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मुगलों की मनसबदारी प्रथा- उदभव एवं मुख्य विशेषताएं

मुगलों की मनसबदारी प्रथा- उदभव एवं मुख्य विशेषताएं

मनसबदारी व्यवस्था एक विशिष्ट प्रशासनिक व्यवस्था थी जिसका प्रचलन मुगल शासक अकबर द्वारा किया गया था। अकबर के उत्तराधिकारियों द्वारा किए गये कुछ संशोधनों के साथ यह व्यवस्था मुगल साम्राज्य की सैन्य व सिविल सेवाओं का आधार बनी रही। अकबर के पूर्ववर्ती मुगल शासकों के सैन्य संगठन के विषय में हमें विशेष जानकारी नहीं है। संभवतः दशमलव प्रणाली पर आधारित मंगोलों की सैन्य व्यवस्था, जिसकी कुछ छाप दिल्ली सल्तनत के सैनिक संगठन पर दिखाई पड़ती हैं, यही मुगलों की सैन्य व्यवस्था का आधार रही होगी।

बाबर के नेतृत्व में मुगलों द्वारा उत्तरी भारत की विजय के काल (1526 ई0) से अकबर के राज्यारोहण के काल (1556) तक मुगल शासकों को प्रशासनिक संस्थाओं की पुनर्व्यवस्था के सुदृढ़ीकरण का अवसर नहीं मिला। बाबर अपनी विजयों में व्यस्त रहा जिसके कारण वह , प्रशासन की ओर ध्यान न दे सका, जबकि हुमायूँ राजनीतिक समस्याओं में फंसा होने के कारण इस ओर ध्यान देने में असमर्थ रहा। इस प्रकार अकबर को एक अस्त-व्यस्त प्रशासनिक व्यवस्था विरासत में मिली व उसके वयस्क होने तक स्थिति इसी प्रकार बनी रही।

मध्ययुगीन राज्य व्यवस्था में सशस्त्र सेनाओं का विशेष महत्व होने के बावजूद केंद्रीकृत सेना की अवधारणा विकसित नहीं हो पाई थी। इसके परिणामस्वरूप राज्य की विविध गतिविधियों, विशेषतः कानून और व्यवस्था की स्थापना के लिए, सैनिक सरदारों पर निर्भर करना पड़ता था, जिनके अंतर्गत सशस्त्र टुकड़ियाँ रहती थीं। इस काल में अमीरों की सशस्त्र टुकड़ियों की संख्या तथा उनको दिए जाने वाले वेतन के मध्य कोई तालमेल नहीं था। इसका कारण यह था कि इन अमीरों का वेतन स्वयं पादशाह द्वारा अपनी मर्जी के मुताबिक नियत किया जाता था, किसी विशिष्ट नियम के अनुसार नहीं। ऐसी स्थिति में शासक की स्थिति तथा सत्ता अत्यंत क्षीण रहती थी, जबकि सैन्य सरदार उन क्षेत्रों में अत्यंत शक्तिशाली हो जाते थे जो राज्य के प्रति उनकी सेवाओं के बदले में दिए जाने वाले वेतन के एवज में उनको प्रदान किए जाते थे। राज्य के राजस्व का अधिकांश भाग इन सेनानायकों को प्रदान किए जाने के कारण प्रशासन की आय अत्यन्त सीमित थी। राज्य के राजस्व में भी समरूपता नहीं थी। इसके अतिरिक्त राज्य की प्रशासनिक नीतियों तथा व्यवस्था के निर्धारण के अभाव में इन सैनिक सरदारों द्वारा अनुदान के रूप में मिले क्षेत्रों पर स्वेच्छापूर्ण ढंग से शासन किया जाता था। ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी जिससे सशस्त्र टुकड़ियों के आकार व संख्या पर नियंत्रण स्थापित किया जा सकता। सैनिक टुकड़ियों की संख्या दिखाई कुछ जाती थी, वास्तविक सुख्या कुछ और होती थी। इसके अतिरिक्त राज्य अधिकारियों की भर्ती, नियुक्ति आदि के संबंध में भी कोई नियम निर्धारित नहीं थे। वस्तुतः जागीर पहले प्रदान की जाती थी तथा उससे होने वाली आय के अनुपात में सशस्त्र टुकड़ियों की संख्या नियत कर दी जाती थी। 1558 में मुहम्मद अतका खाँ को एक करोड़ तक की आय की जागीर प्रदान किए जाने से ही अकबर के शासनकाल के प्रारंभिक वर्षों की स्थिति का अनुमान किया जा सकता है।

