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जयप्रकाश नारायण का आधुनिक लोकतंत्र

जयप्रकाश नारायण का आधुनिक लोकतंत्र

भारत की आधुनिक राजनीति में जयप्रकाश नारायण का योगदान

आधुनिक भारतीय विचारकों में जयप्रकाश नारायण का अग्रणी स्थान है। एक सर्वोदयी विचारक के रूप में उनका स्थान आचार्य विनोबा के बाद ही लिया जाता है। 8 अक्तूबर, 1979 को अपनी मृत्यु से पूर्व के कुछ वर्षों में जयप्रकाश ने, जिन्हें ‘लोकनायक’ कहा जाता था, भारतीय राजनीति में एक ऐसा तूफान लाने में अहम् भूमिका अदा की जो इतिहास में अभूतपूर्व है। काँग्रेस के तीस वर्ष के एकछत्र शासन को समाप्त कर जनता सरकार लाने में लोकनायक जयप्रकाश की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी। वर्षों से जयप्रकाश सक्रिय राजनीति से दूर थे, तथापि इस दिशा में उनकी जागरूकता निरन्तर बनी रही जो 1974 से निरन्तर बढ़ती गई और आपात्काल की समाप्ति के बाद रचनात्मक रूप में ‘क्रान्तिपूर्ण’ बन गई। जब 15 मार्च, 1977 को प्रेस के माध्यम से राष्ट्र के नाम अपने सन्देश में उन्होंने कहा-

“मेरे सपनों के भारत में प्रत्येक जन, प्रत्येक साधन निर्बल की सेवा में समर्पित हैं, जिसके लोग ‘अन्त्योदय’ अर्थात् सबसे निर्बल और निर्धनतम व्यक्ति के कल्याण में संलग्न हैं मेरे सपनों के भारत में प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक आदमी के काम में हाथ बँटाता है, हाँ अधिकारी और जन-प्रतिनिधि जनता के सेवक हैं, और यदि वे गलत रास्ते पर चलें, तो जनता को उन्हें रोकने का अधिकार है, जहाँ किसी भी पदाधिकारी को कोई विशेषाधिकार नहीं बल्कि जनता द्वारा सौंपा गया विश्वास समझा जाता है। संक्षेप में मेरे सपनों का भारत एक स्वतन्त्र, प्रगतिशील और गाँधीजी पद-चिह्नों पर चलने वाला भारत है।”

लोकनायक जयप्रकाश के निम्नलिखित उद्गार हमेशा के लिए हमारा पथ-प्रदर्शक करते रहेंगे-

“मानव का लक्ष्य क्या है ? इस एक बात की तरफ आज सारी दुनिया का ध्यान जाना चाहिए। मनुष्य केवल विज्ञान और उत्पादन वृद्धि के लिए ही जियेगा या उसके सामने कोई दूसरा उद्देश्य भी है ? हम यन्त्र को ऐसी छूट नहीं देना चाहते कि वह मनुष्य को छिन्न-भिन्न कर डाले।”

“मेरी समझ में नहीं आता कि सत्ता में चले जाने मात्र से ही कैसे राष्ट्र की सेवा हो जाएगी ? क्या पार्लियामेंट में चले जाना या मन्त्री बन जाना ही राजनीति है ? वास्तव में जनता की विशाल राजनीति तो उसके बाहर पड़ी है। मैं अदब के साथ कहना चाहता कि दूसरे लोग पक्ष और सत्ता की राजनीति के कुएँ में डुबकी लगा रहे हैं, जबकि मैं जनता की राजनीति, लोकनीति के विशाल सागर में तैर रहा हूँ।”

“व्यक्ति समूह के लिए जिए और समूह व्यक्ति के लिए, यह एक दिन में नहीं होगा। कोई भी क्रान्ति एक दिन में नहीं होती। विध्वंस एक दिन में हो सकता है, नव निर्माण नहीं। इसलिए हमारी यह अभिनव क्रान्ति आरोहण की एक प्रक्रिया होगी। इस कठिन चढ़ाई में तरुणों को ही आगे आना होगा।”

