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राजीव गाँधी के कार्यकाल में भारत तथा अमेरिका संबंध

1985-89 में भारत-अमेरिका सम्बन्ध

1985-89 में भारत-अमेरिका सम्बन्ध

(Indo-US Relations During 1985-89)

नवम्बर 1984 में भारत के नए प्रधानमन्त्री के आगमन, उसकी नई सरकार के विभिन्न नीति निर्णय तथा जून 1985 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी की अति सफल, पाँच व्यस्त दिनों की अमरीका यात्रा ने, नई आशाओं को तथा उस समय में भारत-अमरीका सम्बन्धों का विश्लेषण करने के लिए नई रुचियों को जन्म दिया।

  1. 1980 के दशक में दृश्यलेख

    इस दशक में सोवियत सेनाओं के अफगानिस्तान पहुँचने, अमरीका द्वारा रूस की “खाड़ी के गर्म पानी में पहुँचने की” तथा इस क्षेत्र में अपना प्राधान्य कायम करने की चाल की कड़ी आलोचना से, एशिया दोनों महाशक्तियों के बीच बढ़ते विरोधों का केन्द्र बन गया। अमरीका ने अपने सामरिक प्रोग्राम पाकिस्तान को पहली पंक्ति का राज्य बनाने के लिए कठोर प्रयत्न किए तथा इसके लिए उसने बड़ी संख्या में आधुनिक हथियार, वायुयान (F-16) तथा दूसरी सैनिक सामग्री पाकिस्तान भेजी। उसने पाकिस्तान को भारत के मुकाबले खड़ा करने का प्रयत्न भी किया क्योंकि भारत तथा सोवियत संघ की बढ़ती मित्रता अमरीका के हितों के लिए हानिकारक समझी गई। इसी प्रकार अमरीका ने चीन के साथ अपने सम्बन्धों को सुधारने का भी प्रयल किया। अमरीका के ऐसे नीति निर्णय तथा कार्य भारत के लिए चिन्ता का विषय बन गए। पाकिस्तान द्वारा अत्याधुनिक युद्ध-मशीनें तथा तकनीक प्राप्त किए जाने तथा इसके परमाणु शक्ति बनने के प्रयत्नों को भारत ने खतरनाक परिवर्तन माना जो दक्षिण एशिया में अनैच्छिक शस्त्र-दौड़ को बढ़ावा देने का कारण बना तथा इससे भारत में उसकी सामाजिक तथा आर्थिक प्रगति में रुकावट पैदा होनी शुरू हो गई थी। एशिया में वाशिंगटन-इस्लामाबाद-बीजिंग धुरी, भारत के लिए चिन्ता का विषय बन गई। भारत इन सब परिवर्तनों का अन्त देखना चाहता था तथा अमरीका के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करना चाहता था। नई तकनीकी तथा आर्थिक आवश्यकताओं ने भारत को “अमेरीका के साथ बहुमुखी सहयोग’ स्थापित करने के बारे में सोचने के लिए विवश किया।

  2. अमरीका के नीति अवगम

    अमरीका ने यद्यपि एशिया तथा विश्व राजनीति में बड़ी शक्ति के रूप में भारत के महत्त्व को कुछ अच्छी तरह समझा, फिर भी वह भारत को महत्त्व देने के लिये तैयार नहीं हुआ क्योंकि उसकी विदेश नीति का मुख्य केन्द्र सोवियत संघ में तथा विश्व में किसी देश का महत्त्व इस देश के साथ उसके भौगोलिक तथा राजनीतिक सम्बन्धों द्वारा निर्धारित होता था। भारत की सोवियत संघ के साथ मित्रता यद्यपि गुट-निरपेक्षता के ढाँचे के अन्दर ही रहीं, फिर भी अमरीका उसे रूस समर्थक कार्यवाही मानता रहा तथा इसलिए भारत को पाकिस्तान तथा चीन से कम महत्त्वपूर्ण माना जाता रहा। इस प्रकार के नीति अवगम अमरीका की विदेश नीति निर्माताओं के लिए महत्त्वपूर्ण बने रहे तथा उन्होंने भारत के उसके पड़ौसियों के साथ सम्बन्धों की हमेशा ही क्रियात्मक रूप से उपेक्षा की है। भारत के ये प्रयत्न कि पाकिस्तान के साथ संयुक्त राज्य अमरीका के सैनिक सम्बन्ध कम किये जाएं, कभी भी सफल नहीं हुए। अमरीका ने पाकिस्तान को 1980-89 में सैनिक सहायता अफगानिस्तान के संकट के विरुद्ध सुदृढ़ बनाने के लिए ही नहीं बल्कि इसे भारत की तुलना में सुदृढ़ बनाने के लिए भी दी। अमरीका ने, पाकिस्तान सम्भावित परमाणु शक्ति बनने के तत्त्व को भी कम महत्त्व की दृष्टि से देखा। 1985-89 के दौरान पाकिस्तान तत्त्व, भारत-अमरीका सम्बन्धों की राह में हमेशा ही रुकावट बना रहा।