अकबर ने शीघ्र ही यह अनुभव कर लिया था कि एक सशक्त व सुव्यवस्थित केंद्रीय व्यवस्था की स्थापना के लिए सुस्पष्ट नियमों पर आधारित एक ऐसी प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना की आवश्यकता है जिससे उमरा वर्ग को अपनी अधीनस्थ स्थिति तथा शासन के प्रति उनके उत्तरदायित्व का बोध हो तथा प्रशासनिक पदों पर नियुक्ति तथा पदोन्नति के लिए व्यक्तित्व की योग्यता तथा कार्य-कुशलता को प्राथमिकता दी जाए।

1560-61 में वित्त-विभाग की पुनर्व्यवस्था के कार्य के दौरान यह जानकारी मिली कि इस विभाग के संबंध में वस्तुस्थिति वह नहीं है जो दिखाई देती है। विभिन्न फसलों के लिए दरों तथा अनुमानित राजस्व की दरों में कृत्रिम रूप में वृद्धि की गई है। जब भू-राजस्व की दरों को नए सिरे से लागू किया गया तथा उनमें कमी की गई तो उस स्थिति में अमीर वर्ग द्वारा अपने नियंत्रण में रखे जाने वाले सशस्त्र-सेना दल की संख्या में कमी करने का कार्य भी आवश्यक हो गया। उस काल में मुग़ल अमीरों के एक बड़े वर्ग द्वारा विद्रोह किए जाने के पीछे एक महत्वपूर्ण कारण यह भी था वित्त-विभाग की पुनर्व्यवस्था के कारण अमीरों को प्रदत्त भू-अनुदान क्षेत्रों के आकार तथा उनके सैनिकों की संख्या में भी कुछ परिवर्तन किए गए थे जिससे वे क्षुब्ध थे।

1566-67 तक सभी प्रमुख विद्रोहों का दमन कर दिया गया तथा मुगल शासक के लिए उमरा वर्ग के अंतर्गत रहने वाले सैन्य दल की व्यवस्था के लिए नियम बनाना सरल हो गया। वस्तुतः किसी अमीर के लिए अपेक्षित सैन्य दल की संख्या में कमी या वृद्धि दोनों ही राज्य के हित में नहीं थी। कमी होने की दशा में राज्य की सैनिक क्षमता पर बुरा असर पड़ने का डर था जबकि सैनिकों की संख्या नियत संख्या से अधिक होने की स्थिति में उमरा वर्ग द्वारा शासक को चुनौती दिए जाने की आशंका थी। इसके अतिरिक्त अकबर का विचार एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करने का था जिसमें किसी भी व्यक्ति को प्रशासनिक क्षेत्र में अपनी निष्ठा व कार्य-कुशलता के एवज में पदोन्नति करने का सामान अवसर मिले।

अकबर के शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में पहली बार हमें मनसब प्रदान किए जाने का संदर्भ प्राप्त होता है। यह कोई पदवी या पद-संज्ञा नहीं थी, प्रत्युत इससे मुगल प्रशासनिक सेवा अनुक्रम में किसी व्यक्ति या अमीर की स्थिति का बोध होता था। इस प्रकार मनसब का अर्थ पद या श्रेणी था तथा यह एक दुरूह प्रणाली थी। अकबर के काल के प्रारंभिक वर्षों के प्रशासनिक दस्तावेजों के अभाव के कारण इस काल में मनसबदारी व्यवस्था के अध्ययन का कार्य अर्थात् दुष्कर है। इस व्यवस्था के मूलभूत तत्वों के अध्ययन का कार्य, सर्वप्रथम, मोरलैंड तथा अब्दुल अजीज ने किया। वस्तुतः मनसबदारी व्यवस्था के अध्ययन के क्षेत्र में उनका महत्वपूर्ण योगदान है।

