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बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक चिंतन विचार

बाल गंगाधर तिलक का राजनीतिक चिंतन

बाल गंगाधर तिलक का राजनीतिक चिंतन 

स्वदेशी और बहिष्कार

स्वदेशी और बहिष्कार-स्वाधीनता संग्राम के इन दो हथियारों को लोकप्रिय बनाने में लोकमान्य तिलक ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। उन्होंने स्वदेशी के संदेश को महाराष्ट्र और बरार के कोने-कोने तक पहुँचा दिया तथा राष्ट्रीय स्तर पर इसकी व्यापकता और सफलता की सम्भावनाओं का अनुमान लगाकर अपने सहयोगियों द्वारा इसका संदेश गाँव-गाँव और नगर-नगर तक पहुँचाने में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की।

यद्यपि स्वदेशी का आरम्भ उदारवादियों ने एक आर्थिक आन्दोलन के रूप में किया था, लेकिन उग्र राष्ट्रवादियों, विशेषकर तिलक के हाथों में यह एक राजनीतिक अस्त्र बन गया। पश्चिमी भारत में स्वदेशी और बहिष्कार का आन्दोलन तिलक के साथ पहुंचा। उनके नेतृत्व में पूना में बड़े पैमाने पर विदेशी कपड़ों की होली जलाई गई। उन्होंने स्वदेशी वस्तु प्रचारिणी सभा के मुख्याँग के रूप में सहकारी भण्डार खोले। तिलक ने ‘केसरी’ में लिखा “हमारा राष्ट्र एक वृक्ष की तरह है जिसका मूल तना स्वराज्य है और स्वदेशी तथा बहिष्कार उसकी शाखाएँ हैं।” वास्तव में स्वदेशी ने ही स्वराज्य का रास्ता दिखाया । जो स्वदेशी आन्दोलन पहले केवल आर्थिक क्षेत्र तक ही सीमित था, वह तिलक और उनके सहयोगियों के प्रयास से अब समस्त वस्तुओं में आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन का सूचक बन गया। तिलक की प्रेरणा से इसका प्रयोग जन-जीवन में एक कार्यक्रम के रूप में होने लगा। जनता से विदेशी सामान का बहिष्कार कर स्वदेशी अपनाने की अपीलें की गई। नये संगठन बन गये और पुराने संगठनों की स्थाई समितियाँ बनाई गई ताकि आन्दोलन चलता रहे। तिलक ने स्वदेशी का व्यापक अर्थ लेते हुए इसका प्रयोग शिक्षा, विचारों और जीवन-पद्धति के रूप में किया। उन्होंने स्वदेशी का यह अर्थ भी लिया कि शनैः शनैः विदेशी विचारों को भी भारतीय जन मानस से लुप्त कर दें। तिलक ने भारतीयों के मन और मस्तिष्क को स्वदेशी बना देना चाहा और इस प्रकार उनमें स्वाधीनता की भावना भर देने का अथक परिश्रम किया। तिलक के लेखों और भाषणों से जनता में स्वदेशी के लिए अभूतपूर्व उत्साह छा गया। भारतीयों में अद्भुत आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता और स्वावलम्बन की भावना का संचार हुआ जो स्वदेशी देश-प्रेम का प्रतीक हो गया। स्वदेशी आन्दोलन के लिए गणपति उत्सव तक का प्रयोग किया गया। मुसलमानों ने भी तिलक को स्वदेशी आन्दोलन में अपना सहयोग दिया। तिलक ने मंदिरों में ही नहीं, दरगाहों में जाकर भी भाषण किये और बड़ी संख्या में मुसलमानों ने उनकी बात मानी।

