नेहरू और आर्थिक स्तर पर कल्याणकारी राज्य
नेहरू और आर्थिक स्तर पर कल्याणकारी राज्य
(Nehru and Welfare State on Economic Level)
जन-कल्याणकारी राज्य के प्रति नेहरू की चिन्तन और व्यवहार शैली क्या थी इसका संक्षिप्त किन्तु सुन्दर चित्र फ्रैंक मोरेस ने अपनी पुस्तक ‘जवाहरलाल नेहरू : जीवनी’ में किया है। नेहरू आर्थिक स्तर पर भारत को जन-कल्याणकारी राज्य बनाने हेतु जीवनपर्यन्त प्रयत्शील थे। समाजवादी ढंग का कल्याणकारी राज्य वर्षों से, निश्चय ही 1927 से, नेहरू का भारत के लिए आदर्श रहा । लेकिन आरम्भ से ही उनकी यह धारणा रही कि उनकी कल्पना का समाजवादी ढंग का समाज जोर-जबर्दस्ती से नहीं बल्कि सहमति और विचारों से मुक्त आदान-प्रदान से लाया जाना चाहिए। नेहरू चाहते थे कि इसके लिए लोगों को समझाना होगा, उनमें रचनात्मक कार्यों के प्रति तीव्र आकर्षण पैदा करना होगा, नियोजित मार्ग अपनाना होगा और देशवासियों में यह भावना पैदा करनी होगी कि योजना उनके लिए और उनके द्वारा ही है। पंचवर्षीय योजनाओं को चालू करने में नेहरू की सरकार ने लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं का सावधानी से पालन किया।
स्वतन्त्रता के तुरन्त बाद ही नेहरू ने राष्ट्र को चेतावनी दी कि या तो हमें उत्पादन बढ़ाना होगा या विनाश के मार्ग की ओर जाना होगा। भारत की सबसे बड़ी सम्पत्ति जनशक्ति है और इसका पूरा उपयोग करना चाहिए। 1948 में नेहरू ने अपने देशवासियों से अनुरोध किया “हमें काम में लगे रहना चाहिए, कड़े काम में। हमें उत्पादन करना चाहिए, लेकिन हम जो उत्पादन कर रहे हैं वह विशेष क्षेत्रों के लिए नहीं, किन्तु राष्ट्र के लिए, लोगों और साधारण आदमी के स्तर को उठाने के लिए होना चाहिए। अगर हम यह करते हैं तो हम भारत को शीघ्र ही प्रगति करता पाएँगे और आज जो बहुत से मसले हमारे सामने हैं वे ठीक हो जाएँगे। भारत का पुनर्निर्माण हमारे लिए सरल कार्य नहीं है। यह बहुत बड़ी समस्या है, यद्यपि हम संख्या में बहुत हैं और भारत में साधनों की कमी नहीं है, क्षमता वाले, समझदार और कड़ी मेहनत करने वाले लोगों की कमी नहीं है। हमें इन साधनों का और इस जनबल का भारत में उपयोग करना चाहिए।” नेहरू ने जिस प्रकार कल्पना की थी कि राजनीतिक रूप से भारत स्थायित्व से प्रगति की ओर बढ़े उसी प्रकार नेहरू ने आर्थिक रूप से प्रक्रिया को उन्हीं ढंगों से सोचा था। “यदि प्रथम पंचवर्षीय योजना स्थायित्व का प्रतिरूप थी तो द्वितीय योजना प्रगति को उपस्थित करती थी।” 1952 में प्रथम पंचवर्षीय योजना के सन्दर्भ में नेहरू ने कहा था कि-“हमारे आदर्श ऊँचे और हमारे लक्ष्य महान् हैं। उनकी तुलना में पंचवर्षीय योजना साधारण शुरूआत लगती है। लेकिन हमें याद रखना चाहिए कि यह अपने ढंग का पहला प्रयत्न है और यह आज की वास्तविकताओं पर आधारित है, न कि हमारी इच्छाओं पर। इसलिए इसे हमारे वर्तमान साधनों से सम्बन्धित रखना होगा, नहीं तो यह अवास्तविक रहेगी। यह भविष्य में अधिक बड़ी और अच्छी योजना की नींव सोची गई है। हमें अच्छी तरह नींव डालना है और शेष चीजें अनिवार्यतः आएँगी।” नेहरू ने इन शब्दों से हमें उनकी चिन्तन शैली का, कार्य करने के उनके ढंग का, व्यावहारिक बुद्धि का संकेत मिलता है।
