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सल्तनतकालीन स्थापत्य कला की प्रमुख इमारतें

सल्तनत कालीन स्थापत्य कला एवं वास्तुकला

सल्तनत कालीन स्थापत्य कला एवं वास्तुकला

हिन्दू-मुस्लिम स्थापत्य-कला शैलियों में अनेकानेक विभिन्नताएँ होते हुए भी धीरे-धीरे सामंजस्य स्थापित हो गया था। सर जॉन मार्शल ने लिखा है, “हिन्दू मन्दिर और मुस्लिम मस्जिद में एक समान बात यह थी कि दोनों में एक विस्तृत खुला आँगन होता था जिसमें चारों ओर खम्भेदार कमरे होते थे। ऐसे मन्दिरों को सरलता से मस्जिदों के रूप में बदला जा सकता था इसलिए विजेताओं ने उनका इसी कार्य के लिए उपयोग किया। साथ ही हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही कलाएँ सजावट-प्रधान थीं।”

हिन्दू-मुस्लिम कला के सम्पर्क ने एक नवीन शैली को जन्म दिया जिसे इण्डो-इस्लामिक कला कहा जा सकता है।

दास-वंश की इमारतें (1206-1210 ई०)

  1. कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद-

    दास-वंश के प्रथम सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल में दिल्ली में राय पिथौरा अथवा पृथ्वीराज चौहान के किले के समीप एक मन्दिर को तोड़कर ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ मस्जिद का निर्माण कराया गया। मन्दिर के चबूतरे में कोई परिवर्तन नहीं किया गया परन्तु इसके निर्माण में 26 मन्दिरों को तोड़कर उनकी सामग्री प्रयोग में लायी गयी। इस मस्जिद में स्तम्भों वाले बरामदों से घिरा हुआ एक आयताकार सहन है। इसके पश्चिमी भाग में पूजागृह और शेष तीन ओर प्रवेश-द्वार हैं। इस इमारत की मुख्य विशेषता मुस्लिम शैली की मेहराबदार दरवाजों की पर्दा जैसी दीवार थी जिस पर मुस्लिम शैली की सजावट थी और इस पर कुरान की आयतें खुदी हुई थीं। बाद में इल्तुतमिश व अलाउद्दीन खिलजी ने इसमें कुछ और परिवर्तन कराये। इसके आँगन व इबादतखाने को विस्तृत कर दिया गया। पर्सी ब्राउन ने इसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है, “अपनी कलात्मक तथा स्थापत्य-कला सम्बन्धी विशेषता के साथ-साथ दिल्ली में यह मस्जिद अपनी मेहराबों की पंक्तियों के कारण उल्लेखनीय इमारत है।’

  1. कुतुबमीनार-

    कुतुबुद्दीन ऐबक के शासनकाल की दूसरी महत्वपूर्ण इमारत ‘कुतुबमीनार’ है जिसके निर्माण का प्रारम्भ 1199 ई0 में ऐबक ने कराया परन्तु जो इल्तुतमिश के शासनकाल में 1212 ई० में पूर्ण हुई। मूल रूप में यह चार मंजिल की थी परन्तु फिरोज तुगलक ने इस पर एक मंजिल और बनवा दी थी। अब यह 228 फीट ऊँची है। इसमें 360 सीढ़ियाँ हैं। इसका नामांकन प्रसिद्ध सूफी सन्त ख्वाजा कुतुबुद्दीन के नाम पर है।

  2. अढ़ाई दिन का झोपड़ा-

    कुतुबुद्दीन ने अजमेर में ‘अढ़ाई दिन का झोपड़ा’ नामक एक अन्य इमारत का निर्माण कराया। मौलिक रूप से सम्राट विग्रहराज बीसलदेव द्वारा निर्मित यह एक मन्दिर था जिसे काट-छाँटकर मस्जिद का रूप दे दिया गया। इसकी निर्माण-शैली ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ मस्जिद से मिलती-जुलती है परन्तु यह उससे अधिक सुन्दर व विस्तृत है। इस इमारत के हिन्दू मन्दिर होने की बात स्तम्भों पर उत्कीर्ण मानवाकृतियों से सिद्ध होती है जिन्हें बाद में तोड़ा और मिटाया गया है।

