गांधी जी के अनेक विचार

गांधी के विचार

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गाँधी : रूढ़िवादी अथवा क्रान्तिकारी ?

(Gandhi: Conservative or Revolutionary) ?

गाँधीजी रूढ़िवादी थे अथवा क्रान्तिकारी, यह एक विचारणीय प्रश्न है।राजनीतिशास्त्रियों ने रूढ़िवादिता की चार विशेषताएँ बतायी हैं-

  1. धर्म और सम्पत्ति जैसी स्थापित संस्थाओं को आदर्श की दृष्टि से देखना,
  2. समाज व्यवस्था की ऐतिहासिक क्रमबद्धता में दृढ़ आस्था,
  3. सामाजिक व्यवस्था को उसकी पूर्व निश्चित और इतिहासबद्ध दिशा से मोड़ने में व्यक्ति की इच्छा शक्ति और तर्क शक्ति की तुलनात्मक असमर्थता में अविश्वास, और
  4. जीवन में जो काम जिसे सौंप दिया गया है उसे वह पूर्ण निष्ठा के साथ करता रहे, इस सिद्धान्त का समर्थन । गाँधीजी की विचारधारा के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इनमें से किसी भी बात में उनका विश्वास नहीं था और इस कारण उन्हें रूढ़िवादी मानना गलत होगा। यह सच है कि उन्होंने प्राय: ‘पंचायत राज्य’ और ‘राम राज्य’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया। परन्तु इन शब्दों से उनका अर्थ उनके परम्परागत अर्थों से पूर्णतः भिन्न था। गाँधीजी ने व्यक्ति को प्राथमिक माना है जो रूढ़िवादिता का नहीं आधुनिकता का परिचायक है। धर्म के प्रति उनके मन में आदर था परन्तु धर्म को वे उसके परम्परागत अर्थों में नहीं लेते थे। शास्त्रों के प्रति उनका दृष्टिकोण इन शब्दों में प्रतिबिम्बित होता है, “हमें यह कहकर अपने को धोखा नहीं देना चाहिए कि संस्कृत भाषा में जो कुछ लिख दिया गया है, अथवा शास्त्रों में जो कुछ कहा गया है उसके प्रभाव को हम स्वीकार करें ही। जो नैतिकता के मूल सिद्धान्तों के विरुद्ध है जिसे मनुष्य की विवेक शक्ति की सीमा में बाँधा नहीं जा सकता वह कितना ही पुराना क्यों न हो, उसे सत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता।”

गाँधीजी ने अपना सारा जीवन स्थापित सामाजिक व्यवस्था को बदलने के प्रयत्नों में लगाया। अपने देश की तत्कालीन राजनीतिक व्यवस्था को उन्होंने चुनौती दी। कानून के सम्बन्ध में गाँधीजी का दृष्टिकोण सदा ही स्पष्ट रहा । जो कानून सत्य के मार्ग में बाधक हो, चाहे वह विदेशी हुकूमत के द्वारा बनाया गया हो अथवा अपनी सरकार के द्वारा उसे तोड़ने के लिए वह सदा तत्पर रहते थे। गाँधीजी का यह दृढ़ विश्वास था कि मनुष्य में इतनी क्षमता है कि वह चाहे तो समाज और राजनीति को विकास की एक नयी दिशा में मोड़ सकता है। वे यह भी मानते थे कि यदि राज्य अपने कर्तव्यों की अवहेलना करता है तो व्यक्ति को यह स्वतन्त्रता है कि वह राज्य की अवज्ञा और उसका प्रतिरोध करे।

गाँधी : परम्परा और आधुनिकता का सम्मिश्रण

(Gandhi: Synthesis of Traditionalism and Modernity)

आधुनिक सभ्यता के तीव्र आलोचक और चरखा एवं तकली के दृढ़ समर्थक होने के कारण एक व्यापक धारणा बन गयी है कि गाँधी परम्परावादी थे। रूडोल्फ दम्पत्ति ने गाँधी को भारतीय राजनीति का आधुनिकीकरण करने वालों में एक प्रमुख व्यक्ति बताया है और यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि परम्परा का उपयोग उन्होंने देश को आधुनिक बनाने के लिए एक साधन के रूप में किया। परम्पराओं के आदर से यदि रूढ़िवादिता और अन्ध-विश्वास का अर्थ निकलता हो तो उनका लक्ष्य अपने देश को इस प्रकार की परम्पराओं से मुक्त करना और उसे आधुनिक बनाना था। परन्तु आधुनिकता से उनका अर्थ औद्योगिक और यान्त्रिक विकास से नहीं था जिसके कारण व्यक्ति और समाज दोनों का ही सर्वनाश होता है, परन्तु एक ऐसे समाज की रचना से था जिसमें व्यक्ति स्वतन्त्रता, समानता और भ्रातृत्व के आधुनिक माने जाने वाले मूल्यों का पूर्ण उपयोग कर सकें।

