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जयप्रकाश नारायण का जीवन-परिचय

जयप्रकाश नारायण

जयप्रकाश नारायण का जीवन-परिचय

(Life Sketch of Jaiprakash Narayan)

महात्मा गाँधी के कट्टर अनुयायी जयप्रकाश नारायण लगभग आधी शताब्दी तक भारत के सार्वजनिक जीवन पर छाये रहे। उनमें दूसरों को प्रभावित करने की गजब की ताकत थी। निडरता, नैतिक साहस, प्रामणिकता और देशवासियों के लिए अटूट प्रेम की भावना उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी।

जयप्रकाश जी का जन्म बिहार के सिताबदियारा गाँव में, जो अब उत्तर प्रदेश में है, 11 अक्तूबर, 1902 को हुआ था। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा पटना में हुई। बाल्यकाल से ही नैतिक तत्वों के प्रति उनका आकर्षण रहा और भगवद्गीता ने उन्हें प्रेरणा दी। अपना राजनीतिक जीवन प्रारम्भ करते समय वे गीता के ‘कर्म करो’ के सन्देश से अनुप्राणित रहे। एम० एन० राय का उन पर काफी प्रभाव पड़ा, लेकिन उनकी राजनीतिक विचारधारा को प्रभावित करने में सबसे ज्यादा गाँधीजी का हाथ रहा। अपने छात्र-जीवन में जयप्रकाश नारायण मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हुए, लेकिन रूस में बोल्शेविक पार्टी द्वारा किए गए अमानुषिक अत्याचारों से उनका हृदय काँप गया और 1940 के बाद तो वे रूसी साम्यवाद के कटु आलोचक बन गए। भारत के प्रति चीन के विश्वासघात ने और तिब्बत के मामले पर चीन की विस्तारवादी नीति ने उनके इस विश्वास को पुष्ट किया कि साधन ग्राह्य हैं।

साम्यवादी अधिकारवाद और साम्रज्यवाद के पिपासु हैं जिनके लिए नैतिक-अनैतिक सभी जयप्रकाश जब कॉलेज में थे तभी 1921 में गाँधीजी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आन्दोलन में कूद पड़े। बाद में वह अमेरिका गए और उन्होंने वहाँ 8 वर्ष तक पढ़ाई की। इस अवधि में उन्होंने मार्क्स तथा अन्य समाजवादी विशेषज्ञों के साहित्य का अध्ययन किया। जब 1929 में वह अमेरिका से लौटे तब वह पूरी तरह समाजवादी सिद्धान्तों से प्रभावित हो चुके थे। शीघ्र ही काँग्रेस समाजवादी पार्टी का गठन हुआ जिसके जयप्रकाशजी महासचिव बने। जयप्रकाश नारायण ने भारतीय समाजवाद के सर्वाधिक अग्रणी नेता और व्याख्याता के रूप में ख्याति पाई। 1934 में उन्होंने भारतीय समाजवादी काँग्रेस दल की स्थापना में महत्वपूर्ण भाग लिया और दल तथा उसके कार्यक्रम बनाने में  अद्भुत प्रतिभा का परिचय दिया।

जब काँग्रेस 1937 के चुनावों में भाग लेने को तैयार हो गई तब जयप्रकाश ने काँग्रेस को छोड़ दिया। तथापि देश के स्वाधीनता आन्दोलन में उन्होंने एक राष्ट्रवादी योद्धा के रूप में भाग लिया और इस कर्तव्य से भी कभी पीछे नहीं हटे। 1942 में गाँधी ने ‘करो या मरो’ का आह्वान किया। उस समय जयप्रकाशजी हजारीबाग जेल में नजरबन्द थे। ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन में भाग लेने के लिए नवम्बर, 1942 में वे जेल से भाग निकले। वे 18 सितम्बर, 1943 का लाहौर रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार किए गए। उन्हें एक अप्रैल, 1946 को जेल से रिहा किया गया। उनकी सेवाओं और त्याग से प्रभावित होकर 1946 में गाँधीजी ने काँग्रेस के राष्ट्रपति पद के लिए उनका नाम प्रस्तावित किया, किन्तु कार्यसमिति को यह स्वीकार नहीं हुआ।

