भारत-अमेरिका संबंध
भारत-अमेरिका संबंध
भारत तथा अमरीका विश्व के दो सबसे बड़े लोकतन्त्र हैं फिर भी इनके बीच के सम्बन्ध गहरे तथा समतल नहीं रहे हैं। बी०आर० नन्दा (B.R. Nanda) का कहना है कि, “आन्तरिक राजनीतिक संरचना में समानता तथा उदारवादी लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रतिनिष्ठा के बावजूद, भारतीय स्वतन्त्रता से लेकर आज तक भारत तथा अमरीका के सम्बन्धों में गहराई नहीं रहीnहै।” 1947 से ही ये सम्बन्ध ‘नाटकीय निश्चितता” में रहे हैं तथा एकरूप से यह तनावपूर्ण तथा संदेहास्पद भी रहे हैं। भारत-अमरीका के सम्बन्धों में इतिहास का वर्णन भिन्नता की इच्छा की अभूतपूर्व चाह तथा फिर भी ‘तनावों से ग्रस्त मित्रता’ के रूप में किया जा सकता है। बी०आर० नन्दा (B.R. Nanda) ने तो कह दिया है कि “भारत तथा अमरीका के सामान्य सम्बन्धों पर विचारों में कहीं भी एकमतात्मकता नहीं है।”
भारत तथा अमरीका अपने सम्बन्धों को शुरू से ही मैत्रीपूर्ण तथा सहयोगात्मक सम्बन्ध बनाने के प्रयत्नों में जुटे हुए हैं, फिर भी कुछ लाभदायक व्यापारिक या आर्थिक सम्पर्कों के अतिरिक्त इनके राजनीतिक संबंधों में निरंतर उतार-चढ़ाव आते रहते हैं।
भारत तथा अमेरिकी संबंधों को प्रभावित करने वाले कारक
भारत तथा अमेरिकी संबंधों को प्रभावित करने वाले कारकों को दो भागों में विभाजितकिया जाता है- (1) सकारात्मक कारक, (2) नकारात्मक कारक।
सकारात्मक कारक
1947 से लेकर आज तक भारतीय-अमरीकी सम्बन्धों को शक्ति अनेक सकारात्मक तथा सहायक कारकों से प्राप्त होती रही है तथा इनके कारण भारतीय तथा अमरीकी नेताओं में एवं दोनों देशों के लोगों की यह प्रबल इच्छा रही है कि उन्हें घनिष्ठ मित्रता तथा उच्चतर सहयोगात्मक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्धों के लिए कार्य करना चाहिए।
निम्नलिखित कारक सकारात्मक तथा सहायक कहे जा सकते हैं कि भारत-अमरीकी मित्रता तथा पारस्परिक सहयोग का प्रबलता से समर्थन करते हैं।
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अमरीका के स्वतंत्रता युद्ध तथा स्वतंत्रता की घोषणा का भारत पर प्रभाव-
ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध अपने स्वतंत्रता संघर्ष में भारतीयों ने अमेरिका के स्वंतत्रता संग्राम से प्रेरणा तथा उत्साह लिया। अमरीका के ‘स्वतंत्रता के घोषणा-पत्र ने भारतीयों के दिलों में नई आशा पैदा की तथा ब्रिटिश साम्राज्यवाद के पंजों से स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए अधिक से अधिक प्रयत्न करने की प्रेरणा दी। स्वतंत्रता-संघर्ष के दौरान बहुत से भारतीय स्वतंत्रता संग्रामियों ने तथा विद्वानों ने अमरीका का दौरा किया तथा वहां भारत तथा उसकी स्वतंत्रता के लिए समर्थन प्राप्त करने के प्रयत्न किए।
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भारतीय स्वतंत्रता के लिए अमरीका का समर्थन-