स्वदेशी की भाँति बहिष्कार का भी मूल उद्देश्य यह था कि ब्रिटिश सरकार के आर्थिक हितों पर दबाव डालकर उसे अपनी माँगें मनवाने के लिए विवश कर दिया जाए। जनता को समझाया गया कि ब्रिटिश सरकार की व्यवसायिक नीति भारत के आर्थिक विनाश के लिए उत्तरदायी है। तिलक ने बहिष्कार आन्दोलन के राजनीतिक स्वरूप की कोई चेष्टा नहीं की। उन्होंने बहिष्कार के अस्ति और नास्ति, स्वीकारात्मक और नकारात्मक दोनों पहलुओं पर जोर डाला और कहा कि सर्वप्रथम तो इससे स्वदेशी वस्तुओं के उत्पादन को बढ़ावा मिलेगा और दूसरे ब्रिटिश सरकार भारतीयों की माँगे मानने के लिए विवश होगी। बहिष्कार आन्दोलन का ब्रिटिश व्यापार पर कैसा असर पड़ा इसका तत्कालीन कलकत्ता प्रवासी अंग्रेजी के मुखपत्र ‘इंगलिशमैन’ के इस विलाप से लगता है-

“बहुत सी प्रमुख मारवाड़ी फर्मों का व्यवसाय नष्ट हो गया है और यूरोपीय वस्तुओं का आयात करने वाली कई बड़ी बड़ी कम्पनियों को या तो अपनी शाखाएँ बंद कर देनी पड़ी हैं या थोड़े से व्यवसाय से ही सन्तुष्ट होना पड़ रहा है। गोदामों में माल जमा होता जा रहा है। दरअसल अब समय आ गया है जब बहिष्कार से व्यापार को कितनी हानि हुई है, यह स्पष्ट कर दिया जाय । बहिष्कार करने वालों को प्रोत्साहित करने का कोई प्रश्न ही नहीं, क्योंकि उन्हें इसकी आवश्यकता नहीं। आवश्यकता इस बात की है कि ब्रिटिश जनता और भारत सरकार को इस तथ्य के प्रति जागरुक कर दिया जाय कि बहिष्कार के रूप में ब्रिटिश राज के शत्रुओं के हाथ एक ऐसा हथियार आ गया है जो इस देश में ब्रिटिश हितों को गहरी चोट पहुँचाने में कारगर है। बहिष्कार के प्रति ढिलाई या सहमति की गई तो यह किसी सशस्त्र क्रान्ति से भी अधिक साबित होगा जब भारत के साथ स्थापित ब्रिटेन का सम्बन्ध निश्चय ही टूट जायगा।”

तिलक का जो विश्वास था कि स्वदेशी और बहिष्कार आन्दोलन कारगर राजनीतिक हथियार साबित होंगे, वह सम्भवतः उनके द्वारा निर्धारित समय से पहले ही सही निकला। बहिष्कार आन्दोलन की शक्ति की व्याख्या करते हुए पूना के एक भाषण में तिलक ने

कहा- “तुम्हें जानना चाहिए कि तुम उस शक्ति का एक महान् तत्व हो जिससे भारत में प्रशासन चलाया जाता है। ब्रिटिश शासन-रूपी यह शक्तिशाली यन्त्र तुम्हारी सहायता के बिना नहीं चलाया जा सकता। अपनी इस दलित और उपेक्षित अवस्था में भी तुम्हें अपनी शक्ति की चेतना होनी चाहिए कि यदि तुम चाहो तो प्रशासन को असम्भव बना दो। तुम्हीं डाक और तार का प्रबन्ध करते हो, तुम्हीं भूमि का बन्दोबस्त करते हो और कर वसूल करते हो। वास्तव में प्रशासन के लिए समस्त काम तुम्हीं करते हो, यद्यपि अधीनता की स्थिति में। तुम्हें विचार करना चाहिए कि क्या तुम इस प्रकार के श्रम की अपेक्षा अपने राष्ट्र के लिए कोई और अधिक उपयोगी कार्य नहीं कर सकते।” तिलक ने अपने एक अन्य भाषण में कहा “यदि तुममें सक्रिय प्रतिरोध की शक्ति नहीं है तो क्या तुममें आत्म-त्याग और आत्म-संयम की भी इतनी शक्ति नहीं है कि तुम अपने ही ऊपर शासन करने में विदेशी सरकार की सहायता न करो? यही बहिष्कार है और यही हमारे कहने का आशय है कि बहिष्कार एक राजनीतिक शस्त्र है। हम कर वसूल करने और शान्ति स्थापित रखने में सहायता नहीं करेंगे। हम सीमाओं से परे अथवा भारत के बाहर भारतीय रक्त और धन के साथ युद्ध करने में उनकी (अंग्रेजी की) सहायता नहीं करेंगे। हम न्याय प्रशासन के संचालन में उनको मदद नहीं देंगे। हमारे अपने न्यायालय होंगे, और जब समय आएगा, हम कर अदा नहीं करेंगे। क्या तुम अपने संगठित प्रयत्नों से ऐसा कर सकते हो ? यदि तुम कर सकते हो तो तुम कल ही स्वतन्त्र हो जाओंगे।”

