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जवाहरलाल नेहरू पर निबंध

जवाहरलाल नेहरू पर निबंध

जवाहरलाल नेहरू 

नेहरू ने पहले आजादी की लड़ाई का सफल नेतृत्व किया और तब अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में स्वतन्त्र भारत का हर क्षेत्र में कुशल मार्गदर्शन किया। 27 मई, 1964 को उनके निधन के साथ ही भारत में एक युग की समाप्ति हुई जिसे ‘नेहरू युग’ कहा जा सकता है। नेहरू आजीवन भारत के नव-निर्माण में लगे रहे। अपने जीवन के प्रत्येक क्षण में वे भारत की प्रगति, वैज्ञानिक और तकनीकी उन्नति, लोकतान्त्रिक, समाजवाद, धर्म-निरपेक्षवाद और स्वतन्त्र विदेश नीति तथा अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति की स्थापना के लिए जूझते रहे। नेहरू एक राष्ट्रवादी थे। मानव मात्र के कल्याण की इच्छा रखने के नाते उन्होंने सदैव विश्व बन्धुत्व, सहयोग, शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व, राष्ट्रीय स्वतन्त्रता और सम्प्रभुता, असंलग्नता, निःशस्त्रीकरण तथा अणुशक्ति के शान्तिपूर्ण रचनात्मक प्रयोग का समर्थन किया। उन्होंने इन बातों के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक दोनों पक्षों पर बल दिया। उन्होंने विश्व-संस्था संयुक्त राष्ट्र संघ का समर्थन किया और मानवता के कल्याण का मूल-मन्त्र दुनियों के सामने रखा। उनकी मानवता के प्रति सेवा और विरासत का मूल्यांकन करते हुए भारतीय गजट में ठीक ही कहा गया था-राष्ट्रपिता (महात्मा गाँधी) के देहान्त के बाद यह राष्ट्र के लिए महान् शक्ति थी । श्री जवाहरलाल नेहरू आधुनिक भारत के मुख्य शिल्पी थे। उनका सम्पूर्ण जीवन न केवल राष्ट्रीय स्वतनत्रता, एकता और स्थायित्व के आदर्शों के लिए, वरन् विश्व-शान्ति और प्रगति के लिए भी समान रूप से अर्पित था।”

पण्डित जवाहरलाल नेहरू का मूल्याँकन प्रस्तुत करते हुए नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय के भूतपूर्व निदेशक श्री बी० आर० नन्दा ने लिखा है-

“हममें से जो लोग 1930 से 1950 बीच पले और बड़े हुए हैं, वे जवाहरलाल नेहरू को भारतीय क्रान्ति के नेता, महात्मा गाँधी के महान् सिपाही, साम्राज्यवाद के कठोर शत्रु, नौजवानों के नायक और जनता की आँखों के तारे के रूप में याद करते हैं। प्रौढ़ावस्था के बाद भी, उनमें नौजवानों की सी स्फूर्ति तथा उत्साह था। क्या कवीन्द्र रवीन्द्र ने उन्हें ‘ऋतुराज’ नहीं कहा था ?”

ब्रिटिश सरकार उनसे नफरत करती थी और उनसे डरती थी, लेकिन काँग्रेस के भी कई पुराने नेता और बाहर के लोग उन्हें खतरनाक उग्रवादी मानते थे। उनकी स्पध्ता और तर्क का महात्मा गाँधी के अन्तर्दर्शी और व्यावहारिक दृष्टिकोण से अक्सर टकराव हो जाता था लेकिन वे दोनों एक-दूसरे के साथ ऐसे सम्बद्ध थे कि राजनीति का कोई भी उतार-चढ़ाव उन्हें अलग नहीं कर सकता था।

गाँधी जी जानते थे कि जवाहरलाल अन्धानुयायी हैं। उनके पास उनके अपने विचार थे। महात्मा गाँधी नेहरू की योग्यताओं और सक्रियता का उपयोग राष्ट्रीय कार्यों में करना चाहते थे और उनका उपयोग उन्होंने नौजवानों के साथ सम्पर्क साधने तथा अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों के भाष्यकार के रूप में किया। नेहरू एक ऐसी शैली में बोलते थे जिससे सारे विश्व के लोग प्रभावित होते थे।

