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दिल्ली सल्तनत में अक्ता (प्रांतीय) व्यवस्था

अक्ता का अर्थ, विकास और दिल्ली सल्तनत में उसका प्रचलन

दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक व्यवस्था अपने पूर्वगामी राजपूत सामंती राज्यों से भिन्न थी। मूलतः यह भिन्नता दो विषयों में दृष्टिगत होती है: (1) अक्ता, अर्थात् हस्तांतरणीय लगान अधिन्यास और (2) शासक वर्ग का स्वरूप मध्यकालीन भारत के प्रारम्भ में तुर्की शासन की राजनीति दो मूलभूत तत्वों पर आधारित थी और ये दोनों ही तत्व स्वतंत्र रूप में विकसित हुए थे। इनमें से प्रथम तत्व अक्ता और दूसरा खराज (गैर-मुस्लिम जनता पर लागू भूमि कर) है। अक्ता के प्रशासकीय ढाँचे के अंतर्गत किसी क्षेत्र से स्थायी संबंध न होते हुए भी शासक वर्ग के लिए वहाँ से आय की व्यवस्था हो जाती थी। साथ ही यह प्रणाली शासक वर्ग की सामाजिक स्थिति तथा उनके राजनीतिक प्रभाव के निर्धारण का आधार भी बनी रहती थी।

अक्ता का अर्थ

यहाँ पर यह समझ लेना आवश्यक है कि ‘अक्ता’ एक अरबी शब्द है जिसे एक प्रकार के प्रशासकीय अधिकार प्रदान करने के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता था। किन्तु अक्सर इस शब्द को भ्रामक अनुवाद के कारण यूरोप में प्रचलित ‘फीफ’ (जागीर) शब्द के अर्थ में प्रयुक्त किया जाता रहा है। मुस्लिम राज्य के अस्तित्व में आने के बाद प्रारम्भिक कुछ शताब्दियों में राज्य के अन्तर्गत विभिन्न भू-भागों को विशिष्ट खंडों में वितरित किया जाता रहा। इस विशिष्ट खंड को ‘कता’ (kata) कहा जाता था। राज्य के भू-भाग वास्तव में अर्धस्वाभित्वशाली उस्र (tithe) अदा करने की शर्तो पर प्रदान किए जाते थे। मुस्लिम दुनिया के विस्तार के साथ ही राज्य का सैनिक उत्तरदायित्व भी बढ़ गया। शक्तिशाली सेना रखने के लिए अधिकाधिक भू-भाग की आवश्यकता पड़ने लगी। इसके परिणामस्वरूप एक नई व्यवस्था ने जन्म लिया, जिसे अक्ता कहा गया। विद्वान् मानते हैं कि अक्ता शब्द की उत्पत्ति उसी मूल अरबी धातु से हुई जिससे क्रताईया शब्द बना है। इस प्रकार इस्लाम धर्म के प्रारम्भ से ही राज्य की सेवा करने के बदले पुरस्कारस्वरूप अक्ता प्रदान करने का प्रचलन हो चुका था। सामान्यतया ऐसा माना जाता है कि अब्बासी खलीफाओं (754-861) के अंतर्गत आर्थिक तथा सामाजिक परिवर्तन ने वह पृष्ठभूमि प्रस्तुत की जिससे दसवीं शताब्दी में मुस्लिम दुनिया में भूमि प्रदान करने की प्रथा का आविर्भाव हुआ। इसके बाद अब्बासी खलीफाओं की शक्ति का हस हो जाने के कारण छोटे राज्यों के शासकों ने भी इस प्रणाली को अपनाया। खलीफा ने राज्य के असैनिक अधिकारियों को वेतन देने तथा अपने सैनिक अभियान के खर्च को पूरा करने के लिए अक्ता प्रणाली विकसित की। अधिकारी वर्ग तथा सेना को वेतन देने के लिए धन प्राप्त की कठिनाई इतनी अधिक बढ़ गई कि अंततोगत्वा प्रशासकीय ढाँचा ही लड़खड़ा गया। इस वित्तीय कठिनाई के निदान के लिए सैनिकों एवं सैनिक अधिकारियों को वे भू-खंड बाँटे जाने लगे, जो अक्ता कहलाते थे। अक्ता प्राप्त व्यक्ति उक्त भू-खण्डों के मालिक नहीं थे वरन् केवल उसके लगान का ही उपयोग कर सकते थे। इसके परिणामस्वरूप आगे चलकर आबंटन व्यवस्था (farming of taxes) भी स्थापित हुई। खलीफा अल-मजमून के शासन काल (833 ई0) में सेनानायकों को उनके वेतन के बदले विषेष भू-खंउ का राजस्व या लगान आवंटित किया जाने लगा।

