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ईस्ट इंडिया कंपनी का आगमन एवं उसकी गतिविधियां

ईस्ट इंडिया कंपनी

पुर्तगालियों और डचों के पश्चात भारत में व्यापार करने के उद्देश्य से अंग्रेज आए। प्रारंभ में इन्हें डचों से और बाद में फ्रांसीसियों से प्रभुता के लिए संघर्ष करना पड़ा जिसमें अंग्रेज सफल हुए और यहाँ के व्यापार और राजनीति पर इनका एकछत्र अधिकार कायम हो गया।

17वीं शताब्दी में भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी की गतिविधियाँ

1588 ई0 के अर्मडा के युद्ध के पूर्व तक इंग्लैंड की नाविक शक्ति को स्पेन के सामने झुकना पड़ता था और सामुद्रिक मार्ग पर अधिकार करने का उनका हौसला पस्त हो जाता था परन्तु इस युद्ध में विजय के पश्चात अंग्रेजों की नौसैनिक शक्ति काफी प्रबल हो उठी। अब अंग्रेजों में भी भारत के साथ व्यापार करने की लिप्सा जाग उठी। उन लोगों ने भारत और इंग्लैंड के बीच समुद्री मार्ग का पता लगाने का प्रयास किया। स्पेन के साथ हुए युद्ध के पहले से भी इस दिशा में प्रयास किए जा रहे थे परन्तु इस घटना के बाद इस क्रम में तेजी आ गई। 1591 और 1593 ई0 के मध्य जेम्स लंकास्टर और बेंजामिन वुड ने इस दिशा में प्रयास किए। 1597 ई0 में लंदन का एक साहसी व्यापारी माइल्डेन्हल्ल स्थल मार्ग से भारत पहुंचा। इन साहसिक प्रयासों ने इंग्लैंड की सरकार और जनता को भारत के साथ व्यापार बढ़ाने को प्रेरित किया। इस उद्देश्य से इंग्लैंड के कुछ व्यापारियों ने मिलकर एक व्यापारिक कम्पनी की स्थापना की। 31 दिसम्बर, 1600 को महारानी एलिजाबेथ ने एक अधिकारपत्र जारी कर दी ‘गवर्नर एंड कंपनी ऑफ मर्चेट्स ट्रेडिंग इन टू दि ईस्ट इंडिया’ (ईस्ट इंडिया कपनी) को 15 वर्षों के लिए भारतीय व्यापार का एकाधिकार सौंप दिया। इस कंपनी ने पहले भारत की तरफ आने का प्रयास नहीं किया बल्कि पूर्वी द्वीपसमूह की तरफ अपना ध्यान दिया परन्तु वहाँ पुर्तगालियों का आधिपत्य था इसलिए बाध्य होकर कम्पनी को भारत की तरफ मुड़ना पड़ा।

कम्पनी की गतिविधियाँ

इस दिशा में सबसे महत्वपूर्ण प्रयास कैप्टन हॉकिन्स ने किया। राजा जेम्स प्रथम का पत्र लेकर 1608 ई0 में अपने जहाज हेक्टर के साथ वह सूरत बंदरगाह पर पहुंचा जो एक महत्वपूर्ण व्यापारिक केन्द्र था। वहाँ से वह मुगल सम्राट जहाँगीर से मिलने आगरा गया। जहाँगीर ने इस राजदूत का यथोचित स्वागत सत्कार किया। हॉकिन्स से प्रसन्न होकर जहाँगीर ने अंग्रेजों को सूरत में बसने की आज्ञा प्रदान कर दी। हॉकिन्स को चार सौ की मनसबदारी एवं जागीर दी गई तथा उसे आगरा में रहने की अनुमति भी मिली। इससे पुर्तगाली सशंकित हो गये और उन लोगों ने जहाँगीर के कान भर दिये। अतएव, जहाँगीर ने अंग्रेजों को सूरत से बाहर जाने की आज्ञा दी। फलतः, हॉकिन्स निराश होकर दरबार से चला गया। सूरत पहुँचकर सर हेनरी मिडलटन के साथ हॉकिन्स ने सूरत के व्यापारियों के विरूद्ध प्रतिशोध लेने का निश्चय किया। इस घटना से घबड़ाकर सूरत के व्यापारियों ने कप्तान बेस्ट के अधीन दो अंग्रेजी जहाजों को सूरत में रखने की अनुमति दे दी। इसी समय 1612 ई0 में बेस्ट ने ताप्ती के मुंह के निकट समुद्रयुद्ध में पुर्तगालियों को परास्त कर दिया। इस घटना से जहाँ पुर्तगालियों में निराशा व्याप गई वहीं अंग्रेजों में नवजीवन का संचार हुआ। इसके तुरंत बाद 6 फरवरी, 1613 को एक शाही फरमान द्वारा (जहाँगीर द्वारा) अंग्रेजों को सूरत में कोठी बनाने और मुगल दरबार में एक एलची रखने की इजाजत प्राप्त हुई। अब टामस एल्डबर्थ के अधीन सूरत में एक स्थायी अंग्रेज कोठी की स्थापना की गई। जहाँगीर ने संभवतः ऐसा इसलिए किया क्योंकि वह अंग्रेजों की नौसैनिक शक्ति का प्रयोग पुर्तगालियों को दबाने में कर सकता था। दूसरा संभावित कारण यह था कि विदेशी व्यापारियों की प्रतिस्पर्धा का लाभ भारतीय व्यापरी उठा सकते थे।

