इस्लाम धर्म उद्भव एवं प्रमुख सिद्धांत
इस्लाम धर्म उद्भव
इस्लाम धर्म विश्व के प्राचीन धर्मों में विशेष महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इसके प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब ने प्रेम, करुणा तथा ईश्वर का अहसास दिलाकर लोगों में आपसी भाईचारा बढ़ाने एवं उसे कायम रखने का संदेश दिया था। उनका आविर्भाव 570 ई० में अरब देश के दक्षिणी भाग में स्थित मक्का में हुआ। उनके पिता हजरत अब्दुल्ला कानिधन उनके जन्म के पूर्व ही हो चुका था। इतना ही नहीं जब हजरत मुहम्मद छह वर्ष के ही हुए थे, तो उनकी माता का भी स्वर्गवास हो गया। यतीम होने के बाद उनका लालन-पालन उनके दादा अब्दुल्ला मुत्तलिब ने किया। पचीस वर्ष की उम्र तक गरीबी तथा परेशानियों से भरी जिंदगी गुजारने के उपरान्त उनका विवाह एक चालीस वर्षीया धनी विधवा खदीजा से हुआ। बासठ वर्ष की उम्र में 632 ई० में उनका देहावसान हो गया।
जिस काल में हजरत मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था, उसमें अरब देश अनेक छोटे-छोटे कबीलों में विभक्त था। प्रत्येक कबीले के अलग-अलग देवी-देवता शासनतंत्र तथा विश्वास प्रचलित थे। उस समय मक्का में कुछ यहूदी तथा ईसाई धर्मावलम्बी भी रहते थे। ध्यातव्य है कि अरबवासी इस्लाम धर्म के अभ्युदय के समय ही नहीं, अपितु उसके पूर्व काल से ही भारतीय संस्कृति तथा यहाँ के धर्मादि से परिचित थे। इस बात की पुष्टि हजरत मुहम्मद के जन्म के 500 वर्ष पहले जन्मे कवि जरहमबिन-ताई की एक रचना में श्रीमद्भगवद्गीता में उद्धृत ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’ आदि श्लोकों में वर्णित कृष्ण-चरित के वर्णन से मिलता है। इस रचना में भारतीय देवता महादेव शिव की आराधना की महत्ता भी वर्मित की गई है। इतना ही नहीं, जेरूसलेम में अवस्थित हमीदिया पुस्तकालय में सम्राट हारूनर्रशीद के मंत्री फजलबिन-याहिया के मुहर-अंकित एक ताम्रपत्र में अभिलिखित 128 शेर (कविता) प्रप्त हुए हैं, जिनमें भारतीय ज्ञान-विज्ञान तथा देवताओं की प्रशंसा की गई है। इन साक्ष्यों से ही अरबवासी भारतीय हिन्दू तथा बौद्ध धर्म से भली-भाँति परिचित थे। ज्ञातव्य है कि हजरत मुहम्मद के पूर्व मक्का स्थित कावा के पवित्र परिसर में 360 मूर्तियाँ रखी हुई थीं, जिनमें से एक मूर्त की प्रतिदिन विशेष रूप से पूजा की जाती थी। बाद में मुहम्मद साहब ने उन सभी मूर्तियों को परिसर से हटवा दिया था, फिर भी, अज्ञात कारण वश, उनमें से एक काला पत्थर जो ‘संगेअसवद’ नाम से पुकारा जाता है, आज भी वहीं रखा हुआ है, जिसे प्रत्येक हज करने वाले इस्लाम धर्मावलम्बी बड़े आदर के साथ चूमा करते हैं। काबा के उक्त मंदिर के अलावा बल्ख में भी एक ‘नौ बिहार’ मंदिर अवस्थित था, जिसमें एक मूर्ति की नित्य पूजा की जाती थी। वहाँ का बरामका (पुजारी) प्रतिदिन उस मूर्ति को रेशम का वस्त्र धारण कराता था। अरबी एवं फारसी भाषाओं में प्रक्त बुत (मूर्ति) शब्द को ध्यान में रखते हुए कतिपय विद्वान् नौ बिहार (बौद्ध मठ) मंदिर में अवस्थित बुत (मूर्ति) को बुद्ध की मूर्ति स्वीकार किया जाना विशेष तर्कसंगत मानते हैं।
इस्लाम धर्म के उद्भव के अभी मात्र 80 वर्ष ही हुए होंगे कि उसका प्रचार-प्रसार पश्चिमोत्तर भारत की भूमि पर होने लगा था। ईसा की सातवीं शताब्दी के आरम्भ होते-होते इस्लाम धर्म क्रमशः ईराक, ईरान, मध्य एशिया की सरहदों को लाँधता हुआ 712 ई० में पश्चिमी भारत के सिन्ध क्षेत्र में फैलने लगा था।
इस्लाम धर्म के प्रमुख सिद्धान्त