किसी सेनानायक को एक बड़े इलाके की कर-वसूली का अधिकार प्राप्त होने पर वह अधिक आसानी से अपने को अर्ध-स्वतंत्र रूप में स्थापित करने का अवसर पा जाता था। इस वजह से राजस्व-प्राप्ति अनियमित होने पर भूमि-संबंधी अधिकार ही उसे प्रदान किया जाने लगा। दूसरे शब्दों में, करों में, लाभांश देने की प्रथा इतने व्यापक स्तर पर चल पड़ी कि भू-राजस्व-प्रणाली में यही एकमात्र व्यावहारिक परिपाटी बन गई। सैनिकों को (भूमि-संबंधी) विशेष अनुदान देने की यह प्रथा अक्ता नाम से विख्यात हुई बूइदों (945-1055ई0) वे अंतर्गत केवल ईराक तथा इसके निकटवर्ती क्षेत्रों में ही राज्य का सैन्यीकरण नहीं हुआ वरन् पूर्व के मापमानी (874-999ई०) तथा विशेष रूप से गजनवी (999-1040) शासकों ने इसे और  भी अधिक आश्रय दिया।

बूइदों के समय में जिस व्यक्ति को सैनिक अक्ता प्रदान की जाती थी वह अपने क्षेत्र-विशेष में नहीं रहता था, बलिक वह अपने एजेंटो (प्रतिनिधि) को ही कर वसूली के लिए भेजता था। सैद्धांतिक रूप से यह अक्ता प्रणाली वंशानुगत प्रणाली नहीं थी। समय-समय पर इन अक्ताओं का पुनर्वितरण होता था तथा पदाधिकारी को सैनिक सेवा के लिए प्रस्तुत रहना पड़ता था। सिद्धांततः विस्तृत नियमों का पालन करना उसके लिए आवश्यक था और उसका निरीक्षण भी किया जाता था। अक्ता के अधिकारी अमीर सैनिकों को वेतन देने की जिम्मेदारी से मुक्त थे, क्योंकि ये सैनिक राज्य से ही वेतन अथवा ‘अक्ता’ प्राप्त करते थे। कानून के अनुसार मुक्ता (अक्ता-प्राप्त अधिकारी) को वहाँ के निवासियों के संबंध में न्यायिक अधिकार नहीं मिलता था किन्तु बूइदों के अंतर्गत व्यवहार में सभी ने इस अधिकार को हथिया लिया था। प्रांतीय शासक, सैनिक कमांडर, राजस्व वसूल करने तथा उससे लाभांश प्राप्त करने वाले अधिकारी और अक्ता के विभिन्न कार्य-भार एक ही व्यक्ति में सन्निहित होने के कारण वास्तविक रूप से सरकार से स्वतंत्र एक विशाल भू-स्वामित्व वग का आविर्भाव हुआ। अपने ही प्रांत के किसी क्षेत्र में अक्ता प्राप्त होने के कारण भी मुक्ताओं के वास्तविक अधिकार की वृद्धि में सहायता मिली। जहाँ कहीं भी इस तरह की स्थिति होती थी वहाँ मुक्ता के आर्थिक अधिकार तथा प्रांतीय शासन की शक्ति एक ही व्यक्ति में केंद्रित हो जाती थी और ये शासक व्यवहारतः दोनों प्रकार के अधिकारों का सम्पूर्ण प्रान्त में प्रयोग करते थे। बूइदों के समय में इस प्रकार के भी उदाहरण मिलते हैं कि ‘मुक्ता’ को अपने पद विशेष के अतिरिक्त प्रांतीय गवर्रन के प्रशासकीय कार्यों तथा दायित्वों को भी सौंप दिया जाता था। किन्तु एसे अक्ता बूइदों के समय में अपवाद रूप में ही मिलते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि सल्जुक काल के पहले इसका प्रचलन व्यापक स्तर पर नहीं हो पाया था।