“लोकशाही का जो मूलभूत तत्व है, वह अभी लोगों की समझ में अच्छी तरह नहीं आया है। लोकशाही में मुख्य बात यह है कि दण्ड-शक्ति कम-से-कम होनी चाहिए और लोक-शक्ति का विकास होते रहना चाहिए। सरकार और सरकार के काम गौण तथा जनता और जनता का काम मुख्य हो, क्योंकि लोकशाही में जनता स्वयं ही अपनों में से अपनी पसन्द की सरकार बनाती है और कर आदि देकर उसे टिकाये रहती है।”

“यदि सही अर्थ में जनता का राज लाना है, तो सामाजिक परिवर्तन करना ही पड़ेगा । जनता को आर्थिक, भौतिक और सामाजिक स्वतन्त्रता दिलानी होगी। देश के थोड़े लोगों के पास ढेर सारी सम्पत्ति हो और बाकी के लोगों में इतनी गरीबी हो, तो जनता का राज नहीं हो सकता। जब गरीबी, बेकारी, शोषण खत्म होगा और जनता स्वयं अपने कामों में सीधा हिस्सा लेने लगेगी, तब यह लोकशाही सही अर्थ में जनता का राज्य है, ऐसा कहा जा सकेगा।”

आधुनिक लोकतन्त्र (Modern Democracy)

जयप्रकाश नारायण ने आधुनिक लोकतन्त्र और उसकी राजनीति पर प्रहार करते हुए फरवरी, 1970 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के अपने दीक्षान्त भाषण में कहा था कि “आज की राजनीति में विश्रृंखलता फैलती जा रही है। दलों के आदर्शों के विस्तार की अपेक्षा उनका स्वार्थपूर्ण दृष्टिकोण, आदर्शों का अवमूल्यन, व्यक्तिगत तथा विशेष हितों के लिए दल-निष्ठा का परिवर्तन, विधायकों का क्रय-विक्रय, दल की आन्तरिक अनुशासनहीनता, दलों के बीच अवसरवादी मित्रता तथा सरकार की अस्थिरता आदि आज के विचारणीय विषय बन गये हैं ।” जयप्रकाश नारायण के अनुसार लोकतन्त्र की समस्या मूलत: एक नैतिक समस्या है। लोकतन्त्र के लिए संविधानों शासन-प्रणाली, दलों और चुनावों-इन सभी बातों का महत्व है, लेकिन जब तक जनता में नैतिक मूल्यों और आध्यात्मिक गुणों का समुचित विकास नहीं हो जाता तब तक ये बातें वाँछित फल नहीं दे सकतीं । लोकतन्त्र का सफल संचालन तभी सम्भव है जब देश के नागरिक सत्यप्रिय हों, अहिंसावादी हों, स्वतन्त्रता-प्रेमी हों, दमन का अहिंसात्मक प्रतिरोध करने की उनमें क्षमता हो, वे सहयोग और सहअस्तित्व में पूरा विश्वास रखते हों उनमें दूसरे के विचारों को सुनने, समझने तथा सहन करने की क्षमता हो, वे कर्त्तव्यपरायण हों, उनमें उत्तरदायित्व की भावना हो और सीधा तथा सरल जीवनयापन करने में वे श्रद्धा रखते हों, अन्त में, वे मानव बन्धुत्व और समानता की भावना से पूर्ण हों। यद्यपि इन सभी गुणों का सभी नागरिकों में पूरा विकास सम्भव नहीं है तथापि जयप्रकाश के इस विचार में बल है कि जब तक हम किसी आदर्श के प्रकाश में अपनी इच्छाओं और भावनाओं को नियन्त्रित करने की क्षमता पैदा नहीं करेंगे, जब तक हम सार्वजनिक हितों के समक्ष वैयक्तिक हितों को गौण नहीं समझेंगे, जब तक हम अपनी आवश्यकताओं को सीमित नहीं करेंगे और जब तक हम राजनीतिक-आर्थिक क्षेत्र में विकेन्द्रीकरण नहीं लाएँगे तब तक सच्चे लोकतन्त्र की स्थापना की दिशा में हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे। जयप्रकाश हमारे समक्ष एक आदर्श प्रस्तुत करते हैं जिसकी ओर निरन्तर बढ़ते रहने में ही देश और समाज का कल्याण है। जयप्रकाश की विचारधारा से अथवा उनके चिन्तन और व्यवहार स असन्तुष्ट लोग भी उपरोक्त नैतिक मूल्यों से कोई विरोध नहीं रख सकता

