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स्वामी विवेकानन्द का जीवन परिचय

स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द भारत की महान् आत्मा थे जिनके प्रति वर्तमान पीढ़ी ऋणी है और भावी पीढ़ी सदैव ऋणी रहेगी। उनके जीवन और चिन्तन ने गाँधी, तिलक, बिपिनचन्द्र पाल, लाजपत राय, अरविन्द घोष, नेहरू सभी को प्रभावित किया और रवीन्द्रनाथ टैगोर तो उनकी भाँति ही अपनी रचनाओं में पूर्व तथा पश्चिम की संस्कृतियों के श्रेष्ठ तत्वों का समन्वय करने का प्रयास किया। विवेकानन्द ने अपने कर्मठ और तेजोन्मय जीवन तथा गहन आध्यात्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक विचारों की छाप विदेशों तक में छोड़ दी। सामाजिक जड़ता और धार्मिक मूढ़ता को दूर करने का उन्होंने वैसा ही प्रयास किया जैसा किसी तालाब के सड़े हुए पानी को साफ करने के लिए किया जाता है। विदेशों में भारतीय संस्कृति की महानता को, धर्म के सार्वदेशिक स्वरूप को उन्होंने जितने स्पष्ट और तार्किक रूप में रखा, वैसा उनके पूर्व न किसी भारतीय ने किया था और न ही उनके बाद कोई भारतीय कर सका । विवेकानन्द प्लेटो, अरस्तू, मार्क्स, ग्रीन या गाँधी की तरह कोई राजनीतिक चिन्तक नहीं थे और न ही उन्होंने किन्हीं राजनीतिक सिद्धान्तों को विकसित किया लेकिन यत्र-तत्र अपने भाषणों में और अपनी रचनाओं में उन्होंने जो भी विचार व्यक्त किये थे यह प्रस्थापित करने को पर्याप्त हैं कि विवेकानन्द भारतीय राष्ट्रवाद के एक धार्मिक सिद्धान्त की नींव का निर्माण करना चाहते थे, उनमें गाँधी की भाँति ही राजनीति के आध्यात्मीकरण और उसके जन-कल्याण स्वरूप की आकाँक्षा थी। स्वामी दयानन्द ने देशवासियों को शक्ति और निर्भयता का जो सन्देश दिया वह युग-युग के लिए अमर रहेगा।

जीवन-परिचय

(Life-Sketch of Swami Vivekananda)

स्वामी विवेकानन्द (1863-1902) का असली नाम नरेन्द्रनाथ दत्त था, विवेकानन्द नाम तो उन्होंने संन्यास ग्रहण करने के उपरान्त शिकागो (अमेरिका) में धर्म-संसद् में भाग लेने के लिए बम्बई से प्रस्थान करते समय ग्रहण किया। एक प्रतिष्ठित कायस्थ परिवार में जन्मे विवेकानन्द का व्यक्तित्व प्रभावोत्पादक, शरीर कसरती और मुख मण्डल सुन्दर था। उनकी बुद्धि प्रखर थी। उन्होंने ह्यूम, काण्ट, फिक्टे, स्पिनोजा, हीगल, शोपेनहॉवर, कॉम्टे, डार्विन, मिल आदि पाश्चात्य दार्शनिकों की रचनाओं का गहन अध्ययन किया था और एक आलोचक तथा विश्लेषक मन विकसित किया था। अंग्रेजी भाषा और साहित्य पर उनका पूर्ण अधिकार था और पूर्व तथा पश्चिम से दर्शन-शास्त्र का उन्होंने तुलनात्मक अध्ययन किया था। बचपन में ही उनमें सहानुभूति, सह-सहृदयता, सात्विकता और आध्यात्म-वृत्ति के जो गुण पैदा हो गए, वे उनके जीवन में उत्तरोत्तर विकसित होते गये। उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा और उनका काव्य-प्रेम आजीवन बना रहा। वर्ड्सवर्थ, शैली जैसे रोमांटिक कवि उन्हें बड़े प्रिय थे। अपने युग के संवदेनशील बंगाली नवयुवकों की भाँति वे भी तर्कनापरक चिन्तन के प्रभाव में आये और यूरोपीय विज्ञान तथा उदारवाद एवं राजनीतिक तथा समाजशास्त्रीय साहित्य में अभिव्यक्त पश्चिमी समाज के जनतान्त्रिक रूप का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा । उनका अध्ययन साहित्य और चिन्तन तक ही सीमित न था, भारत की धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं के प्रति उनका गहन आकर्षण था और शीघ्र ही भारतीय चिन्तन के मूलभूत विचारों का उन्होंने विशद् ज्ञान प्राप्त कर लिया।