  3. भारत में नेतृत्व परिवर्तन तथा संयुक्त राज्य के अवगम

    सन् 1985 के चुनावों में भारत में नए तथा युवा नेतृत्व के सत्ता में आने से इस आशा का संचार हुआ कि अब विश्व के दो महान् लोकतन्त्रों के बीच सम्बन्धों में सुधार आएगा। यह आशावाद, विशेषतया पश्चिमी विशेषज्ञों के मनों में कुछ विशेष तत्त्वों के कारण पैदा हुआ। पहला, यह विश्वास किया गया कि राजीव अपनी माँ से अधिक पश्चिम ग्राही होगा। दूसरा, सोचा गया है यह कि राजनीति में नया होने के कारण, नई पीढ़ी का होने के कारण, पश्चिम में पढ़ा-लिखा, एवं दृष्टिकोण से उदार होने के कारण, तथा तेज आर्थिक विकास के आवश्यक साधनों के रूप में आधुनिक तकनीक इंजीनियरिंग तथा विज्ञान में दृढ़ विश्वास रखने वाला राजीव गाँधी, भारत के अमरीका के साथ सम्बन्धों को आमूल रूप से सुधारने का प्रयत्न करेगा। तीसरे, विकसित तकनीक की भारत की बढ़ती आवश्यकता एक ऐसा कारण मानी गई जो नए प्रधानमन्त्री को पश्चिम के साथ पहले से अच्छे सम्बन्ध स्थापित करने की दिशा में सोचने के लिए बाध्य कर देगी। चौथे, नई सरकार द्वारा अपनाए गए नए बजट सम्बन्धी तथा अन्य पगों ने इस विचार को जन्म दिया कि राजीव गाँधी का झुकाव मुक्त उद्यम, उदार व्यापार तथा पश्चिम के साथ आर्थिक सम्बन्धों की तरफ ही होगा।

  4. भारत के प्रति अमरीका की नीति में परिवर्तन का मामला

    परिणामस्वरूप बहुत से अमरीकी विद्वानों ने श्री राजीव गाँधी का पश्चिम की ओर झुकाव पैदा करने के लिए अमरीका की सार्थक नीतियों और निर्णयों का समर्थन करना शुरू कर दिया। बहुत से अमरीकी, जैसे सीलिंग एस० हैरीसन वरिष्ठ सहायक, अन्तर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए कार्नेगी एनडोमैंट वाशिंगटन इस विचार को महत्त्व देने लगे कि अब समय आ गया है कि भारत तथा अमरीका दोनों को ही भारत-अमरीकी सम्बन्धों में विद्यमान खतरनाक प्रवत्ति (अमरीका का भारत के मुकाबले पाकिस्तान को सशस्त्र देना) एवं हास को रोकने का प्रयत्न करना चाहिए। दोनों ही देशों को दीर्घकालीन नीति पुनर्व्यवस्था के प्रयल करने चाहिए जिसमें उन हितों के प्रति अति संवेदनशीलता झलकती हो जो प्रत्येक महत्त्वपूर्ण मानता हो। मि० हैरीसन ने यह सुझाव दिया कि अमरीका को इस बारे में तत्परता दिखानी चाहिये कि “अगर भारत पश्चिम के साथ सम्बन्ध स्थापित करने में कोई निश्चित झुकाव दिखाता है, तो 32 करोड़ डालर के सौदे की समाप्ति के बाद पाकिस्तान को सैनिक सहायता कम कर देनी चाहिए तथा उसे इस ओर मोड़ देना चाहिए।”

