क्या तिलक भारतीय अशान्ति के जनक थे?
क्या तिलक भारतीय अशान्ति के जनक थे?
सर वेलेन्टाइन शिरोल ने अपनी पुस्तक ‘इण्डियन अनरेस्ट‘ (भारतीय अशान्ति) में तिलक को ‘भारतीय अशान्ति का जनक‘ (Father of Indian Unrest) की संज्ञा दी है और कहा कि वह कट्टर हिन्दू धर्म पर आधारित राष्ट्रवाद के महान् पुजारी थे तथा सरकार के प्रति जनता में द्वेष फैलाने वाले सबसे खतरनाक अग्रदूतों में से एक थे।
तिलक के चिन्तन, उनकी कार्य-शैली और उनके कार्यकलापों पर जो प्रकाश पूर्व पृष्ठों में डाला गया है, उससे स्पष्ट होता है कि तिलक का उद्देश्य किसी सशस्त्र विद्रोह को फैलाना नहीं था। तिलक कोई हिंसक क्रान्ति पैदा नहीं करना चाहते थे। तिलक जनता को इस सीमा तक उग्र नहीं करना चाहते थे कि वह हथियारों का सहारा ले। तिलक तो वैधानिक सीमाओं के भीतर रहकर भारतीय जनता में स्वराज्य के लिए अधिक से अधिक जागृति फैलाना चाहते थे, और दमनकारी तथा अन्यायपूर्ण कानूनों से असहयोग करने के पक्ष में थे। पुनश्च, स्वराज्य से भी तिलक का तत्कालीन परिस्थितियों में यह आशय नहीं था कि भारत ब्रिटेन से सम्बन्ध विच्छेद कर ले। वे ब्रिटिश सरकार का देश की वैदेशिक नीति पर नियन्त्रण तक बने रहने के लिए तैयार थे। वे प्रान्तों को भाषा के आधार पर विभाजित करने के भी पक्ष में थे और भारत के लिए वे एक संघात्मक सरकार चाहते थे। तिलक ने अपने लेखों और भाषणों में बारम्बार इस बात को स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य सोती हुई भारतीय जनता को अपने राजनीतिक अधिकारों की माँग के लिए जगाना, स्वराज्य के लिए सरकार पर दबावकारी नीति का आश्रय लेना है पर किसी भी सूरत में हिंसा और क्रान्ति को प्रोत्साहन देना नहीं है। तिलक ने ब्रिटिश शासन को भारत से उखाड़ फेंकने के लिए सशस्त्र क्रान्ति को प्रोत्साहन देना नहीं है। तिलक ने ब्रिटिश शासन को भारत में राष्ट्रवादी विचारधारा जाग्रत की और उदारवादियों की याचना पद्धति के स्थान पर उग्र दबावकारी नीति का पक्षपोषण किया। चूँकि उन्होंने देशवासियों को स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए प्रेरणा दी, अपना वाजिब हम माँगने के लिए जगाया, अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करने का उनमें उत्साह पैदा किया, सरकार के अन्यायपूर्ण कार्यों की कटु आलोचना की, सरकार की मुस्लिम परस्त नीति को बुरा बताया, हिन्दुओं को अपने महान् अतीत का स्मरण करके जाग पड़ने को प्रेरित किया, अतः स्वाभाविक था कि अंग्रेज उन्हें भारतीय असन्तोष का जन्मदाता कहते । यदि स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए इच्छा रखना और उसके लिए अपने-अपने देशवासियों को जगाना अपराध है तो फिर अंग्रेजों के इतिहास में और अनेक दूसरे देशों के इतिहास में ऐसे महापुरुषों की कमी न होगी जिनके महान् कार्यों को अपराध की श्रेणी में रखा जाए । दुर्भाग्यवश ब्रिटिश चरित्र में यह बड़ी कमी रही कि जिस किसी ने अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए उनके विरुद्ध आवाज उठाई, उनके साम्राज्य का कुठाराघात का प्रयत्न किया, उसको ही उन्होंने विरोधी दृष्टि से देखा। तिलक को भारतीय अशान्ति के जनक की पदवी देना अंग्रेजों के इसी स्वभाव को अभिव्यक्ति कही जा सकती है। हम ‘क्या तिलक क्रान्तिकारी थे ?’ के शीर्षक के अन्तर्गत कह चुके हैं कि तिलक बाकुनिन, क्रोपोटकिन अथवा लेनिन की भाँति क्रान्तिकारी नहीं थे और यह भली प्रकार समझते थे कि नि:शस्त्र भारत की तत्कालीन परिस्थितियों में सशस्त्र क्रान्ति न सम्भव थी और न सफल हो सकती थी। उन्होंने तो राष्ट्रीय शिक्षा, स्वदेशी वस्तुओं के प्रचार, विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार, निष्क्रिय प्रतिरोध एवं सांविधानिक द्वारा स्वराज्य प्राप्ति का मार्ग दिखाया । तिलक ‘अशान्ति के जनक’ नहीं थे क्योंकि वे एक ऐसे देशभक्त थे जिनका हृदय भारतीयों की दुर्दशा देख कर रोता था और जो यह कहते अघाते नहीं थे कि ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं उसे लेकर रहूँगा।”
स्पष्ट है कि लोकमान्य तिलक भारतीय अशान्ति के जनक नहीं थे बल्कि भारतीय अशान्ति के जनक तो स्वयं वह अंग्रेज सरकार थी जिसने भारतीयों की स्वातन्त्र्य इच्छा को कुचलने के लिए कठोरतम दमन नीति का आश्रय लिया, भारतीयों को सदैव आर्थिक और राजनीतिक शोषण की चक्की में पीसा, हिन्दू और मुसलमानों के बीच स्थायी बैर-भाव को फैलाया और हर प्रकार से भारतीयों में विदेशी हुकूमत के प्रति अधिकाधिक असन्तोष और घृणा का प्रसार करने वाली नीति अपनाई।
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