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भारत में इस्लाम का प्रवेश तथा तत्कालीन परिस्थितियाँ

भारत में इस्लाम का प्रवेश तथा तत्कालीन परिस्थितियाँ

भारत में इस्लाम का प्रवेश तथा तत्कालीन परिस्थितियाँ

भारत का अरब देश के साथ सांस्कृतिक संपर्क अति प्राचीन काल से ही चला आ रहा था परन्तु इस्लाम धर्म के उदित हो जाने के बाद ईसा की आठवीं सदी के प्रारम्भ में इस संपर्क में एक नया मोड़ आया। इस काल में सिन्ध एवं बल्ख प्रदेशों को अरब के इस्लाम धर्मावलम्बियों ने जीतकर विशाल अरब साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। 786 से 809 ई० के बीच अरब में राज्य करने वाले खलीफा हारूनर्रशीद की उदारता के फलस्वरूप राजधानी बगदाद में हिन्दू संस्कृति तथा इसके विविध पक्षों से जुड़े विद्वानों को बड़े आदर के साथ बुलाया जाता था तथा उनके ज्ञान से अरबवासियों को परिचित कराया जाता था। बल्ख प्रदेश से चयनित अरब के सम्राट के वजीर बरमकी भारतीय विद्वानों को बगदाद के दरबार में बड़ा प्रश्रय दिया करते थे। उन्होंने भारतीय तथा अरब के विद्वानों में परस्पर निकटता लाकर प्राचीन भारतीय गणितशास्त्र, विज्ञान, ज्योतिष, चिकित्साशास्त्र, कला तथा दर्शन आदि को अरबी भाषा में अनुवाद करवाया। बाद में अरब के विद्वानों ने भारत से प्राप्त गणित तथा चिकित्साशास्त्र आदि के ज्ञान को यूरोपीय देशों में प्रसरित किया। वस्तुतः भारत के साथ अरबवासियों का व्यापारिक रिश्ता पहले से ही स्थापित था। 636 ई० में अरब के व्यापारियों का एक जहाजी बेड़ा पश्चिम भारत में आया था इस बात के स्पष्ट ऐतिहासिक साक्ष्य प्राप्त होते हैं। अतः उन अरबी सौदागरों के माध्यम से सिन्ध तथा पश्चिमी भारत के सौदागर तथा निवासी जनता भी इस्लाम धर्म से परिचित हो चुकी थी। सिन्ध में मोपला लोगों ने उसी समय इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया था। इसके बहुत काल बाद 712 ई० में पश्चिमी भारत पर मुहम्मद बिन कासिम का आक्रमण हुआ। ध्यातव्य है कि सिन्ध तथा मालाबार तट के हिन्दुओं ने आरम्भ में इस्लाम धर्म को स्वेच्छा से अपना लिया था, न कि किसी प्रकार की लालच अथवा दबाव में। मालाबार का बादशाह चेरामन पेरूमल, नवीं सदी के अन्तिम दशक’ स्वेच्छा से इस्लाम धर्म को ग्रहण कर पश्चिम भारत में, विशेष रूप से मछुआरों के समाज में इस धर्म के प्रचार से लिए प्रश्रय देने में विश्वास करता था। पश्चिमी तट पर मुसलमानों का आगमन तथा प्रसार ईसा की आठवीं सदी में तेजी से शुरू हुआ तथा दसवीं सदी तक वे पूर्वी तट पर फैलने के साथ-साथ तत्कालीन हिन्दू व्यापारियों तथा राजदरबारों में भी प्रभावशाली बन चुके थे। इन दो सौ वर्षों के दरम्यान उनके पीर-औलिया आदि के प्रभाव एवं प्रसरण के साथ-साथ पश्चिमोत्तर भारतीय भूमि पर बहुतेरी मस्जिदों का भी निर्माण किया जाने लगा। इसी प्रकार, उत्तरी भारत में भी मस्जिदों को तथा मुसलमानों को समाज में आदर दिया जाने लगा। इस बात की पुष्टि इस तथ्य से भी की जा सकती है कि काम्बे के नरेश सिद्धराज (1094 ई0-1143 ई0) ने मस्जिदों को सुरक्षित रखने का विशेष प्रबन्ध करवाया था।

