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वैदिक काल में आर्यों की धार्मिक व्यवस्था

आर्यों की धर्म व्यवस्था (वैदिक काल में)

वैदिक काल में आर्यों की धर्म व्यवस्था

ऋग्वैदिक धार्मिक जीवन तथा मान्यताएँ भौतिक जीवन से प्रभावित थीं। अतः, इस क्षेत्र में भी कबिलाई प्रभाव दिखाई देते हैं। ऋग्वेद में ऋत की अवधारणा देखी जाती है। इस शब्द की व्याख्या विभिन्न विद्वानों ने भिन्न प्रकार से की है। इसे ‘सृष्टि की नियमितता’, ‘भौतिक एवं नैतिक व्यवस्था’, ‘अंतरिक्षीय एवं नैतिक व्यवस्था’ के रूप में माना गया हैं। ऋत को नैतिक व्यवस्था, देवताओं का नियामक माना गया है। विष्णु, मरुत उषा यहाँ तक कि संपूर्ण विश्व को ऋत पर आधारित माना गया है। इसी के द्वारा लोगों को भौतिक समृद्धि एवं जीवनयापन के अन्य साधन प्राप्त होते थे। वरुण को ऋतस्य गोपा कहा गया है। उसके आदेश के उल्लंघन पर आक्रोश दिखलाया गया है। ऋत की रक्षा और स्थापना पासा खेल कर होती थीं। इससे अंदाज लगता है कि ऋग्वेद में यह अवधारणा प्रचलित थी कि संपत्ति की सामूहिकता द्वारा न्याय एवं ऋत की स्थापना होती है। वस्तुतः “ऋग्वेद में ऋत की अवधारणा तत्कालीन प्राक-वर्गीय समाज और कबायली जीवन के अनुरूप थी और जब कालांतर में समाज वर्णों एवं वर्गों में विभाजित हो गया और लोगों में लालच, ईर्ष्या, स्वार्थ या लूट की भावना ने घर कर लिया तो ऋत का हास हो गया-तभी वरुण की महत्ता का भी पतन हुआ।”

ऋग्वैदिक आर्य प्रकृति-पूजक एवं बहुदेववादी थे। प्रकृति की जिन शक्तियों से आर्य प्रभावित या भयभीत थे, उनकी पूजा वे करते थे। ऐसे 33 देवताओं का उल्लेख मिलता है। इनको तीन श्रेणियों में विभक्त किया सकता है- पृथ्वी के प्रतीक देवता (पृथ्वी, अग्नि, सोम, बृहस्पति इत्यादि) और आकाशीय देवता या स्वर्गस्थ- वरुण, मित्र, सूर्य, उषा, सविता, अश्विन इत्यादि)। इन देवताओं में सर्वोच्च स्थान युद्ध के देवता इंद्र को दिया गया है। इसकी स्तुति के लिए लगभग 250 मंत्रों की रचना की गई। इंद्र को वर्षा एवं प्रकाश का भी देवता माना जाता था। वरुण शक्ति, नैतिकता एवं न्याय का देवता था। मित्र वरुण का सहयोगी था। अग्नि भी एक प्रमुख देवता था, जिसके सम्मान में 200 मंत्रों या ऋचाओं की रचना हुई। वह देवताओं और मानवों के बीच संपर्क का काम करता था। उसी के द्वारा देवता अपना आहार प्राप्त करते थे। सोम वनस्पति का देवता था और सूर्य प्रकाश का। मरुत तूफान का देवता था और पूषन् पशुओं का। देवियों में प्रमुख अदिति एवं उषा थीं; परन्तु देवताओं की अपेक्षा देवियों की संख्या और उनका महत्व कम था। समाज में पितृसत्तात्मक तत्वों के प्रधान होने की वजह से ही देवियों को अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण स्थान मिला। देवताओं के अतिरिक्त प्रकृति की विभिन्न शक्तियों एवं लोकों का प्रतिनिधित्व करने वाले, जैसे भूत-प्रेत, राक्षस, अप्सरा, पिशाच आदि का भी उल्लेख मिलता है। “अज, शिगू, काश्यप, गौतम, मत्स्य’ आदि जाति एवं व्यक्तियों के नामों से गणचिन्हात्मक (टोटम-संबंधी) आस्थाओं के प्रचलन का आभास मिलता है। ऋग्वैदिक धार्मिक जीवन की एक विशेषता यह भी है कि बहुदेववाद के बावजूद ऋग्वेद के उत्तरार्द्ध में एकेश्वरवाद की प्रवृत्ति भी देखने को मिलती है। विभिन्न देवताओं को समय-समय पर सर्वोच्च प्रमाणित करने की कोशिश की जा रही थी। इसी का परिणाम था कि इंद्र-मित्र, वरुण-अग्नि जैसे युगल देवता बने। एकेश्वरवाद की इस अवधारणा के पीछे संभवतः कबायली व्यवस्था में आया दरार एवं तनाव उत्तरदायी था।