सर टॉमस रो का आगमन

1616 ई० में सर टॉमस रो जेम्स प्रथम का राजदूत बनकर मुगल दरबार में पहुंचा। उसका मुख्य उद्देश्य भारत के समुद्री तटों पर अंग्रेजी कोठियाँ कायम करने की आज्ञ प्राप्त करना था। राजकुमार खुर्रम ने टॉमस रो का विरोध किया; परन्तु उसने नूरजहाँ के भाई आसफ खाँ को अपने पक्ष में मिलाकर अनेक सुविधाएँ प्राप्त कर ली। अंग्रेजों को स्वतंत्र व्यापार करने एवं कोठियाँ खोलने की आज्ञा मिली। इतना ही नहीं, मुगलों ने उनकी सुरक्षा का उत्तरदायित्व भी अपने ऊपर ले लिया। इन सुविधाओं से अंग्रेजों का व्यापार चमक उठा। सर टॉमस रो के वापस लौटने के समय (फरवरी,1619) तक सूरत में उनकी स्थिति सुदृढ़ हो चुकी थी तथा आगरा, भड़ौंच और अहमदाबाद में अंग्रेजी कोठियाँ कायम हो चुकी थीं।

सर टॉमस रो के वापस जाने के पश्चात भी अंग्रेजों के व्यापार और शक्ति में वृद्धि होती चली गई। अंग्रेजों ने क्रमशः पछलीपट्टम् (1631 ई0), बालासोर और हरिहरपुर (1633 ई0) में कारखाने खोल लिए। 1639 ई० में अंग्रेजों को चंद्रगिरी के शासक से मद्रास का बंदोबस्त मिला। अंग्रेजों ने वहाँ पर फोर्ट सेंट जॉर्ज नामक किले का निर्माण किया जो कोरोमंडल तट पर अंग्रेजों के सदर मुकाम के रूप में मछलीपट्टम से भी अधिक महत्वपूर्ण बन गया।

बंगाल में कम्पनी का विस्तार

इस समय तक कम्पनी का विस्तार दक्षिण-पश्चिम और उत्तर पूर्व की तरफ हो चुका था। इसी समय अंग्रेजों को बंगाल में भी प्रवेश करने का मौका मिला। शाहजहाँ ने पुर्तगालियों से क्रुद्ध होकर उन्हें बंगाल से बाहर कर दिया था और अंग्रेजों को बंगाल में सीमित क्षेत्र में व्यापार करने की इजाजत प्रदान की थी; परन्तु एक अंग्रेज चिकित्सक बियल बफ्टन ने शाहजहाँ की बीमार लड़की का सफलतापूर्वक इलाज कर अंग्रेजों के लिए अनेक व्यापारिक सुविधाएँ प्राप्त की। 1650 ई0 के फरमान के अनुसार बफ्टन को एक-दो जहाजों के साथ बंगाल में बिना चुंगी दिए व्यापार करने की आज्ञा मिली। 1651 ई0 में ब्रिजमैन के अधीन हुगली में एक अंग्रेजी फैक्टरी खोली गई। तत्पश्चात पटना, कासिमबाजार और राजमहल में भी कोठियाँ खुलीं। 1658 ई० में बंगाल, बिहार और उड़ीसा तथा कोरोमंडल तट की समस्त अंग्रेजी कंपनियाँ फोर्ट सेंट जॉर्ज (मद्रास) के अधीन कर दी गई। मद्रास कंपनी की गतिविधियों का प्रमुख नियंत्रक केन्द्र बन गया। इस समय तक ईस्ट इंडिया कंपनी शुद्ध व्यापारिक कंपनी के रूप में काम कर रही थी और भारतीय राजनीति में नहीं के बराबर हस्तक्षेप कर रही थी, परन्तु 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में अनेक कारणों से कंपनी की नीति में परिवर्तन आया। अब वह सिर्फ व्यापार से संतुष्ट नहीं रही, बल्कि भारतीय राजनीति में भी दिलचस्पी लेने लगी।