वास्तव में तिलक ने लोगों को बहिष्कार का मार्ग और इसका राजनीतिक स्वरूप दिखाकर स्वराज्य का मार्ग प्रशस्त किया। यह बहिष्कार आन्दोलन गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन की स्पष्टतम पूर्वसूचना थी। यदि तिलक ने स्वराज्य के प्रति लोगों में इतना उत्साह न पैदा किया होता तो सम्भवतः देश गाँधीवादी कार्यक्रम के लिए इतना तैयार न होता। लाला लाजपत राय के अनुसार तिलक दिल्ली काँग्रेस के समय से ही सत्याग्रह की बात भी सोचने लगे थे जिसके तीन उद्देश्य थे-

  1. भारतीयों की मोहावस्था समाप्त करना जिसके कारण उन्होंने अंग्रेजों को सर्वशक्तिमान मान रखा था,
  2. देश के लिए त्याग-बलिदान और कष्ट सहन की भावना पैदा करके स्वतन्त्रता के प्रति उत्कट प्रेम उत्पन्न करना, और
  3. देश की स्वतन्त्रता प्राप्त करना। सत्याग्रह का विचार तिलक के दिलोदिमाग में मंडराता रहा और दिसम्बर, 1906 में कलकत्ता काँग्रेस के अधिवेशन के बाद वह फूट पड़ा जबकि ‘नये दल के सिद्धान्तों’ पर दिये गये अपने प्रसिद्ध भाषण में उन्होंने बहिष्कार के शक्तिशाली राजनीतिक हथियार पर प्रकाश डाला और अंग्रेजों से असहयोग की पुरजोर अपील की। तिलक ने 1906 में ही जिस असहयोग आन्दोलन का खाका खींचा था उसे ही लगभग 14 वर्ष बाद महात्मा गाँधी ने चलाया।

तिलक की ‘स्वराज्य’ की धारणा

यद्यपि काँग्रेस ने अपने कलकत्ता अधिवेशन में ‘स्वराज्य’ को औपचारिक रूप से अपना लक्ष्य घोषित कर दिया था, लेकिन इसे लोकप्रिय और प्रभावी बनाने की दृष्टि से वह उदासीन हो रही थी। यह तिलक ही थे जिन्होंने माण्डले जेल से लौटने पर स्वराज्य का संदेश घर-घर तक पहुँचाने के लिए एक प्रभावी कार्यक्रम बनाया, इसके लिए होम रूल लीग की स्थापना की, स्वराज्य की स्पष्ट शब्दों में व्याख्या की और इस बात के औचित्य को सिद्ध किया कि भारत को अविलम्ब स्वराज्य दिया जाना आवश्यक है। 1916 की लखनऊ काँग्रेस में तिलक ने भारतीयों को मन्त्र दिया कि ‘स्वराज्य भारतवासियों का जन्मसिद्ध अधिकार है।” तिलक ने स्वराज्य की माँग को नैतिक,राजनीतिक और सामाजिक आधारों पर न्यायोचित ठहराया तथा यह विश्वास व्यक्त किया कि स्वराज्य की प्राप्ति भारतीय राष्ट्रवाद की एक महान् विजय होगी।

