हानि होने पर राजस्व में छूट करने का नियम नहीं रखा। यद्यपि नाप की परिपाटी सल्तनत के सब प्रान्तों में प्रचलत नहीं की जा सकी, किन्तु सुल्तानों की नीति का मुख्य उद्देश्य राजस्व में पर्याप्त वृद्धि करना तथा कर का बोझ किसान जमींदार, व्यापारी, दुकानदार आदि सभी वर्गों पर डालना था।

अलाउद्दीन की नीति अत्यधिक कठोर तथा अप्रिय थी इसलिए उसके उत्तराधिकारी उसका अनुसरण नहीं कर सके। उसके अनेक कठोर नियम त्याग दिये गये, किन्तु उसके द्वारा निश्चित की गयी लगान की दर में परिवर्तन नहीं किया गया। गियासुद्दीन तुगलक ने अलाउद्दीन की राजस्व-नीति की कठोरता को कुछ कम किया, किन्तु राज्य-कर की दर किसी प्रकार से नहीं घटायी और वह पूर्ववत् उपज का 1/2 कायम रही। पहले, उसने फसल को प्राकृतिक अथवा अन्य किन्हीं कारणों से हानि होने पर छूट देने के सिद्धान्त को स्वीकार किया और उचित अनुपात में राजस्व की छूट दी। दूसरे, उसने खुत, मुकद्दम और चौधरी लागों को भूमि-कर तथा चरागाह-कर से मुक्त कर दिया। तीसरे, उसने नियम बनाया कि किसी इक्ता में 1 वर्ष में 1/10 अथवा 1/11 से अधिक राजस्व में वृद्धि न की जाय। किन्तु गियासुद्दीन की राजस्व-नीति में दो मुख्य दोष थे। एक तो उसने भूमि की नाप कराने की परिपाटी त्याग दी और पूर्ववत अनुमति से राजस्व निर्धाथत करने की नीति को अपनाया। दूसरे, उसने सैनिक तथा असैनिक पदाधिकारियों को जागीरें देने की प्रथा को पुनः प्रचलित कर दिया।

उसका उत्तराधिकारी मुहम्मद तुगलक सल्तनत के राजस्व-शासन को सुव्यवस्थित करने का इच्छुक था। उसकी आज्ञानुसार राजस्व विभाग ने सल्तनत की आय और व्यय का विस्तृत लेखा तैयार करना आरम्भ किया, जिससे समस्त राज्य में एक-सी राजस्व-व्यवस्था स्थापित की जा सके और कोई गाँव भूमि-कर से न बच सके। किन्तु यह आवश्यक तथा लाभप्रद कार्य अधूरा ही रह गया। उसका दूसरा प्रयोग गंगा-यमुना दोआब में भूमिकर को छोड़कर अन्य करों की दरों में वृद्धि करना था जबकि भूमि-कर की दर पहले की भाँति 50 प्रतिशत ही कायम रही। रैय्यत ने इस नीति के विरुद्ध घोर असन्तोष प्रकट किया किन्तु सुल्तान ने बढ़े हुए करों को वसूल करना जारी रखा। अनावृष्टि के कारण दुर्भिक्ष पड़ गया जिसकी भी उसने चिन्ता नहीं की। परिणामस्वरूप भयंकर विद्रोह उठ खड़ा हुआ, किन्तु सुल्तान ने अपने अध्यादेश को वापस नहीं लिया। बाद में उसने तकावी बाँटी और सिंचाई के लिए कुएँ भी खुदवाये किन्तु तब तक बहुत देर हो चुकी थी। अतः दो आब का सम्पूर्ण प्रदेश बरबाद हो गया। सुल्तान का एक अन्य सुधार था; कृषि विभाग की स्थापना करना जिसे दीवाने-कोही कहते थे। इसका उद्देश्य कृषि के क्षेत्र में विस्तार करना था, किन्तु यह योजना भी निष्फल रही।

1351ई० में फीरोज तुगलक के सिंहासन पर बैठने के समय से दिल्ली सल्तनत की कृषि नीति का एक नया युग आरम्भ हुआ। उसने राजस्व सम्बन्धी विषयों की ओर ध्यान दिया और जनता की भौतिक अभिवृद्धि के लिए हृदय से प्रयत्न किया। सबसे पहले उसने प्रजा के उन कष्टों को दूर करने का प्रयत्न किया जो मुहम्मद तुगलक के सुधारों के कारण हुए थे। उसने तकावी ऋण माफ कर दिया, राजस्व विभाग के पदाधिकारियों के वेतन बढ़ा दिये और उन शारीरिक यातनाओं को बन्द कर दिया जो सूबेदारों और राजस्व पदाधिकारियों को भुगतनी पड़ती थी। इसके अतिरिक्त उसने राजस्व सम्बन्धी लेखों की बड़ी सावधानी और परिश्रम से जाँच करवायी और समस्त खालसा भूमि का राजस्व स्थायी रूप से निश्चित कर दिया। तीसरे, उसने 24 कष्टप्रद कर दिये जिनमें घृणित मकान-कर तथा चरागाह-कर भी सम्मिलित थे। कुरान-विहित केवल पाँच कर-खराज, खम्स, जजिया, जकात तथा सिंचाई-कर कायम रखे। चौथे उसने खेती की सिंचाई के लिए पाँच नहरों का निर्माण कराया और अनेक कुएँ खुदवाये। पाँचवे, उसने गन्ना, तिलहन, अफीम आदि उत्तम फसलों की कृषि को प्रोत्साहन दिया। छठे, उसने अनेक बाग लगवाये और फलों के उत्पादन को बढ़ाने का प्रयत्न किया। इन सुधारों से राज्य की आय में बहुत वृद्धि हुई और सामान्य जनता की आर्थिक दशा में उन्नति हुई।