  3. सुल्तान गढ़ी-

    कुतुबमीनार से तीन मील की दूरी पर मलकापुर में स्थित इस मकबरे को सुल्तान इल्तुतमिश ने अपने पुत्र नासिरुद्दीन मुहम्मद की स्मृति में बनवाया था। इसकी दीवारें दुर्ग के परकोटे की तरह विशाल और सुदृढ़ हैं। यह सुल्तान गढ़ी के नाम से प्रख्यात है। इसके बीच का कक्ष अठपहला है और चारों कोनों पर बुर्जियाँ हैं। इसके नीचे भूगर्भ में कब्र है। यह इमारत हिन्दू-मुस्लिम कला के मिश्रित स्वरूप का एक सजीव उदाहरण हैं। यदि इस इमारत की मेहराबें मुस्लिम-शैली की प्रतीक हैं तब इसके स्तम्भ, उत्कीर्ण, शिलाएँ तथा छतें विशुद्ध भारतीय कला की प्रतीक कही जा सकती हैं। प्रसिद्ध कलामर्मज्ञ पर्सी ब्राउन ने इसकी कला-शैली की अत्यन्त प्रशंसा की है। सम्पूर्ण इमारत को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इसके निर्माण में हिन्दू- मन्दिरों की सामग्री को प्रयोग में लाया गया है।

  4. इल्तुतमिश का मकबरा—

    कुतुबी मस्जिद के उत्तर-पश्चिम में स्थित यह इमारत इल्तुतमिश के मकबरे के नाम से प्रख्यात है। यह लाल पत्थर से निर्मित है और इसमें एक ही कक्ष है जिसके तीन ओर मेहराबदार द्वार हैं। मकबरे के भीतर सुन्दर खुदाई का कार्य किया गया है, साथ ही कुरान के अभिलेख और ज्यामिति की आकृतियों के सुन्दर अलंकरण हैं।

  5. जामा मस्जिद-

    यह बदायूँ में स्थित है। इसके निर्माण का श्रेय भी सुल्तान इल्तुतमिश को है। बदायूँ में ही सुल्तान ने ‘हौज-ए-शम्सी’ तथा ‘शम्सी ईदगाह’ का भी निर्माण कराया था।

  6. अतारकिन का दरवाजा-

    यह नागौर (राजस्थान) में स्थित है। इसके निर्माण एवं नामकरण का श्रेय भी सुल्तान इल्तुतमिश को है।

सन् 1236 ई० में इल्तुतमिश की मृत्यु के साथ ही स्थापत्य-कला के विकास में एक व्यवधान उत्पन्न हुआ। इल्तुतमिश के अयोग्य उत्तराधिकारी राजनीतिक समस्याओं में सदैव उलझे रहे और भवन-निर्माण-कला के उत्थान की ओर उन्होंने विशेष ध्यान नहीं दिया। फिर भी बलबन के काल बना उसका अपना मकबरा स्थापत्य-कला का सुन्दर उदाहरण है।

  1. बलबन का मकबरा—

    इसका कक्ष वर्गाकार है। चारों ओर प्रवेश-द्वार हैं। इसके पूर्व व पश्चिम में छोटे-छोटे कमरे हैं। इस मकबरे के मेहराब दीवारों के दोनों कोनों से एक के ऊपर दूसरा पत्थर रखकर और प्रत्येक को थोड़ा आगे निकाल कर निर्मित किये ग हैं।

खिलजी-काल की इमारतें (1290-1320 ई०)