एशिया और अफ्रीका के अनेक युवा बुद्धिजीवी, जिन्होंने बाद में अपने देशों में उपनिवेशवाद-विरोधी क्रान्तियों का नेतृत्व किया, नेहरू की ‘आत्मकथा’ और ‘विश्व-इतिहास की झलकियाँ’ से बहुत प्रभावित हुए और प्रेरणा ग्रहण की। वास्तव में साम्राज्यवाद के विरुद्ध नेहरू की लड़ाई इतनी महत्वपूर्ण थी कि यदि 1947 की गर्मियों में उनकी मृत्यु हो गई होती और उन्होंने कोई पद न सम्भाला होता तो भी इतिहास में उनको एक उँचा स्थान मिलता।

नेहरू जब भारत के प्रधान मन्त्री बने, उनकी आयु 58 वर्ष की थी। उन्होंने लगभग अपना सारा जीवन विरोध में बिताया था और नौ वर्षों तक तो वह जेल में ही रहे, लेकिन इस पर भी वह एक राजनीतिक आन्दोलनकारी से एक राजनीतिज्ञ के रूप में बहुत ही आसानी से बदल गये।

चर्चिल और उनके मित्रों ने अक्सर भारतीय नेताओं को ‘कठपुतली’ कहा था और चेतावनी दी थी कि भारतीय उपमहाद्वीप पर एक बार यदि साम्राज्यवादी पकड़ ढीली कर दी गई तो यह उपमहाद्वीप टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा और 1947 में भारत के बँटवारे के बाद थोड़े समय तक उग्रवाद और खून-खराबे का जो दौर चला, उससे सर्वनाश की भविष्यवाणी करने वालों को शायद अपनी भविष्यवाणियाँ ठीक उतरती दीख पड़ी होंगी।

नेहरू स्वतन्त्र भारत की सरकार के प्रमुख थे और सरदार पटेल भी उनके साथ थे। इस सरकार ने जिस सराहनीय तत्परता, दृढ़ता और समझदारी से काम लिया उस पर विश्व की किसी भी सरकार को गर्व हो सकता है। इसने तुरन्त व्यवस्था स्थापित की, पाकिस्तान से आये करोड़ों शरणार्थियों को फिर से अपने पैरों पर खड़ा किया, प्रशासन-तन्त्र को सुदृढ़ बनाया और राजनीतिक अनिश्चितताओं और बँटवारे की उथल-पुथल के कारण रुके पड़े व्यापार और उद्योग के पहियों को चालू किया।

विभिन्न प्रकार के 500 भारतीय राज्यों को एक इकाई का रूप देने का काम काफी तेजी और सुचारु ढंग से किया गया जबकि कुछ ही महीने पहले यह काम असम्भव प्रतीत हो रहा था। 1949 के अन्त में संविधान सभा ने अपना काम खत्म किया, 1950 में नया संविधान लागू कर दिया गया और 1952 में पहला आम चुनाव करा दिया गया। इसके बाद के 15 वर्षों में नेहरू ने संसदीय लोकतन्त्र को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया। वह संसद् को सर्वोच्च सम्मान देते थे, इसमें नियमित रूप से उपस्थित होते थे और इसे राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर विचार-विमर्श करने तथा उनके सम्बन्ध में निर्णय लेने का मंच मानते थे।

नेहरू राजनीतिक मुक्ति और लोकतन्त्रात्मक प्रणाली को सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन का प्राथमिक चरण और साधन मानते थे। उनकी दो प्रेरक शक्तियाँ थी-राष्ट्रवाद और समाजवाद, लेकिन उनका समाजवाद उस प्रकार का नहीं था जैसा कि हमें पुस्तकों में देखने को मिलता है-इसकी परिकल्पना 19वीं शती के पश्चिमी मुक्तिवाद, फैबियन समाजवाद, मार्क्सवादी सिद्धान्तों, सोवियत अर्थव्यवस्था और गाँधीवादी विचारों के आधार पर की गई थी। भारतीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्थितियों के बारे में नेहरू के अपने विचार कम महत्वपूर्ण नहीं थे। उन्होंने एक बार कहा था-“हमें खुद भी कुछ सोच-विचार करना चाहिए।”

उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को आधुनिक तथा परमाणु युग के अनुकूल बनाने का कार्य शुरू किया। विज्ञान और टेक्नोलाजी को वह इस कार्य के लिए तथा लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठाने के लिए एक साधन मानते थे।

एक बार उन्होंने अत्यन्त साहित्यिक भाषा में विज्ञान प्रयोगशालाओं को ‘भविष्य के मन्दिर’ कहा था। उन्होंने भारतीय विज्ञान को छोटी-सी शुरूआत से बढ़कर राष्ट्रीय स्तर पर पहुंचाया। उच्च शिक्षा, विशेषकर विज्ञान तथा टेक्नोलाजी सम्बन्धी शिक्षा के क्षेत्र में काफी विस्तार हुआ और इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा क्षेत्र में वैज्ञानिक जन-शक्ति का आज इतना बाहुल्य है कि अमेरिका और सोवियत संघ के बाद भारत का ही स्थान 1950 में नेहरू ने योजना आयोग की स्थापना की और इसके माध्यम से उन्होंने तीव्र गति से आर्थिक विकास असमानताओं को कम करने की नीति अपनाने का प्रयास किया। ऐसा प्रतीत होता है कि उन्होंने आयोजना की परिकल्पना भारतीय संघ व्यवस्था में नये साधनों का विकास करने के रूप में भी की थी। नेहरू जानते थे कि प्रतिनिध्यात्मक लोकतन्त्र के माध्यम से आर्थिक विकास की गति को तेज करना एक मुश्किल काम है। उन्होंने खुद को इस कार्य से अलग नहीं रखा और कभी-कभी एक दिन में 17 घण्टे तक काम किया।

उनके एक सचिव का कहना था कि वह नेहरू के कई दिनों तक लगातार काम करने का कोई शारीरिक या मनोवैज्ञानिक कारण जान पाने में असमर्थ रहे। हम यही कह सकते हैं कि उनकी आत्मा ने उनके शरीर पर पूरी तरह विजय पा ली थी। जन-सेवा की उनमें अपार भावना थी और उन्होंने मानवीय शरीर के सामान्य ढंग से काम करने की क्षमता को अपने वश में कर लिया था।

उन्हीं दिनों सिंचित क्षेत्र में 4.50 करोड़ एकड़ की वृद्धि हुई, खाद्यानों का उत्पादन 4.50 करोड़ मी० टन से बढ़कर 8.90 करोड़ मी० टन हुआ, बिजली उत्पादन क्षमता 20 लाख से एक करोड़ किलोवाट हो गई और औद्योगिक उत्पादन में 94 प्रतिशत की वृद्धि हुई। ये सभी कोई मामूली उपलब्धियाँ नहीं थीं। हमारे समय में हुई हरित क्रान्ति के सम्बन्ध में बहुत सारी तैयारी उन्हीं दिनों हुई थी।

यह सब आज फिर से कहने की आवश्यकता इसलिए पड़ रही है क्योंकि हमारे सामने की कठिनाइयाँ तथा जटिलताएँ हमें निराश करती हैं, बल्कि आज लोगों में ऐसा सोचने की प्रवृत्ति आती जा रही है कि हम से पहले के लोगों ने हमारे काम को और मुश्किल बना दिया, लेकिन यह स्वीकारते हमें हिचक नहीं होनी चाहिए कि उन वर्षों की उपलब्धियों को जनसंख्या वृद्धि ने निष्फल कर दिया। सोचने पर ऐसा महसूस होता है कि 1950-1960 के वर्षों में जनसंख्या नियन्त्रण की दिशा में और अधिक कार्य किया जाना चाहिए था।