नेहरू कभी औद्योगीकरण के विरुद्ध नहीं रहे, वरन् उन्होंने तो सदैव इसकी सक्रिय रूप से हिमायत की। भारत को जन-कल्याणकारी राज्य बनाने में वे औद्योगीकरण को बहुत ही महत्वपूर्ण मानते थे। पर साथ ही औद्योगीकरण की बुराइयों के प्रति भी सजग थे। नेहरू की दृष्टि में भारत की समस्या थी-पूँजी का अभाव और श्रमिकों का बाहुल्य । उनका कहना था कि उस जन शक्ति का, जो कुछ भी उत्पादन नहीं कर रही है, उपयोग किया जाए। मशीनों का बड़े पैमाने पर उपयोग हो बशर्ते कि वे श्रमिकों को काम में लगाने के उपयोग में लाएँ न कि बेकारी पैदा करने की। नेहरू ने देश में व्याप्त अनुचित आत्म-सन्तोष को कभी उचित नहीं माना । अपने प्रधानमन्त्रित्व काल के प्रारम्भिक वर्षों में ही दिसम्बर, 1952 में नेहरू ने संसद् में चेतावनी दी कि-“हमारा औद्योगीकरण कितना ही तेज क्यों न हो उसमें दस, बीस या तीस वर्षों में इस देश की थोड़ी-सी आबादी से अधिक सम्भवतः खप नहीं सकती। लाखों लोग ऐसे रह जाएँगे जिन्हें प्रमुखतः खेती में लगाना होगा। इसके सिवा, इन लोगों को कुटीर उद्योग आदि के समान छोटे उद्योगों में काम देना होगा। यही गाँवों और कुटीर उद्योगों का महत्व है। प्रायः बड़े उद्योगों और कुटीर उद्योगों के मुकाबले के बारे में जो चर्चा सुनी जाती है वह गलत तरीके से सोची गई है। मुझे इस बात में सन्देह नहीं है कि इस देश में प्रमुख उद्योगों के विकास से हम लोगों के जीवन का स्तर ऊँचा नहीं कर सकते । मैं वास्तव में और आगे बढ़ कर कहूँगा कि बिना उनके हम स्वतन्त्र देश के रूप में भी नहीं बने रह सकते। पर्याप्त प्रतिरक्षा के समान कुछ चीजें स्वाधीनता के लिए अनिवार्य है और हम इन्हें बिना प्रमुख रूप से उद्योगों के विकास के नहीं रख सकते । लेकिन हमें यह सदा याद रखना होगा कि भारी उद्योगों का विकास ही देश में लाखों लोगों की समस्या हल नहीं कर देगा। हमें ग्रामोद्योग और कुटीर उद्योग को बड़े पैमाने पर विकसित करना होगा। साथ ही साथ छोटे-बड़े उद्योगों का विकास करने में हमें मानवता को नहीं भूल जाना होगा। हमारा उद्देश्य अधिक धन कमाना और अधिक उत्पादन ही नहीं है, हमारा अन्तिम लक्ष्य अच्छे इन्सान हैं। अपने देशवासियों के लिए हम बड़े-बड़े अवसर चाहते हैं। न केवल आर्थिक या भौतिक दृष्टिकोण से लेकिन अन्य स्तरों पर भी।”
देश को आर्थिक स्तर पर जन कल्याणकारी रूप देने में नेहरू ने सामुदायिक योजना को पर्याप्त महत्व दिया। सामुदायिक विकास का गाँवों का कार्यक्रम के जन्म दिन के अवसर पर 2 अक्टूबर, 1952 को आरम्भ किया गया। किसानों की एक भारी भीड़ को सम्बोधित करते हुए उन्होंने कहा, “आज जो काम यहाँ आरम्भ हुआ है, यह उस क्रान्ति का प्रतिफल है जिसके बारे में लोग इतने दिनों से शोर मचा रहे थे। यह अव्यवस्था और सर फोड़ने पर आधारित क्रान्ति नहीं है, किन्तु गरीबी दूर करने के लगातार प्रयल पर आधारित है। यह भाषणों का अवसर नहीं है। हमें भारत को अपनी मेहनत से महान् बनाना है।” यह देखकर नेहरू को खुशी होती थी कि “सुधरे हुए स्वास्थ्य, बेहतर शिक्षा और समाज सेवा के बढ़ते हुए भाव से भारत धीरे-धीरे नवजीवन और विस्तृत दिगंत की ओर अग्रसर हो रहा है।” भारत के लिए नेहरू जिस कल्याणकारी राज्य को चाहते थे उसमें गरीबी’ और ‘पिछड़ेपन’ को कोई स्थान न था। अपने विचारों की एक झाँकी उन्होंने मई, 1952 में सामुदायिक योजना सम्मेलन में दी थी। उन्होंने कहा था-
“वास्तव में जिस बात के लिए हम प्रतिबद्ध हैं वह थोड़े से सामुदायिक केन्द्र नहीं हैं, लेकिन भारत के लोगों के सबसे बड़े समुदाय के लिए, विशेषतः उन लोगों के लिए जो फटेहाल हैं, जो पिछड़े हुए हैं। इस देश में बहुत ही अधिक पिछड़े हुए लोग हैं। परिगणित जाति और परिगणित वर्ग के संगठनों के अतिरिक्त पिछड़े हुए वर्गों की लीग नाम का एक संगठन है। असल में आप आसानी से कह सकते हैं कि भारत के 96% लोग आर्थिक रूप से बहुत पिछड़े हुए हैं। सही बात यह है कि मुट्ठी पर आदमियों को छोड़कर बहुसंख्यक लोग पिछड़े हुए हैं। जो भी हों, हमें उन लोगों के बारे में अधिक विचार करना है जो ज्यादा पिछड़े हुए हैं, क्योंकि हमें अवसर और दूसरी चीजों में क्रमश: बराबरी उत्पन्न करने वाला मानदण्ड सोचना है। आज के आधुनिक संसार में आप उन लोगों के बीच जो । ऊपर हैं और जो नीचे हैं बहुत दिनों तक बड़ी दूरी नहीं रख सकते । यह सही है कि आप सबको बराबर नहीं कर सकते। लेकिन कम से कम सबको अवसर की समानता तो दे सकते हैं।”