जयप्रकाश की दृष्टि में आधुनिक संसदीय पद्धति अनुपयुक्त है। यह संसदीय पद्धति दलगत राजनीति पर कार्य करती है और “अनुभव यह बतलाता है कि आज के व्यापक निर्वाचनों में, जिनमें शक्तिशाली केन्द्र नियमित दलों द्वारा प्रचुर धन और कपटपूर्ण साधनों से गोलमाल फैलाई जाती है, मतदाता की अपेक्षा दलों और प्रचार-साधनों के पीछे निहित शक्ति तथा हितों का प्रतिनिधित्व होता है ।” जयप्रकाश के इस आरोप में वजन है कि नौकरशाही दिन प्रतिदिन बलवान होती जा रही है तथा सरकारी अधिकारियों और कर्मचारियों पर जनता की निर्भरता बढ़ रही है। प्रशासन का रवैया ‘सेवक’ का न होकर ‘स्वामी’ का होता जा रहा है। लोकतन्त्र पर जयप्रकाश का यह भी आरोप है कि वास्तविक स्वशासक संस्थाओं का अभाव है तथ औद्योगीकृत सभ्यता की जटिलताओं ने केन्द्रीय सरकार को बहुत ही शक्तिशाली बना दिया है।

जयप्रकाश नारायण आधुनिक लोकतन्त्र में राजनीतिक दलों की भूमिका से असन्तुष्ट थे। यह दलगत राजनीति जनता के नैतिक चरित्र को गिराती है और उसे स्वतन्त्र मन, विचार और अभिव्यक्ति का वातावरण प्रदान नहीं करती। राजनीतिक दल और उनकी कार्यपद्धति कुछ इस प्रकार की है कि जनता उनके आगे असहाय सी बन गई है। वास्तव में लोकतन्त्र रूपी भवन की छत का तो निर्माण किया जा रहा है पर उसकी नींव डालने के प्रयत्न शिथिल हैं। लोकतन्त्र का वास्तविक आधार जन-उपक्रम है पर दुर्भाग्य की बात है कि जनता को अपने ऐच्छिक कार्यों के लिए सही रूप में प्रोत्साहित नहीं किया जाता। वर्तमान दलगत राजनीति नैतिकता को दबाने वाली और गोलमाल तथा षड्यन्त्रों को प्रोत्साहित करने वाली है। आज के राजनीतिक दल जनता को विभाजित करते हैं। दलीय सला का बोलबाला है, अत: जनता शासन में भाग नहीं ले पाती। आधुनिक राजनीतिक दल तो वास्तव में राजनीतिज्ञों का एक ऐसा छोटा शक्तिशाली समूह है जो जनता के नाम से शासन करता है और लोकतन्त्र एवं स्वशासन का भ्रम फैलता है। इस दलीय लोकतन्त्र का एक बड़ा अभिशाप यह है कि सामाजिक कल्याण के लिए राजकीय सत्ता पर निर्भर रहना पड़ता है। यह दलीय पद्धति जनता को अनुप्रेरित नहीं करती, उसकी वास्तविक शक्ति का विकास नहीं करती, उसमें उपक्रम को प्रोत्साहित नहीं करती। यह दल-पद्धति को जनता की भेड़ की स्थिति में बनाये रखने को प्रयत्नशील है। इसे हम ‘स्वराज्य’ नहीं मान सकते । जयप्रकाश नारायण के अनुसार आज का भारत लोकतन्त्र नहीं बल्कि दलतन्त्र (Partocracy) है जहाँ पर कि धन, संगठन और प्रचार पर आधारित राजनीतिक दल लोगों पर शासन करता है। जयप्रकाश के अनुसार संसद् से लेकर ग्राम पंचायत तक वास्तविक लोकतन्त्र के सृजन के लिए और लोगों में नागरिकता की भावना पैदा करने के लिए प्रत्येक स्तर पर एक साथ सत्याग्रह चलाया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों के विरुद्ध किये गये सत्याग्रह से ही लोग यह समझ पाएँगे कि वे सरकार के स्वामी हैं अथवा उसके सेवक हैं। जयप्रकाश का यह भी सुझाव था कि राजनीतिक दलों को स्वयं एक आत्म-निरोधक अध्यादेश (Self-denying ordinance) पास करना चाहिए जिसमें कहा गया हो कि वे स्थानीय सत्ताओं के मामलों से स्वयं को दूर रखेंगे और वे जनइच्छाओं के अनुकूल ही नहीं वरन् उसके प्रत्यक्ष नियन्त्रण के अधीन भी होंगे।