अरब एवं भारत के बीच स्थापित व्यापारिक एवं सांस्कृतिक आदान-प्रदान तथा पारस्परिक मैत्रीभाव को उस समय एक करारा झटका लगा, जब गजनी प्रदेश से चलकर महमूद गजनवी ने भारत के मन्दिरों तथा राज्यों पर आक्रमण करके भयंकर लूटपाट करना प्रारम्भ किया। यह प्रक्रिया मुहम्मद गोरी तक चलती रही। परिणामतः हिन्दुओं के मन में इस्लाम धर्म तथा मुसलमानों के प्रति स्थापित समादर का भाव लगभग खण्डित हो गया। मुहम्मद गजनी मुसलमान होकर भी सोमनाथ की मूर्ति को तोड़ने अथवा भारत पर सत्रह बार आक्रमण करने में क्यों हिचक नहीं रखता था—इसके भी कई ऐतिहासिक कारण थे। वस्तुतः अरब देश जहाँ इस्लाम धर्म का उदय हुआ, वहाँ खलीफाओं का राज्य स्थापित था तथा वहाँ के मुसलमान बड़े धर्म-सहिष्णु, मानवीय एवं ज्ञानी थे। ज्ञातव्य है कि बाद में 850 ई0 के लगभग इस्लाम धर्म ईरान के साथ-साथ पड़ोसी तुर्क राज्य में भी फैल गया। तुर्क लोग मूलतः हूण जाति के इतिहास-प्रसिद्ध बर्बर लोग थे। नवीं सदी में खिलाफत राज्य के कमजोर हो जाने पर अरब-स्थित मूल इस्लामिक राज्य एक छोटा सा राज्य बच गया था। उसके अधिकांश भू-भाग पर ईरानी मुसलमानों ने तुर्क सरदारों की सहायता से कब्जा कर लिया था। धीरे-धीरे तुर्क सरदारों ने न केवल इस्लाम धर्म को स्वीकार करना प्रारम्भ किया, अपितु ईरानी महिलाओं के साथ वैवाहिक सम्बन्ध भी स्थापित करना प्रारम्भ कर दिया। इन्हीं तुर्क सरदारों में से एक प्रमुख अलप्तगीन नामक सरदार ने अपने ईरानी बादशाह को कमजोर पाकर गजनी प्रदेश में अपना एक छोटा सा राज्य स्थापित कर लिया। अलप्तगीन की मृत्यु के बाद उसका बेटा सुबुक्तगीन गजनी राज्य का बादशाह बना। उसकी पत्नी ईरानी थी। इसी दम्पत्ति से महमूद गजनी जैसे बर्बर आक्रान्ता का जन्म हुआ। उसके व्यक्तित्व में ईरानियत का असर कम हूणों जैसी तुर्की नृशंसता की प्रवृत्ति अधिक थी। अतः उसके भारतीय आक्रमणों में अरब देश से आयी इस्लामी संस्कृति की शालीनता का पूर्ण अभाव था। इसी प्रकार, मुहम्मद गोरी भी अरबी अथवा ईरानी न होकर मूलतः पठान था। पठान जाति के लोग भी हो सकता है, हूणों जैसी किसी बर्बर जाति के वंशज रहे होंगे, जो बाद में मुसलमान बन गये। तुर्कों एवं पठानों के अतिरिक्त भारत पर आक्रमण करने वाले मुगल भी मूलतः मुसलमान न होकर मंगोल बौद्ध थे। बाबर ने अपने को मंगोल वंशज बताया है। परन्तु बाबर के व्यक्तित्व पर पिता की ओर से जहां शान्ति एवं विद्या के महान् उन्नायक तैमूर के शांतिप्रिय वंशजों का प्रभाव पड़ा था, वहीं माँ की ओर से शक्तिशाली मंगोल-रक्त का भी पूर्ण प्रभाव था। अस्तु, भारत में इस्लाम धर्म के प्रसार में मुहम्मद गजनी, मुहम्मद गोरी तथा बाबर प्रभृति आक्रान्ताओं में से कोई भी शुद्ध रबी रक्त तथा विशुद्ध एवं मूल इस्लाम धर्म की मान्यताओं का अनुयायी नहीं था। जिस मानवीय एवं सहिष्णुतापूर्ण इस्लाम धर्म का प्रवर्तन हजरत मुहम्मद ने किया था तथा जिसे अबूबक्र, उमर, उस्मान तथा अली आदि तेजस्वी एवं मानवीय खलीफाओं ने संवारा एवं प्रसरित किया था उनका उपर्युक्त मुस्लिम आक्रान्ताओं में अभाव था। प्रो० हुमायूँ कबीर के अनुसार उपर्युक्त आक्रान्तागण केवल इस्लाम धर्म से बाहरी रूप से ही जुड़ पाए थे, न कि उसकी वास्तविक प्रकृति, तत्व एवं मूल भावना से। इस्लाम धर्म की मूल प्रकृति में उदारता कूट-कूट कर भरी हुई थी। उसमें बर्बरता का बीजारोपण तातार लोगों के प्रवेश से हुआ। उत्तरी भारत में सिन्धु से लेकर गंगा-यमुना दोआब तक इस्लाम का परचम फहराने वाले लोग हजरत अथवा उनके प्रारम्भिक चार खलीफाओं जैसे उन्नतमना लोग नहीं थे। इस्लाम धर्म को फैलाने वाले लोगों में ईरानी मुस्लिम विजेताओं का योगदान अधिक रहा।