  5. अमरीका के साथ सम्बन्धों को सुधारने के लिए भारत क्या करना चाहता था?-

    भारत-अमरीकी सम्बन्धों को सुधारने के लिए किए जाने वाले नए प्रयत्नों के समर्थकों ने यह तर्क भी दिया था कि स्वयं भारत को अपनी गुट-निरपेक्षता तथा सोवियत संघ के साथ सम्बन्धों की जारी रखते हुए, तथा अमरीका की क्षेत्रीय तथा सार्वभौमिक विवशताओं के सन्दर्भ में, हिन्द महासागर तथा खाड़ी में अमरीका के युद्धपोतों की उपस्थिति की वैधता मान कर अमरीका के साथ आर्थिक समायोजन करना चाहिए। इसके अतिरिक्त भारत को हिन्द महासागर में महाशक्तियों की उपस्थिति, विशेषतया डियागो गार्शिया में अमरीका की उपस्थिति तथा अफ्रीका में सोवियत नौ-सैनिक अड्डों के सम्बन्ध में एक समान रवैया अपनाना चाहिए। इसके अतिरिक्त अपने पड़ौसियों विशेषतया पाकिस्तान के साथ अधिक मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध स्थापित करके तथा अफगानिस्तान से सोवियत सेनाओं की वापसी के लिए राजनीतिक कूटनीतिक प्रयलों द्वारा ही भारत पाकिस्तान को प्राप्त हो रही अमरीकी सैनिक सहायता में कमी करवा सकता था परन्तु, इस दिशा में शुरुआत अमरीका द्वारा पाकिस्तान को सैनिक सहायता वर्तमान समझौते तक ही सीमित रख कर, की जानी चाहिए। माय

  6. नवीन चिन्तन

    इस प्रकार भारत में नए नेतृत्व तथा भारत एवं दक्षिण एशिया के बारे में अमरीका के दृष्टिकोण में नए अवगमों द्वारा चिन्तन में एक परिवर्तन पैदा हुआ। शुरू-शुरू में तो अमरीका ने भारत-अमरीका आर्थिक, व्यापारिक, तकनीकी तथा औद्योगिक सम्बन्धों में अधिक सहयोग पैदा करने की आवश्यकता व्यक्त करनी शुरू कर दी। मार्च 1985 में अमरीका के उप-सहायक सुरक्षा सचिव मेजर जनरल कीनथ डी० बर्नस ने भारत को सैनिक तथा दोहरे प्रयोग वाले उपकरण खरीदने के लिए आमन्त्रित किया। उसने कहा, “इसके द्वारा अमरीका स्पष्टतया भारत के सम्बन्ध में सोवियत संघ द्वारा शस्त्रों की बिक्री के एकाधिकार को समाप्त करना तथा इसके साथ-साथ भारत को प्रसन्न करना चाहता था।” इसके अतिरिक्त अमरीकी व्यापारियों ने भारत में अपनी पूँजी का निवेश करने तथा व्यापार का लेन-देन करने में अपनी रुचि व्यक्त की। भारत ने भी यह महसूस किया कि पाकिस्तान को अमरीका द्वारा शस्त्र आपूर्ति को यदि नियन्त्रित नहीं किया गया तो दक्षिण एशिया में अवांछित शस्त्र दौड़ शुरू हो जाएगी तथा विकसित तकनीक की भारत की आवश्यकताओं को अमरीका के तकनीकी तथा आर्थिक सहयोग से ही पूरा किया जा सकता था।

  7. राजीव गाँधी का अमरीका दौरा

    इस प्रकार के वातावरण में भूतपूर्व प्रधानमन्त्री राजीव गाँधी ने अमरीका का पाँच दिन का राजकीय दौरा किया (11 जून, 1985 से 15 जून, 1985 तक) यह उनक पाँच देशों के दो सप्ताहों के दौरे का सबसे कठिन भाग था। उन्होंने राष्ट्रपति रीगन के साथ लाबी-चौड़ी बातचीत की तथा वे अमरीकी प्रशासन के साथ घनिष्ठता स्थापित करने में सफल हुए। वह दोनों देशों के बीच मैत्री बढ़ने तथा भारत का बिम्ब उभारने में सफल रहे। प्रधानमन्त्री श्री राजीव गाँधी के साथ बातचीत करने के पश्चात् राष्ट्रपति श्री रीगन ने घोषणा की कि, “हम सफल हुए तथा हमारे दोनों देशों के बीच सम्बन्धों के साथ जैसा अच्छा हुआ है वैसी ही मैं भविष्यवाणी करता हूँ कि आगे भी अच्छा होगा।” इस यात्रा का हवाला देते हुए अमरीका के विदेश मन्त्री श्री जार्ज पी० शुल्ज ने कहा, “सफलता आशानुरूप रही है।”