किन्तु फीरोज की राजस्व-व्यवस्था में तीन भयंकर दोष थे-

  1. भू-राजस्व को ठेके पर उठाने के सिद्धान्त को पुनः लागू करना,
  2. भू-राजस्व के रूप में वेतन देना और तत्सम्बन्धी पदों को बेचने की आज्ञा देना, तथा
  3. जजिया के क्षेत्र में वृद्धि करना और कठोरता से उसको वसूल करना।

यद्यपि फीरोज तुगलक के राजस्व सम्बन्धी न्यायपूर्ण तथा उदार नियम उसके उत्तराधिकारियों के दुर्बल शासनकाल में और तैमूर के आक्रमण के उपरान्त अव्यवस्था के युग में त्याग दिये गये, फिर भी परवर्ती तुगलक तथा सैय्यद सुल्तान उनके मूल तत्वों का अनुसरण करते रहे। जब लोदियों के हाथों में राजशक्ति आयी तो उन्होंने अपने राज्य की समस्त भूमि महत्वपूर्ण अफगान परिवारों में बाँट दी। खालसा भूमि का क्षेत्र तथा महत्व बहुत कम हो गया। सिकन्दर लोदी ने भूमि की नाप करने की परिपाटी पुनः प्रचलित करने का प्रयत्न किया अन्यथा उसने राजस्व नियमों तथा उपनियमों में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं किया।

दिल्ली सुल्तानों की राजस्व-दर के सम्बन्ध में विद्वानों में वाद-विवाद चला करता है। एक आधुनिक विद्वान लिखता है कि इस युग के अधिकतर काल में लगान की दर उपज का 1/5 रही। यह मत अनुमान पर आधारित है और गलत प्रतीत होता है। पक्के मुसलमान विधिविज्ञों द्वारा निर्धारित इस्लामी कानून के अनुसार खराज की दर उपज के 1/10 से 1/2 तक होनी चाहिए। जैसा कि हमें ज्ञात है, प्रत्येक इस्लामी देश में और भारत में भी मुसलमान राज्य किसानों से उपज का 1/10 वसूल करता था, यदि वे अपने खेतों को राजकीय नहरों, तालाबों और कुओं से नहीं खींचते थे। यदि अपने खेतों की सिंचाई के लिए सरकारी नहरों और कुओं के पानी का प्रयोग करते तो उन्हें सिंचाई-कर भी देना पड़ता था। यह भी निश्चित है कि सम्पूर्ण सल्तनत-युग में हिन्दू व्यापारियों को व्यापार-कर मुसलमानों से दूना देना पड़ता था। इससे यह परिणाम निकालना युक्तिसंगत ही है कि हिन्दू किसानों को मुसलमानों से दूना भूमि-कर देना पड़ता होगा अर्थात हिन्दू किसानों के लिए भूमि-कर की दर उपज का 1/5 रही होगी। यदि इस नियम का पालन भी किया गया होगा तो केवल तथाकथित गुलाम सुल्तानों के समय में। अलाउद्दीन खलजी ने लगान की दर बढ़ाकर उपज का 1/2 कर दी थी और दिल्ली के सिंहासन पर बैठने वाले उसके सभी उत्तराधिकारी सल्तनत के अन्त तक इसी दर से भूमि-दर वसूल करते रहे। आधुनिक अनुसन्धानों ने सिद्ध कर दिया है कि शेरशाह उपज का एक-तिहाई वसूल करता था और उसके समय में यह दर उचित तथा न्यायपूर्ण मानी जाती थी और आगे चलकर अकबर महान ने भी इसी को अपना लिया था। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए प्रतीत होता है कि सम्भवतः गुलाम सुल्तानों के समय में भी उपज का एक-तिहाई भूमि-कर के रूप में लिया जाता था। इस युग में भूमि-कर को छोड़कर किसानों पर अन्य अनेक कर भी लगाये जाते थे। तत्कालीन इतिहासकर लिखते हैं कि कुतुबुद्दीन ऐबक ने उन सब करों को हटा दिया था जो इस्लामी कानूनों के विरुद्ध थे, किन्तु उसके बाद के सुल्तानों को वे कर बार-बार फिर हटाने पड़े। इससे स्पष्ट है कि दिल्ली सल्तनत के सम्पूर्ण युग में किसानों को भू-राजस्व के अतिरिक्त अन्य कर भी देने पड़ते थे। यह प्रश्न निरर्थक है कि इन करों को जारी रखने का उत्तरदायित्व किस पर था और उनसे होने वाली आय राजकोष में जमा होती थी अथवा भ्रष्ट राजस्व पदाधिकारी, सूबेदार और मन्त्री उसे हड़प लेते थे। ऊपर जो कुछ हम कह आये हैं, उससे यह सिद्ध होता है कि किसानों को अपनी कमाई का एक-तिहाई से अधिक उपभोग करने दिया जाता था।

व्यय की मुख्य मदें थी-

सुल्तान का परिवार, सैनिक तथा असैनिक-सेवाएँ, धर्मस्व तथा दान, युद्ध और विद्रोह, खलीफा को बहुमूल्य भेटें तथा भारत के बाहर धार्मिक स्थानों के लिए दान।

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