अमरीका ने भारत को उस समय नैतिक समर्थन दिया जब भारतीय स्वतंत्रता संग्रामी भारत में निरन्तर ब्रिटिश साम्राज्यवाद के विरुद्ध कड़े संघर्ष में जुटे हुए थे। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय में अमरीका के राष्ट्रपति रूजवेल्ट(Roosevelt) ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री चर्चिल से कहा कि वे भारतीयों की मांगों के प्रति सहानुभूति भरा रवैया अपनाएं तथा इसी कारण भारत में क्रिप्स मिशन भेजा गया था। यद्यपि अमरीका, ब्रिटेन का युद्ध-साथी होने के कारण भारत की स्वतंत्रता की मांग के लिये उसे प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित नहीं कर सकता था तथा न ही कोई कार्यवाही कर सकता था, फिर भी राष्ट्रपति रूजवेल्ट ने जो नैतिक दबाव डाला उसे भारतीयों ने बहुत सराहा। इसके अतिरिक्त अमरीका ने भारतीय स्वतंत्रता संग्रामियों, जो उस समय भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष को और तेज करने के लिए विदेशों में रह कर कार्य कर रहे थे, की गतिविधियों पर अपनी धरती पर कोई आपत्ति प्रकट नहीं की बल्कि उन्हें भली-भांति सहन किया।
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उदार लोकतन्त्र तथा विश्वशांति में साझा विकास-
भारत तथा अमरीका दोनों देश उदार लोकतंत्र के सिद्धान्तों तथा मूल्यों में दृढ़ विश्वास रखते हैं। दोनों ही विश्व में सबसे बड़े सक्रिय लोकतंत्र हैं। अमरीका भारत के लोकतंत्र के प्रति प्यार का सम्मान रखता है तथा भारतीय लोकतंत्र को ठीक ढंग से कार्य करते देखने का चाहवान है। यह लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भारत का विकास होता देखना चाहता है क्योंकि भारत की सफलता से ही सरकार की व्यवस्था के रूप में लोकतांत्रिक प्रणाली तथा जीवन के आदर्श स्वरूप को बल मिल सकता है। इसी प्रकार भारत भी उदार लोकतंत्र की अमरीकी परम्पराओं का सम्मान करता है तथा वहीं से भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया के विकास के लिए प्रेरणा लेता रहा है। भारत तथा अमरीका दोनों ही मानवीय अधिकारों, स्वतंत्रता, समानता, न्याय तथा शांति के मूल्यों को प्यार करते हैं। दोनों ही विश्व शांति तथा सुरक्षा तथा विश्व के अन्य देशों के साथ मित्रता तथा सहयोग के विकास के लिए प्रतिबद्ध हैं। दोनों ही साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद तथा प्रजाति पार्थक्य के विरुद्ध हैं।
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अमरीका की आर्थिक सहायता की भारत को आवश्यकता-
भारत अपनी स्वतंत्रता के बाद से ही सामाजिक-आर्थिक पुनर्गठन की प्रक्रिया में लीन रहा है। इसके लिए उसे बाहरी आर्थिक तथा तकनीकी सहायता की आवश्यकता रही है। अमरीका, विश्व का सर्वाधिक विकसित तथा आर्थिक रूप से सम्पन्न राज्य होने के कारण, भारत को आर्थिक सहायता तथा तकनीकी ज्ञान दोनों ही सरलता से प्रदान कर सकता है। पिछले 50 वर्षों में भारत अमरीका से सहायता प्राप्त करने वाला मुख्य देश रहा है। यहां तक कि विश्व बैंक जैसे अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक संगठनों से भी सहायता प्राप्त करने के लिए इसे अमरीका की सहायता की आवश्यकता पड़ती है। अमरीका की सहायता की भारतीय आवश्यकता के कारण भी भारत को अमरीका से मित्रता तथा सहयोग के विषय को उत्साह तथा सुदृढ़ता मिलती है। अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में उत्तर-शीत युद्ध तथा उत्तर-सोवियत संघ काल में भारत संयुक्त राज्य अमरीका की महत्त्वपूर्ण स्थिति को और अच्छी तरह समझने लग गया है।
