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सिंधु घाटी निवासियों का आर्थिक जीवन

सिंधु घाटी निवासियों का आर्थिक जीवन

सिंधु-सभ्यता का आर्थिक जीवन कृषि, पशुपालन, विभिन्न प्रकार के उद्योग- धंधों तथा व्यापार-वाणिज्य पर आश्रित था। किसान अपनी आवश्यकता से अधिक अनाज पैदा करते थे। इसी अतिरिक्त उत्पादन के आधार पर कारीगर, व्यापारी, प्रशासनिक अधिकारी एवं धर्माधिकारी नगरों में निवास करते थे।

कृषि

सिंधु-सभ्यता की आर्थिक व्यवस्था यद्यपि मूलतः उद्योग-धंधों एवं व्यापार-प्रधान थी, तथापि साथ-साथ कृषि पर भी ध्यान दिया गया। प्राचीन काल में सिंध-प्रदेश आज की अपेक्षा अधिक उर्वर था। अधिक वर्षा एवं नदियों द्वारा लाई गई जलोढ़ मिट्टी इस क्षेत्र की उर्वरता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध होती थी। फलतः, बिना सिंचाई की विशेष व्यवस्था किए ही उपज बहुत अधिक होती थी। सिंचाई के लिए नहरों का प्रमाण नहीं मिलता, लेकिन गड्ढों (gabardans) का प्रमाण मिलता है, जिसमें जल संचित कर रखा जाता था। इनसे सिंचाई का काम लिया जाता होगा। इस सभ्यता में कृषि में व्यवहार किए जाने वाले उपकरणों के विषय में निश्चित जानकारी नहीं है, परंतु सम्भवतः जमीन को फावड़ों या हलों की सहायता से जोता जाता था। कालीबंगा में प्राक्-हड़प्पा संस्कृति के दौरान हलों द्वारा खेतों के जोतने का प्रमाण मिलता है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि इस सभ्यता के दौरान भी राजस्थान में हलों द्वारा खेती होती थी। ये हल सम्भवतः लकड़ी के बने थे, परन्तु यह निश्चित करना कठिन है कि हल खींचने के लिए पशुओं का उपयोग होता था या नहीं। फसल काटने के लिए पत्थर या काँसे के हँसियों का व्यवहार सम्भवतः होता होगा। फसलों को पीटकर अनाज को डंठलों से अलग किया जाता था। अनाज कूटने के लिए ओखली एवं मूसल का प्रयोग होता था। यद्यपि लोथल से पत्थर की चकियाँ भी मिली हैं, तथापि इनकी प्राचीनता संदिग्ध है।

सिंधुवासी विभिन्न प्रकार के अनाज, फल एवं सब्जियाँ उपजाया करते थे। गेहूँ की तीन और जौ की दो प्रजातियाँ उपजाई जाती थीं। इसके अतिरिक्त तिल, सरसों, राई और मटर की भी खेती होती थी। सिंधुघाटी में धान की खेती का प्रमाण नहीं मिलता, परन्तु लोथल और रंगपुर से प्राप्त मिट्टी के कुछ बरतनों में धान की भूसी पाई गई है। इससे अंदाज लगता है कि इन क्षेत्रों में हड़प्पा संस्कृतिवाले धान की भी खेती करते थे। कपास की खेती के भी प्रमाण मिले हैं। अनाज के अतिरिक्त खजूर, तरबूज, नारियल, नींबू, अनार आदि फल तथा अनेक प्रकार की सब्जियाँ उगाई जाती थीं। अतिरिक्त अनाज राज्य द्वारा नियंत्रित गोदामों में सुरक्षित रखा जाता था। कृषक अपने घरों में भी अनाज बड़े-बड़े गड्ढों में सुरक्षित रखते थे। अनाज को चूहों से बचाने की व्यवस्था की गई थी। खुदाइयों में मिट्टी की बनी चूहेदानियाँ मिली हैं।