तिलक ने स्वराज्य को एक राजनीतिक आवश्यकता मात्र नहीं बल्कि नैतिक परमावश्यकता बताया और कहा कि यह तो मनुष्य के नैतिक स्वरूप की अनिवार्य माँग है। प्रत्येक व्यक्ति में एक दैवी तत्व विद्यमान रहता है जिसकी अनुभूति के लिए आवश्यक है कि उसे स्वधर्म के अनुसार आचरण करने की स्वतन्त्रता प्राप्त हो। यह सच्ची स्वतन्त्रता कोई स्वेच्छाचारिता नहीं है वरन् विनियमित और संयमित स्वतन्त्रता है जिसकी प्राप्ति तभी सम्भव है जब हमारे सामाजिक जीवन की माँग है कि एक ऐसी राजनीतिक व्यवस्था की स्थापना हो जिसमें लोग धर्मानुकूल आचरण कर सकें और जो जनता की नैतिक मनोभावना अथवा आत्मा के अनुकूल हो। तिलक ने कहा कि इस प्रकार की उत्तरदायी राजनीतिक व्यवस्था का ही दूसरा नाम ‘स्वराज्य’ है।

तिलक ने स्वराज्य को सामाजिक व्यवस्था का आधार बताया। उन्होंने कहा कि राष्ट्र की प्रगति का मूल स्वराज्य में ही निहित है। स्वराज्य के अभाव में औद्योगिक प्रगति, राष्ट्रीय शिक्षा, सामाजिक सुधार आदि कुछ भी सम्भव नहीं है। यदि स्वराज्य मिल गया तो हमारे विभिन्न उद्देश्य सुगमतापूर्वक पूरे हो सकते हैं। स्वराज्य की धारणा को तिलक ने प्राकृतिक सिद्धान्तों पर आधारित किया। उन्होंने माना कि स्वराज्य व्यक्ति का प्राकृतिक अधिकार है और अंग्रेजों द्वारा भारत पर अधिकार जमाये रखना एक असहनीय ज्यादती है। यह भारतीयों का सर्वोपरि कर्ताव्य है कि वे स्वराज्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करें।

सम्भवत: 1916 से पहले तक अरविंद तथा विपिनचन्द्र पाल की भाँति तिलक ने भी ‘स्वराज्य’ से अर्थ पूर्ण स्वाधीनता से ही लगाया, किन्तु 1916 के लखनऊ अधिवेशन में उन्होंने स्वराज्य की कुछ भिन्न व्याख्या की जो तत्कालीन परिस्थितियों में अधिक समयानुकूल और व्यावहारिक थी। होमरूल आन्दोलन के दौरान तिलक शब्दों के प्रयोग में सदैव सतर्क रहे और कहते रहे कि मैं राजा सम्राट् के विरुद्ध नहीं हूँ, मैं तो केवल आँग्ल-भारतीय नौकरशाही को बदलना चाहता हूँ। तिलक ने अप्रैल, 1916 में स्वराज्य (होम रूल) आन्दोलन प्रारम्भ किया और 31 मई, 1916 को अहमदनगर में स्वराज्य पर अपने पहले भाषण में कहा कि “स्वराज्य का अर्थ सम्राट् के शासन का उन्मूलन करना और किसी देशी रियासत का शासन कायम करना नहीं है। हमें मन्दिर के देवताओं को नहीं हटाना है, केवल पुजारियों को बदलना है। सम्राट् अपनी गोरी तथा काली प्रजा के बीच भेदभाव नहीं करते, इसलिए नौकरशाही पुजारियों को बदलने से उनका अहित नहीं होगा। स्वराज्य का अर्थ यह नहीं कि अंग्रेज सरकार के स्थान पर जर्मन सरकार को स्थापित कर दिया जाए। स्वराज्य से अभिप्राय केवल यह है कि भारत के आन्तरिक मामलों का संचालन और प्रबन्ध भारतवासियों के हाथों में हो। हम ब्रिटेन के राजा सम्राट को बनाये रखने में विश्वास करते हैं। तिलक की होम रूल लीग ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वराज्य चाहती थी और यह ब्रिटिश संसद के वैधानिक अधिनियम के द्वारा ही सम्भव हो सकता था। लीग की इच्छा थी कि भारत की राजनीतिक माँगों के आधार पर संसद् में एक विधेयक प्रस्तुत किया जाए और इसके लिए इंग्लैण्ड में आन्दोलन चलाया जाए।