देश की स्वतन्त्रता के पश्चात् उन्होंने सरकार में किसी पद बने रहना स्वीकार नहीं किया। उन्होंने 1948 में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस छोड़कर भारतीय समाजवादी पार्टी बनाई। बाद में इस पार्टी ने प्रजा समाजवादी पार्टी का रूप लिया। 1952 में वे विनोबा भावे के नेतृत्व में चलाए जा रहे सर्वोपारीआन्दोलन की तरफ आकर्षित हुए। वे दलगत और सत्ता की नीति से निराश हो गए थे। सर्वोदय आन्दोलन से उन्हें अपने व्यावहारिक जीवन में उतरने का अवसर मिला । अप्रैल, 1954 में उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन को सर्वोदय आन्दोलन के प्रति समर्पित करने की प्रतिज्ञा की। प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के नेता पद का त्याग करके उन्होंने 1954 में शकोदर में एक आश्रम स्थापित किया और सर्वोदय आन्दोलन और ग्रामोत्थान के लिए नये कार्यक्रमों की शुरूआत की। 1970 और 1972 के बीच उन्होंने अपना अधिकार समय और शक्ति बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में नक्सलवादी विद्रोह को समाप्त करने में लगाई। 1972 के आरम्भ में इनके आदर्शों से प्रेरित होकर चम्बल घाटी के 400 डाकुओं ने इनके समक्ष आत्म-समर्पण कर दिया।

मार्च, 1974 में बिहार में उत्पन्न विद्रोह को देखते हुए जयप्रकाश को फिर से राजनीति में उतरना पड़ा सरकार की नीतियों के विरुद्ध शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने के लिए छात्र संघर्ष समिति का नेतृत्व किया। इनका यह संघर्ष करीब एक वर्ष तक जारी रहा। जून, 1975 में जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने उस समय की प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी को चुनाव मे भ्रष्ट तरीके अपनाने के लिए दोषी ठहराया था, तब विपक्षी दल के नेताओं ने उनके त्याग-पत्र की माँग की थी। गैर-कम्युनिस्ट विरोधी दल के नेताओं ने श्री जयप्रकाश नारायण की मौजूदगी में दिल्ली में 23 जून, 1975 को बैठक बुलाई। बैठक में श्रीमती गाँधी से त्याग-पत्र माँगने के लिए एक विशाल आन्दोलन के कार्यक्रम का मसौदा तैयार किया गया। 26 जून, 1975 को देश में आन्तरिक आपात् स्थिति घोषित कर दी गई और जयप्रकाश नारायण और विपक्षी दलों के प्रमुख नेताओं को नजरबन्द कर दिया गया । गम्भीर रूप से बीमार पड़ जाने पर 12 नवम्बर, 1975 को जयप्रकाशजी को जेल से रिहा कर दिया गया। 18 जनवरी, 1977 को लोकसभा के लिए चुनावों की घोषणा की गई। जयप्रकाशजी एक बार फिर आगे आये और जनता पार्टी के गठन में सक्रिय सहायता की। जनता पार्टी ने चुनावों में विजय प्राप्त की और केन्द्र में नई सरकार बनाई। जयप्रकाशजी को चुनावों के पश्चात् ‘लोकनायक’ के नाम से जाना जाने लगा। जेल में बन्दी होने के दौरान उनके स्वास्थ्य में गिरावट आई और तब से उनका निरन्तर उपचार किया जाने लगा। विशिष्ट उपचार के लिए मई, 1977 में वे अमेरिका गये और स्वास्थ्य लाभ के बाद स्वदेश लौट आये।

अस्वस्थ होने के बावजूद जयप्रकाश नारायण अपने विवेक और दूरदर्शिता से राष्ट्र को दिशानिर्देश करते रहे। राष्ट्रीय मामलों में वे रुचि लेते रहे और अपने अनुभव और राय देते रहे। जनता सरकार के विभिन्न घटकों की आपसी फूट से वे निराश और खिन्न होते गये। उन्होंने खुले रूप में यह स्वीकार किया कि जनता सरकार आपसी फूट के कारण जन-आकाँक्षाओं पर खरी नहीं उतरी है। जयप्रकाश का स्वास्थ्य हमेशा चिन्ता का विषय रहा और 8 अक्तूबर, 1979 को उनके आकस्मिक निधन के दुःखद समाचार से पूरा राष्ट्र स्तब्ध रह गया। राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी ने लोकनायक के निधन पर आकाशवाणी द्वारा प्रसारित राष्ट्र के नाम एक सन्देश में कहा-

“आज मैं बहुत दुःख भरे दिल के साथ आप लोगों से बात कर रहा हूँ। यह इतना दुःखद अवसर है कि इसे शब्दों में नहीं व्यक्त किया जा सकता । लोकनायक श्री जयप्रकाश नारायण हमारा पथ प्रदर्शन करने तथा हमें प्रेरणा देने के लिए अब हमारे बीच नहीं रहे। भारत के प्रत्येक परिवार में आज एक व्यक्तिगत हानि व प्रियजन के बिछड़ जाने की-सी अनुभूति है। ऐसा लगता है कि घनिष्ठ पारिवारिक सम्बन्ध सदा के लिए टूट गये हैं। इस महान् व्यक्ति के निधन के साथ ही हमारे देश के इतिहास के एक घटनापूर्ण युग की समाप्ति हो गई है। वे गौरवपूर्ण गाँधी युग की जीवित अन्तिम कड़ियों में से एक थे। वे सच्चे अर्थों में इस युग की एक सच्ची वाणी थे जो सेवा, बलिदान, सादा जीवन व उच्च विचार का पथ प्रशस्त कर रहे थे।”