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अमरीका द्वारा भारत के महत्त्व को मान्यता देना-
भारत बहुत बड़ा तथा सम्भावित विशाल शक्ति वाला देश है। यह विश्व में अधिक जनसंख्या (मानव-शक्ति) वाला दूसरा देश है। एशिया में भी इसकी स्थिति सामरिक महत्त्व (Strategic) की है। यह तीसरे विश्व तथा गुटनिरपेक्ष देशों का एक महत्त्वपूर्ण नेता है। आज यह विकासशील देशों में सबसे अधिक विकसित देश है। विश्व की कुल प्रशिक्षित मानव शक्ति का 1/3 भाग वाला तकनीकी रूप से विकसित राष्ट्र के रूप में दसवां स्तर रखने वाला तथा परमाणु शक्ति सम्पन्न भारत, अमरीका की दृष्टि में अत्यधिक महत्वपूर्ण हो रहा है। 1971 के बाद अमरीका की विदेश नीति ने भारत को दक्षिण एशिया की एक बड़ी शक्ति माना। वर्तमान समय में भी अमरीका विश्व में भारत की बढ़ रही शक्ति को स्वीकार कर रहा है। भारत एक सम्भावित आर्थिक एवं राजनीतिक शक्ति है। काफी प्रतिकूल सामाजिक, आथिक, राजनीतिक परिस्थितियों के बावजूद भारत ने लगातार लगभग 5-6% की दर से विकास किया है। यह विकासशील देशों में से अब अधिक विकसित देश है तथा इसने अपने प्रयत्नों से काफी तकनीकी विकास किया। सूचना तकनोलोजी में विश्व का नेतृत्व करने में सक्षम है अतः अब अमरीकी विदेश नीति भारत को एक स्वतंत्र शक्ति केन्द्र के रूप में पहचानती है। उत्तर-शीत युद्ध काल में भारत के साथ सम्बन्धों के महत्त्व को अमरीकी नेतृत्व अब स्वीकार कर रहा है। इसी प्रकार भारत भी अमरीका को दुनिया का सब से अधिक शक्तिशाली तथा विकसित देश मानता है जो भारत को, भारतीय समाज के आर्थिक-सामाजिक विकास में सहायता प्रदान कर सकता है।
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भारत एक उभर रही प्रमुख आर्थिक शक्ति-
उत्तर-शीत युद्ध काल में विश्व अन्तर्राष्ट्रीय व्यवस्था में आर्थिक राजनीति तथा आर्थिक व्यापार प्रमुख मुद्दे बन कर उभरे हैं। विभिन्न देशों, भू०पू० समाजवादी देशों सहित, नई बाजार अर्थव्यवस्था, उदारीकरण, विश्वीकरण तथा खुली-स्पर्धा के सिद्धांतों को अपनाकर अपनी आर्थिक नीतियों, प्रोग्रामों तथा प्राथमिकताओं में गहरे परिवर्तन किये हैं। 1991 के बाद ऐसे ही आर्थिक परिवर्तन भारत में भी हुए हैं तथा इनसे भारत में भी आर्थिक विकास की प्रक्रिया में एक नई गतिशीलता आई है। यह विश्वास पैदा हुआ कि भारत विश्व में एक आर्थिक और राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरेगा और इस दिशा में भारत उभर भी रहा है। वास्तव में भारत, सीमाओं के बावजूद, लगातार लगभग 5-6% की दर से अपनी स्वतंत्रता के पश्चात् विकास करता आया है। अब अमरीका भारत को एक उभरती हुई सम्भावित बड़ी आर्थिक और सैनिक शक्ति के रूप में देख रहा है। इसी कारण भारत के साथ आर्थिक, व्यापारिक तथा औद्योगिक सम्बन्धों का तेजी से विकास करना चाहता है। भारत ने अपने आर्थिक तथा औद्योगिक विकास में अमरीका की सम्भावित भूमिका को स्वीकार किया है। इसी कारण आज 21वीं शताब्दी में भारत तथा अमरीका के सम्बन्धों, विशेषकर आर्थिक क्षेत्र के सम्बन्ध में एक नई तेजी तथा आशा दिखाई देती है।