इन दोनों ही विद्वानों के अनुसार एकल संख्यात्मक पद पर अकबर के काल के पहले से ही प्रचलित था, इससे घुड़सवार दस्ते की उस संख्या का बोध होता था जो किसी अधिकारी को रखना अपेक्षित होता था। इसलिए जब मोरलैंड को शासन के ग्याहरजवे वर्ष में (1566-67) सैनिक टुकड़ी (नौकरान) के दौरान की अदायगी के लिए तीन विशिष्ट श्रेणियों का संदर्भ मिला तो उसने इस सूचना को तृतीय या सवार पद के प्रचलन का साक्ष्य माना। मोरलैंड के अनुसार अकबर ने सवार पद का प्रचलन अपने शासनकाल के ग्यारहवें वर्ष में किया था। प्रथम से “जात” अर्थात व्यक्ति के वेतन तथा पदस्थिति का बोध होता था जबकि “सवार” पद से घुड़सवार दस्ते की संख्या का बोध होता था।

शीरीन मूसवी ने 1573-74 में लागू की जाने वाली मनसब व्यवस्था के संदर्भ में सभी संबद्ध उद्धरणों का विशद अध्ययन किया है। उन्होंने विशेषतः बदायूँनी के मुन्तखव उत तवारीख तथा मुअतमिद खाँ कृत इष्कबालनामा-ए-जहाँगीरी के बहुत से उद्धरणों के आधार पर यह सिद्ध किया है कि इस काल में केवल एक ही पद प्रचलित था। वस्तुतः बदायूँनी के उद्धरण से केवल एक ही पद प्रदान किए जाने का उल्लेख मिलता है। चूंकि पदोन्नति घुड़सवारों को अपेक्षित संख्या के आधार पर रखे जाने पर निर्भर करती थी, अतः मनसब प्राप्त करने वाले का पद एकल संख्या द्वारा जाना जाता था, जैसे सदी, हजारी, पंज हजारी आदि। दूसरे शब्दों में जिस अधिकारी के अधीन पाँच सौ सैनिक होते थे उसे पंज सदी कहा जाता था तथा जिसके पास एक हजार सैनिक होते थे, उन्हें हजारी कहा जाता था। इस प्रकार इस काल में मनसब केवल अमीर के मातहत सैनिकों की संख्या से ही जाना जाता था व इससे केवल सवार पद का ही पता चलता था। युगल पदों का प्रचलन अभी नहीं था। अकबरनामा तथा तबकाते अकबरी में प्राप्त अनेक साक्ष्यों से इस मत की पुष्टि होती है कि अठारहवें शासन वर्ष तक वेतन पद से संबद्ध दायित्वों का निरूपण किए बिना ही तय कर दिया जाता था। इस प्रकार उस उद्धरण से, जिसके आधार पर मोरलैंड ने यह धारणा बनाई कि द्वितीय या सवार पद ग्यारहवें शासकीय वर्ष में लागू किया गया था, वस्तुतः जिस व्यवस्था का आभास होता है वह आगामी काल में विकसित होने वाली मनसबदारी प्रणाली से भिन्न थी।

ग्यारहवें वर्ड्स में इसी व्यवस्था के सिलसिले में मुअतमिद खाँ के विवरण से यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है। उसका कहना है कि अमीरों के मातहत सैन्यदल की संख्या का निर्धारण उनकी जागीर के आधार पर किया जाता था। इस प्रकार इस काल में भूमि अनुदान पहले ही प्रदान कर दिए जाते थे, तथा उनके अनुरूप सैनिकों की संख्या बाद में नियत कर दी जाती थी। इसके विपरीत सुविकसित मनसबदारी व्यवस्था के अंतर्गत पहले पद प्रदान किया जाता था तथा उसके अनुरूप मातहत सैनिकों की संख्या निर्धारित कर दी जाती थी वह जागीर उसके बाद ही प्रदान की जाती थी।