दिल्ली सल्तनत में अक्ता प्रथा

हिंद-फारसी ग्रंथों में भावी सेवा की शर्तों पर राजस्व-हस्तांतरण के रूप में अक्ता को परिभाषित किया गया है। पुनर्हस्तांतरण के सिद्धांत पर आधारित इसी राजस्व संबंधी नियुक्ति की प्रथा का दिल्ली सल्तनत की राजनीतिक व्यवस्था में बड़ी सतर्कता से अनुकरण किया गया। ऐसा प्रतीत होता है कि अक्ता-प्रथा जिस रूप में भारत पहुँची उसका प्रारूप सर्वप्रथम खलीफा मुक्तादिर ने इस उद्देश्य से बनाया था कि उसे अपने खिलाफत (राज्य) के विभिन्न क्षेत्रों पर नियुक्त मुक्ताओं से नियमित रूप से राजस्व प्राप्त होता रहे। ये मुक्ता लोग अपने प्रदेश के सम्पूर्ण राजस्व की वसूली करते थे और प्रशासन तथा सैनिकों के वेतन-संबंधी व्ययों के बाद बचे हुए धन में से एक निश्चित राशि को उन्हें बगदाद के दरबार में भेजना पड़ता था। हिन्दुस्तान में भूराजस्व अनुदान की ये मूलभूत विशेषताएँ सल्तनत के प्रारम्भ से अंत तक बनी रहीं। अक्ता के विभिन्न रूप इस प्रकार थे :

  1. प्रांतीय शासक को अक्ता के रूप में सम्पूर्ण प्रांत प्रदान करना तथा उस्र (दशमांश शुल्क) अथवा खराज अथवा लगान (खराज-ए-उजरा) या व्यक्तिगत करों (Poll tax)-जो बाद में खराज में परिवर्तित कर दिए गए-से प्राप्त लाभ के बदले कुछ कृषि-भूमि का अनुदान।
  2. वेतन अथवा पेंशन के रूप में किसी भू-भाग के राजस्व का हस्तांतरण किन्तु यहाँ अघ्क्ता की सैद्धांतिक विचारधारा को व्यापक बनाया गया। सीमा-शुल्क (कस्टम) नदियों तथा नहरों से प्राप्त शुल्क तथा महसूल संबंधी राजस्व की ठेकेदारी (farming of taxes) को अक्ता में शामिल किया जाने लगा।