गांधीवाद और मार्क्सवाद 

गाँधीवाद की देन

(Relevance of Gandhism)

लार्ड बॉयड आर० के अनुसार, “मेरे विचार से अब वह समय आ गया है जब गाँधीजी द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्तों को विश्वव्यापी स्तर पर व्यवहार में लाना चाहिए, इनका प्रयोग अवश्य करना चाहिए। इनका प्रयोग अवश्य किया जायेगा, क्योंकि जनता यह अनुभव करती है कि इसके सिवाय विनाश से परित्राण की कोई आशा नहीं है।” वर्तमान में गाँधीवाद संगत है। युद्ध व संघर्ष से त्रस्त विश्व राजनीति को बचाने का यही एकमात्र उपाय है। वैचारिक संघर्ष में न पड़कर विश्व को सर्वोदय का सन्देश गाँधीजी की महत्वपूर्ण देन है। अहिंसात्मक क्रान्ति के रूप में यह मानव मात्र का नैतिक उत्थान करना चाहता है। मैकियावेलीन राजनीति से विश्व का उद्धार कभी नहीं हो सकता अत: गाँधीजी राजनीति को धर्म से ओत प्रोत करते हैं। स्वीडन के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री गुन्नार मिर्डल के मत में भारत के उद्धार और आर्थिक प्रगति का एकमात्र मार्ग गाँधीवाद है। बेकारी की समस्या का निदान कुटीर पद्योगों की व्यवस्था से किया जा सकता है। संक्षेप में गाँधीवाद असंगत नहीं है। यह एक शाश्वत दर्शन है और इसको व्यवहार में प्रयोग किया जा सकता है।

गाँधीवाद की आलोचना

(Criticism of Gandhian Philosophy)

गाँधीवादी दर्शन की आलोचना के प्रमुख आधार निम्नलिखित हैं-

  1. गाँधीवाद मौलिक वर्शन नहीं है गाँधीवाद की इस आधार पर आलोचना की जाती है कि यह मौलिक दर्शन नहीं है। इसमें उदारवाद, समाजवाद, व्यक्तिवाद, अराजकतावाद आदि के तत्व मिला दिये गये हैं जिससे यह ‘भानुमती का कुनबा’ बन गया है।
  2. पूँजीवाद का समर्थन गाँधीजी व्यक्तिगत सम्पत्ति और पूँजी के समर्थक हैं। वे ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त पर जोर देते हैं जो कभी पूरा नहीं हो सकता। इससे तो अन्ततोगत्वा पूँजीवाद की जड़ें सुदृढ़ होंगी।
  3. राज्य का विरोध अनुचित गाँधीजी राज्य का आधार हिंसा बताते हैं और उसका विरोध करते हैं। वर्तमान में राज्य द्वारा लोक कल्याण हेतु अनेक कार्य किये जा रहे हैं और राज्य को समाप्त करना अनुचित है।
  4. विरोधाभास गाँधीवाद अस्पष्ट एवं विरोधाभासी दर्शन है। एक स्थान पर गाँधीजी राज्य का विरोध करते हैं तो दूसरे स्थान पर राज्य के अस्तित्व को स्वीकार कर लेते हैं। एक तरफ अहिंसा की बात करते हैं तो दूसरी तरफ हिंसा को कतिपय स्थितियों में आवश्यक बताते हैं।
  5. राजनीति और धर्म का मिश्रण अनुचित गाँधीजी राजनीति में धर्म का प्रवेश चाहते हैं, किन्तु वर्तमान धर्मनिरपेक्ष राज्य का आदर्श ही अधिक उपयुक्त माना जाता है।
  6. सत्याग्रह का गलत प्रयोग गाँधीजी ने सत्याग्रह पर जोर दिया है किन्तु वर्तमान में सत्याग्रह का दुरुपयोग हुआ है। हर कोई गाँधीवाद की आड़ में ‘भूख हड़ताल’ अथवा ‘उपवास’ करने लग जाता है और इसका कानून और व्यवस्था पर गलत असर हुआ है।

इन आलोचनाओं के बावजूद यह तो मानना ही होगा कि “गाँधीजी नैतिक एवं आध्यात्मिक क्रान्ति के महान देवता के रूप में सदैव स्मरण किये जायेंगे जिसके बिना इस पथभ्रष्ट विश्व को शान्ति प्राप्त न होगी।”

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