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जवाहरलाल नेहरू की जीवनी

जवाहरलाल नेहरू

जवाहरलाल नेहरू हमारी पीढ़ी के एक महानतम व्यक्ति थे। वे एक ऐसे अद्वितीय राजनीतिज्ञ थे जिनकी मानव-मुक्ति के प्रति सेवाएँ चिस्मरणीय रहेंगी। स्वाधीनता संग्राम के योद्धा के रूप में वे यशस्वी थे और आधुनिक भारत के निर्माण के लिए उनका योगदान अभूतपूर्व था। इसमें सन्देह नहीं कि नेहरू की मृत्यु के साथ ही हमारे देश के इतिहास का एक युग समाप्त हो गया। नेहरू की यह विशेषता थी कि एक राजनीतिज्ञ होते हुए भी वे मेकियावेलीय राजनीति से बहुत दूर थे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के शब्दों में, “जवाहरलाल ने राजनीतिक संघर्ष के क्षेत्र में, जहाँ बहुधा छल और आत्मप्रवंचना चरित्र को विकृत कर देते हैं, शुद्ध आचरण के आदर्श का निर्माण किया ।” नेहरू ने अपने प्रधानमन्त्रित्व काल में देश को जो कुछ दिया उसे कभी भुलाया नहीं जा सकता।

जवाहरलाल नेहरू का जीवन-परिचय

(Life-Sketch of Jawaharlal Nehru)

जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर 1889 में हुआ था । वह मोतीलाल नेहरू और स्वरूपरानी के एकमात्र पुत्र थे। 15 वर्ष की आयु में वे अध्ययन के लिए इंग्लैण्ड गये। कैम्ब्रिज की पढ़ाई के बाद उन्होंने कानून का अध्ययन किया और 1912 में वे ‘इनर टेम्पल‘ से वकील बने। अपने छात्र जीवन में ही नेहरू भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन की सरगर्मियों में दिलचस्पी लेते रहे | 1904 में जापान के हाथों रूस जैसे शक्तिशाली राष्ट्र की पराजय ने नेहरू के हृदय में भारत राष्ट्र की स्वतन्त्रता के सपने भर दिए। राष्ट्रीय विचार उनके मानस में हिलोरें लेने लगे और यूरोप के पन्जे से भारत तथा एशिया की मुक्ति के लिए वे व्यग्र रहने लगे। भारत लौटने के बाद जवाहरलाल ने वकालत शुरू की, लेकिन शीघ्र ही वे राजनीतिक सरगर्मियों की तरफ बढ़ चले। 1912 में उन्होंने राष्ट्रीय काँग्रेस के अधिवेशन में भाग लिया। 1916 में काँग्रेस के लखनऊ अधिवेशन के समय उनके जीवन में एक क्रान्तिकारी मोड़ आया । महात्मा गाँधी से उनकी पहली मुलाकात हुई जो आगे चलकर इस रूप में फलीभूत हुई कि गाँधी ने जवाहर को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया और यह भविष्यवाणी तक कर दी कि “मेरे मरने के बाद जवाहरलाल मेरी ही भाषा बोलेगा।” 1916 में ही उनका विवाह कमला कौल से हुआ। उनके एक पुत्री भी हुई इन्दिरा प्रियदर्शिनी, जो भारत के प्रधानमन्त्री पद को भी सुशोभित कर चुकी हैं। 1918 में नेहरू होमरूल लीग के सचिव बने और 1920 से वे भारत के किसानों की समस्याओं तथा आकाँक्षाओं में गहरी दिलचस्पी लेने लगे। वास्तव में “1920 का साल नेहरू के राजनीतिक जीवन में निर्णयात्मक मोड़ का था।” और तभी से उनके दिमाग में “गाँवों की नंगी भूखी जनता की भारत की तस्वीर” बनी रही। 1923 में वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के महासचिव बने। 1927 में अन्तर्राष्ट्रीय गणतान्त्रिक आन्दोलन के साथ उनके व्यापक और दीर्घकालीन सम्पर्कों की शुरूआत हुई। ब्रूसेल्स में हुए पीड़ित राष्ट्र सम्मेलन में उन्होंने राष्ट्रीय काँग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया। 1928 में साइमन कमीशन के विरुद्ध लखनऊ के प्रदर्शनी में उन्होंने पुलिस की लाठियाँ खाईं। 1929 में वे राष्ट्रीय काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये । उनकी अध्यक्षता में ही इस दिन अर्द्धरात्रि को पूर्ण स्वराज्य का ऐतिहासिक प्रस्ताव पास किया गया। जवाहरलाल नेहरू 1936, 1937 और 1946 में पुनः काँग्रेस के अध्यक्ष निर्वाचित हुए।