उपर्युक्त सभी प्रकार की अक्ताओं में प्रशासकीय अक्ता का ही सर्वाधिक महत्व था। यह निस्संदेह सैनिक अनुदान (military grant) था किन्तु इसके साथ कुछ प्रशासकीय दायित्व भी संलग्न थे। भारत में वे अक्ता सर्वाधिक प्रचलित थे जिसे मावर्दी ने अक्ता-ए-तमलीक (नियुक्ति द्वारा), हस्तांतरित अक्ता तथा अक्ता-ए-इस्तिगलाल (स्वभोगाधिकार संबंधी अक्ता) कहा है। इनमें प्रथम अथवा तमलीक का संबंध भूमि से था तथा दूसरा अर्थात इस्तिगलाल का तात्पर्य वृत्ति या वेतन से था। इस लेख में हमारे अध्ययन का मुख्य विषय अक्ता-ए-तमलीक ही है। अक्ता प्राप्त करने वाले अधिकारियों को मुक्ता, अमीर तथा कभी-कभी मलिक भी कहा जाता था। गोरी की विजयों के बाद शीघ्र ही उत्तर भारत में अक्ता-प्रथा स्थापित हो गई। गोर के मुहम्मद साम (मुहम्मद गोरी) ने कुत्बुद्दीन ऐबक को 1191 ई0 में हाँसी में नियुक्त किया तथा मलिक नासिरुद्दीन अस्ताम को कच्छ का प्रदेश प्रदान कर दिया। ऐबक का काल अत्यंत संक्षिप्त था (1206-1210)। इस कारण उसके अन्तर्गत अक्ता व्यवस्था के बारे में जानकारी प्राप्त नहीं होती। ऐसा प्रतीत होता है कि सन् 1210 में इल्तुतमिश के राज्यारोहण के साथ ही दिल्ली सल्तनत के शासन-तंत्र की आधारशिला के रूप में अक्ता-प्रथा स्थापित हुई। उसके शासनकाल के छब्बीस वर्षों में (1211-1236 ई0) मुल्तान से लखनौती के बीच सम्पूर्ण सल्तनत बड़े तथा छोटे भू-भागों में विभाजित हो गई जिन्हें अक्ता कहा जाता था और जो मुक्ता नामक विशिष्ट अधिकारी के प्रशासन के अन्तर्गत थे। इस प्रकार अक्ता की दो श्रेणियाँ थीं- पहली खालसा के बाहर प्रांतीय स्तर की अक्ता तथा दूसरी कुछ गाँवों के रूप में छोटी अक्ता। प्रांतीय स्तर की अक्ताएँ उच्च वर्ग के अमीरों को दी जाती थीं। राजस्व संबंधी तथा प्रशासकीय दोनों प्रकार के उत्तरदायित्व उनके पद से जूड़े होते थे। इन बड़ी-बड़ी अक्ताओं के धारकों को मुक्ता कहा जाता था। मिनहाज तथा बरनी ने समस्त उत्तरदायित्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों के संबंध में इसी मुक्ता शब्द का आम तौर पर प्रयोग किया है। कुछ गाँवों को जोड़कर बनी छोटी अक्ताओं को सुल्तान अपने द्वारा नियुक्त सैनिकों (Sawar-i-qalb) को वेतन के बदले दे देता था। इन अक्ताओं को खालसा का अंग माना जाता था। इन अक्तादारों को किसी प्रकार के प्रशासकीय अथवा आर्थिक उत्तरदायित्व नहीं दिए जाते थे। बरनी के अनुसार इल्तुतमिश के समय इस प्रकार के दो हजार अक्तादार थे जिनका कोई प्रशासकीय उत्तरदायित्व नहीं होता था।

खिलजी एवं तुगलक शासकों के अन्तर्गत इस प्रकार की नियुक्तियों का प्रचलन समाप्त होने लगा। प्रान्तीय प्रशासन में एक जटिल प्रणाली का समावेश करते हुए अक्ता प्रथा में पर्यान्त परिवर्तन किया गया। इस परिवर्तन के मूल में शिक्षक नामक एक नयी प्रणाली का अस्तित्व में आना स्वाभाविक था। इस प्रकार इन शासकों के अन्तर्गत अक्ता में कई एक परिवर्तन आये। तेरहवी शताब्दी के अग्रिम दशक के पहले मुक्ता लोगों ने असैनिक, सैनिक तथा आर्थिक मामलों में प्रशासकीय अधिकार का पूरा उपभोग किया। इसके बाद अक्ता प्रशासन पूर्ण रूप से उनके अधिकार में नहीं रह गया। राजस्व के मामले में वे आधिकाधिक केन्द्रीय शासन के नियन्त्रण में होते गये उन्हें संग्रहीत की गयी पूरी रकम तथा उसके व्यय का हिसाब पेश करना पड़ता था। वे अपने लिए तथा अपनी सेना के लिए केवल एक निश्चित राशि ही ले सकते थे, बाकी राशि उन्हें सुल्तान के खजाने में जमा करानी पड़ती थी।

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