पशुपालन

कृषि के साथ-साथ पशुपालन पर भी ध्यान दिया जाता था। पशुओं से दूध, मांस, ऊन इत्यादि तो मिलते ही थे, साथ ही उनका उपयोग बोझ ढोने एवं गाड़ी खींचने में भी होता था। मिट्टी के बरतनों पर बने चित्रों, मुहरों एवं अस्थि-अवशेषों के आधार पर हम तत्कालीन पालतू पशुओं के विषय में जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। सूअर, भेड़, बकरी, गाय से उन्हें दूध, ऊन एवं मांस प्राप्त होता था। बड़े जानवरों से, जैसे- कूबड़वाले बैल, भैंस, गदहा, ऊँट और हाथी से बोझ ढोने या गाड़ी खिंचवाने का काम लिया जाता था। कुत्तों और बिल्लियों को लोग घरों में सुरक्षा के ख्याल से रखते थे। कुत्तों से शिकार करने में भी सहायता मिलती होगी। इनके अतिरिक्त, कुछ जंगली जानवरों यथा बाघ, सिंह, गैंडे आदि से भी वे परिचित थे। घोड़े के अस्तित्व का भी संदिग्ध प्रमाण राणा धुंडई, मोहनजोदाड़ो, लोथल, सुरकोटड़ा आदि जगहों से मिलता है। इससे पता चलता है कि घोड़े की जानकारी तो सिंधुवासियों को थी, परन्तु इसके उपयोग से अभी वे अपरिचित थे। उन्हें मोर, बत्तख, मुर्गा और खरगोश की भी जानकारी थी। इन पशु-पक्षियों का आर्थिक जीवन में महत्वपूर्ण स्थान था। आखेट करना एवं मछली पकड़ना भी उनके आर्थिक जीवन में सम्मिलित था।

शिल्प एवं व्यवसाय

सिन्धु-सभ्यता के निवासियों ने विभिन्न प्रकार के उद्योग-धंधों का भी विकास किया, जो उनकी नागरिक अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार था। इसके कारण वे विभिन्न व्यवसायों में दक्ष बन गए। उनके व्यवसायों में वस्त्र बुनना, मिट्टी के बरतन बनाना, आभूषण बनाना, लकड़ी के सामान तैयार करना, ईंट एवं खिलौने बनाना, धातु का काम करना, सूत कातना एवं कपड़े बुनना, मुहर एवं गुड़िया या मनके (beads) बनाना, पत्थर एवं धातु के औजार, उपकरण और मूर्तियाँ तैयार करना प्रमुख है।

कुंभकार का व्यवसाय

सिन्धु-सभ्यता के आर्थिक जीवन में कुंभकारों ने महत्वपूर्ण भूमिका निबाही। वे भवनों के लिए ईंट तो तैयार करते ही थे, साथ ही अनाज एवं खाने-पीने की अन्य वस्तुओं को सुरक्षित रखने के लिए, भोजन पकाने तथा खाने के लिए बरतन, खिलौने, मटके, गरीबों के लिए मिट्टी के आभूषण इत्यादि बनाया करते थे। चाक की सहायता से विभिन्न आकार-प्रकार के बरतन बनाए जाते थे। बरतनों को पकाने, उन्हें रंगने, उन्हें चमकदार बनाने (शीशा की सहायता से) तथा उनपर चित्र बनाने की कला से कुंभकार परिचित थे। बरतनों में घड़े, हाँड़ियाँ, प्याले, थाली, सुराहियाँ और बड़े-बड़े नाद प्रमुख हैं। मिट्टी की बनी कुछ खानेदार थालियँ (tray) भी मिली है। साथ ही, मिट्टी की चूहेदानियाँ भी मिली है। बरतनों को रंगकर (काला) उनपर चित्र भी बनाए जाते थे। चित्रों में सबसे प्रमुख केन्द्र के कई वृत्तों की रचना, त्रिकोणनुमा डिजाइन, पशु-पक्षियों, वृक्षों एवं प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण है। कुछ बहुरंगे बरतनों के भी प्रमाण मिलते हैं, परन्तु वे अपवादस्वरूप हैं। बरतन के अतिरिक्त पशु-पक्षियों की आकृतिवाले मिट्टी के खिलौने, खिलौनागाड़ियाँ एवं मिट्टी की बनी मूर्तियाँ भी बहुत अधिक संख्या में मिली हैं। इनको देखने से कुंभकारों की दक्षता का पता चलता है।

