मध्यकालीन भारत में विदेशी व्यापार
मध्यकालीन भारत में वाह्य व्यापार थल एवं जल दोनों मार्गों से होता था। 13 वीं शताबदी में शहरीकरण के विकास के फलस्वरूप स्थल मार्गों के व्यापार में भी वृद्धि हुई । पेशावर वाह्य व्यापार के लिए एक प्रमुख केन्द्र बना जहाँ से खुरासान एवं ट्रांसआक्सियाना के देशों से व्यापारिक सम्पर्क बढ़ा। ईरान एवं मध्य एशिया के व्यापार के लिए काबुल एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। पंजाब से माल काबुल, गजनी, खुरासान एवं मध्य एशिया के बाजारों को भेजे जाते थे। हार्न बर्नफोर्ड नामक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का एक अधिकारी 1639 ई० में आगरा से थट्टा की यात्रा के पश्चात लिखता है कि पानीपत में निर्मित सफेद कपड़े विक्रय के लिए सरहिन्द एवं लाहौर भेजे जाते थे। वह यह भी लिखता है कि समाना में उत्पादित सूती कपड़े ईरानी एवं आर्मिनियाई व्यापारी कंदहार के मार्ग से इस्फहान तथा उसके निकटवर्ती बाजारों को ले जाते थें । लाहौर भारतीय यातायात का प्रमुख केन्द्र था जहाँ निकटवर्ती क्षेत्रों से व्यापारिक वस्तुयें लाई जाती थीं तथा उन्हें काबुल के मार्ग से वाह्य देशों को निर्यात किया जाता था। 1590-91 ई0 में बादशाह अकबर ने शहरी उपयोग की वस्तुओं पर से चुंगी समाप्त करने का आदेश दिया। बादशाह जहाँगीर ने भी व्यापार को प्रोत्साहित करने के लिए कुछ कारों को बंद कर दिया तथा व्यापारियों की सुविधा के लिए कुछ सरायों का भी निर्माण करवाया जिनमें से कुछ कालांतर में शहर के रूप में विकसित हो गए।
परन्तु जल - मार्गों से वाह्य व्यापार अधिक होता था। इसका कारण यह था कि जल मार्ग अधिक सुविधाजनक थे तथा थल मार्ग इसकी तुलना में महँगे एवं असुरक्षित थे। प्रथम जल मार्ग फारस की क्षाड़ी के बंदरगाहों तथा दूसरा जल मार्ग लाल सागर के बंदरगाहों को ले जाता था जहाँ से माल मिस्र एवं भूमध्य सागर के बंदरगाहों को पहुँचता था। वहाँ से इटैलियन व्यापारियो द्वारा माल की आपूर्ति पश्चिम यूरोपीय देशों की की जाती थी। भारतीय माल हरमुज के बंदरगाह द्वारा इराक एवं खुरासान पहुंचता था। लाल सागर के जल मार्ग पर जद्दा एवं अदन प्रमुख बंदरगाह थे जहाँ भारतीय व्यापारियों की एक बड़ी बस्ती थी। इसके निकटवर्ती धोफर नामक बंदरगाह से भारत घोड़ों का आयात करता था। सिंध में स्थित देवल प्रमुख आरम्भिक बंदरगाह था परन्तु 15 वी शताब्दी के बंत तक निचले सिंध में लहरीबंदर की महत्ता बढ़ने लगीं गुजरात का प्रमुख बंदरगाह कैम्बे था। इसके अतिरिक्त ताप्ती के उत्तरी तट पर सूरत तथा दक्षिणी तट पर रान्देर गुजरात के अन्य बड़े बंदरगाह थे। इन बंदरगाहों से व्यापारिक जहाज लाल सागर, हरमुज पूर्वी अफ्रीका आदि के बंदरगाहों को जाते थे। मालाबार तट पर अनेक बंदरगाह थे जिनमें कालीकट एवं