उपर्युक्त सभी तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि संख्या पर आधारित पदों का सूत्रपात ग्यारहवें शासकीय वर्ष में नहीं हुआ था बल्कि कुछ विशिष्ट नियमों के अंतर्गत सैनिक -दायित्वों की क्षमता का जागीर की अनुमानित राजस्व-मात्रा के आधार पर नियंत्रण कर दिया जाता था तथा सैनिकों (तालिबान) का वेतन भी नियत कर दिया जाता था। ये नियम अठारहवें शासकीय वर्ग (1573-74) में “दागो चेहरा” अधिनियमों के लागू होने तक चलते रहे। इस प्रकार जैसा की मनसब के विषय में उपर्युक्त विवरण से ज्ञात होता है, 1576 के पूर्व के संदर्भ केवल एकल पद के विषय में ही विवरण देते हैं तथा संख्या पर आधारित पदों को दिए जाने की शुरूआत वस्तुतः अठारहवें शासकीय वर्ष में ही हुई।

अबुल फ़जल के अनुसार अठारहवें शासकीय वर्ष में “दाग” का प्रचलन हुआ तथा शाही अधिकारियों के पद-श्रेणी (मरातिब) निश्चित किए गए। इन पर अमल उन्नीसवें शासकीय वर्ष में ही हुआ। मुअतमिद खाँ ने इस व्यवस्था तथा पद के अर्थ में मनसब के प्रचलित किए जाने का विवरण दिया है। (उन्नीसवें वर्ष का विवरण देते हुए) वह कहता है’…..दह बाशी (10) से पंज हजारी (5000) तक पद-श्रेणियाँ स्थापित की गई तथा प्रत्येक के लिए वेतन नियत किया गया। एक नियम बनया गया जिसके अनुसार मनसबदारों को अपने हाथी तथा घोड़ों को अलग-अलग दाग के लिए ले जाना आवश्यक हो गया। एक सिह-अस्पा (तीन अश्वों वाले) सैनिकों को तीन घोड़े लाने होते थे। जबकि दु-अस्पा (दो अश्व वाले) सैनिक को दो घोड़े लाने होते थे व यदि सैनिक यक-अस्पा (एक अश्व वाला) होता था तो उसे अपने घोड़े के साथ दाग के लिए हाजिर होना पड़ता था। इस तरीके से प्रत्येक के लिए वेतन (अलूफा) निर्धारित कर दिया गया।”

उपर्युक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मनसबदारों का वेतन उनके मनसब के अनुरूप निश्चित किया जाता था जबकि उनके माताहत सैनिकों के वेतन की दरें भी अलग से स्वीकृत की जाती थीं।

अबुल फ़जल तथा मुअतमिद ख़ाँ के विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि मनसब किसी मनसबदार के सैन्य दल के आकार से संबंद्ध था। वे युगल पदों के व्यवस्था के बारे में कोई इशारा नहीं करते। इसीलिए मोरलैंड का अनुमान था कि युगल-पद की व्यवस्था पहले से ही विद्यमान थी। ए.जे. कैसर के मत में भी युगल पदों की व्यवस्था का प्रचलन अठारहवें वर्ष के दौरान किया गया था। किंतु उपर्युक्त मान्यताओं की प्राप्त साक्ष्यों से पुष्टि नहीं होती। इस संदर्भ में पूर्वोल्लिखित बदायूँनी का वक्तव्य महत्वपूर्ण है। वह मनसब की व्याख्या एकल संख्या पर आधारित पद के रूप में करता है।

अबुल फजल ने आइने अकबरी में कहा है कि दाग की व्यवस्था का प्रचलन करते समय पशुओं का वर्गीकरण किया गया तथा उनके “निर्वाह के औसत व्यय के संबंध में तालिका तैयार की गई।”

उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि अठारहवें-उन्नीसवें-वर्ष की व्यवस्थायें इस प्रकार थीं : संख्या पर आधारित एकल मनसब प्रदान किया जाता था। मनसबदार को अपने मनसब में निर्दिष्ट संख्या के अनुरूप घुड़सवारों की व्यवस्था करनी होती थी। मनसबदारों को युद्ध में काम करने वाले तथा बोझा ढोने वाले पशुओं व गाड़ियों आदि की व्यवस्था भी स्वयं करनी होती थी। मनसब प्रदान करने के बाद आंशिक रूप से अदायगी (बरावर्दी) भी की जाती थी। बकाया राशि की अदायगी उस समय की जाती थी जब मनसबदार अपने मनसब में निर्दिष्ट संख्या के अनुरूप घुड़सवार दस्ते को लेकर निरीक्षण तथा दाग आदि की औपचारिकताएं पूरी करने के लिए उपस्थित होता था।

इन सब व्यवस्थाओं के बावजूद मनसबदारों द्वारा अकसर अपने सैनिक दायित्वों को पूरा करने में कोताही की जाती थी तथा निरीक्षण के समय उनके द्वारा निर्दिष्ट संख्या में सैनिक दिखाने की केवल खानापूरी पर की जाती थी अर्थात् वे वास्तव में स्थायी रूप में सैनिकों की व्यवस्था नहीं करते थे। बदायूँनी के विवरण में इस संबंध में कई संदर्भ मिलते हैं जबकि मनसबदारों ने प्रशिक्षित सैनिकों के स्थान पर आम लोगों को हाजिर कर दिया जाता था। इस समस्या के समाधान के लिए ही “सवार’ पद की व्यवस्था की गई। पूर्व प्रचलित मनसब पद को अब जात’ कहा जाने लगा जिससे उनके निजी वेतन का बोध होता था। इसी से निर्दिष्ट तालिका के अनुरूप निजी जानवरों (रवासा) की व्यवस्था करनी होती थी। इस प्रकार 5000/5000 “जात” “सवार” मनसब होने का अर्थ यह था कि उस मनसबदार को अपने जात मनसब के बराबर ही घुड़सवार सैनिकों की व्यवस्था करनी होती थी तथा वह प्रथम श्रेणी का मनसबदार था। द्वितीय श्रेणी के मनसबदार को अपने “जात” पद से कुछ कम या आधे घुड़सवार सैनिकों की व्यवस्था करनी होती थी तथा उस दशा में उसके मनसब का उल्लेख इस प्रकार किया जाता था। 5000/3000 “जात” व “सवार”। तृतीय श्रेणी के मनसबदार को अपने “जात” व “सवार” अनुरूप मनसबदार की निजी तन्खवाह 5000 थी तथा उसको 2000 सवारों की व्यवस्था करनी होती थी। इन दायित्वों के निर्वाह के लिए कुछ धनराशि (बरावर्दी) प्रदान की जाती थी।

बकाया अदायगी निरीक्षण के समय व सैनिक दायित्वों के पूरा पाए जाने की स्थिति में होती थी। आइने अकबरी में 66 मनसबों का उल्लेख किया गया है। किंतु व्यवहार में 33 मनसब ही प्रदान किए जाते थे। सभी मनसब, यहाँ तक कि 10/10 “जात” व “सवार” भी, पादशाह द्वारा प्रदान किए जाते थे। यद्यपि ऐसा करते समय अपने अमीरों की सिफारिश पर भी ध्यान देता था। सभी मनसबदारों द्वारा अपने सैनिक दस्तों की व्यवस्था स्वयं ही व अलग-अलग की जाती थी। यद्यपि निम्न श्रेणी के मनसबदारों को उच्च श्रेणी क मनसबदारों के निर्देशन में काम करना होता था, किंतु उसका सैनिक दस्ता उच्च श्रेणी के मनसबदार के अधीन नहीं होता था। बड़े मनसबदारों से उन्हें केवल सुविधा के लिए संलग्न किया जाता था। वे उसके अधीन नहीं थे।

सबसे बड़ा मनसब 5000/5000 जात व सवार होता था जो केवल राजकुमारों तथा कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को ही प्रदान किया जाता था।

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