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नकारात्मक तत्व
मित्रता की तीव्र इच्छा तथा उपरिलिखित सकारात्मक तत्वों की विद्यमानता के बावजूद, भारत तथा अमरीका के सम्बन्ध 1947-99 के दौरान आशा अनुकूल अधिक अच्छे नहीं बन पाये हैं। शुरू-शुरू में एक दूसरे की वस्तुगत समझ न होने, भारत की स्वतंत्रता के प्रारम्भिक वर्षों में भारत में अमरीका की रुचि कम होने तथा विदेश नीति के झुकावों तथा उद्देश्यों में अन्तर होने के कारण तथा बाद में कुछ अन्तर्राष्ट्रीय समस्यायें तथा मामलों पर गहरे मतभेदों ने भारत तथा अमरीका के सम्बन्धों को मधुर तथा गहरे सम्बन्धों में नहीं बदलने दिया। कुछ अवरोधक तत्वों ने दोनों देशों के बीच सम्बन्धों के क्षेत्र को सीमित तथा गति को धीमा ही बनाए रखा।
इनको नकारात्मक तत्व कहा जाता है, जिनकी विवेचना निम्नवत् है-
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एक दूसरे के प्रति प्रारम्भिक वर्षों में स्पष्ट दृष्टिकोण का न होना-
पहले-पहल अमरीका के भारत के प्रति दृष्टिकोण में स्पष्टता का अभाव था। अमरीका लोगों को सामान्यतः या तो भारत के प्रति ज्ञान नहीं था या फिर इसके प्रति गलत धारणाएं थीं। टी०वी० कुन्ही कृष्णन के शब्दों में, “क्रिस्टोफर कोलम्बस” ने भारत की अथाह धनराशि तक पहुंचने के लिए निकटतम रास्ते की खोज के दौरान जब 1492 ई० में अमरीका को खोजा था तब से लेकर अमरीका के लोग भारत के रोमांचकारी रूप की कल्पना करते रहे हैं- महाराजाओं की,जादूगरों (सपेरों) की, रहस्यवादियों की तथा जाति-पाति के बंधनों में जकड़े, दरिद्र-पिछड़े हुए लोगों वाले भारत की कल्पना। अमरीका की दृष्टि में भारत का यह रूप भारत पर ब्रिटिश धर्म प्रचारकों तथा साहित्य के प्रभाव के कारण बना।
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राष्ट्रीय हितों के उद्देश्यों में विभिन्नता-
अमरीका तथा भारत के बीच मैत्रीपूर्ण तथा स्नेहपूर्ण सम्बन्धों में 1947-98 के दौरान एक अन्य रुकावट रही- दोनों ही देशों के राष्ट्रीय हितों में भिन्नता। अपनी स्वतंत्रता के बाद भारत ने अपने क्षेत्र में अपने आप को एक स्वतंत्र शक्ति केन्द्र की भूमिका के लिए चुना। उसकी इच्छा थी कि वह दक्षिण एशिया तथा एशियाई सम्बन्धों में मुख्य भूमिका निभाए। भारत की कोई क्षेत्रीय तथा विस्तारवादी आकाक्षाएं न थीं परन्तु उसने अपने सामरिक महत्त्व, भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति तथा विकास की शक्ति को पहचानते हुए अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों में अपनी मुख्य भूमिका का अनुमान लगा लिया था। श्री जवाहर लाल नेहरू ने मुखरता से अपने विचारों का प्रकटीकरण करते हुए यह