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भारत में फ्रांसीसी शक्ति की स्थापना एवं विकास

भारत में फ्रांसीसी शक्ति की स्थापना एवं विकास

भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से जो यूरोपीय यहाँ आए उनमें सबसे बाद में फ्रांसीसी आए। अपनी भौगोलिक, धार्मिक तथा आर्थिक परिस्थितियों के वशीभूत होकर ही पूर्वी देशों से व्यापार करने का मौका फ्रांस को बहुत देर से मिला। फ्रांस की आंतरिक राजनीतिक अव्यवस्था और योग्य, साहसी तथा कर्मठ व्यापारियों के अभाव के चलते फ्रांस भारत से व्यापारिक संबंध कायम करने की होड़ में पीछे छूट गया; परन्तु अन्य यूरोपीय व्यापारिक कंपनियों की प्रगति देखकर फ्रांसीसियों के बीच भी भारत से व्यापार करने की लालसा जाग उठी।

विदेशों से व्यापार करने के उद्देश्य से फ्रांस में 1611 ई० में एक कंपनी की स्थापना की गई, लेकिन इस कंपनी का उद्देश्य भारत से व्यापार करना न होकर मेडगास्कर में एक उपनिवेश की स्थापना करना था। दुर्भग्यवश इस उद्देश्य की पूर्ति में भी यह कंपनी असफल रही। 1642 ई० में फ्रांस के मंत्री रिशालू ने पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने के उद्देश्य से तीन अन्य कंपनियाँ कायम की जो सफल नहीं हो सकी। तत्पश्चात 1664 ई० में सम्राट लुई चौदहवें के शासनकाल में उसके मंत्री कालबर ने फ्रांसीसी ईस्ट इंडिया कंपनी की स्थापना की। इस कंपनी का उद्देश्य पूर्वी देशों के साथ व्यापार करने के अतिरिक्त ईसाई धर्म का प्रचार करना तथा राजनीतिक सत्ता प्राप्त करना भी था। यह एक सरकारी कंपनी थी जिस पर सरकार का नियंत्रण था। 1667 ई० में इस कंपी की एक शाखा मेंडगास्कर में भी खुली। कंपनी की सुरक्षा के लिए एक जल-बेडे का भी गठन हुआ। अब फ्रांसीसी भारतीय व्यापार और राजनीति में पूरी दिलचस्पी लेने लगे।

भारत में उन्होंने अनेक कोठियाँ खोलीं, जैसे 1668 ई० में सूरत में, 1669 ई० में मछलीपट्टम तथा 1673 ई० में पांडिचेरी में फ्रांसीसी कोठियाँ खुल गई और इन स्थानों पर फ्रांसीसियों का अच्छा प्रभाव कायम हो गया। फ्रांसीसी बंगाल की तरफ भी बढ़े तथा 1673 ई० में ही चंद्रनगर में भी अपनी कोठी स्थापित कर ली। फ्रांसीसी अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए देशी शासकों से मैत्रीपूर्ण संबंध बनाए रखना चाहते थे। इसलिए, जब मराठों ने कर्नाटक विजय की योजना बनाई तो फ्रांसीसियों ने मुगल सूबेदार की सहायता कर एक तरफ तो मराठों को पराजित कर दिया तथा दूसरी तरफ मुगल सम्राट एवं कर्नाटक के नवाब को अपना हिमायती बना लिया। फ्रांसीसी कंपनी के प्रधान ड्यूमा (दूमास) के इन कार्यों से प्रसन्न होकर सम्राट ने उसे नवाब का खिताब दिया तथा दोहजारी मनसब प्रदान किया। इस घटना के पश्चात कर्नाटक पर फ्रांसीसियों का प्रभाव और अधिक बढ़ गया तथा पांडिचेरी पर उनका पूर्ण नियंत्रण कायम हो गया।

इसी मध्य फ्रांस और हॉलैंड के मध्य होनेवाले युद्ध का प्रभाव भारत पर भी पड़ा। भारत में भी डचों और फ्रांसीसियों के बीच व्यापारिक एवं राजनीतिक प्रतिस्पर्धा आरंभ हो गई। फ्रांसीसियों ने सेंटथोम पर, जो डचों के कब्जे में था, अधिकार कर लिया, परन्तु त्रिचनापली से उन्हें हाथ धोना पड़ा। बाद में सेंटथोम और पांडिचेरी भी उनके हाथ से निकल गए। यद्यपि फ्रांसीसियों ने बाद में पुनः पांडिचेरी पर अधिकार कर लिया, तथापि डच-फ्रांसीसी संघर्ष में फ्रांसीसियों को अपार क्षति उठानी पड़ी। कंपनी की अवस्था दिनेदिन बिगड़ती गई। फ्रांस की सरकार ने इसकी स्थिति सुधारने का प्रयास किया। कंपनी का पुनर्गठन किया गया।

इन प्रयासों के परिणामस्वरूप 1720 ई० में कंपनी की स्थिति में सुधार आने लगा। उसका व्यापार बहुत अधिक बढ़ गया। तंबाकू के व्यापार पर कंपनी का एकाधिपत्य कायम हो गया। फ्रांसीसियों ने धीरे-धीरे माही, मॉरीशस तथा कारीकल पर भी कब्जा जमा लिया। 1740 ई० से अंग्रेजों की तरह फ्रांसीसियों ने भी उग्रगामी नीति अपनाई तथा भारत की राजनीतिक अव्यवस्था से लाभ उठाकर भारतीय राजनीति में हस्तक्षेप करने की योजना बनाई। इसका श्रेय पांडिचेरी तत्कालीन फ्रांसीसी गवर्नर डूप्ले को दिया जा सकता है। इसी उग्रगामी नीति का परिणाम था आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्विता और कर्नाटक के तीन युद्ध जिनमें फ्रांसीसी पराजित हो गए और अंग्रेजों की सर्वोच्चता स्थापित हो गई।

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