क्यूलों प्रमुख थे। मालाबार एक ओर श्रीलंका, मलक्का एवं मसाला द्वीपों तथा दूसरी ओर फारस की खाड़ी लाल सागर एवं पूर्वी अफ्रीका से समान दूरी पर स्थित था। कालीकट के अर्बी एवं ईरानी व्यापारी प्रतिवर्ष फारस की खाड़ी एवं लाल सागर के बंदरगाहों को जाते थे। अफ्रीका के तट पर बसे अरबी लोगों ने गुजरात तथा पूर्वी अफ्रीका के मध्य व्यापार को उन्नतिशील बनाया। मलक्का दक्षिण-पूर्वी एशिया को एक महत्वपूर्ण अंतराष्ट्रीय बंदरगाह था जहाँ कैम्बे, रान्देर, कालीकट, श्रीलंका, कोरोमंडल, बंगाल एवं थाइलैण्ड के बंदरगाहों से व्यापारिक जहाज आते थे। मलक्का में गुजरात, जावा एवं उसके निकटवर्ती द्वीपों के लोग आकर बस गये थे जो व्यापारिक गतिविधियों में महत्वपूर्ण भाग लेते थे। अल्बुकर्क लिखता है कि “गुजरातियों को अन्य राष्ट्रों के लोगों की अपेक्षा उस क्षेत्र की जहाजरानी का अच्छा ज्ञान है क्योंकि उनका वहाँ के लोगों से व्यापारिक सम्बन्ध था।” पेगू उस क्षेत्र का एक अन्य बंदरगाह था। मलक्का के एक व्यापारिक केन्द्र के रूप में उदय से पूर्व चीनरी जहाज लाल सागर के प्रवेश-द्वार तथा फारस की खाड़ी तक जाते थे परन्तु 14 वीं शताब्दी के पश्चात केवल कोरोमण्डल तट की जाने लगे। इसी प्रकार भारतीय व्यापारिक जहाज भी अब मलक्का में ही रुक जाते थे। फलस्वरूप भारतीय सामुद्रिक उद्यम में तीव्र ह्रास आया।
भारत एवं श्रीलंका के व्यापार पर कोरोमण्डल, मालावार, विजयनगर तथा गुजरात के व्यापारियों का अधिकार था। कालीकट तथा लाल सागर के मध्य के व्यापार पर अरबी एवं ईरानियों का प्रभुत्व था। परन्तु गुजराती, तुर्की एवं ईरानी व्यापारी अन्य जलमार्गों से व्यापार करते थे। इन जहाजों के स्वामी हिन्दू एवं मुसलमान दोनों होते थे। हरमुज एवं अदन पर मुसलमानों का वर्चस्व था परन्तु मलक्का पर गुजराती व्यापारियों का नियंत्रण था। पुर्तगाो नाविक वास्कोडिगामा 1498 ई० में कालीकट पहुँचा जिससे भारत एवं यूरोप के मध्य प्रत्यक्ष व्यापारिक सम्पर्क स्थापित हुआ तथा पूर्वी व्यापार पर पुर्तगाल का एकाधिकार हो गया। पुर्तगाल ने प्राचीन, गोवा, दमन, ड्यू आदि स्थानों पर अपने व्यापारिक केन्द्र स्थापित किए। इस समय यूरोप में व्यापारिक क्रान्ति का युग था जिसके कारण यूरोपीय व्यापारी व्यापार के अवसर की खोज में प्रयत्नशील थे। अतः भारत-यूरोपीय व्यापार पर पुर्तगालियों का एकाधिकार अस्थायी सिद्ध हुआ तथा शीघ्र ही डच, अंग्रेजी एवं फ्रांसीसी व्यापारिक कम्पनियों ने भी भारत में प्रवेश किया। फलस्वरूप भारत के बाह्य व्यापार पर इन व्यापारिक कम्पनियों का प्रभाव बढ़ने लगा तथा बाह्य व्यापार पर वैयक्तिक व्यापारी के नियंत्रण के स्थान पर अब विदेशी व्यापारिक कम्पनियों का प्रभुत्व स्थापित हुआ।