युवावस्था में विवेकानन्द का झुकाव नास्तिकवाद की ओर हुआ, पर वे तुरन्त सम्भल गये। वस्तुतः उन्हें उस मानसिक स्थिति में से गुजरना पड़ा जिसमें से प्राय: महान् पुरुष और क्रान्तिकारी सुधारक को गुजरना पड़ता है। नवम्बर, 1881 में स्वामी रामकृष्ण परमहंस से उनकी भेंट उनके जीवन में एक क्रान्तिकारी मोड़ लाई। “थोड़े दिनों तक मानिसिक प्रतिरोध की स्थिति के बाद उन्होंने गुरु के आगे पूरी तरह समर्पण कर दिया” और अगस्त, 1886 में रामकृष्ण की मृत्यु के समय विवेकानन्द ही उनके सर्वप्रमुख थे। इस समय लगभग 24 वर्ष की आयु में ही उन्होने यह प्रण किया कि वे अपना सारा जीवन गुरु के उपदेश के प्रचार में लगा देंगे। विवेकानन्द ने अब गृहस्थाश्रम का त्याग कर दिया और परिव्राजक बनकर हिमालय के जंगलों में साधना करने लगे। “छः साल से ऊपर वह बहुत कड़े संयम में रहे। इसके फलस्वरूप उन्हें वह सन्तुलन, शान्ति और निश्चय प्राप्त हुआ, जो आगे चलकर उनके जीवन के कार्य की विशेषता प्रमाणित हुआ। परिव्राजक के रूप में उन्होंने भारत का जो भ्रमण किया उससे उन्हें साधारण जनता के भयंकर कष्टों और उसकी तकलीफों का पता चल गया ।”

विवेकानन्द एक तेजोमय संन्यासी थे जिनके “हृदय में एक आँधी उफन रही थी और उनकी आत्मा में एक आग जल रही थी। इस हालत में उन्होंने निश्चय किया कि संसार के सामने भारत की आवाज बुलन्द की जाए और इससे भी अधिक जरूरी था कि भारत की समस्याओं के लिए एक समाधान प्रस्तुत किया जाय।” अवसर भी उपस्थित हुआ और 1893 में वे अमेरिका गये जहाँ शिकागो में उन्होंने धर्म-संसद् (सर्व-धर्म सम्मेलन) में भाषण दिया। विवेकानन्द का भाषण भारत की सार्वदेशिकता और विशाल-हृदयता से ओत-प्रोत था जिसने वहाँ के हर श्रोता को मुग्ध कर दिया। विवेकानन्द अमेरिका में तीन वर्ष तक रहे, व्याख्यान देते रहे, वेदान्त समितियाँ स्थापित करते रहे और शिष्य बनाते रहे। अमेरिका से वे इंगलैण्ड गये और लन्दन में रह कर उन्होंने वेदान्त पर भाषणों का तांता लगा दिया। उनके व्याख्यानों का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उनके अनेक शिष्य बन गये जिनमें मिस्टर सैन्ड्बवर्ग (जो बाद में स्वामी कृपानन्द कहलाए), मैडम लुई  (बाद में स्वामी अभयानन्द), मिस मार्गेट नोबल (बाद में सिस्टर निवोदिता), जे० जे० गोडविल, कैप्टन सीबिया आदि प्रमुख थे।

16 दिसम्बर, 1895 को स्वामी विवेकानन्द स्वदेश लौट आये। वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने पश्चिम की भौतिकवादी जनता के सम्मुख भारत के अध्यात्मवाद का महान् और पुरातन आदर्श उपस्थित करके अपने देश के वास्तविक स्वरूप का चित्र उनके सामने रखा और उन्हें चकित कर दिया। भारत में स्वामी विवेकानन्द ने हिन्दू जाति की अन्तरात्मा को जगाने का प्रयत्न किया और कुप्रथाओं व अन्ध-विश्वासों का दूर करने के लिए आवाज उठाई। रामकृष्ण मिशन का नये सिरे से संगठन करके उन्होंने उसकी शाखाएँ जहाँ तहाँ स्थापित की। 1897 में कलकत्ता के पास बैलूर में उन्होंने विख्यात रामकृष्ण मिशन स्थापित किया । एक वर्ष बाद उन्होंने पश्चिम की दूसरी यात्रा की, सान फ्राँसिस्को में ‘शान्ति आश्रम’ और ‘वेदान्त सोसाइटी’ की स्थापना की, पेरिस में आयोजित धार्मिक-इतिहास परिषद् में भाग लिया, और फिर कुछ समय मिस्र में बिताकर भारत लौट आए। स्वामी विवेकानन्द का स्वास्थ्य इस अत्यधिक कार्यभार को सह न सकने के कारण पहले से ही बिगड़ता जा रहा था। भारत लौटकर भी, स्वास्थ्य की परवाह किये बिना, वे फिर अपने काम में जुट गये। बनारस में संस्कृत और वेदान्त के अध्ययन के लिए उन्होंने एक पाठशाला कायम की। अन्त में, 4 जुलाई 1902 को केवल 39 वर्ष की अल्पायु में उनका देहावसान हो गया। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व एक कहानी बन गया और देश-विदेश में आज भी उनकी ख्याति सुरक्षित है। उनके कर्मयोग का सन्देश आज भी हमें प्रेरणा दे रहा है। उन्होंने भारतीय समाज के विकास के सम्बन्ध में जो नये विचार दिये, वे आज भी हमारे लिए प्रेरक शक्ति हैं।