पैगम्बर हजरत मुहम्मद साहब पेशे से सौदागर थे तथा मूलतः मानव-प्रेम, शान्ति एवं आपसी भाई-चारा में विश्वास करते थे। उन्होंने दार्शनिक जटिलता को न अपना कर लोगों को सादे एवं सरल कर्म-प्रधान धर्म की राह दिखायी। उनके अनुसार ईश्वर एक है तथा वह स्वयं उसके दूत अथवा पैगम्बर हैं। उनका कहना था कि जो ईश्वर को एक तथा उन्हें उसका पैगम्बर मानता है,उसे पाँच कर्म अवश्य संपन्न करना चाहिए-
- कलमा पढ़ना अर्थात् ‘ला इलाह इल्लल्लाह मुहम्मदर्रसूलल्लाह’ के द्वारा अपने हृदय में इस बात को बैठा लेना कि ईश्वर एक है तथा मुहम्मद साहब उसक रसूल (दूत या पैगम्बर) हैं।
- नमाज पढ़ना अर्थात् ईश्वर की उपासना करना।
- रोजा रखना (रमजान के महीने में दिन में उपवास करना)।
- जकात करना अर्थात् अपनी मेहनत से कमाई गई आय का ढाई प्रतिशत दान कर देना तथा
- हज करना अर्थात् मक्का एवं मदीना जैसे पवित्र इस्लामी तीर्थों की यात्रा करना।
हजरत मुहम्मद निराकार ईश्वर में विश्वास करते थे तथा मूर्ति-पूजा के घोर विरोधी थे। उनकी मूर्ति-पूजा विरोधी प्रवृत्ति अरब वासियों को प्रारम्भ में प्रिय न लगी। इसीलिए उन्हें मक्का छोड़ना पड़ा तथा यस-रिब नगर अर्थात् मदीना में जाकर अंततः शरण लेनी पड़ी। मदीनतुनबी (मदीना) का अर्थ होता है-‘नबी का निवास’। मदीना में हजरत मुहम्मद का खुलकर साथ देने वाले इस्लाम धर्मानुयायी ‘अन्सार’ कहलाए। इस प्रकार मक्का में धर्मम के रूप में उदित होने वाले इस्लाम धर्म को तत्कालीन विपरीत परिस्थितियों के पैदा हो जाने के कारण, मदीना में पहुंच कर एक राजनीतिक संगठन का रूप ग्रहण करना पड़ा। अरब-वासियों के बीच रहकर इस्लाम धर्म को स्वीकार करने वाले लोगों ने प्रारम्भ में अपना एक शक्तिशाली संगठन खड़ा किया। इस संगठन के चलते उन्होंने एक अरबी-साम्राज्य बना लिया, जिसके नेता अर्थात् राजा ‘खलीफा’ कहे जाने लगे। खलीफा जहाँ एक ओर इस्लाम धर्म में धर्म-गुरु था वह , इस्लामी साम्राज्य का शासक भी माना जाता था। इस्लाम धर्म के आरम्भिक चार खलीफाओं ने बड़ी सच्चाई तथा निष्ठा के साथ धर्म एवं राजनीति को साथ-साथ साधने तथा जनता पर अपना अच्छा प्रभाव स्थापित करने का कार्य किया। वे नितान्त नैतिक तथा सादगी पसन्द खलीफा सिद्ध हुए। अपने प्रचार एवं प्रसार के आरम्भिक दिनों में इस्लाम धर्म नितान्त क्रान्तिकारी सिद्ध हुआ। यह धर्म ईश्वर के अतिरिक्त और किसी के समक्ष सिर न झुकाने का पक्षधर वा समें अन्धविश्वास, दार्शनिक जटिलता एवं व्यर्थ के कर्मकाण्डों को कोई महत्व नहीं दिया गया। इस्लाम धर्म में आपसी भाईचारा इस सीमा तक प्रभावी था कि अमीर से अमीर व्यक्ति भी अपने इस्लाम धर्म में विश्वास रखने वाले को अपने समान दर्जा देकर भाईचारा निभाने में विश्वास करता था। मानवेन्द्र नाथ राय ने इस्लाम धर्म की इस विशेषता को अनुरेखित करते हुए लिखा है कि अपने – प्रचार के प्रारम्भिक दिनों में अरब आक्रमणकारी इस्लाम धर्मावलम्बी आक्रान्ता जिस-जिस देश में पहुँचे, जनता ने उनको अपना रक्षक माना तथा उनका स्वागत किया। वे अपने नबी के बताए उपदेशों तथा खलीफाओं के मानवीय एवं व्यावहारिक निर्देशों का बड़ी कड़ाई के साथ पालन करते थे तथा अन्धविश्वास एवं आडम्बर से दूर रहते थे। ज्ञातव्य है कि प्रारम्भिक खलीफाओं की नैतिकता एवं व्यावहारिकता की ये मान्यताएँ मुहम्मद साहब की मृत्यु के सौ वर्ष बीतते-बीतते लगभग समाप्त सी हो गई। तब तक इस्लाम का प्रभाव तथा अरब साम्राज्य का विस्तार मध्य एशिया, ईरान, मंगोलिया, दक्षिणी फ्रांस, स्पेन आदि देशों के अतिरिक्त उत्तरी अफ्रीका तक हो चुका था।
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