तिलक की कल्पना थी कि स्वराज्य के अन्तर्गत देश का राजनीतिक ढाँचा संघात्मक होगा। उन्होंने अमरीकी काँग्रेस का उदाहरण देते हुए कहा कि भारतीय सरकार को भी चाहिए कि अपने हाथों में उसी प्रकार की शक्तियाँ रखे और एक साम्राज्यीय परिषद् द्वारा उनका प्रयोग करे।

उल्लेखनीय है कि तिलक ने ‘स्वराज्य’ की अपनी पूर्ण स्वाधीनता की आकाँक्षा का परित्याग नहीं किया था वरन् तत्कालीन परिस्थितियों को देखते हुए ब्रिटिश साम्राज्य के अन्तर्गत स्वराज्य का व्यावहारिक सुझाव दिया था। यह ‘पूर्ण स्वाधीनता’ की दिशा में एक पहला महत्वपूर्ण कदम था। होम रूल उनका तत्कालीन राजनीतिक लक्ष्य था, क्योंकि पूर्ण स्वाधीनता को वे उस समय व्यावहारिक राजनीतिक क्षेत्र से परे मानने के विचार से सम्भवतः सहमत हो गये थे । अपनी मृत्यु-शैय्या पर पड़े सन्निपात में तिलक बहुधा देश की दरिद्रता, काँग्रेस और स्वराज्य के सम्बन्ध में बोलते रहते थे। उनके अंतिम शब्द थे “यदि स्वराज्य न मिला तो भारत समृद्ध नहीं हो सकता। स्वराज्य हमारे अस्तित्व के लिए अनिवार्य है।”

तिलक ने स्वराज्य की धारणा को इतने स्पष्ट रूप में अभिव्यक्त किया कि उसे समझने में कुछ सन्देह नहीं रह जाता । वास्तव में तिलक के हृदय में स्वराज्य का उल्लेख तो करते थे, लेकिन, सम्भवतः उन्होंने गुलामी के अपमान को तिलक की सी गहराई से महसूस नहीं किया था।

तिलक ने स्वराज्य की धारणा में जिस प्रकार ‘उत्तरदायी सरकार’ की परिकल्पना की, उससे स्पष्ट है कि वे ‘लोकतान्त्रि स्वराज’ के हामी थे। तिलक की जीवनी के विख्यात लेखक टी० बी० पर्वते ने तिलक को ‘लोकतान्त्रिक स्वराज्य का प्रवर्तक’ माना है क्योंकि तिलक तत्कालीन सम्पूर्ण शासन प्रणाली को ही बदल देना चाहते थे कि स्वराज्य का अर्थ कुछ थोड़े से उच्च वेतन वाले पदों को प्राप्त कर लेना नहीं है वरन् एक ऐसी शासन व्यवस्था से है जिसमें शासन के सभी अधिकारी और कर्मचारी जनता के प्रति सचेत रहें तथा कार्यपालिका के अधिकारी और कर्मचारी स्वयं को जनता के प्रति उत्तरदायी समझें। तिलक के लिए स्वराज्य का आशय था कि अन्तिम सत्ता जनता के हाथ में हो। उनके लिए स्वराज्य का आधार यह विश्वास था कि राज्य का अस्तित्व जन गण के कल्याण और सुख के लिए है। पर्वते ने लिखा है कि तिलक का ‘भारतीय क्रान्ति के जन्मदाता’, आधुनिक भारत के निर्माता आदि अनेक नामों से उल्लेख किया गया है और इन नामों में ‘लोकतान्त्रिक स्वराज्य के प्रतिपादक’ अवश्य ही जुड़ जाना चाहिए क्योंकि लगभग अपने जीवनपर्यन्त उन्होंने जो प्रचार कार्य किया उसमें वे इस बात को बराबर दुहराते रहे थे। उनके लिए लोकतन्त्र और स्वतन्त्रता समान उद्देश्यीय थी। पुनश्च, पर्वते के ही अनुसार-