डॉ0 के0 एस0 लाल का मत है कि स्थापत्य-कला के क्षेत्र में अलाउद्दीन खिलजी के गद्दी पर बैठने से हिन्दू-मुस्लिम शैली में एक नवीन अध्याय का शुभारम्भ हुआ। खिलजी-युग के प्रतम शासक जलालुद्दीन का योगदान इसमें नगण्य है, परन्तु अलाउद्दीन महान् निर्माता सिद्ध हुआ। उसके समय की दो महत्वपूर्ण इमारतों का वर्णन प्राप्त होता है—(1) अलाई दरवाजा, (2) जमातखाना मस्जिद।

  1. अलाई दरवाजा-

    अलाउद्दीन ने ‘कुव्वत-उल-इस्लाम’ मस्जिद का विस्तार कराया। वह कुतुब क्षेत्र में एक अत्यन्त ऊंची मीनार का निर्माण कराना चाहता था, परन्तु मृत्यु के प्रहार ने उसे इच्छापूर्ति का अवसर प्रदान नहीं किया। ‘अलाई दरवाजा’ अलाउद्दीन के काल की सर्वाधिक प्रसिद्ध इमारत है जो 1305 ई० में पूर्ण हुई। इसमें लाल पत्थर का प्रयोग किया गया है, परन्तु कहीं-कहीं सजावट के लिए संगमरमर की पट्टियों का भी प्रयोग हुआ है। स्थान-स्थान पर अलंकरण है। इसे इस्लामी स्थापत्य-कला का सर्वाधिक कीमती रत्न स्वीकार किया जाता है। इसके चारों ओर सीढ़ियोंदार चार दरवाजे हैं, जिनमें नुकीले मेहराबों का प्रयोग किया गया है। नीचे की ओर पतले स्तम्भ बनाये गये हैं जो इसकी शोभा को बढ़ाते हैं। ‘अलाई दरवाजा’ सल्तनत काल की महत्वपूर्ण उपलब्धि है। यह देखने में सहज ही हिन्दू मन्दिर कला का स्मरण करा देता है। पर्सी ब्राउन ने लिखा है, “अलाउद्दीन खिलजी द्वारा निर्मित मस्जिद का दरवाजा ‘अलाई दरवाजा’ भारत में इस्लामी कला के विकास में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

  2. जमातखाना मस्जिद-

    लाल पत्थर की बनी हुई यह एक सुन्दर इमारत है। इसके समीप ही प्रसिद्ध फकीर निजामुद्दीन औलिया की दरगाह है। इसमें तीन कक्ष हैं। बीच का कक्ष चौकोर और शेष दोनों आयताकार हैं। तीनों कक्षों के द्वार डाकदार हैं जिनके कोनों पर पद्म-मुद्रा बनी हुई है जो हिन्दू शैली का प्रतीक है। इससे गुम्बद के सौन्दर्य में वृद्धि होती है। मेहराब व दरवाजों पर अलाई दरवाजे के समान खुदाई व अलंकरण है।

अन्य इमारतें- अलाउद्दीन ने दिल्ली के समीप सीरी नामक नगर बसाया जो कुतुब-क्षेत्र के उत्तर में स्थित है। यहीं पर अलाउद्दीन ने ‘हजार सितून’ (हजार स्तम्भों वाला) महल बनवाया। यह भवन अब पूर्ण रूप से नष्ट हो गया है और सीरी नगर के भी अवशेष ही रह गये हैं। इसके साथ-साथ अलाउद्दीन ने ‘हौज-ए-अलाई’ नामक एक विशाल तालाब का निर्माण कराया जिसका क्षेत्रफल 600 एकड़ था। अलाउद्दीन के पुत्र एवं उत्तराधिकारी मुबारकशाह ने बसाना में ऊखा मस्जिद का निर्माण कराया। डॉ० श्रीवास्तव ने लिखा है, “यह मस्जिद अलाउद्दीन खिलजी के काल की उत्कृष्ट शैली का पतनोन्मुख रूप प्रस्तुत करती है।”

तुगलक-काल की इमारतें ( 1320-1411 ई०)