भारतीय निर्यात की वस्तुओं में कपड़ा, अनाज, चीनी, तिलहन, तेल, नील, शीरा, कपूर, लौंग, नारियल, सुगंधित पदार्थ, केसर, चंदन की लकड़ी, अफीम, काली मिर्च, मसाले, पारा, औषधि, मोती, पशुओं की खाल इत्यादि थे। दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में भारतीय कपड़ों की माँग अधिक थी। जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मलाया, पेगू एवं स्याम को विभिन्न प्रकार के कपड़े निर्यात किए जाते थे। इंग्लैण्ड एवं हॉलैण्ड में भी भारतीय सूती कपड़ों की बड़ी माँग थी। सत्रहवीं शताब्दी में देश में सूती कपड़ों की लगभग आठ हजार गाठे बनती थीं जिनमें से चार हजार सात सौ गाठे यूरोपीय देशों को भेजी जाती थी। भारतीय रेशम का बना हुआ ताफता एवं बूटेदार कपड़े भी निर्यात किए जाते थे। सूरत, बनारस, बंगल एवं अहमदाबाद के उत्पादित रेशमी कपड़े वर्मा, मलाया एवं यूरोपीय देशों को निर्यात किए जाते थे। उड़ीसा, बंगाल एवं मालवा में उत्पादित लाख अरब तथा फारस की खाड़ी के देशों को निर्यात की जाती थी। चीन को पारा, मूंगा, केसर, काली मिर्च, अफीम आदि का निर्यात किया जाता था। अफीम बिहार एवं मालवा में उत्पादित की जाती थी जिसका निर्यात पेगू, जावा, मलाया आदि को भी किया जाता था। पूर्वी अफ्रीका को कपड़े, मसाले एवं मनके भेजे जाते थे। श्रीलंका को खाद्यान्न एवं कपड़ों का निर्यात किया जाता था। अरब एवं फारस की खाड़ी के देशों को नारियल, नील, केसर, बहुमूल्य पत्थर, लाख, चंदन की लकड़ी, सुगंधित पदार्थ, औषधि, मोती आदि का निर्यात किया जाता था। ईरान, काबुल एवं फ्रांस को चीनी निर्यात की जाती थीं। भारत से निर्यात की अन्य वस्तुओं में । लोहा, तम्बाकू, आँवला, किनारी, बहुमूल्य रत्न, शीशा, चमड़े, लकड़ी की वस्तुएं आदि थी।
मध्यकालीन भारत में कुछ विदेशी वस्तुओं का आयात भी किया जाता था। आयात की वस्तुओं में सोना, चाँदी, तांबा, जस्ता, अफीम, केसर, सिंदूर, चीनी मिट्टी, सिल्क, कपूर, घोड़े, विलास-वस्तुएं, संगमरमर, बहुमूल्य पत्थर इत्यादि थे। चीन, जापान, मलक्का एवं अफ्रीका से सोने, चाँदी तथा ताँबे का आयात किया जाता था। अफ्रीका से हाथी दाँत एवं लाख का भी आयात किया होता था। यूरोप से शीशा, सिल्क, सुगंधित इत्र, खिलौने एवं विलास-वस्तुओं का आयात किया जाता था। अरब एवं खाड़ी के देशों से सोना, चाँदी, जस्ता, केसर, अफीम, सिंदूर, गुलाब जल तथा घोड़ों का आयात किया जाता था। बोर्नियों से कपूर, पेगू से मूंगा तथा श्रीलंका से दालचीनी एवं बहुमूल्य पत्थर मंगाए जाते थे। चीन से धातुओं के अतिरिक्त औषधि, मुसब्बर, लाल एवं सफेद चीनी मिट्टी, सिल्क आदि का भी आयात किया जाता था। अफगानिस्तान से सूखे मेवे, अम्बर, हींग, लाल पत्थर आदि आयात किए जाते थे। इसके अतिरिक्त अदन एवं तुर्की से उत्तम नस्ल के घोड़ों का भी आयात किया जाता था।
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