जयप्रकाश आधुनिक निर्वाचन पद्धति के विरुद्ध थे। उनका विश्वास था कि ये निर्वाचन जनता को कोई नियन्त्रणकारी सत्ता नहीं सौंपते । वर्तमान प्रत्यक्ष निर्वाचन प्रणाली में दोष भरे पड़े हैं इनसे जनता को कोई वास्तविक शिक्षा प्राप्त नहीं होती। राष्ट्र की गम्भीर आर्थिक एवं राजनीतिक समस्याओं के शान्तिपूर्ण समाधान के लिए आवश्यक है कि आम चुनाव की पद्धति को समाप्त किया जाए। वर्तमान निर्वाचित सदस्य कार्य करते प्रशासन का विकेन्द्रीकरण तक तक नहीं हो सकता जब तक कि स्थानीय स्वशासन के रहें, उनमें से कुछ सदस्य समयान्तर से बदल दिए जाएँ। शक्ति का हस्तान्तरण और केन्द्र तथा सत्ताओं की स्थापना नहीं होती और जब तक कि सरकार के विभिन्न अंगों में वैधानिक तथा चेतन-सम्बन्ध न हों। ग्राम-सभा तथा मतदाता परिषद् के माध्यम से चुनाव होने चाहिए। इस सम्बन्ध में जयप्रकाश नारायण ने एक विस्तृत योजना प्रस्तुत की जो इस प्रकार है-

एक निर्वाचन क्षेत्र में ठीक ढंग से बुलाई गई आम-सभा में, प्रत्येक ग्राम-सभा मतदाता समिति, जिसे मतदाता परिषद् कहा जाएगा, के लिए दो प्रतिनिधि चुने। तत्पश्चात् मतदाता परिषद् की बैठक हो। इसका अर्थ यह है कि राज्य-विधायिका या संसद् से सम्बन्धित ग्राम-सभाएँ-निर्वाचन क्षेत्र-उस क्षेत्र के किसी भी केन्द्रीय स्थान पर निर्वाचित प्रतिनिधियों की बैठक बुलाए। मतदाता परिषद् चुनाव के लिए अपने उम्मीदवार खड़े करे। उम्मीदवारों के नाम आमन्त्रित किए जाएँ। तत्पश्चात् प्रत्येक प्रस्तावित तथा समर्थित नाम के लिए मतदान हो। वे व्यक्ति उन्हें अमुक मत संख्या (जैसे 30%) से अधिक मत मिल जाएँ, वे उस क्षेत्र से राज्य विधायिका संसद् के लिए उम्मीदवार घोषित कर दिये जाएँ। लोकतन्त्र के उचित संचालन के लिए यह अपेक्षित है कि मतों का विभाजन यथासम्भव कम हो। विभिन्न क्षण तथा साँविधानिक साधनों द्वारा ऐसी व्यवस्था की जाए कि मतदाता परिषद्, एक सीट के लिए केवल एक ही उम्मीदवार खड़ा करे (जहाँ एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र हो । लोकतान्त्रिक सिद्धान्त में यह एक दोष है कि एक निर्वाचन क्षेत्र में निर्वाचित प्रतिनिधि के चाहे कितने विरोधी हों, फिर भी वह पूरे निर्वाचन क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाला समझा जाता है। इस दोष के निवारण के लिए यह उचित है कि एक उम्मीदवार ही खड़ा किया जाये। यदि ऐसा न हो सके तो निम्नलिखित पद्धति काम में लाई जाये-