तुगलकालीन इमारतें स्थापत्य-कला की दृष्टि से खिलजीकालीन इमारतों से भिन्न हैं। खिलजीयुगीन इमारतों के अलंकरण और वैभव का स्थान तुगलक-काल में इस्लामी सादगी और गम्भीरता ने ले लिया। इस युग के तीन प्रमुख सुल्तान कट्टर सुनी मुसलमान थे, इसलिए उन्होंने पुरातन विशुद्ध इस्लामी भवन-निर्माण-कला को अपना लिया था। साथ ही तुगलक-युग आर्थिक दृष्टि से भी खिलजी-युग की भाँति समृद्धशाली नहीं था, अतः व्ययसाध्य वैभवपूर्ण भवनों का निर्माण सादगी ने ले लिया था।

गियासुद्दीन तुगलक द्वारा निर्मित करायी गयी इमारतें—

तुगलक-वंश के संस्थापक सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक के काल की दो इमारतों का वर्णन प्राप्त होता है—(1) तुगलकाबाद नगर, तथा (2) उसका अपना मकबरा। तुगलकाबाद दिल्ली के सात नगरों में से एक था। यह कुतुब-क्षेत्र के पूर्व में बसाया गया था।

गियासुद्दीन का मकबरा—

यह तुगलकाबाद किले के उत्तरी भाग में स्थित है। यह लाल पत्थर से निर्मित पंचभुजीय गढ़ी के समान है। मेहराबों पर संगमरमर की पट्टियाँ जड़ी हुई हैं।इसके स्तम्भ चौकोर, दीवारें ढालू और प्रत्येक कोने पर बुर्ज है। मार्शल ने स्थापत्य-कला की दृष्टि से इस मकबरे की अनेक कमियों की ओर भी संकेत किया है परन्तु अन्त में उन्होंने यह स्पष्ट लिखा है कि “निश्चय ही तुगलक वंश के संस्थापक एवं बहादुर योद्धा के लिए इससे अधिक उपयुक्त और कोई विश्राम-स्थल नहीं हो सकता था।” इस मकबरे के निर्माण में मुस्लिम मेहराब के साथ-साथ जो भारतीय उदम्बर (Lintel) का प्रयोग किया गया है, उसके आधार पर डॉ० रामनाथ ने लिखा है, “इस इमारत में भारतीय और मुस्लिम दोनों तत्वों का बड़ा मनोरम समामेलन हुआ है। मेहराब के साथ उदम्बर (Lintel) लगाया गया है, कोण मेहराबों के साथ तोड़ो (Brackets) का प्रयोग है और गुम्बद पर आमलक और कलश का उपयोग हुआ है। वास्तव में यहीं से सही अर्थों में एक मिश्रित शैली का प्रारम्भ होता है जिसका चरमोत्कर्ष मुगलों के स्वर्णकाल में हुआ।”

मुहम्मद तुगलक द्वारा निर्मित करायी गयी इमारतें-

मुहम्मद तुगलक ने तुगलकाबाद के समीप आदिलाबाद नामक एक दुर्ग को निर्मित कराया। इसके निर्माण में अत्यन्त साधारण सामग्री का प्रयोग किये जाने के कारण यह टिकाऊ सिद्ध नहीं हुआ। जहाँपनाह नामक एक नगर की स्थापना का श्रेय भी मुहम्मद तुगलक को है जिसे चौथी दिल्ली के नाम से जाना जाता था। सुल्तान ने यहाँ सतपुला नामक एक बाँध व बिजली महल का निर्माण कराया था जिसके अवशेष बाकी हैं। मुहम्मद तुगलक ने अपनी राजधानी दौलताबाद स्थानान्तरित की थी। सम्भवतया उसने वहाँ भी कुछ इमारतों का निर्माण कराया होगा।