फ्रैंक मोरेस ने लिखा है कि “काँग्रेस के अव्यवस्थित और उलझे हुए चिन्तन के ताने-बाने में नेहरू का आर्थिक चिन्तन पक्के धागे की तरह एक-सा चलता रहता था। तीस से भी अधिक वर्षों से उनके अर्थ-सम्बन्धी विचार अपने पथ से अधिक नहीं हटे, यद्यपि कभी-कभी उन्होंने अपना जोर व्यापक या संकुचित कर दिया। गाँधी को छोड़कर, स्वतन्त्रता आने के समय नेहरू ही अकेले ऐसे नेता थे जिन्होंने अपने आप सोचकर एक निश्चित राजनीति, आर्थिक और सामाजिक दर्शन बना लिया था और जिसे सम्पन्न करने के लिए सत्ता ने उन्हें अपूर्व अवसर दिया।” मार्क्सवाद ने इनके आर्थिक चिन्तन पर प्रभाव डाला, किन्तु उस पर अधिकार नहीं जमाया | नेहरू ने भारत में समाजवादी ढंग से समाज की कल्पना की और इसकी स्थापना के लिए अवाड़ी प्रस्ताव के प्रयोजन को समझाते हुए मार्च, 1955 में फेडरेशन ऑफ इण्डियन चेम्बर ऑफ कॉमर्स एण्ड इण्डस्ट्री’ के समक्ष अपने भाषण में कहा-
“कल के नारों का आज बहुत कम अर्थ रह गया है, चाहे वे नारे पूँजीवादी, समाजवादी या साम्यवादी हों। इन सबको परमाणु युग के अनुसार बनना होगा। यह बात नहीं है कि दे गलत हैं। उसमें सच्चाई का कुछ अंश है, लेकिन उन्हें फिर से सोचना और के अनुकूल बनाना होगा। पूँजीवाद, समाजवाद, मार्क्सवाद सभी औद्योगिक क्रान्ति की सन्तानें हैं। हम लोग औद्योगिक क्रान्ति या शायद और बड़ी किसी चीज के पहले हैं। वह उत्पादन, वितरण, चिन्तन और शेष सभी चीजों पर प्रभाव डाल रहा है। इस सन्दर्भ में समाजवादी ढंग के समाज का निर्णय क्यों लिया गया ? यह लक्ष्य और उसके उपागम के निर्देश के लिए लिया गया है। हमें भारत को अणु युग के अनुकूल बनाना है और ऐसा जल्दी करना है। दूसरे देशों से शिक्षा ग्रहण करते हुए हमें यह भी याद रखना चाहिए कि प्रत्येक देश अपने अतीत पर बना है। भारत को जिन तत्वों ने बनाया है उन सब को याद रखना होगा ।”
नेहरू मृत्युपर्यन्त देश को आर्थिक समृद्धि देने, देश में व्याप्त गरीबी को मिटाने, आर्थिक विषमताओं को अधिकाधिक कम करने और इस प्रकार भारत को आर्थिक स्तर पर जन कल्याणकारी राज्य बनाने के लिए शक्ति भर संघर्ष करते रहे। इस उद्देश्य के मार्ग में आने वाली प्रत्येक बाधा को दूर करने का उन्होंने प्रयत्न किया-चाहे सौहार्द्रपूर्ण तथा सरकारी ढंग से अथवा सरकारी दबाव अथवा कानून से। उनका कहना था कि-“आपके तथा सामाजिक उद्देश्यों की प्राप्ति के बीच कैसी भी रुकावट नहीं आने देना चाहिए ।” पर रुकावटों को दूर करने में उन्होंने मार्क्सवादी साम्यवादी हिसात्मक और क्रान्तिपूर्ण साधनों को कभी नहीं अपनाया और न ऐसा करने की प्रेरणा ही दी। भौतिक स्तर पर लोगों की समृद्धि के साथ ही उन्होंने लोगों की साँस्कृतिक तथा आध्यात्मिक समृद्धि भी चाही। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा-“आज हमारी समस्या जनता के जीवन स्तर को उन्नत करने, उसकी आवश्यकताओं को पूरा करने, सुन्दर तथा स्वस्थ जीवन व्यतीत करने के लिए, उसे आवश्यक सुविधाएँ देने के लिए, केवल भौतिक वस्तुओं के सम्बन्ध में ही नहीं बल्कि साँस्कृतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से उसे न में प्रगति और विकास करने में सहायता देने की है।”
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