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नेहरू के राज्य और व्यक्ति संबंधी विचार

नेहरू के राज्य और व्यक्ति संबंधी विचार

राज्य और व्यक्ति के सम्बन्ध में नेहरू के विचार

नेहरू पर गाँधी का प्रभाव था। वे उनके एक सुयोग्यतम शिष्य थे, लेकिन उनमें गाँधी के समान अराजकतावाद से कोई सहानुभूति न थी। राज्य की अनिवार्यता पर उनका अटूट विश्वास था। नेहरू की मान्यता थी कि व्यक्ति और समाज के लिए राज्य का अस्तित्व अपरिहार्य है। मानव स्वभाव अच्छाइयों का घर है, किन्तु उसमें बुराइयाँ भी कम नहीं हैं और इन बुराइयों पर नियन्त्रण रखने के लिए राज्य अनिवार्य है। मानव स्वभाव में अन्तर्निहित हिसा और स्वार्थपरता को व्यवस्थित सीमा के भीतर रखने वाली शक्ति केवल राज्य ही है। केवल थोड़े से ही व्यक्ति जो एक उच्च आध्यात्मिक स्तर पर पहुँच चुके हों, मानव स्वभाव की बुराइयों के अपवाद हो सकते हैं, अन्यथा बहुसंख्यक सामान्य जनता तो इन बुराइयों की शिकार है और इस बात का पूरा भय है कि यदि राज्य रूपी संस्था का अस्तित्व न हो तो ये बुराइयाँ घोर अराजकता में परिणित होकर मानव सभ्यता को और मानव जीवन की सुरक्षा को संकट पैदा कर देंगी। राज्य ही वह संस्था है जो अपनी बाध्यकारी सत्ता द्वारा मनुष्य में व्याप्त घृणा, स्वार्थपरता, अराजक प्रवृत्ति और हिंसा पर नियन्त्रण लगा सकती है। हमारा सम्पूर्ण जीवन संघर्ष और हिंसा से भरा हुआ है जिसे केवल राज्य जैसी नियन्त्रणकारी शक्ति ही सही रास्ते पर रख सकती है। राज्य की बाध्यकारी सत्ता के बिना कर वसूल नहीं होंगे, जमींदारों को उनका लगान नहीं मिलेगा और व्यक्तिगत सम्पत्ति का लोप हो जाएगा । “कानून, अपनी सशस्त्र सेनाओं की सहायता से दूसरों को व्यक्तिगत सम्पत्ति का प्रयोग करने से रोकता है। राष्ट्रीय राज्य का अस्तित्व ही आक्रामक और सुरक्षात्मक हिंसा पर आधारित है।” राज्य के मूल में हिंसा छिपी है, इस तर्क के आधार पर वे राज्य का परित्याग करने को तैयार न थे। नेहरू का विश्वास था कि हिंसा आधुनिक राज्य और सामाजिक व्यवस्था का प्राण है। आमूलचूल अहिंसा की बात करना अव्यावहारिक है, हिंसा के पूर्णतः परित्याग का विचार एक नकारात्मक विचार को जन्म देता है जो स्वयं जीवन से सर्वथा दूर है।

नेहरू इस व्यक्तिवादी विचार से सहमत नहीं थे कि वही सरकार सबसे अच्छी है जो सबसे कम शासन करे। यह दृष्टिकोण उन्हें स्वीकार न था कि राज्य का एकमात्र कार्य बाह्य आक्रामण से और आन्तरिक अव्यवस्था से व्यक्ति तथा समाज की सुरक्षा मात्र है। नेहरू का कहना था कि राज्य का कार्य केवल रक्षात्मक ही नहीं है वरन् व्यक्ति और समाज के पोषण का भार भी बहुत-कुछ राज्य पर है। नेहरू कल्याणकारी राज्य के सिद्धान्त के प्रति निष्ठावान थे। तद्नुसार राज्य को केवल पुलिस कार्यों तक ही सीमित न रख कर वे जीवन के हर क्षेत्र में राज्य के कार्यों के स्वस्थ विस्तार के पोषक थे। नागरिकों के जीवन को सुखी बनाने के लिए आधुनिक राज्यों को विविध उत्तरदायित्वों और कार्यों को वहन करना चाहिए, राष्ट्रीय धन के न्यायपूर्ण वितरण की व्यवस्था करनी चाहिए, व्यक्ति और समाज के कल्याण के लिए सभी आवश्यक और अधिकाधिक कार्य करने चाहिए-इस प्रकार के विचार नेहरू के थे।