विवेकानन्द के शिक्षा सम्बन्धी विचार

“हमारे लड़के जो शिक्षा पा रहे हैं वह बड़ी अभावात्मक (Negative) है। स्कूल के लड़के कुछ भी नहीं सीखते, सिर्फ जो कुछ अपना है उसका नाश हो जाता है, और इसका फल श्रद्धा का अभाव है।”

-विवेकानन्द

स्वामी विवेकानन्द वर्तमान शिक्षा प्रणाली को उपयुक्त नहीं समझते थे। उनका आक्षेप था कि वर्तमान शिक्षा ऐसी है जो मनुष्य और उसके चरित्र का निर्माण नहीं करती। शिक्षा का अर्थ केवल इतना ही नहीं कि अपने दिमाग में सब तरह की जानकारी भरकर उसे वाटरलू का युद्ध क्षेत्र बना दिया जाए। शिक्षा का लक्ष्य तो जीवन का निर्माण है, चरित्र का निर्माण है, मानव का निर्माण है। वर्तमान शिक्षा इन लक्ष्यों की पूर्ति में सहयोगी नहीं है। उन्होंने वर्तमान शिक्षा को अभानात्मक (Negative) बताया जहाँ छात्रों में अपनी संस्कृति के बारे में सीखने की कुछ नहीं मिलता, जहाँ उनमें जीवन के वास्तविक मूल्यों का पाठ नहीं पढ़ाया जाता और जहाँ शिक्षार्थियों में श्रद्धा का अभाव पनपता है। केवल पुस्तकालय को दिमाग में भर लेने से तो यह अधिक अच्छा है कि किन्हीं भी पाँच अच्छी बातों को लेकर अपने जीवन का निर्माण किया जाय । वर्तमान नकारात्मक शिक्षा की पोल खोलते हुए विवेकानन्द ने कहा-“ऐसा प्रशिक्षण जो नकारात्मक पद्धति पर आधारित हो मृत्यु से भी बुरा है। बच्चा स्कूल ले जाया जाता है और पहली बात सीखता है कि उसका पिता मूर्ख है, दूसरी बात सीखता है कि उसका बाबा पागल है, तीसरी कि उसके सभी शिक्षक पाखण्डी हैं, चौथी कि सभी पवित्र ग्रन्थ झूठे हैं। 16 वर्ष का होते-होते तो वह छात्र निषेधों का एक समूह, आस्थाहीन और जीवनहीन बन जाता है। यही कारण है कि 50 वर्षों में भी यह शिक्षा एक मौलिक व्यक्ति पैदा नहीं कर सकी है। प्रत्येक व्यक्ति जिसमें मौलिकता है, इस देश में नहीं बल्कि कहीं और पढ़ाया गया है अथवा फिर उसे अन्धविश्वासों से मुक्त होने के लिए अपने देश के पुरातन शिक्षालयों में जाना पड़ा ।”

विवेकानन्द ने शिक्षा की गुरुकुल पद्धति को उपयोगी माना है जहाँ छात्र शिक्षक के निकटतम सम्पर्क में रह सके और उनमें पवित्रता, ज्ञानलिप्सा, धैर्य, विनम्रता, विश्वास तथा आदर की भावना पनप सके। शिक्षा-पाठ्यक्रम में विवेकानन्द ने धार्मिक ग्रन्थों के अध्ययन को अनिवार्य बताया और कहा कि संस्कृत के ज्ञान द्वारा ही उन ग्रन्थों को सही परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है। अंग्रेजी के अध्ययन पर भी उन्होंने विशेष बल दिया ताकि भारतीय इस सम्पर्क भाषा का लाभ उठा सकें, वर्तमान वैज्ञानिक प्रगति के बारे में जान सकें। आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ उन्होंने शिक्षा में धर्म-सहिष्णुता बनाये रखने पर भी बल दिया। शिक्षा ऐसी नहीं होनी चाहिए जो संकीर्ण भेदभावों और साम्प्रदायिकता को उत्पन्न करे। उन्होंने यह भी कहा कि गरीबों को शिक्षा प्रायः मौलिक रूप से ही दी जानी चाहिए, उनके लिए स्कूल आदि का अभी समय नहीं आया है। विवेकानन्द गरीबों के अर्थाभाव को समझते थे और उनके लिए निःशुल्क शिक्षा को अनिवार्य मानते थे। शिक्षा के मुख्य केन्द्र में कृषि, व्यापार, शिल्प आदि के शिक्षण का भी उन्होंने समर्थन किया।

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