“यह मेरा विशेष सौभाग्य है कि मैं लगभग तीन दशकों तक जयप्रकाश नारायणजी के सान्निध्य में रहा हूँ। उन्होंने मुझे अपना भरपूर प्यार और कृपा प्रदान की। उनमें वीरोचित गुण थे लेकिन उनके सन्निकट आने वाले सभी लोग उनके मानवीय गुणों तथा निश्छल व विनम् स्वभाव से प्रभावित होते थे “

“यह बहुत ही दुःखद बात है कि हमारे देश के इतिहास के इस संकट भरे समय में हमने इस महान् नेता को खो दिया है। हमारे लिए ऐसी स्थिति की कल्पना मात्र भी कम वेदनामय नहीं जबकि इस राष्ट्र को उनके बहुमूल्य परामर्श और मार्गदर्शन से वंचित रहना पड़ेगा। हमें इस होनी को स्वीकार करते हुए भविष्य का साहस और धैर्य के साथ सामना करना होगा व उनके उस ध्येय को पूरा करने के लिए भरपूर प्रयास करना होगा जिसके लिए वे जीवित रहे और दिवंगत हुए। अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में वे हमारे नैतिक स्तर में हो रहे पतन से काफी चिन्तित थे और वे बार-बार पूछा करते थे-“क्या कोई राष्ट्र बिना नैतिक बल के जिन्दा रह सकता है ?”

“मेरी कामना है कि उनकी स्मृति सर्वदा हमारे बीच बनी रहे और आगे आने वाले वर्षों में हमारा पथ प्रदर्शन करे।”

लक्ष्मी नारायण लाल ने जयप्रकाश के मानस का जीवन्त वर्णन करते हुए लिखा है-

“इन्हें आन्दोलन में उतना विश्वास नहीं है, जितना कि संघर्ष में है और सबसे ज्यादा आस्था है संघर्ष में, अबाधता में, निरन्तरता में। संघर्ष इस अबाधता को जहाँ कहीं भी बँधा हुआ, टूटा हुआ, सीमित और कुण्ठित होते हुए देखा वहीं उस व्यवस्था को, दल और विश्वास को छोड़कर, यह आगे बढ़ गये। चाहे मार्क्सवाद हो, चाहे साम्यवाद, चाहे काँग्रेस सोशलिस्ट पार्टी हो, चाहे सोशलिस्ट हो, चाहे पी० एस० पी० हो और चाहे सर्वोदय हो और अन्त में चाहे सवयं जे० पी० क्यों न हो पर उनमें रहने वालों ने हमेशा जे० पी० पर यह कहकर पत्थर फेंके हैं कि यह भगोड़ा है, अवसरवादी है, व्यक्तिवादी है, प्रतिक्रियावादी है, सुधारवादी है, संशोधनवादी है, दक्षिणपंथी है । पर सदा ऐसे फेंके हुए पत्थर उन्हें छूकर ऐसे काँटे बन गए हैं जो पत्थर चलाने वालों के पैरों में अक्सर चुभते हैं और अब उन्हें दर्द की एक टीस होती है और उनके मुँह से निकलता है हाय ! यह शख्स हमारी पार्टी का लीडर क्यों नहीं हुआ ? यह हमेशा क्या-क्या करता रहता है? बोलता रहता है ? जे० पी० ने दो टूक उत्तर दिया है आप कहते हैं कि जयप्रकाश नारायण नेता बने, लेकिन नेता बनकर क्या करे और कहे वह जो आप चाहते हैं ? यानी जयप्रकाश नारायण अपना दिमाग कहीं रख आए, उसे कहीं ताले में बन्द कर आए। आप उसके दिमाग को, कार्यकलाप को, विचार को समझाना चाहते हैं ? क्या कर रहा है वह, क्या सोच रहा है, उसका समाजवाद से अथवा जनता के साथ क्या सम्बन्ध है ? वह सब आप समझना चाहते हैं ? क्या आपको ऐसा नेता मिलेगा जो आपकी शर्तों पर आपका नेता बनने को तैयार होगा ? मैं अपनी शर्तों पर नेता बनने को तैयार हूँ। मानिए मेरी शर्त और चलिये गाँव में मेरे साथ । मैं जंगल में नहीं गया हूँ। हिमालय की गुफाओं में नहीं गया हूँ। गाँधियन इन्स्टीट्यूट में बैठा-बैठा किताब नहीं पढ़ रहा हूँ।”

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