“तिलक भारतीय स्वराज्य को लोकतान्त्रिक स्वराज्य के रूप में देखते थे और भारतीय स्वराज्य के युगदृष्टा की तरह उनकी यह धारणा बहुत अमूल्य थी। उनका दृढ़ विश्वास थ कि यह लोकतान्त्रिक स्वराज्य केवल जन-जागृति, जनता की आत्म-अभिव्यक्ति की शक्ति और उसके आत्म-विश्वास से ही निर्मित हो सकेगा। वे कभी भी यह नहीं मानते थे कि आतंकवादी या सेना के नेता बिना जनता की सक्रिय सहानुभूति और समर्थन प्राप्त किये अकेले ही कभी भी भारत में स्थापित सरकार को उखाड़ सकेंगे। जन-आन्दोलनों द्वारा अपने अधिकारों को बराबर जनता और उनकी माँग करने के लिए शक्ति का निर्माण करना तथा ऐसे आन्दोलनों द्वारा जनता की शिकायतें प्रस्तुत करना और उन्हें दूर करने की माँग करना ही उनका स्थायी कार्यक्रम था। उनका ऐसा अनुमान था कि इस कार्यक्रम को कार्यान्वित करने से जो शक्ति प्राप्त होगी वही अंत में किसी अनुकूल राजनीतिक परिस्थिति में पूर्ण राजनीतिक स्वराज्य की प्राप्ति करा सकेगी।”

शान्ति सम्मेलन को ज्ञापन

तिलक एक व्यावहारिक राजनीतिज्ञ थे जो अपने राष्ट्र के हित के लिए कोई भी अवसर नहीं चूकते थे। अवसर आने पर वे आवेदन-पत्र की पद्धति का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकते थे। प्रथम महायुद्ध की समाप्ति पर पेरिस में हुए शान्ति सम्मेलन के अध्यक्ष को उन्होंने एक ज्ञापन पेश किया था जिसमें उन्होंने स्पष्ट रूप में लिखा कि सम्मेलन में सरकार द्वारा मनोनीत व्यक्ति (बीकानेर नरेश और एस० पी० सिन्हा) भारत का सही प्रतिनिधित्व नहीं करते। इस ज्ञापन में तिलक ने एशिया और विश्व की राजनीति में भारत की महत्वपूर्ण राजनीतिक स्थिति का उल्लेख किया और भारत के लिए आत्म-निर्णय के अधिकार की माँग की। तिलक ने लिखा-

“एशिया में और सम्पूर्ण विश्व में शान्ति की दृष्टि से यह नितान्त आवश्यक है कि भारत को आन्तरिक रूप में स्वशासन प्राप्त होना चाहिए और उसे पूर्व में स्वतन्त्रता का गढ़ बनाया जाना चाहिए। जर्मनी के प्रभुत्व के खतरे से मानव जाति की मुक्ति के लिए युद्ध के बाद मेरे लिए यह अनुरोध करना आवश्यक हो गया है कि किसी भी सभ्य राष्ट्र के ऊपर उसकी सहमति के बिना किसी अन्य राष्ट्र का शासन नहीं होना चाहिए, चाहे उसके ऊपर ट्रस्टीशिप के सिद्धान्त का आवरण ही क्यों न पड़ा हो। अतः भारत अपने जन्मसिद्ध अधिकार के रूप में अपने लिए आत्मनिर्णय के अधिकार की माँग करता है। अयोग्यता का तर्क जो साधारणतः अज्ञानियों अथवा निहित स्वार्थों द्वारा पेश किया जाता है, एकदम अमान्य और असत्य है। मेरा पूर्ण विश्वास है कि भारत की दरिद्रता, भौतिक अधोगति, औद्योगिक पुनरुद्धार, आर्थिक विकास, तकनीकी एवं प्राथमिक शिक्षा आदि की समस्याओं तथा जाति-प्रथा एवं परम्परा के नाजुक प्रश्नों का समाधान वे लोग कभी नहीं कर सकते जो पश्चिमी सभ्यता के अनन्य भक्त हैं। इन समस्याओं का सफलतापूर्वक सामना तो केवल भारतीयों द्वारा ही किया जा सकता है।”