कहा था, “एशियाई सुरक्षा केवल महाशक्तियों का ही खेल नहीं तथा इसमें भारत तथा चीन की भूमिका निश्चित है।” या कि, “एशिया के देशों को दूसरे कठपुतलियों की तरह प्रयोग नहीं कर सकते।” एक बार उन्होंने निर्भीकता से यह घोषणा की थी कि “भारत को एशिया में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी है।” तथा ‘अगर अपने मध्यपूर्व, दक्षिण तथा दक्षिण एशिया, तथा सुदूर-पूर्व के क्षेत्रों से सम्बन्धित कोई प्रश्न करना है तो भारत अनिवार्य रूप से सामने आएगा।”
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अमरीका की भारत में प्रारम्भिक रुचि का अभाव-
भारत की स्वतन्त्रता के प्रारम्भिक वर्षों में अमरीका ने भारत के साथ अपने सम्बन्धों के विकास की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। ऐसा आंशिक रूप से यूरोप में शीत युद्ध में अमरीका के शामिल होने तथा अपनी शक्ति को निरन्तर बने रखने के उसके प्रयत्नों तथा भारत में उसकी रुचि न होने के कारण हुआ। अमरीका की दृष्टि में भारत अधिक महत्त्वपूर्ण नहीं था। इसे पिछड़ा हुआ, निर्धन तथा आश्रित देश माना जाता था जिसने अवश्य ही अपनी आर्थिक सहायता तथा साम्यवाद के विरुद्ध अपनी लोकतात्रिक शक्तियों को सुदृढ़ करने के लिए स्वयं अमरीका की गोद में आ जाना था। साम्यवादी देश के रूप में चीन के प्रादुर्भाव के बाद ही अमरीका भारत के साथ सम्बन्ध बनाने के महत्त्व को समझ सका । परन्तु इस स्थिति में भी कुछ एक अवरोधक तत्त्वों तथा कुछ नकारात्मक तत्वों ने भारत-अमरीका सहयोग को पनपने नहीं दिया। 1970 के बाद अमरीका ने अपने विदेशी सम्बन्धों में चीन को अधिक महत्त्व देना आरम्भ कर दिया।
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1945-90 के काल में विदेश नीति सिद्धांतों का विरोध-
शीत युद्ध तथा सुरक्षा सन्धियां बनाम गुटनिरपेक्षता- युद्धोत्तर काल में जब शीत युद्ध आरम्भ हो गया तो अमरीका के टूमैन प्रशासन की यह धारणा बन गई थी कि विश्व को साम्यवाद से खतरा है तथा सोवियत संघ दूसरे देशों में साम्यवाद को लाकर अपना विस्तार करना चाहता है। पूर्वी यूरोप में साम्यवाद का विस्तार हुआ था तथा 1949 ई० में एशिया में साम्यवादी देश के रूप में चीन के प्रादुर्भाव से साम्यवाद के प्रति अमरीका की आशंकाओं को और बल मिला था। अमरीका के विदेश नीति निर्माताओं ने, ‘साम्यवाद का नियन्त्रण’ को अमरीका की विदेश नीति का मुख्य उद्देश्य बना लिया था। उन्होंने पश्चिम की शक्ति को सभी मोर्चों पर प्रदर्शित करने की योजना को अपना लिया। बाद में अमरीका के राज्य सचिव जॉन फॉस्टर डलेस ‘भारी प्रतिकार’ के सिद्धान्त के साथ सामने आए। अमरीका की विदेश नीति (i) साम्यवाद का विरोध करने, (ii) संधियों द्वारा अमरीका की स्थिति को सुदृढ़ करने तथा (iii) पश्चिमी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए सक्रिय हो गई। अमरीका की इस प्रकार की कार्यवाही के प्रत्युत्तर में सोवियत संघ ने भी ऐसे ही साधन अपनाए।
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कश्मीर का मुद्दा-