नेहरू ने आधारभूत और भारी उद्योगों के राष्ट्रीयकरण का समर्थन किया क्योंकि उनका विश्वास था कि राष्ट्रीयकरण के बिना राज्य अपना यथार्थ मंगलकारी स्वरूप ग्रहण नहीं कर सकता। पर नेहरू राष्ट्रीयकरण के दोषों से अपरिचित नहीं थे। वे जानते थे कि राष्ट्रीयकरण शासन में अत्यधिक केन्द्रीकरण को जन्म देता है। नेहरू शासन के केन्द्रीयकरण को इस हद तक नहीं बढ़ाना चाहते थे कि वह व्यक्ति की स्वतन्त्रता के लिए खतरा बन जाय । इस समस्या के समाधान के लिए ही उन्होंने सामुदायिक विकास योजना और पंचायती राज का समर्थन किया ताकि लोकतान्त्रिक विकेन्द्रीकरण के क्षेत्र का प्रसार हो और व्यक्ति की स्वतन्त्रता को संरक्षण मिले। नेहरू को प्रशासन के अलोकतान्त्रिक रवैये से बड़ा क्षोभ होता था। शक्ति का केन्द्रीयकरण तब निश्चित रूप से व्यक्तिगत स्वतन्त्रता के लिए भारी खतरा बन जाता है जब शासन-व्यवस्था अलोकतान्त्रिक हो। नेहरू की मान्यता थी कि यदि निष्ठापूर्वक इस सिद्धान्त का अनुपलन किया जाए कि-“राज्य व्यक्तियों के लिए है, व्यक्ति राज्य के लिए नहीं” तो सत्ता के केन्द्रीकरण से भी व्यक्ति की स्वतन्त्रता का हनन नहीं हो सकता। यदि नागरिक सतर्क होकर अपने अधिकारों के लिए लड़ने की क्षमता रखे तो केन्द्रीयकरण चाहे वह कितना ही प्रबल हो, नागरिकों को कोई हानि नहीं पहुँचा सकता।

जवाहरलाल ने नागरिकों के अधिकारों को महत्वपूर्ण माना पर राज्य के प्रति नागरिक कर्त्तव्यों पर भी समान रूप से बल दिया। बिना कर्तव्यों के अधिकारों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। यदि राज्य व्यक्तियों को अपनी महानता और शक्ति के लिए साधन मात्र नहीं बना सकता तो व्यक्ति भी राज्य को अपनी इच्छापूर्ति का साधन मात्र नहीं मान सकते। राज्य और व्यक्ति साध्य और साधन दोनों हैं, दोनों के हित और लक्ष्य परस्पर अन्योन्याश्रित हैं। यौगिक रूप में राज्य और व्यक्ति एक सम्पूर्ण इकाई है। समुचित और स्वस्थ रूप में संगठित राज्य और उसके नागरिकों के बीच कोई संघर्ष नहीं हो सकता। राज्य तो “सामाजिक रूप से कार्य करने वाला एक अवयव है” जिसे ऐसी संस्था या समुदाय नहीं माना जाना चाहिए जो केवल ऐसे व्यक्तियों से मिलकर बना हुआ हो जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपनी व्यक्तिगत इच्छा की पूर्ति को अपना लक्ष्य मानता हो । नेहरू ने किसी भी सरकार की अच्छाई और कुशलता का मापदण्ड यही माना है कि वह जनता के जीवन स्तर को कितना ऊँचा उठाती है। इस जीवन स्तर में केवल भौतिक वस्तुएँ ही नहीं वरन् जीवन के बौद्धिक और नैतिक मूल्य भी समाविष्ट हैं। जीवन का सर्वांगीण विकास करना एक अच्छे राज्य की कसौटी है। पर इस उद्देश्य में राज्य की सफलता अपने नागरिकों की चारित्रिक श्रेछता पर निर्भर है क्योंकि मानव जीवन से सम्बन्धित सभी समस्याओं का समाधान अन्तिम रूप में मानव-चरित्र पर ही निर्भर करता है। राज्य का निर्माण व्यक्तियों से होता है और यदि ये निणार्थक इकाइयाँ ही चरित्रवान न होंगी तो उनके द्वारा स्थापित राजनीतिक संस्था की सफलता की आशा नहीं की जा सकती।

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