तिलक ने ज्ञापन में स्पष्ट शब्दों में लिखा कि भारत अपने विशाल क्षेत्रफल, अतुल साधनों और असाधारण जनसंख्या के बल पर एशिया की प्रमुख शक्ति बनने की न्यायोचित रूप में आकाँक्षा कर सकता है। तिलक ने स्पष्ट कर दिया कि भारत की शान्ति भारत के स्वराज्य में है और भारत की राजनीतिक स्वतन्त्रता की बात केवल काँग्रेस ने ही नहीं बल्कि नोटिंगम काँग्रेस तथा इंग्लैण्ड की लेबर पार्टी ने भी स्वीकार की है। तिलक ने शान्ति सम्मेलन से यह अपील की कि राष्ट्रसंघ में भारत को प्रतिनिधित्व का वही अधिकार दिया जाय जो अन्य ब्रिटिश अधिराज्यों को प्राप्त है।

तिलक का यह ज्ञापन “भारत की परराष्ट्र नीति का पहला महत्वपूर्ण प्रलेख है। कहा जा सकता है कि यहीं से भारत की परराष्ट्र नीति का प्रारम्भ हुआ।” ज्ञापन का शान्ति सम्मेलन के अध्यक्ष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा, लेकिन तिलक को भारत के लिए आत्मनिर्णय के अभियान को गति देने का अच्छा अवसर मिल गया।

1919 का अधिनियम और तिलक

1919 के अधिनियम अथवा ‘मोन्टफोर्ड सुधारो’ के सम्बन्ध में लोकमान्य तिलक ने सूझबूझ और व्यावहारिक राजनीतिज्ञता का परिचय देते हुए कहा कि नौकरशाही द्वारा भारत को जो कुछ दिया जा रहा है उसे हमें स्वीकार कर लेना चाहिए पर साथ ही अधिक के लिए अपना आन्दोलन जारी रखना चाहिए ताकि ‘स्वराज्य’ का लक्ष्य प्राप्त किया जा सके, किन्तु इसके साथ ही तिलक ने गाँधीजी की ‘अशर्त’ सहयोग की पेशकश पसन्द नहीं की। एक यथार्थवादी राजनीतिज्ञ के रूप में उनका तर्क था कि सहयोग एकपक्षीय वरन् पारस्परिक होता है। “सत्ताधारियों को यह घोषणा करने दो कि वे किस प्रकार हमारे साथ सहयोग करने को उद्यत हैं और हम उन्हें विश्वास दिलाएँगे कि यदि वे सहयोग करते हैं तो हम भी उनके साथ सहयोग करेंगे।” अमृतसर काँग्रेस ने तिलक, गाँधी आदि के विचारों को सम्मान देते हुए यह घोषित किया कि मोन्टफोर्ड सुधार यद्यपि अपर्याप्त, असन्तोषजनक और निराशाजनक हैं, लेकिन देश को उन्हें क्रियान्वित करने में अपना सहयोग देना चाहिए ताकि पूर्ण स्वराज्य की यथाशीघ्र स्थापना हो सके। तिलक ने अमृतसर काँग्रेस द्वारा पारित प्रस्ताव की भावना के अनुरूप कार्य शुरू किया और मोन्टफोर्ड सुधार योजना के अन्तर्गत स्थापित की जाने वाली विधान परिषदों के लिए चुनाव लड़ने हेतु ‘काँग्रेस लोकतन्त्री दल’ (काँग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी) की स्थापना की। 20 अप्रैल, 1920 को इस दल का घोषणा-पत्र जारी किया गया जिसमें मुख्यतः ये बातें थीं-