मुस्लिम आक्रमण और हिन्दू समाज

हजारों वर्ष से अपनी दार्शनिकता एवं आध्यात्मिकता में सतत् गतिशील भारतीय हिन्दू समाज को 712 ई० में सिन्ध पर हुए अरब आक्रान्ताओं ने इस्लाम धर्म की प्रमुख शिक्षाओं से अवगत करा दिया। कालान्तर में महमूद गजनी ने सोमनाथ को लूटकर तथा 1172 ई० में मुहम्मद गोरी ने दिल्ली को जीतकर, भारत में मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना का मार्ग प्रशस्त कर दिया। भारतवर्ष, जो विस्तार की दृष्टि से एक उपमहाद्वीप जैसा देश है, देखते-देखते मध्य युग में मुसलमान सुल्तानों के अधीन होता चला गया। 1192 ई० में मुहम्मद गोरी ने पृथ्वीराज को पराजित करके राजपूतों की बिखरी हुई शक्ति को झकझोर दिया। 1196-97 ई० में बंगाल भी मुसलमानों के अधीन हो गया। मध्य एशिया से चलकर मुट्ठीभर सेना के साथ भारत पर आक्रमण करने वाले उपर्युक्त मुसलमान आक्रमणकारियों को वीरता एवं शौर्य के मद से पूरित विशाल भारतीय हिन्दू जनसमुदाय तथा यहाँ के राजे-महाराजे युद्ध में पराजित क्यों नहीं कर सके—यह एक विचारणीय बात है। वस्तुतः हिन्दुओं में न तो शक्ति की कमी थी और न ही धन की। उनमें सबसे बड़ी कमी थी-राजनीतिक चेतना की। परम्परया हिन्दू समाज अपने शासक राजा को देवता मानता था तथा उन्हें अपना सर्वविध रक्षक मानकर स्वयं राजनीतिक दृष्टि से निरपेक्ष रहता था। उत्तरी भारत में सम्राट हर्षवर्धन के शासनकाल तक तो राजनीतिक एकता किसी न किसी रूप में बनी रही, किन्तु उनकी मृत्यु के बाद सम्पूर्ण उत्तर भारत अनेक छोटे-छोटे राज्यों में विभक्त होता चला गया। अब इन छोटे-छोटे राज्यों में कभी आभिजात्यता को लेकर, कभी नारी-प्रणय-विवाद को लेकर, कभी राज्य-विस्तार को लेकर आपस में गहरा मतभेद स्थापित हो जाया करता था। अधिकांश राजपूत नरेश मूलतः विदेशी शक एवं हूण जाति के थे, जो परम्परागत क्षत्रिय कन्याओं से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपनी जातिगत श्रेष्ठता की स्थापना में संघर्षरत रहा करते थे। इतिहासविद् के0 एम० मुन्शी ने अपने उपन्यास ‘जय सोमनाथ’ में तत्कालीन हिन्दू राजाओं की आपसी खींचतान तथा शत्रुता का विशद् चित्रण किया है। वस्तुतः तत्कालीन प्रत्येक हिन्दू राजा अपने को अविजेय तथा सम्राट् समझता था तथा प्रत्येक हिन्दू जनता अपने राज्य को ही हिन्दुस्तान समझ बैठी थी। फिर क्या था, मुट्ठी भर मुसलमान आक्रान्ताओं ने अपनी कूटनीति से उत्तरी भारत के हिन्दू राजाओं को एक-दूसरे के साथ शत्रुता पैदा करवाते हुए, एक-एक करके सबको जीत लिया तथा अपना विशाल राज्य स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर लिया। इस प्रकार, हिन्दुओं में राजनीतिक चेतना के अभाव के कारण भारत में मुसलमान शासन की नींव पड़ी।

भारतवर्ष में इस्लाम धर्म का मूलतः प्रचार-प्रसार तलवार के बल पर नहीं हुआ। सही बात तो यह है कि तुर्को, मंगोलों अथवा मुगलों के आक्रमणों का इस देश के निवासियों ने ठीक ढंग से सामना ही नहीं किया। इक्के-दुक्के राजाओं ने यदि उनका मुकाबला करने के लिए प्रयास भी किया तो अन्य राजागण उनका साथ देने के लिए आगे नहीं आए। कभी-कभी तो आपसी रंजिश के कारण वे आक्रान्ताओं की प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से सहायता करते रहे। ज्यादातर शासकगण तटस्थ बने रहे। इतना ही नहीं हिन्दुओं में प्रचलित धार्मिक अन्धविश्वासों तथा जात-पाँत के भेदभावों ने भी उन्हें गुलाम बनने की ओर प्रशस्त किया। जातिगत भेदभाव के बने रहने के कारण भारत में आदर्श राष्ट्रीयता की भावना तथा अनुभूति कभी हो ही नहीं पायी। जाति एवं धर्म की सुरक्षा करने में ही हिन्दुओं की सारी शक्ति खर्च होती रही और विशाल भारत राष्ट्र खंडित होते-होते अंततः मुसलमानी सत्ता का गुलाम हो गया।

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