फिरोज तुगलक द्वारा बनवाई गयी इमारतें (1351-1388 ई0)-

फिरोज तुगलक कट्टर सुन्नी मुसलमान था। वातावरण के प्रभाव से इस्लाम में जो भारतीय तत्व मिश्रित हो गये थे, वह उन्हें पूर्ण रूप से अलग कर देना चाहता था। स्थापत्य-कला के क्षेत्र में भी वह विशुद्ध इस्लामी शैली को अपनाने का पक्षपाती था। वह अपने समय का महान् निर्माता था। उसने निम्नलिखित भवन व नगर बसाये थे:

  1. सुल्तान फिरोज ने फिरोजाबाद नामक पाँचवीं दिल्ली बसायी और उसमें एक महल भी बनवाया जिसके अब अवशेष ही देखने को मिलते हैं।
  2. शिकार एवं मनोरंजन के लिए ‘कुश्क-ए-शिकार’ नामक एक महल का निर्माण कराया था।
  3. उसने हौज-ए-खास के किनारे एक शानदार मदरसे का निर्माण कराया।
  4. फिरोजशाह का बना मकबरा एक वर्गाकार इमारत है जिस पर केवल एक गुम्बद है। इसमें संगमरमर का सुन्दर उपयोग किया गया है। यह इमारत मध्यकालीन स्थापत्य-कला के विकास में महत्वपूर्ण योगदान करती है, और सल्तनत-काल की इमारतों में भारतीय कला के प्रभाव की प्रतीक है। फिरोज तुगलक इच्छा होते हुए भी हिन्दू प्रभाव से मुस्लिम कला को मुक्त नहीं कर सका।
  5. निजामुद्दीन औलिया की दरगाह के समीप स्थित खानेजहाँ तिलंगानी का मकबरा तुगलक-काल की महत्वपूर्ण उपलब्धि है, जिसके निर्माण का श्रेय सुल्तान के पुत्र खानेजहाँ जौनशाह को है। मकबरे की योजना अठपहला है। ऊपर एक गुम्बद व नीचे मेहराबदार बरामदा है।
  6. स्थापत्य-कला के उत्कृष्ट नमूने में काली मस्जिद की भी गणना की जा सकती है। अर्द्धवृत्तीय मेहराबों पर यह दुमंजिला इमारत है। खिर्की मस्जिद व बेगमपुरी मस्जिद भी इसी काल में बनायी गयी।

नासिरुद्दीन मुहम्मदशाह (1383-92 ई०) के काल में कबीरुद्दीन औलिया का मकबरा निर्मित हुआ जो लाल गुम्बद के नाम से प्रख्यात है। संगमरमर का बना खिलजी शैली का यह एक सुन्दर भवन है, जो गियासुद्दीन के मकबरे से मिलता-जुलता है।

सैयद व लोदी-काल की इमारतें

तुगलक साम्राज्य के पतन में तैमूरलंग के आक्रमण का विशेष योगदान है। इस आक्रमण ने दिल्ली-सल्तनत को आर्थिक रूप से अत्यन्त जर्जर कर दिया था। आर्थिक रूप से पंगु हो जाने के कारण सन् 1414 से 1526 ई0 तक दिल्ली सल्तनत-काल के अन्तिम सुल्तान कोई महत्वपूर्ण निर्माण-कार्य नहीं करा सके। सैयद-वंश की तुलना में लोदी-वंश के सुल्तानों ने अधिक इमारतों का निर्माण कराया। सैयद-वंश के प्रारम्भिक दो सुल्तानों ने खिज्राबाद व मुबारकाबाद नामक दो नगर बसाये, परन्तु साधारण सामग्री के प्रयोग के कारण वे समय के प्रहार को सहन नहीं कर सके। वस्तुतः यह युग मकबरों का था। इस काल में दो प्रकार के मकबरों का वर्णन मिलता है—(1) वर्गाकार, और (2) अठपहलू। प्रथम प्रकार के मकबरों में ‘खान का गुम्बद’, ‘छोटे खान का गुम्बद’, ‘बड़ा गुम्बद’, ‘शीश गुम्बद’, ‘दादी का गुम्बद’, ‘पोली का गुम्बद’ और ‘ताजखाँ का मकबरा’ प्रमुख हैं। ये साधारण अठपहला मकबरे की तुलना में अधिक ऊँचे होते हैं, लेकिन इनका क्षेत्रफल कम होता है। इसके ऊपर एक गुम्बद होता है जिसके चारों ओर कोनों पर चार छतरियाँ हैं। गुम्बद पर आमलक व कलश हैं। दूसरे प्रकार के मकबरे (अठपहला) अधिकांशतः सुल्तानों के लिए बनाये गये हैं। इसमें ‘मुबारकखाँ सैयद का मकबरा’, ‘मुहम्मद सैयद का मकबरा’ और ‘सिकन्दर लोदी का मकबरा’ प्रसिद्ध है। इनके चारों ओर परकोटे और चारों कोनों पर बुर्जियाँ हैं। प्रवेश द्वार दक्षिणी भाग के बीच में हैं। शोभा बढ़ाने के लिए इनमें टाइल्स लगाये गये इनकी अन्य विशेषता दुहरे गुम्बद हैं।