कश्मीर के मुद्दे पर अमरीका के पक्षपातपूर्ण रवैये, विशेषकर1947-48 के समय में भारत ने हमेशा ही विरोध किया है। कश्मीर पर पहले पाकिस्तानी आक्रमण के बाद भारत ने जनवरी, 1948 में भारत तथा पाकिस्तान के बीच कश्मीर की समस्या को शान्तिपूर्ण निपटारे के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ में पेश किया। भारत को आशा थी कि अमरीका, कश्मीर, जिसका वैध रूप से भारत में विलय हुआ था, के प्रश्न पर भारत का समर्थन करेगा। इसके विपरीत अमरीका ने कुछ कारणों से पाकिस्तान का समर्थन करना अच्छा समझा। अमरीका का पाकिस्तान को समर्थन उस समय खुल कर स्पष्ट रूप से सामने आया जब सन् 1954 में पाकिस्तान अमरीका की सुरक्षा संधियों सीटो तथा सैटों (SEATO & CENTO) में शामिल हो गया। परिणामस्वरूप 1957,1962 तथा फिर 1964 में पाकिस्तान द्वारा संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद् में कश्मीर की समस्या को फिर से उठाने के प्रश्न को अमरीका का पूर्ण समर्थन मिला। पाकिस्तान का समर्थन करते हुए अमरीका ने इसके पक्ष में कुछ तर्क भी दिए जो पूर्णरूप से भारत की विचारधारा के तथा भारतीय लोकतन्त्र के कुछ मूलभूत सिद्धान्तों के विरुद्ध थे। अमरीका ने हिन्दू भारत तथा मुस्लिम पाकिस्तान आदि शब्दों का प्रयोग किया तथा उसका विश्वास था कि कश्मीर में क्योंकि मुसलमानों का बहुमत है इसलिए उन्हें आत्म-निर्णय का अधिकार दिया जाना चाहिए। यह भारतीय धर्मनिरपेक्षता के तथा इस भारतीय मत के भी कि भारत के राज्य प्राप्ति दस्तावेज पर हस्ताक्षर करने के बाद कश्मीर भारत का एक हिस्सा बन चुका था, के विरुद्ध था। इस प्रकार कश्मीर समस्या पर मतभेदों ने भारत-अमरीका सम्बन्धों को गम्भीर रूप से प्रभावित किया।
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अमरीकी सुरक्षा व्यवस्था का दक्षिण एशिया तक विस्तार-
युद्धोत्तर काल में एशिया में बढ़ती हुई साम्यवादी शक्ति को रोकने के लिए तथा अपनी प्रमुख सैनिक स्थिति को बनाए रखने के अमरीका के प्रयत्नों का भारत ने विरोध किया। सन् 1953 में अमरीका ने एशिया के एक राज्य पाकिस्तान के साथ सन्धि सम्बन्ध बनाने के लिए बातचीत की। अमरीका ने, साम्यवादी चीन तथा रूस को विरुद्ध सैनिक आधार कायम करने के लिए पाकिस्तान भौगोलिक स्थिति को अपने लिए श्रेष्ठ समझा। 1954 ई० में पाकिस्तान अमरीका की सुरक्षा सन्धि SEATO का सदस्य बन गया तथा 1955 ई० में यह मध्य-पूर्व सुरक्षा व्यवस्था बगदाद समझौता में शामिल हो गया था इस प्रकार यह अमरीका का ‘साम्यवाद को नियन्त्रण’ करने की नीति का एक भाग बन गया। पाकिस्तान अमरीका से काफी सैनिक सहायता प्राप्त करने लगा तथा अमरीका को पाकिस्तान में अपने हवाई अड्डे स्थापित करने का अवसर मिल गया। बाद में यह जासूसी के केन्द्र बन गए। अमरीका की इस नीति से दक्षिणी एशिया में उसकी शक्ति का विस्तार हुआ। यह सब कुछ भारत की गुट निरपेक्षता की नीति के बिलकुल विरुद्ध था। भारत यह अनुभव करने लगा कि अमरीका की इस प्रकार की नीति से एशिया में शीत युद्ध शुरू हो जाएगा तथा इस प्रकार शांति खतरे