मतदाता परिषद् द्वारा निर्वाचित उम्मीदवार का नाम उस क्षेत्र की समस्त ग्राम-सभाओं को भेज दिए जाए और तत्पश्चात् प्रत्येक उम्मीदवार के नाम पर मतदान हो। जयप्रकाश के अनुसार यहाँ निम्नलिखित विकल्पों में से कोई विकल्प अपनाया जाये-

  1. “सर्वाधिक मत प्राप्त उम्मीदवार के सम्बन्ध में एक घोषणा प्रेषित की जाये कि ग्राम-सभा, उच्चतर सभा के लिए उसे प्रतिनिधि के रूप में भेजना चाहती है। ऐसे सभी उम्मीदवारों में से जिसे सर्वाधिक मत प्राप्त हों, उस क्षेत्र से राज्य-विधायिका या संसद् (जिसके लिए वह चुना गया है) के लिए सदस्य घोषित किया जाए।
  2. यह उचित होगा कि प्रत्येक ग्राम सभा की बैठक में प्रत्येक उम्मीदवार को मिलने वाले मतों को नोट किया जाए, ताकि पूरे निर्वाचन क्षेत्र की विभिन्न ग्राम-सभाओं की बैठक में प्रत्येक उम्मीदवार को प्राप्त मत गिने जा सकें और सर्वाधिक मत प्राप्त व्यक्ति उस निर्वाचन-क्षेत्र का प्रतिनिधि हो ।”

जयप्रकाश नारायण द्वारा प्रस्तावित यह निर्वाचन पद्धति ग्राम सभा को प्रशासकीय मशीनरी का मूल आधार मानकर चलती है और लोकतन्त्र के ऊपरी स्तर को निम्न स्तर से मिलाती है। स्वयं जयप्रकाश जी के ही शब्दों में “यह ग्राम सभाओं को स्थानीयता से ऊपर उठाती है और उन्हें सम्मान, शक्ति एवं महत्व प्रदान करती है। हर वयस्क नागरिक मतदाता परिषद् और ग्राम-सभा के माध्यम से निर्वाचन में संगठित रूप से भाग ले सकता है।” जयप्रकाश नारायण के अनुसार राज्य का ढाँचा जिन राजनीतिक इकाइया पर आधारित होना चाहिए वे यथार्थ में ग्राम-समाज हैं,न कि पृथक् बिखरे हुए मतदाता।’ हमारे लोकतन्त्र की मुख्य समस्या यह है कि हम किसी प्रकार “मनुष्य को मनुष्य के सम्पर्क में लाएँ ताकि वे परस्पर सार्थक, विवेकपूर्ण और नियन्त्रणीय सम्बन्ध रखते साथ-साथ रह सकें।”

स्पष्ट है कि जयप्रकाश नारायण दल निरपेक्ष लोकतन्त्र के समर्थक थे। साथ ही वे इस बात को मानते थे कि मतदाताओं का कर्त्तव्य मतदान के साथ ही समाप्त नहीं हो जाता वरन् निर्वाचित प्रतिनिधि और मतदाता के बीच नियमित सम्पर्क रहना चाहिए, ताकि वे परस्पर उत्तरदायित्व का ठीक ढंग से निर्वाह कर सकें । लोकतन्त्र का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यही है कि जनता अपने मामलों का कहाँ तक स्वयं प्रबन्ध करती है।

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