धातुगिरि

सिंधु-सभ्यतावाले अनेक धातुओं के प्रयोग से परिचित थे। वे टीन और ताँबे को मिलाकर काँसा तैयार करने की विधि से परिचित थे। इनसे बरतन, औजार एवं हथियार बनाए जाते थे। इनमें काँसे की बनी सुराही, कटोरा, तवा, लंबी एवं छोटी कुल्हाड़ियाँ, आरा और मछली पकड़ने का काँटा प्रमुख हैं। ताँबे की बनी तलवारें और छुरे भी पाए गए हैं। खुदाइयों से अनेक ताम्रपत्र भी प्रकाश में आए हैं, जिनपर एक तरफ पशुओं एवं मानवों की आकृतियाँ तथा दूसरी तरफ कुछ लेख उत्कीर्ण हैं। इनका उपयोग निश्चित नहीं है, परन्तु संभवतः उनका व्यवहार संकेत के रूप में व्यापार में होता था। सिन्धुवासियों को लोहे का ज्ञान तो नहीं था, परन्तु सोने-चांदी के आभूषण बनाए जाते थे। इनमें गले का हार, इयरिंग, कंगन आदि मुख्य हैं। लोथल से प्राप्त एक कंठहार जो अनेक सुवर्ण मनकों से बना है, कारीगरी का अनूठा नमूना है। धातु की बनी कुछ मूर्तियाँ भी मिली हैं। इनमें सबसे प्रसिद्ध मोहनजोदड़ों से प्राप्त काँसे की बनी ‘नर्तकी की मूर्ति’ है। यहाँ से काँसे की कुछ पशु-आकृति भी मिली हैं। लोथल से प्राप्त ताँबे का कुत्ता कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। हड़प्पा से ताँबे की इक्कागाड़ी तथा चन्हुदाड़ो से ताँबे की बनी दो गाड़ियों की अनुकृतियाँ भी प्राप्त हुई है।

पत्थर का काम

कांस्ययुग की सभ्यता होने के बावजूद पत्थर के सामान भी इस समय बनाए गए। यद्यपि सिंधुप्रदेश में पत्थर का अभाव था, फिर भी अन्य क्षेत्रों से अर्द्धबहुमूल्य पत्थर मँगवाकर उनके मनके, आभूषण बनवाए जाते थे। पत्थरों से बरतन, मूर्तियाँ एवं उपकरण भी बनाए जाते थे। हड़प्पा बनी नर्तक की मूर्ति तथा मोहनजोदाड़ो से योगी या पुजारी की मूर्ति मिली है। मिट्टी के खिलौनों की अपेक्षा पत्थर के खिलौनों की संख्या कम है, परन्तु पत्थर के बने बाट-बटखरे बहुत अधिक संख्या में मिले हैं।

बढ़ईगिरी

बढ़ई का उद्योग भी विकसित अवस्था में था। बढ़ई लकड़ी से मकानों के दरवाजे, फर्नीचर; जैसे, बेंच, कुर्सियाँ, तिपाइयाँ, पलंग इत्यादि बनाते थे। वे यातायात और व्यापार की सुविधा के लिए बैलगाड़ियाँ तथा नाव भी बनाते थे।

वस्त्र-उद्योग

सिन्धु-सभ्यतावाले सूत कातने, वस्त्र बुनने, उन्हें सीने, रँगने एवं उनपर कशीदा करने की क्षमता भी रखते थे। कपास की खेती पर क्षेत्र में बड़े पैमाने पर होती थी, इसलिए वस्त्र-उद्योग को बहुत अधिक बढ़ावा मिला। सूती के अतिरिक्त ऊनी वस्त्र भी तैयार किए जाते थे। उत्खननों के दौरान वस्त्र उद्योग के प्रचलन का प्रमाण प्राप्त हुआ है। उदाहरणस्वरूप, मोहनजोदाड़ो, कालीबंगा, लोथल, रंगपुर, आलमगीरपुर से सूती वस्त्र के प्रमाण मिले हैं। सूत कातने के तकुए एवं वस्त्र बुनने वाली चरखियाँ भी मिली हैं। वस्त्रों की सिलाई धातु की सूइयों की मदद से की जाती थी। वस्त्रों को सुन्दर बनाने के लिए उन्हें रँगकर उन पर कशीदाकारी भी की जाती थी। इससे स्पष्ट हो जाता है कि वस्त्र-उद्योग एक महत्वपूर्ण व्यवसाय था। इसके चलते जुलाहों, दर्जियों और रँगरेजों का व्यवसाय प्रचलन में आया।

गुड़िया एवं मुहर बनाना

कारीगरों का एक विशिष्ट वर्ग पत्थर, अर्द्धबहुमूल्य पत्थर, धातु की गुड़िया या मनके (beads) भी बनाता था। खुदाइयों से अनेक मनके मिले हैं। इनका उपयोग खिलौनों एवं आभूषणों के रूप में होता था। हाथीदाँत, सीप, घोंघ एवं मिट्टी के भी मनके बनते थे।चन्हदाड़ो में संभवतः मनके बनाने का एक कारखाना भी था। मुहर बनाने की कला भी एक व्यवसाय का रूप ले चुकी थी। ये मुहरें पत्थरों, हाथीदाँत, धातुओं तथा मिट्टी की बनी हैं। इनके विभिन्न आकार-प्रकार हैं तथा उन पर मानव एवं पशु-पक्षियों की आकृतियाँ तथा लेख उत्कीर्ण हैं। दो हजार से भी अधिक मुहर खुदाइयों से प्राप्त हुए है।