में पड़ जाएगी। इसके अतिरिक्त अमरीका द्वारा पाकिस्तान को दिए जाने वाले भारी मात्रा में आधुनिकतम शस्त्रों ने भी भारत को चिन्तित कर दिया। भारत को विश्वास था कि इस प्रकार के शस्त्रों की प्राप्ति से पाकिस्तान का भारत के प्रति व्यवहार कठोर होगा तथा पाकिस्तानी नेता भारत तथा पाकिस्तान के मध्य झगड़ों का, विशेषतया कश्मीर के झगड़े का, सैनिक हल ढूंढ़ने के लिए उत्साहित होंगे। यद्यपि आइजनहावर प्रशासन ने भारत को यह विश्वास दिलाया कि जो शस्त्र पाकिस्तान को भेजे जा रहे हैं उनका प्रयोग केवल साम्यवाद के विरुद्ध ही किया जाएगा, फिर भी भारत पाकिस्तान को इस बढ़ती सैनिक शक्ति से अपनी सुरक्षा को खतरा अनुभव करने लगा। भारत को इस प्रकार की दुश्चिन्ताएं उस समय सत्य सिद्ध हुई जब 1965 ई० में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण कर दिया तथा अमरीका द्वारा दिए गए शस्त्रों का भारत के विरुद्ध प्रयोग किया। अभी भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष साधनों द्वारा अमरीकी शस्त्र पाकिस्तान को प्राप्त हो रहे हैं। चीन मिसाइल तकनोलोजी हस्तांतरण व्यवस्था की उल्लंघना करके पाकिस्तान को मिसाइलों तथा अन्य शस्त्रों की आपूर्ति कर रहा है और अमरीका इस तथ्य को अभी तक अनदेखा ही कर रहा है। इस प्रकार एशिया, विशिष्ट रूप से दक्षिणी एशिया के प्रति अमरीका की नीति के कारण भारत तथा अमरीका के बीच मतभेद अत्यधिक बढ़े तथा गहरे रहे हैं।
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दक्षिण-पूर्वी एशिया के विषय में मतभेद-
दक्षिण-पूर्वी एशिया क्षेत्र में अमरीका की नीति शक्ति प्रयोग या शक्ति प्रयोग की धमकी की नीति थी। स्वाभाविक रूप से ही यह भारत की शांति तथा दक्षिण-पूर्वी एशिया में अहस्तक्षेप की नीति के विरुद्ध था। परिणामस्वरूप भारत तथा अमरीका इस क्षेत्र में एक दूसरे के उद्देश्यों के विपरीत काम करने लगे। कभी-कभी तो एक दूसरे के हितों को हानि पहुंचाने के लिए भी। भारत ने तो सदैव ही इस क्षेत्र के बहुत से देशों में चलने वाले राष्ट्रीय आन्दोलनों का समर्थन किया था जबकि अमरीका ने केवल गैर-साम्यवादी आन्दोलनों का ही समर्थन किया था। अमरीका औपनिवेशिक शक्तियों का भी समर्थन करता रहा जो कि साम्यवादी देशों द्वारा समर्थित स्वतन्त्रता आन्दोलनों को समाप्त करने के प्रयल कर रही थी। दृष्टिकोण का यह मतभेद भी भारत-अमरीका के बीच सम्बन्धों के सुधार में बाधक बना रहा।
महत्वपूर्ण लिंक
- भारत-पाकिस्तान के संबंध को प्रभावित करने वाले कारक (1947 के बाद)
- कश्मीर की समस्या की उत्पत्ति एवं भारत-पाक सम्बन्धों पर इसका प्रभाव
- 1971-80 के मध्य भारत-पाक सम्बन्ध एवं युद्ध के कारण
- ताशकंद घोषणा-पत्र तथा भारत-पाकिस्तान संबंध
- शिमला समझौता एवं उसकी मुख्य धाराएँ
- भारत पाकिस्तान सम्बन्धों की प्रकृति एवं इतिहास
- भारत-पाक का अनाक्रमण संधि
- लाहौर घोषणा, संयुक्त वक्तव्य एवं समझ का स्मरण-पत्र (February 1999)
- भारत-नेपाल सम्बन्ध (जून 1991 से अब तक)
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