नेहरू का व्यक्तिगत प्रभाव राष्ट्रीय नीतियों के लिए काफी महत्वपूर्ण था और विदेशी मामलों में यह प्रभाव निर्णायक था। उल्लेखनीय है कि अन्तरिम सरकार के गठन के शीघ्र बाद ही उन्होंने 7 सितम्बर, 1946 को अपने पहले प्रसारण में विदेशी मामलों के बारे में अपने दृष्टिकोण की विस्तारपूर्वक चर्चा की और जातिवाद तथा उपनिवेशवाद का विरोध करते हुए ब्रिटेन के साथ पुरानी दुश्मनी को भूल जाना और संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ तथा चीन के साथ समानता के आधार पर सहयोग स्थापित करना चाहा।

एक ऐसे देश के नेता के लिए जिसे अस्थायी रूप से भी स्वशासन न मिला हो, 1946 में ऐसी नीतियों के बारे में चर्चा करना असाधारण दूरदर्शिता और साहस की अपेक्षा रखता था। हिटलर के खिलाफ युद्ध-गठबन्धन का झटका लग चुका था तथा सोवियत संघ और पश्चिमी शक्तियों में शीत युद्ध छिड़ जाने से अन्तर्राष्ट्रीय स्थिति अन्धकारमय होती जा रही थी। नेहरू जानते थे कि भारत के पास इतनी आर्थिक शक्ति और सैन्य बल नहीं है कि वह युद्ध और शान्ति के मुद्दों को लेकर कोई निर्णायक कदम उठा सके, लेकिन वह यह भी महसूस करते थे कि भारत को बड़ी शक्तियों के खेल का मुहरा नहीं बनना चाहिए।

प्रारम्भिक दिनो में स्वयं को किसी भी सैन्य गुट से सम्बद्ध न करने के कारण नेहरू अन्तर्राष्ट्रीय कूटनीति में एक विधर्मी माने जाते थे, लेकिन शीघ्र ही एशिया और अफ्रीका के नवस्वतन्त्र देशों ने उनका अनुकरण किया और आर्थिक आयोजना सम्बन्धी उनके विचारों को अधिक विकासशील देशों ने ग्रहण कर लिया, लेकिन अपनी कुछ नीतियों के कारण (जैसा कि चीन का संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवेश) उन्हें काफी आलोचना का सामना करना पड़ा, हालाँकि उनकी मृत्यु के बाद उन्हें ठीक ठहराया गया। हिंदचीन में बड़ी शक्तियों के हस्तक्षेप के सम्बन्ध में उनकी चेतावनियाँ ठीक सिद्ध हुईं। बहरहाल हमें इस बात को ध्यान में रखना चाहिए कि उन्होंने सोवियत रूस तथा संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच तनावशैथिल्य के लिए अनुरोध किया था।

अपने अथाह इतिहास बोध के कारण नेहरू मानते थे कि वह भारत और विश्व के समक्ष खड़ी असंख्य समस्याओं का हल निकाल सकेंगे। उन्होंने एक बाहर कहा था-“हम सभी गलती कर सकते हैं और मैं यह कभी नहीं मान सकता कि कोई संगठन, कोई विचारक या कोई देश, गलत नहीं हो सकता ।” घरेलू तथा विदेशी मामलों में उनके सामने कठिनाइयाँ तथा बाधाएँ आई-जैसे चीन के साथ विवाद-लेकिन अपने जीवन के अन्तिम दिन तक भी उन्होंने इनका साहस के साथ सामना किया।

जब हम नेहरू युग पर दृष्टि डालते हैं तो किसी विशेष निर्णय या नीति के बारे में मत-भिन्नता हो सकती है, लेकिन मुझे इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं कि अविवेकवाद, सामाजिक, रूढ़िवाद तथा सभी प्रकार के धार्मिक, सामाजिक या राजनीतिक मोहवाद जैसी धारणाओं के प्रति उनकी अस्वीकृति, व्यक्ति की स्वतन्त्रता तथा गरिमा के प्रति सम्मान, लोकतान्त्रिक प्रणाली में दृढ़ विश्वास, सैनिक शक्ति तथा हिंसा के प्रति विरक्ति, उनका इस बात पर बल देना कि अच्छे साध्य से बुरे साधन का औचित्य सिद्ध नहीं होता और परमाणु युग में विश्व सहयोग के अभाव में विश्वनाद अवश्यम्भावी है, इन बातों पर कोई भी व्यक्ति उँगली नहीं उठा सकता।

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