देवताओं और पारलौकिक शक्तियों को प्रसन्न कर उनसे अनुग्रह प्राप्त करने एवं उनके प्रकोप से बचने के लिए आर्य विभिन्न उपाय करते थे। देवताओं को प्रसन्न करने के लिए मंत्रों का उच्चारण कर उनकी स्तुति की जाती थी तथा यज्ञाहुति दी जाती थी। समवेत स्वरों में या अकेले स्तुति गान होता थ। देवताओं से मोक्ष की नहीं, बल्कि ‘शतवर्षीय आयु, पुत्र, धन-धान्य और विजय’ की कामना की जाती थी। देवताओं का प्रसन्न करने के लिए यज्ञ भी किए जाते थे। यज्ञ भी व्यक्तिगत और सामूहिक तौर पर होते थे। इन यज्ञों में घी, दूध, धान्य, मांस आदि की आहुति दी जाती थी। यज्ञ पुरोहितों की सहायता से होते थे, जिनके बदले उन्हें दान-दक्षिणा मिलती थी। दक्षिणा में गाय एवं सोना के साथ दास-दासी भी दिए जाते थे। इस समय के प्रमुख यज्ञों में ब्राह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ तथा अनेक प्रकार के नमित्तिक यज्ञ (निश्चित उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, जैसे पुत्रकामेष्टि यज्ञ, आयुष्कामेष्टि यज्ञ, लोकेष्टि यज्ञ इत्यादि) प्रमुख है। ऋग्वेद में नरबलि के एक उदाहरण (शुनःशेप का) के अतिरिक्त इसका अन्य उल्लेख नहीं मिलता, लेकिन यज्ञों में पशुओं की बलि अवश्य जाती थी। यज्ञों के साथ पारलौकिक शक्तियों के प्रकोप से बचने के लिए जादू-मंतर, टोने-टोटके आदि का भी प्रयोग आर्य करते थे। आर्यों के देवता मानवोचित गुणों से संपन्न थे। उन्हें दयावान और मानवजाति का शुभेच्छु माना जाता था। आर्य जीवन के अमरत्व में विश्वास करते थे, परन्तु उन्होंने मोक्ष की प्राप्ति का कोई प्रयास नहीं किया। मन्दिरों या मूर्तिपूजा का प्रमाण नहीं मिलता।

इस प्रकार, हम देखते हैं कि ऋग्वैदिक युग में आर्यों की सभ्यता कबीलाई स्वरूप की थी। चाहे राजनीतिक व्यवस्था हो, चाहे सामाजिक, आर्थिक या धार्मिक जीवन हो, सर्वत्र कबीलाई तत्व प्रमुख रूप से पाए जाते हैं। वस्तुतः, यह आर्य-सभ्यता का रचनात्मक काल था। इसी काल में सभ्यता के उन मूल तत्वों की स्थापना हुई, जिनका विकास हम उत्तर-वैदिक काल में देखते हैं।

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