कंपनी की अग्रगामी नीति

17वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में डचों के प्रतिरोध, स्थानीय राजनीतिक अयवस्था और इंग्लैंड की अस्पष्ट नीति के कारण अंग्रेजी व्यापार बहुत अधिक प्रगति नहीं कर सका था; परन्तु 17वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कम्पनी की नीति में परिवर्तन हुआ। 1661 ई० में ब्रिटेन के शासक चार्ल्स द्वितीय ने कम्पनी को सनद प्रदान किया जिसके द्वारा उसे ‘सिक्का ढालने, किलेबंदी करने, पूर्व में बसने वाली अंग्रेजी प्रजाओं पर भी न्याय शासन चलाने का और अविकसित राष्ट्रों के साथ युद्ध अथवा सन्धि करने का अधिकार मिला। चार्ल्स द्वितीय ने 1668 ई0 में बम्बई का प्रांत कंपनी को 10 पौंड सालाना लगान पर दे दिया । ऐसी परिस्थिति में कंपनी की स्थिति काफी सुदृढ़ हो गई। लेकिन, इसके साथ-ही-साथ मुगलों की गिरती स्थिति, मराठों एवं अन्य दक्षिण भारतीय स्वतंत्र राज्यों के उदय, बंगाल में अराजकता की स्थिति, सामुद्रिक लूटेरों के प्रकोप आदि ने कंपनी के संचालकों को अपनी सुरक्षा के विषय में चिंतित कर दिया।

इसी उद्देश्य से प्रेरित होकर कंपनी ने स्वयं अपनी रक्षा का प्रबंध किया। अंग्रेजों ने चटगाँव पर अधिकार करने और पुर्तगालियों से सालसेट छीनने का प्रयास किया। अंग्रेजों ने मुगलों को भी परेशान किया। कप्तान विलियम हीथ ने 1688 ई० में बालासोर में मुगल किलेबंदी को नष्ट कर दिया। इसी वर्ष सूरत में मुगल जहाज लूटे गए। अंग्रेजों की इन कार्रवाइयों से परेशान होकर औरंगजेब ने 1690 ई० में अंग्रेजों को हर्जाना चुकाने पर क्षमा कर दिया और उन्हें अबाध गति से व्यापार करने की आज्ञा दी। इसी प्रकार, अंग्रेजों को बंगाल में भी 3000 रुपए सालाना चुंगी के बदले बिना रोक-टोक के व्यापार करने की आज्ञा मिली। अगस्त, 1690ई० में ही जॉब चारनाक की देख-रेख में सुतानुती (कलकत्ता) में एक अंग्रेजी फैक्टरी कायम की गई। बाद में इसकी किलेबंदी भी हुई। 1699 ई0 में अजीमुश्शान ने 1300 रुपए में सुतानुती, कालीकाता और गोविन्दपुर गाँवों की जमींदारी खरीदने की आज्ञा प्रदान की। 1700 ई० में फोर्ट विलियम की स्थापना हुई जो बंगाल प्रेसीडेंसी का केन्द्र बन गया। इसका पहला गवर्नर सर चार्ल्स आयर बना। इंग्लैंड में भी कम्पनी की आपसी प्रतिद्वंद्विता 18वीं शताब्दी के प्रारम्भ तक समाप्त हो चुकी थी और अब उसकी स्थिति पहले की अपेक्षा अधिक सुदृढ़ बन चुकी थी।

17वीं शताब्दी के अंत तक अंग्रेज अपनी आंतरिक एवं वाह्य स्थिति मजबूत बना चुके थे। अब उन लोगों ने भारत में अन्य व्यापारिक कम्पनियों एवं मुगलों के विरोधियों के साथ संघर्ष एवं मैत्री की नीति अपनाई। उनका सबसे जबर्दस्त मुकाबला फ्रांसीसियों के साथ हुआ जिसमें फ्रांसीसी पराजित हुए और भारत के व्यापार एवं राजनीति पर अंग्रेजों ने बलात् अधिकार जमा लिया।

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