इस काल में कुछ मस्जिदों का भी निर्माण हुआ। ‘मोठ की मस्जिद’ सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्वीकार की गयी है। सिकन्दर लोदी के मंत्री ने इसका निर्माण कराया था। इस भव्य इमारत में पाँच मेहराबयुक्त प्रवेश-द्वार हैं। इसकी मीनारें ऊपर की ओर पतली होती चली गयी है तथा गुम्बद देखने में आकर्षक है। सर जॉन मार्शल ने इसे स्थापत्य-कला की दृष्टि से लोदी-काल की सर्वश्रेष्ठ कृति स्वीकार किया है।

प्रान्तीय स्थापत्य-कला शैलियाँ

मुल्तान

मुस्लिम आक्रान्ताओं के प्रथम प्रहार को अधिकतर मुल्तान ने सहन किया। सातवीं शताब्दी के अरब आक्रमणकारियों से लेकर गजनी और गोरी शासक के काल तक मुल्तान पर निरन्तर विदेशी प्रभुत्व बना रहा। दास-वंश के शासकों में इल्तुतमिश ने भी इस पर अधिकार किया। मुहम्मद-बिन-कासिम ने यहाँ पर एक मस्जिद का निर्माण कराया। शमसुद्दीन का मकबरा मुल्तानी कला का सजीव प्रतीक है। ‘रुकने आलम का मकबरा’ मृतकों के सम्मान में बनाये गये स्मारकों में सर्वाधिक सुन्दर है। सर जॉन मार्शल इसे लोदी, सैयद एवं सूर-वंश के मकबरों से भी श्रेष्ठ स्वीकार करते हैं।

बंगाल

यद्यपि बंगाल का प्रदेश धनधान्य से परिपूर्ण था परन्तु यहाँ के शासक किसी विशिष्ट स्थापत्य-कला शैली को जन्म नहीं दे सके। पत्थर की कमी के कारण यहाँ अधिकतर इमारतों में ईंटों का ही प्रयोग किया गया है। “छोटे-छोटे स्तम्भों पर नुकीले मेहराबों, बाँस की इमारतों से ले गयी हिन्दू मंदिरों की लहरियेदार कार्निसों की परम्परागत शैली का मुसलमानी अनुकरण और कमल जैसे सुन्दर खुदाई के हिन्दू सजावट के प्रतीक चिन्हों का अपना लिया जाना बंगाली कला की विशेषता थी। बंगाल-शैली की इमारतों के अवशेष लखनौती, त्रिवेनी, गौर एवं पंडुआ में मिले हैं। इस स्थापत्य-कला शैली के प्रतीक जफरखाँ गाजी का मकबरा व मस्जिद हैं जिनके निर्माण में हिन्दू मन्दिरों की सामग्री प्रयोग में लायी गयी। सन् 1339 अथवा 1374 ई० में प्रसिद्ध अईना मस्जिद का निर्माण सिकन्दरशाह ने पंडुआ में कराया था। बंगाल में यह मस्जिद संसार के आश्चर्यों में एक मानी जाती है, परन्तु सर जॉन मार्शल लिखते हैं कि “यह अपनी विशालता के बिलकुल ही उपयुक्त नहीं है।’ डॉ0 रामनाथ मदीना मस्जिद के अवशेषों के आधार पर यह मत व्यक्त करते हैं कि “मस्जिद अपने युग की अत्यन्त सुन्दर और भव्य इमारत रही होगी।’