15 जून, 1985 एक संयुक्त वक्तव्य में दोनों नेताओं ने सभी सरकारों को विश्व शान्ति तथा लोकतन्त्र के सम्मुख उत्पन्न संगठित उग्रवाद के नए खतरे का सामना करने की अपील की। इस वक्तव्य में विज्ञान तथा तकनीक में परस्पर सहयोग पर बल दिया गया। दोनों नेता इस बात पर राजी हो गए कि 1982 में जो विज्ञान तथा तकनीक का उपक्रम शुरू किया गया था उसे अक्तूबर 1985 में आगामी तीन वर्षों के लिए बढ़ा दिया जाएगा। दो नए प्रयत्नों के उपक्रम के सम्बन्ध में समझौते का भी इस वक्तव्य में वर्णन किया गया। ये थे-

  • मुख्य छूत की बीमारियों के नए बेहतर टीकों के विकास तथा उत्पादन के लिए टीका कार्यवाही प्रोग्राम,
  • कृषि, वन, स्वास्थ्य, पोषण, आहार, परिवार कल्याण, जैव चिकित्सा अनुसंधान, औद्योगिक अनुसंधान तथा विकास की गतिविधियों वाले दीर्घकालीन अनुसंधान तथा तकनीकी विकास का प्रोग्राम।

संयुक्त वक्तव्य में वाणिज्य तकनीक में विकास के लिए एक प्रोग्राम की स्वीकृति का हवाला दिया गया जिसने वैज्ञानिक, तकनीक तथा अनुसंधान विकास में भारतीय तथा अमरीकी कम्पनियों के बीच महत्त्वपूर्ण सम्पर्क पैदा करना था।

  1. भारतीय प्रधानमंत्री की 1987 की यात्रा के पश्चात् भारतअमरीको सम्बन्ध

    भारतीय प्रधानमंत्री की अमरीका की 1987 की यात्रा के पश्चात् भारत-अमरीकी सम्बन्ध पहले की भाँति मित्रतापूर्ण तथा सहयोगात्मक रहे किन्तु उनमें ऐसी गरिमा नहीं थी जोकि विश्व के सर्वाधिक बड़े लोकतन्त्रीय देशों के सम्बन्धों की विशेषता होनी चाहिए। संयुक्त राज्य अमरीका की विदेश नीति में पाकिस्तान सम्बन्धी निरन्तर बना झुकाव, पाकिस्तान को उच्चस्तरीय तकनीकी शस्त्रों की लगातार आपूर्ति, भारत के सोवियत संघ के साथ बढ़ रहे सम्बन्धों के प्रति शंकाएँ और भारत की दक्षिण एशिया तथा विश्व राजनीति में बढ़ रही शक्ति ने भारत-अमरीकी सम्बन्धों के मार्ग को धीमा तथा अनियमित बनाए रखा। तनाव का एक अन्य स्रोत संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा सुपर 301 कानून को लागू करने का निर्णय तथा भारत को प्रतिकूल व्यापार साथी (Unfair Trade Partner) के रूप में घोषित करना भी बना। यह घटना अमरीका की उस अस्वीकृति की तीव्र प्रतिक्रिया के एकदम बाद घटित हुई जो उसने, 22 मई, 1989 को भारत के सफल अग्नि प्रक्षेपास्त्र परीक्षण के अवसर पर व्यक्त की। भारत ने अग्नि की सफलता को तकनीकी उन्नति का प्रदर्शन बतलाया। भारत ने अपने मिसाइल प्रोग्राम को आत्मनिर्भर साधनों द्वारा अपनी स्वतन्त्रता तथा सुरक्षा के संरक्षण में किए गए प्रस्तावों की एक प्रमुख उपलब्धि कहा। उन्नतशील प्रोद्योगिकी का एवं विकास भारत की सतत् अविरोधी नीति रही है तथा अग्नि मिसाइल प्रोग्राम इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण पग ही था। मिसाइल कार्यक्रम को रोकने के संयुक्त राज्य अमरीका के खुले तथा अप्रत्यक्ष दोनों प्रकार के दबावों का भारत ने सफलता से प्रतिरोध किया। सुपर 301 कानून को लागू करने की धमकी भारत द्वारा इस रूप में ली गई कि यह संयुक्त राज्य अमरीका द्वारा भारत पर दबाव डालने का एक अनुचित प्रयत्न था ताकि भारत आत्मनिर्भर न बन पाए। सुपर 301 (Super 301) कानून द्वारा पैदा हुई चुनौती का भारत ने सामना करने की ठानी तथा संयुक्त राज्य अमरीका को इसे हटाने की माँग की तथा इस सम्बन्ध में कोई समझौता न करने का निर्णय लिया।

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