वास्तव में 1930 तक जवाहरलाल ने भारतीय राजनीति में बहुत ऊँचा स्थान प्राप्त कर लिया था और बाद के कार्यों में तो राष्ट्रीय नेतृत्व में उन्हें महात्मा गाँधी के ठीक बाद स्थान प्राप्त हो गया। नेहरू ने देश का अनेक बार तूफानी दौरा किया और भारतीयों में स्वाधीनता प्राप्ति के लिए एक उत्कट अभिलाषा पैदा कर दी। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान उनका 9 वर्ष से भी अधिक का समय जेलों में कटा। 1946 में उन्होंने भारत की अन्तरिम सरकार का निर्माण किया और 15 अगस्त, 1947 को जब विभाजन की कीमत पर देश को आजादी मिली तो जवाहरलाल स्वतन्त्र भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री बने । उस पवित्र अर्द्ध-रात्रि को, भारत की आजादी की वेला में, जवाहरलाल ने अपने हृदयस्पर्शी भाषण में कहा-

“आधी रात के घण्टे के साथ, जबकि संसार सो रहा है, भारत जीवन और स्वाधीनता की ओर जागेगा। एक क्षण आता है, जो इतिहास में कभी ही आता है, जब हम पुराने से नये की ओर बढ़ते हैं, जब एक युग समाप्त होता है, और जब बहुत दिनों तक दबाई हुई राष्ट्र की आत्मा बोल उठती है। यह उचित ही है कि इस पवित्र अवसर पर भारत की और उसके निवासियों की और उससे भी बड़ी मानवता की सेवा का संकल्प लें।”

नेहरू रुके और तब फिर बोले, “भारत की सेवा के अर्थ होते हैं उन लाखों की सेवा जो कि कष्ट सह रहे हैं, इसके अर्थ हैं गरीबी और अज्ञान और रोग और अवसर की असमानता को समाप्त करना ।”

जवाहरलाल नेहरू 15 अगस्त, 1947 से लेकर 27 मई, 1964 के दिन तक अर्थात् अपनी मृत्यु के समय तक भारत के प्रधानमन्त्री रहे । लगभग 17 वर्षों के अपने कार्यकाल में उन्होंने स्वतन्त्र भारत को एक सबल आर्थिक और राजनीतिक स्वरूप प्रदान किया। अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में भारत की प्रतिष्ठा को जमाने का श्रेय उन्हीं को जाता है। यह दुर्भाग्य की बात थी कि अक्तूबर, 1962 में साम्यवादी चीन के हमले का सदमा नेहरू को झेलना पड़ा, उसके बाद तो वे देश को हर तरह से जगाने के लिए पिल पड़े। उन्हें यह अहसात हो गया कि शान्ति में पूर्ण आस्था रखते हुए भी भारत को सैनिक दृष्टि से एक सबल राम बनना होगा। यह देश का दुर्भाग्य था कि उनका कुशल नेतृत्व अधिक समय तक न बना रहा और 27 मई, 1964 को दोपहर को लगभग 2 बजे उनकी मृत्यु हो गयी।

नेहरू न केवल एक महान् देशभक्त, कर्मठ राजनेता और शान्तिदूत थे बल्कि बुद्धिमान और युगदृष्टा पुरुष थे जिन्हें साहित्य, दर्शन व प्रकृति से भारी प्रेम था। उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की जिनमें उनकी ‘आत्म-कथा’ हमारे युग की एक अद्भुत पुस्तक है।

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