पंडुआ में स्थित सुल्तान जलालुद्दीन मुहम्मदशाह का मकबरा भी बंगाल की स्थापत्य-कला का महत्वपूर्ण उदाहरण है। बंगाल की अन्य अविस्मरणीय इमारतों में लोटन मस्जिद, बड़ा सोना मस्जिद, छोटा सोना मस्जिद और कदम रसूल मस्जिद हैं। पत्थर के अभाव में इस काल में ईंटों का अधिक प्रयोग हुआ है, फलतः इमारतें टिकाऊ सिद्ध नहीं हुईं। परन्तु गौड़ में निर्मित दाखिल दरवाजा “ईंटों से बनायी गयी इमारत का इतना सुन्दर नमूना है कि उसकी तुलना संसार में कहीं भी ईंटों की बनी हुई किसी भी इमारत से की जा सकती है।” दूर से देखने पर यह किसी किले का सुदृढ़ प्रवेश द्वार प्रतीत होता है। गौड़ में स्थित फिरोज मीनार भी ईंटों से बनायी गयी है। यह पाँच मंजिल की है और इसकी ऊंचाई 84 फीट है। अलंकरण के लिए इसमें सफेद व नीली टाइल्स का उपयोग किया गया है। डॉ० श्रीवास्तव ने लिखा है, “बंगाली शैली की सुन्दरता पकी हुई ईंटों की सजावट, लहरियेदार कॉर्निसें, छत के ऊपर झोपड़ी के समान ढकाव और उससे ही संलग्न अर्द्धगोलाकार गुम्बद में निहित है।”

जौनपुर

प्रारम्भ में यह एक हिन्दू राज्य था परन्तु कालान्तर में यहाँ मुसलमानों की सत्ता स्थापित हो गयी। इसका नामांकन फिरोज तुगलक ने जूनाखाँ के नाम पर किया था। सिकन्दर लोदी ने इस पर अधिकार स्थापित करने में सफलता प्राप्त की और लगभग एक शताब्दी तक यहाँ शर्कियों की सत्ता स्थापित रही। इस काल में जौनपुर, उत्तरी भारत का महत्वपूर्ण सांस्कृतिक केन्द्र बन गया था। इस समय में यहाँ अनेकानेक मकबरे, मस्जिदें व भवन निर्मित हुए जो हिन्दू-मुस्लिम मिश्रित शैली के अत्यन्त सजीव उदाहरण कहे जा सकते हैं।

इस काल में अनेकानेक सुन्दर व विशाल मस्जिदों का निर्माण हुआ जिनमें शमसुद्दीन इब्राहीम द्वारा निर्मित करायी गयी ‘अटाला मस्जिद‘।

इस प्रकार हम देखते हैं कि सल्तनत-काल की प्रारम्भिक इमारतों में हिन्दू स्थापत्य-कला शैली के तत्वों की प्रधानता रही है परन्तु कालान्तर में इस्लामी तत्व प्रमुखता प्राप्त करते गये हैं। धर्मान्ध मुस्लिम सुल्तानों के अनेक प्रयत्नों के बाद भी हिन्दू तत्वों को स्थापत्य-कला के क्षेत्र से पूर्ण रूप से अलग नहीं किया जा सकता है। इसीलिए इस युग की स्थापत्य-कला को इतिहासकारों ने इण्डो-मुस्लिम कला के नाम से पुकारा है। अतः यह कहा जा सकता है कि यह शैली दोनों जातियों के आपसी मेल-जोल, परिश्रम एवं सम्पर्क का परिणाम है।

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