  1. काँग्रेस में आस्था,
  2. प्रजातन्त्र का आरम्भ,
  3. शिक्षा का प्रसार,
  4. मताधिकार का विस्तार,
  5. धार्मिक सहिष्णुता,
  6. राष्ट्रसंघ के निर्माण का स्वागत,
  7. 1919 के अधिनियम का बहिष्कार,
  8. शिक्षा, आन्दोलन और संगठन का नारा,
  9. सामाजिक और धार्मिक न्याय प्रदान करना,
  10. श्रमिकों को उचित वेतन,
  11. रेलों का राष्ट्रीयकरण,
  12. नागरिक सेना, एवं  भाषाई आधार पर प्रान्तों का गठन।

घोषणा-पत्र पर स्वयं तिलक ने हस्ताक्षर किये। यह घोषणा पत्र वास्तव में तिलक की उत्तरवर्ती राजनीतिक विचारधारा का वसीयतनामा (Political Testament) कहा जा सकता है। इसमें शिक्षा और राजनीतिक मताधिकार के विस्तार को भारतीय समस्याओं के निराकरण के लिए दो सर्वोत्तम शस्त्र बताया गया और धार्मिक सहिष्णुता में विश्वास प्रकट किया गया। यह कहा गया कि काँग्रेस लोकतान्त्रिक दल जाति अथवा परम्परा पर आधारित है। सभी प्रकार की अयोग्यताओं को दूर करने का पक्षपाती है। भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल का एक विभिन्न अंग रहने और भारतीयों को राष्ट्रमण्डल में समान नागरिकता अधिकार प्राप्त होने की वकालत की गई तथा यह दावा किया गया कि भारत प्रतिनिधि एवं उत्तरदायी शासन के सर्वथा योग्य है और आत्म-निर्णय के सिद्धान्त के अनुसार केवल भारतीय जनता को ही यह अधिकार प्राप्त होना चाहिए कि वह भारत की शासन व्यवस्था संविधान से निर्धारित करे । दल ने यह निश्चय प्रकट किया गया कि पूर्ण उत्तरदायी शासन की स्वीकृति की गति को तेज करने के लिए मॉन्टफोर्ड सुधारों को लागू करने में सहयोग किया जाए। वास्तव में दल के घोषणा पत्र की ये कतिपय

मुख्य बातें इस बात का संकेत देती हैं कि उस समय तिलक की विचारधारा क्या थी। यह भी स्पष्ट हो जाता है कि तिलक विधान परिषदों में कार्य को पूरा महत्व देते थे और इस बात से परिचित थे कि यदि निर्वाचन में भाग न लेकर परिषदों का बहिष्कार किया गया तो परिषदों में सरकार-समर्थक व्यक्ति ही भर जाएँगे और इस प्रकार वहाँ भी सरकार को मनमानी करने की छूट मिल जाएगी। उन्होंने परिषदों का बहिष्कार करना राजनीतिक आत्म हत्या के समान माना और इसीलिए काँग्रेस डेमोक्रेटिक पार्टी का गठन किया गया ताकि परिषदों में प्रवेश करके संघर्ष को और भी आगे बढ़ाया जाय । मोन्टफोर्ड सुधारों के क्रियान्वयन में सहयोग करना और आगे अधिक अधिकारों तथा स्वराज्य के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करना-यह तिलक की एक यथार्थवादी नीति थी जिसे आमतौर से ‘उत्तरात्मक सहयोग’ (Responsive Co-operation) कहा जाता है। इसका अर्थ था कि ब्रिटिश नौकरशाही के साथ इस शर्त पर सहयोग किया जाए कि वह जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की माँगों पर ध्यान देगी, पर यदि नौकरशाही अपना सहयोग न दे तो विधान परिषदों में साँविधानिक अडंगेबाजी की नीति अपनाई जाए। दुर्भाग्यवश पार्टी के घोषणा पत्र के प्रकाशन के कुछ मास बाद ही 1 अगस्त, 1920 को रात्रि में तिलक का देहावसान हो गया और राष्ट्र उनके कार्यक्रम का विकास तथा परिणाम न देख सका।

बाल गंगाधर तिलक के राजनीतिक विचार- Part I

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