अन्य विविध उद्योग-धंधे एवं व्यवसाय

उपर्युक्त व्यवसायों के अतिरिक्त जौहरी, नाविक, चिकित्सक, मकान बनाने वाले और मछुआरों का व्यवसाय भी बहुत अधिक विकसित थे। हाथीदांत से प्रसाधन की सामग्री; जैसे कंघी तथा अन्य उपयोगी समान तैयार किए जाते थे। इस तरह व्यवसाय और उद्योग-धंधों का सिंधु-सभ्यता में समुचित विकास हुआ।

व्यापार-वाणिज्य

उद्योग-धंधे में लगे कारीगरों को कच्चा माल उपलब्ध कराने के लिए तथा उनके द्वारा तैयार की गई वस्तुओं को बाजार में पहुँचाने के लिए व्यापार का विकास हुआ। सिंधुवासी भारत के विभिन्न भागों से तथा विदेशों से भी व्यापार करते थे। पुरातात्विक अन्वेषणों से सिन्धु-सभ्यता के व्यापार का प्रमाण मिलता है। चाँदी ईरान और अफगानिस्तान से, सोना दक्षिण भारत (मैसूर) से, ताँबा राजस्थान, बलूचिस्तान तथा अरब देश से, टीन अफगानिस्तान, ईरान, तथा राजस्थान से, अर्द्धबहुमूल्य पत्थर, जैसे-लाजवर्त, गोमेद, पन्ना, मूंगा इत्यादि अफगानिस्तान, ईरान, महाराष्ट्र, सौराष्ट्र, राजस्थान और कश्मीर से मँगवाया जाता था। इनके बदले में सिंधुवासी अपने यहाँ का तैयार सामान भेजा करते थे। मेसोपोटामिया, मिस्र तथा मध्य एशिया के साथ सिंधुघाटी का व्यापारिक संबंध था। इसका प्रमाण सिंधु-सभ्यता में बनी मुहरों के मेसोपोटामिया में मिलने तथा मेसोपोटामिया की मुहरों के सिंधुघाटी में मिलने से मिलता है। सीरिया (रास समरा), ईरान (सूसा) और तुर्कमेनिस्तान में सिंधु-सभ्यता की बनी वस्तुएँ (हाथीदाँत की छड़ें, मुहर, मनके, बरतन इत्यादि) पाई गई हैं। इसी प्रकार सुमेर स प्राप्त एक कपड़े के टुकड़े पर सिंधुघाटी की मुहर लगी पाई गई है। मेसोपोटामिया (सुमेर) के अभिलेखों में इस बात की चर्चा की गई कि ऊर (Ur) नगर के व्यापारी मेलुहा (सिंधु-प्रदेश या सौराष्ट्र) से व्यापार करते थे। ऊर और मेलुहा के बीच दिलमुन या तिलमुन (Dilmun or Tilmun) तथा मकान या मगान (Makan or Magan) दो प्रमुख व्यापारिक स्थल थे। ये संभवतः फारस की खाड़ी में स्थित बहरीन और ओमन या बलूचिस्तान के नाम है। लोथल से भी समुद्री मार्ग द्वारा व्यापार होता था।

सिंधु-सभ्यता का व्यापार विनिमय पर आधृत था, क्योंकि उत्खननों से मुद्रा के प्रचलन का प्रमाण नहीं मिलता है। व्यापारियों की मुहरें होती थीं जिनका प्रयोग हुंडी के रूप में होता था। इससे व्यापारियों के एक सुगठित वर्ग की सहज ही कल्पना की जा सकती है। आवागमन के साधनों में गाड़ियों, मालवाहक पशुओं, नावों तथा जहाजों का व्यवहार होता था। कुछ मुहरों पर मस्तूलवाले जहाजों की अनुकृतियाँ देखने को मिलती हैं। आंतरिक व्यापार के लिए सड़कों का भी निर्माण नगरों में किया गया था। सड़कों के किनारे दूकानों की व्यवस्था की गई थी।

इस प्रकार, सिंधु-सभ्यता में आर्थिक जीवन के विभिन्न पहलुओं का समुचित विकास हुआ। इसने सिंधु-सभ्यता के नागरिक स्वरूप को संवारने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

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